शास्त्रविधि-पालनकी आवश्यकता
प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल १, संवत् १९९५, दिनाङ्क ३०। ५। ३८, प्रात:काल, कर्णवास
सबसे ऊँचा पुरुष परमात्माकी प्राप्तिवाला है। सबको यही ध्यान रखना चाहिये। इसी मनुष्यशरीरमें परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। हम भी प्रभुको प्राप्त हो सकते हैं। गृहस्थाश्रममें मनुष्य अपने धर्मका अच्छी तरह पालन करे तो वह भगवत्प्राप्ति कर सकता है। सबको अपने-अपने वर्णानुसार काम करना चाहिये।
तीर्थमें स्नान करना बड़े महत्त्वकी बात है, किन्तु गङ्गाजीमें जो मल-मूत्र त्याग करता है, वह अधिक पापका भागी है। गंगाजीके तटसे सौ कदम दूर मलमूत्र-विसर्जनके लिये जाना चाहिये। धोती भी गंगाजीमें नहीं निचोड़नी चाहिये।
स्त्रियोंका परम धर्म है कि अपने पतिके सिवाय किसीको पुरुष न समझे। सीताजीने तो हनुमान् जी के कंधेपर भी चढ़ना स्वीकार नहीं किया, जो हनुमान् श्रीरामजीके सेवक थे। जो पतिव्रता धर्मको चाहती है, उसे न दूसरेको छूना चाहिये, न किसीका नाम लेना चाहिये। उसे आठों प्रकारके मैथुनोंसे परहेज करना चाहिये। ऐसे ही पुरुषको चाहिये कि उसे अपनी पुत्रीके साथ भी एकान्तमें वार्तालाप नहीं करना चाहिये।
स्त्रियोंको तो शिवलिङ्गकी भी पूजा नहीं करनी चाहिये। उसे तो अपने पतिकी ही पूजा करनी चाहिये। अपने पिता, भाई, साधु इनको भी यदि प्रणाम करना हो तो दूरसे कर ले, छूकर नहीं। पतिके जीते-जी उसे अपने पतिके कथनानुसार ही कार्य करना चाहिये। जो स्त्री पतिको छोड़कर दूसरेको गुरु बनाती है, वह नरकमें जाती है। जो ऐसा कहते हैं कि बिना गुरुके कल्याण नहीं होता, उनकी आज्ञा कभी भी नहीं माननी चाहिये। स्त्रीके लिये स्वतन्त्रता बिलकुल उचित नहीं है, यदि पति उपवास न करता हो तो उसे बिलकुल उपवास नहीं करना चाहिये। अपने पतिकी आज्ञा भंग करके यदि कोई स्त्री सत्संगके निमित्त भी आती है तो भी उसका कल्याण नहीं हो सकता। यदि कोई स्त्री अपने पतिका उच्छिष्ट खाती है तो कोई दोषकी बात नहीं है, किन्तु यह काम ठीक नहीं है। साधु, महात्मा इत्यादिका भी उच्छिष्ट खाना ठीक नहीं है। बस, केवल परमेश्वरको छोड़कर उसे किसीका उच्छिष्ट नहीं खाना चाहिये। केवल परमेश्वरको छोड़कर किसीके भी चरणोंको धोकर उनका चरणामृत लेना ठीक नहीं है। उसे तो पश्चात्ताप ही करना पड़ेगा। यह मेरा मत है। समयका खयाल करके तो इन बातोंको समूल नष्ट कर देना चाहिये। ये सब काम पतनके हेतु हैं। हरेक भाईको, हरेक साधुको, हरेक ब्राह्मणको यह चाहिये कि कभी भी न स्त्रियोंको अपना चरणामृत दे और न कभी अपना उच्छिष्ट दे।
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
(गीता १६।२३)
जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धिको प्राप्त होता है, न परमगतिको और न सुखको ही।
जो शास्त्रके विपरीत काम करता है, वह कभी भी कल्याण नहीं प्राप्त कर सकता। कोई भी यह कहे कि चरणोंके जलपानसे मुक्ति हो जायगी तो मेरी समझमें तो यह बिलकुल विपरीत काम है। यदि मैं किसीको उच्छिष्ट खिलाकर मुक्ति देनेकी सोचूँ तो पहले तो मैं नरकमें जाऊँगा। इसलिये यदि आप अपना कल्याण चाहते हैं तो शास्त्रके अनुसार ही काम करना चाहिये। शास्त्रके विरुद्ध यदि कोई भी काम करता है तो उसकी कभी भी मुक्ति नहीं हो सकती।