जीवनी और अपने चित्रके प्रचारका निषेध
प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल २, संवत् १९९५, दिनांक ३१। ५। ३८, दोपहर, कर्णवास
महात्मा पुरुषके हृदयमें बड़ी भारी ज्ञानकी ज्योति जागृत रहती है। कोई मनुष्य अपनी जीवनीका जीते हुए प्रचार करे अथवा मरनेके बाद प्रचार करवानेकी व्यवस्था करे, उसके हृदयमें अन्धकार है। जो ऐसा नहीं चाहता है, उसके हृदयमें प्रकाश रहता है। जिसके हृदयमें अन्धकार नहीं है, वह तो अपना नाम, अपना प्रचार कुछ भी नहीं चाहता है। जो बहुत उच्चकोटिका महात्मा होता है, वह न अपनी जीवनीका प्रचार चाहता है न और कुछ चाहता है तथा जब वह मर जाय और उसके अनुयायी यदि उसका प्रचार करें तो वे भक्त नहीं हैं अथवा मूर्ख हैं। श्रीरामजीके जीवन-चरित्रके रहते हुए किसी औरके जीवन-चरित्रके प्रचारकी क्या आवश्यकता है? जीते हुए मनुष्य यदि अपने चित्रका प्रचार करे तो उसके हृदयमें अन्धकार है। उस चित्रका प्रचार करे जिससे उद्धार हो, वह चित्र प्रभुका है। प्रभुके चित्रोंका खूब प्रचार करना चाहिये। प्रभुका चित्र रहते हुए अपना चित्र पुजावे तो उसमें अभिमान है। उसकी इस शरीरमें अहंता, ममता है। ज्ञानके मार्गसे तो श्रीरामका चित्र ही अपना है। भक्तिके मार्गसे भी स्वामीका चित्र अपना है, इसलिये किसी भी मार्गसे अपने व्यक्तिगत चित्रका प्रचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। जो बात दुनियाके हितके उद्देश्यसे हो, उस बातका खूब प्रचार करो, क्योंकि महात्मा तो कहते हैं कि मेरा तो वचन है नहीं, शास्त्रोंका है, भगवान्का वचन है। गीता भगवान्का वचन है। जो ज्ञानी है उसको भी भगवान्का ही बताना चाहिये। नहीं तो लोगोंके भ्रम हो जाय। दुनिया जिस ढंगसे बातको ग्रहण करे, उसी ढंगसे दुनियाको समझावे, वह ज्ञानी है, नहीं तो अज्ञानी है। अपनी जीवनी, रूप, नाम इनका प्रचार नहीं करना चाहिये, क्योंकि पहले अवतार हुए हैं, उनसे तो अपना रूप-नाम बढ़िया है नहीं। जैसे आज मैं अपने चित्रका प्रचार करूँ और दूसरा कहे कि आप आज क्यों अपने चित्रोंका प्रचार करते हो। वास्तवमें तो मैं मान-बड़ाई चाहता हूँ, किन्तु कहता हूँ कि इससे दुनियाका हित होता है। ऐसा तो मूर्ख ही मानता है ज्ञानी कभी नहीं मानता, वह तो ईश्वरकी पूजासे दुनियाका हित मानता है। गीता भगवान्के वचन हैं, इसका खूब प्रचार करो, खूब पढ़ो, क्योंकि इसमें तो भगवान्के वचन हैं, हमारे घरकी तो है नहीं, शास्त्रका जितना प्रचार हो, उतना ही ठीक है। यह कह दे कि इनके प्रचारके साथ-साथ मेरा नाम भी लिख दो तो समझना चाहिये कि अन्धकार है। किसी भी प्रकार हो, केवल मात्र भगवद्विषयक बातोंके प्रचारकी ही आवश्यकता है। अच्छी बात तो छिपानेकी होती है और बुरी छपानेकी होती है तो फिर जीवनीकी क्या आवश्यकता है। हाँ, यदि छपानेकी आवश्यकता हो तो अपनी बुरी बातोंको छपवाओ, यदि वह अच्छी बातोंको छपाना चाहता है तो वहाँ अन्धकार है। यह तो कलंक ही है। खूब डिग्री, पदवियाँ छपवा दी तो भी महा अन्धकार है। यदि ब्रह्मके रूपमें स्थित है, भेद या अभेदरूपसे स्थित है तो वहाँ डिग्रियोंकी क्या कमी। इस प्रकार जो उसकी बड़ाई करना है तो उसे खड्डेमें गिराना ही है। इसलिये मान-बड़ाईको नहीं चाहना चाहिये।
गुरु जो बतलाये उसका प्रचार करना चाहिये, यदि गुरु कहता है कि मेरे चित्रोंका प्रचार करो तो गुरुके हृदयमें अन्धकार है, वह सच्चा गुरु नहीं है। महापुरुष तो यही चाहते हैं कि ईश्वरके नाम, रूपका प्रचार हो। वह अपने अनुयायियोंको भी यही कहेगा कि ईश्वरके नाम, रूप, गुणका प्रचार करो। हमारा गुरु जिसका प्रचार करना अच्छा समझता हो, जैसे श्रीरामका प्रचार कराना चाहता हो तो उसका ही प्रचार करना चाहिये। गुरुके चित्रका प्रचार करनेसे ही तो आजकल इतने मत-मतान्तर फैले हुए हैं।
मेरेपर यदि कोई धूल डाले तो उससे क्रोधका असर पड़ सकता है और यदि कोई फूल चढ़ावे और यदि वास्तवमें मुझे क्रोध आ जाय तो भी वह क्रोध परिणाममें बुरा नहीं है; क्योंकि वह क्रोध दोषोंको नहीं घुसने देगा। उस क्रोधका महत्त्व भी है, क्योंकि फिर दूसरे फूल नहीं गिरायेंगे। हाँ, जिस समय कोई धूल डाले उस समय यदि क्रोध करे तो बुरा असर पड़ सकता है।
मैं एकान्तमें बैठा हूँ और कोई स्त्री बात करनेके लिये आये, उस समय मैं यदि क्रोध करूँ तो कुछ भी आपत्ति नहीं। स्थल देखना चाहिये। जगह न्यायकी है अथवा नहीं। ये सब महत्त्वकी बातें हैं। आज आप मेरे लिये कोई वस्तु भेजें और मैं नहीं लूँ, तब आपको बहुत दु:ख होगा, किन्तु अन्तमें परिणाम अच्छा होगा, क्योंकि वहाँ मना करना सच्चा है। इन कामोंमें तो जितनी कड़ाई होगी, उतना ही अच्छा होगा और जितनी ढिलाई होगी, उतनी ही दु:खदायक है। अच्छे पुरुष तो सेवा ग्रहण करते नहीं फिर दुनियामें महापुरुषोंकी सेवा कैसे होगी? उनकी तो यही सेवा है कि उनकी कही हुई बातका अनुसरण करना। अच्छे पुरुषोंकी सेवा करना तो उनका धन छीनना है। वास्तवमें तो उनकी सेवा आज्ञाका पालन है। अच्छा पुरुष सेवा कराना बिलकुल नहीं चाहता। दूसरा सेवा करनेकी इच्छा रखता है तो उसकी उस इच्छासे जो लाभ होगा उतना सेवासे नहीं, क्योंकि बार-बार सेवा करनेसे अश्रद्धा पैदा होती है। इसी प्रकार जो सेवाका मौका देखे, किन्तु मिले नहीं तो वह इच्छा भी बड़ी लाभदायक है। पशु-पक्षियोंकी भी यदि सेवा करे तो भी बड़ी अच्छी बात है। भावकी प्रधानता होती है। कोई भी भिक्षुक है, वह हरेक बातमें ना-ना करता है तो श्रद्धा होगी और वही भिक्षुक दूसरे दिनसे माँगना प्रारम्भ कर दे तो श्रद्धा कम हो जाती है। भाव ऊँचा है, क्रिया नहीं। जो अच्छा पुरुष जितनी अधिक सेवा करायेगा, समझदार पुरुषोंकी उतनी ही श्रद्धा कम होगी। एक भाई परमात्माका सकाम ध्यान कर रहा है, एक तुलाधारकी तरह व्यापार कर रहा है, निष्कामभावसे कर रहा है तो दूसरा अच्छा है। तुलाधारका रस-विक्रयका व्यापार था, किन्तु भाव प्रधान है। जाजलिको घमण्ड था कि मेरे समान कोई नहीं है। आकाशवाणी हुई तेरेसे तो तुलाधार बहुत अच्छा है। घमण्ड चूर्ण हो गया। ध्यानसे कर्मफलका त्याग श्रेष्ठ है।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
(गीता१२।१२)
ध्यानसे भी सब कर्मोंका फलका त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि त्यागसे तत्काल ही परम शान्ति होती है।
स्वार्थको लेकर यदि कार्य हो तो गड़बड़ है। भावकी ही प्रधानता है।