वैराग्य और प्रेम
प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल २, १९९५, दिनांक ३१। ५। ३८, कर्णवास
वैराग्यके बारेमें तो वे ही कह सकते हैं जिनके बाहर-भीतरसे त्याग है। उनके मुँहसे ही वैराग्यका प्रवचन अच्छा लगता है। यथार्थमें तो मुझे बोलना आता ही नहीं। दो बात है—संसारसे वैराग्य और प्रभुसे प्रेम। प्रेम तो अनिर्वचनीय है। जब प्रेम होता है उस समय मनुष्य अपने-आपको सँभाल ही नहीं सकता। भगवान्के प्रेमकी चर्चा करना बड़ा उत्तम है। जिनका भगवान्में प्रेम हो जाता है, उनकी महिमा कोई नहीं गा सकता, जैसे भगवान्की महिमा कोई नहीं गा सकता। प्रेम ऐसा है, जिसके मूल्यमें भगवान् महापुरुष बिक जाते हैं। महात्मा लोग रुपयोंसे प्रसन्न नहीं होते, किन्तु प्रेमसे वे प्रसन्न हो जाते हैं। उस प्रेमका उपार्जन करना चाहिये। हमलोगोंका आपसमें जो स्वार्थरहित प्रेम है, वह भी प्रभुके लिये ही है, जैसे गोपियाँ परस्परमें प्रेम किया करती थीं। ग्वालबाल भी परस्परमें प्रेम किया करते थे। वे केवल प्रेमकी ही बातें किया करते थे। इसलिये हमको भी परस्परमें भगवत्प्रेमकी बातें करनी चाहिये। प्रेममयी भक्तिसे भगवान् आ जाते हैं।
नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
(गीता११।५३-५४)
जिस प्रकार तुमने मुझको देखा है—इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं न वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।
परन्तु परन्तप अर्जुन! अनन्यभक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज-रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ। अनन्य प्रेम वही है कि प्रभुको छोड़कर कोई बात न हो।
गौण, मुख्य और अनन्य प्रेम क्या है? अधिकांशमें मनुष्योंका गौण प्रेम भी नहीं है। जैसे एक भाई ध्यान करता है, किन्तु उसका मन चारों ओर घूम रहा है, यह तो गौण प्रेम भी नहीं है, हाँ, किञ्चिन्मात्र तो प्रेम है ही। कभी-कभी भगवान्की ओर मन चला जाता है। इसी प्रकार संसारके मनुष्योंका विषयोंकी ओर ज्यादा प्रेम है और भगवान्में गौण है। जिसका विषयोंमें प्रेम गौण है और भगवान्की ओर मुख्य है, उसके आनन्दका कोई ठिकाना नहीं रहता और जिसका केवल भगवान्में प्रेम है, संसारका काम होता हो अथवा न हो, उसे तो अपना भी पता नहीं चलता। गोपियाँ कहती हैं—दही ले लो, दूध ले लो, ऐसा कहते-कहते कहती हैं—गोविन्द ले लो, माधव ले लो—यह प्रेम है। सुतीक्ष्णजी भी मार्ग भूल गये, मैं कौन हूँ, यह भी याद नहीं रहा, यह अनन्य प्रेम है। हमलोगोंको ऐसा प्रेमी होनेका प्रयत्न करना चाहिये। भगवत्प्रेमीका तो दर्शन भी दुर्लभ है। प्रह्लादका भगवान्में अनन्य प्रेम है। आग, समुद्र सबमें प्रभुका ही दर्शन कर रहा है। ‘नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि’ प्रह्लादके शरीरको न आग जला सकी, न शस्त्र ही कुछ कर सका।
वैराग्यवान् के दर्शनसे मनुष्यके हृदयमें वैराग्य हो जाता है। मंगलनाथजी महाराजके दर्शनने मेरेपर बड़ा अधिकार जमा लिया। उनकी वैराग्य और उपरामताकी मुद्राको देखकर मैं चकित हो गया। जहाँ सांसारिक बातें चलतीं, वहाँसे शिव-शिव करते चले जाते। उनका व्यवहार ही शिक्षाप्रद था। मनुष्य यदि ऐसा न बने तो फिर उसने क्या किया। ऐसी बात याद आनेपर इच्छा होती कि मैं भी वनमें जाऊँ। इस प्रकार भाव उत्पन्न हुआ। यह भाव पैदा देखकर पिताजीने सोचा, यह अपनी भार्याके पास जाता है अथवा नहीं। तब मेरे मित्र हनुमानबक्स गोयन्दकाको यह बात पिताजीने कही कि इसकी प्रवृत्ति भोगोंमें हो, ऐसी चेष्टा करो। भाई हनुमानने इत्रका डिब्बा मँगाया।
स्त्रियोंकी तरफ मन जाये तो समझना चाहिये कि यह तो विष्ठा, मूत्रका ढेर है, अनित्य है। इससे बुद्धि, तेजका विनाश हो जाता है, आयुका नाश हो जाता है। इस प्रकार मनको भय दिखलाकर बचना चाहिये। यह भी न हो तो प्रभुसे प्रार्थना करनी चाहिये कि प्रभो! रक्षा कीजिये, इस प्रकारकी बातें प्रभुसे कहनी चाहिये।
इसके बाद जब मैं बाँकुड़ा गया तो फिर वे वृत्तियाँ उतर गयीं, वहाँ जाकर हठयोग देखा तो फिर योग करनेकी इच्छा हुई, अन्तमें फिर वही दशा हो गयी। अब मुझे वह इत्र पेशाबके समान दिखायी देने लगा, क्योंकि उस समय वैराग्य था। वह वैराग्यकी मूर्ति मैंने जो देखी थी, वह याद आनेसे वैराग्यकी प्रबल इच्छा हो जाती है—‘वीतरागविषयं वा चित्तम्’।
वीतराग पुरुष ही विषय है जिसके चित्तका, ऐसा यदि हो जाय तो फिर बस, कल्याण हो जाता है। जिस समय वैराग्य न हो, तब कोई भी युक्ति काम नहीं आती। जितने पदार्थ हमको रमणीक प्रतीत होते हैं, वैराग्यावस्थामें वे बड़े भद्दे लगते हैं। उस समय मनुष्यकी अवस्था बड़ी अद्भुत हो जाती है। एक वैराग्यके सिवाय फिर किसीकी इच्छा नहीं रहती। विषयोंका और विषयोंमें आसक्त पुरुषोंका संग करनेसे मनुष्य वैराग्यको नष्ट कर देता है। जिस समय साधु पुरुषोंका संग और सात्त्विक पदार्थोंका सेवन हो तो फिर वैराग्य उत्पन्न होता है। वैराग्यावस्थामें ध्यान बड़ा अच्छा लगता है। जैसा संग होता है वैसा ही रंग चढ़ता है, यह बात बिलकुल ठीक है। जब वास्तवमें वैराग्यका एक प्रकारका नशा-सा चढ़ता है, उस समय त्रिलोकीका ऐश्वर्य उसे धूलके समान, ब्रह्मलोकतकके भोग काकविष्ठाके समान लगते हैं। सबसे यही प्रार्थना है कि सब साधनोंकी जड़ वैराग्य है और भोग पतन करनेवाले हैं। वैराग्य हो करके ही स्थिरबुद्धिवाला होता है। राग-द्वेषसे रहित मन जिसके वशमें है, वह वशमें की हुई इन्द्रियोंद्वारा उस प्रसन्नताको प्राप्त करता है, जिस प्रसन्नतासे सारे दु:खोंका नाश हो जाता है और फिर परमात्मामें शीघ्र ही ध्यान लग सकता है।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता९।२६)
जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।
लोग नित्यप्रति भगवान्को भोग लगाते हैं, किन्तु भगवान् खाते ही नहीं। वहाँ प्रेमकी कमी है। जब प्रेमसे भगवान् प्रत्यक्ष हो जाते हैं, उस समयके उस प्रसादको खानेवालेका कल्याण हो जाता है। भगवान्की भक्ति, भगवान्का प्रेम जिनको प्राप्त हो जाय तो फिर मुक्ति तो उसके चरणोंमें ठोकर खाती रहती है।
जैसे भगवान्को याद करनेके साथ ही काम, क्रोध आदि भाग जाते हैं, उसी प्रकार महात्मा पुरुषोंके स्मरणसे ही वैराग्य हो जाता है। विघ्नोंका नाश तो भगवान् स्वयं करते हैं।
जिस समय वैराग्य आकर लहराता है, उस समयका आनन्द अद्भुत है, किन्तु विश्वास करना चाहिये। जिस समय वैराग्यवान् पुरुष चलता है तब मानो वैराग्यकी बाढ़ उसके साथ चलती है। वैराग्यमें कमी नहीं आने देनी चाहिये।
दधीचि ऋषिको इन्द्रका सुख शूकर, कूकर-जैसा लगता है। वैराग्यावस्थाका आनन्द अनिर्वचनीय है। जिसकी विषयोंमें आसक्ति है, उसका कल्याण नहीं हो सकता। मनुष्यमें यदि सब गुण हैं और वैराग्य नहीं है तो फिर कुछ भी नहीं है। वैराग्यवान् पुरुषके चरणोंमें बड़े-बड़े राजा लोग भटकते रहते हैं। जब-जब वैराग्य होता है, तब-तब साधना अपने-आप तेज होने लगती है। जब वैराग्य नहीं तो फिर लगानेपर भी ध्यान नहीं लगता।
जिस समय भगवत्प्रेमी बातें कहता है, तब मानो प्रेम-रसकी वर्षा कर रहा है। प्रभुके प्रेम-रसका जो पान कर रहा है, उस समय तो प्रभु मिले नहीं और जब मिल जायँ तो फिर कहा नहीं जाता—बेहोश हो जाता है, मुग्ध हो जाता है। ध्यानके दर्शनोंसे ऐसा प्रतीत होता है, मानो मैं प्रभुको पी रहा हूँ। प्रभुसे बातचीत होती है, तब मानो कर्णोंद्वारा पान कर रहा हूँ। मनके द्वारा पान कर रहा हूँ। यह स्थिति ध्यानावस्थाकी है और मिलनकी बात कही नहीं जा सकती। ऐसे प्रेमरसको छोड़कर विषयोंके रसमें जो रमता है, उसे लाखों बार धिक्कार है।