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महात्माके दर्शनसे लाभ

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल २, १९९५, दिनांक ३१। ५। ३८, प्रात:, कर्णवास

प्रेम और श्रद्धा करनेयोग्य तो परमेश्वर ही हैं। सब भूतोंसे स्वार्थरहित प्रेम करना परमेश्वरसे ही प्रेम करना है। प्रेमसे ही भगवान् मिलते हैं। प्रेमसे भगवान् बिक सकते हैं। प्रेम ऐसी चीज है कि जिसको जितनी उपमा दी जाय, उतनी ही दे सकते हैं। परमात्मा तो श्रद्धाके योग्य हैं ही, महात्मा पुरुष भी श्रद्धाके योग्य हैं। करोड़ोंमें कोई एक महात्मा पुरुष होता है। महात्मा अपने-आपको कभी महात्मा नहीं मानता। फिर साधारण पुरुष महात्माको कैसे पहचान सकता है। कोई उपाय बतलायें, जिससे हम उनको पहचान सकें। सबको खूब खयाल करना चाहिये। दो बात सबसे बड़ी होती है कि महात्मामें अपने-आपका किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ नहीं रहता। वह तो जो कर्म न्यायसे प्राप्त हो जाता है, उसीको कर देता है। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामचन्द्रजीका आदर्श सभीसे बड़ा है। जिसको अपना आचरण सुधारना हो, वह प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको आदर्श मानकर सुधार कर ले। महात्मासे अभिप्राय है परमात्माको प्राप्त पुरुष, वह चाहे किसी भी वर्णमें क्यों न हो। भगवान‍्की शरण लेनेसे चाहे शूद्र, स्त्री कोई भी हो, प्रभु उसे अपना लेते हैं। गार्गी बाल-ब्रह्मचारिणी थी, तभी तो वह बड़ी शक्तिवाली थी, बड़ी उच्चश्रेणीकी थी। बहुत-सी स्त्रियाँ जैसे—द्रौपदी, सावित्री, पार्वती, सीता इत्यादि जिन्होंने स्वप्नमें भी किसी दूसरेका चिन्तन नहीं किया। अनसूयाजी महान् पतिव्रता थीं, जिनके प्रतापसे ब्रह्मा, विष्णु, महेश उनके गर्भमें आये। चाहे स्त्री हो चाहे पुरुष, जिसको परमात्माकी प्राप्ति हो गयी, वही महात्मा है। महात्मामें किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ नहीं रहता। महात्मा केवल शरीरका निर्वाह करते हैं। जिसके कोई इच्छा, वासना, कामना कुछ नहीं है, जिसने सम्पूर्ण परिग्रहोंको त्याग दिया है, केवल शरीरका निर्वाहहेतु क्रिया होती है, ऐसे पुरुषसे पाप नहीं बन सकता। महात्माओंकी ऐसी महिमा है। उनका भाव भी बड़ा अद्भुत है। मनुष्य जितना प्रभाव मानता है, उसके लिये वह उतना ही है। केवल मनुष्य-शरीरमें ही पुरुष परमात्माको प्राप्त हो सकता है। जैसे, हम हवाई जहाजको आकाशमें उड़ता हुआ देखते हैं, किन्तु उसको बनानेका प्रयत्न तो करते ही नहीं। इसी तरह हम महात्माओंसे मिल लिये। ऐसा बननेके लिये यदि परिश्रम करें तो बन सकते हैं, नहीं तो नहीं बन सकते। भगवान‍्ने तो हमें मनुष्य-शरीर दे दिया, फिर चाहे अपना कल्याण करो, चाहे न करो। विश्वास न होनेके कारण हमारा कल्याण नहीं होता। भगवान‍्ने कल्याणके उपाय ज्ञान-विज्ञानको आठ विशेषणोंसे सुशोभित किया है—

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता९।२)

यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।

सबको खूब जप, भजन, ध्यान करना चाहिये। आजकी अपेक्षा कल और कलकी अपेक्षा परसों ज्यादा करूँगा, ऐसी भावना रखनी चाहिये। इसमें भगवान् सहायता देते हैं। जैसे, मनुष्य सोचता है कि आजकी अपेक्षा कल ज्यादा कमाऊँगा और वह चेष्टा करता है, तब भी प्रारब्धवश घाटा रह सकता है, किन्तु इसमें तो घाटा रह ही नहीं सकता और स्वयं भगवान् उसे सहायता देते हैं।

भगवान‍्का जो उपदेश है, मनुष्य यदि उसी तरह काम करता है तो उसे प्रत्यक्ष फल मिलता है, इसका कभी विनाश नहीं होता। इस बातमें विश्वास रखना चाहिये कि परमात्माकी प्राप्ति कोई कठिन बात नहीं है। भगवान् कहते हैं—

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(गीता९।३४)

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।

भगवान‍्में यदि मन लग जाता है तो फिर उसका मन भोगोंकी तरफ झाँकता ही नहीं, प्रत्यक्षमें सुख है। क्रियासे भी सुगम है। भगवान् कहते हैं—

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥
(गीता९।२६)

जो कोई भक्त मेरे लिये प्रेमसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्तका प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूपसे प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।

भगवान् कहते हैं—मेरा भक्त होगा वह मेरेमें प्रेम करेगा। परमेश्वरमें प्रेम करना कोई कठिन बात नहीं है। हाँ, राजासे प्रेम होना कठिन है, किन्तु यह बात उस दयालुके लिये लागू नहीं पड़ती। भगवान् तो एक क्षणमें सबसे मिल सकते हैं। भगवान‍्के दरबारमें कोई अटक नहीं है। भगवान् तो स्वयं चाहते हैं कि कोई मेरेसे मिले, किन्तु वे उसमें एक कानून साथ रखते हैं। वह कानून है प्रेम। भगवान‍्के मुकाबले कोई भी चीज नहीं है। भगवान‍्में प्रेम होना कोई कठिन नहीं है। मैं जो कुछ कहता हूँ, वह कोई मेरे घरकी बात नहीं है। जितनी बात कहता हूँ, वे सब शास्त्रोंकी ही हैं।

दो बारसे अधिक कभी भोजन नहीं करना चाहिये। तीन बार भगवान‍्का ध्यान करना चाहिये। गंगा-किनारे कभी मल-मूत्र-विसर्जन नहीं करना चाहिये, इत्यादि जो बातें बतलायी थीं, उनको यदि नहीं किया तो फिर कल्याण कैसे हो सकता है। इतना तो है जितना तुम अपने घरमें पुण्य करते, उससे तो यहाँ अधिक ही करते हो।

जिसका किसीमें भी रत्तीमात्र भी स्वार्थ न हो इत्यादि जो लक्षण हैं, वे महात्मामें होते हैं। ‘तद्विद्धि प्राणिपातेन’ यहाँ वह सेवा नहीं है कि उनको स्नान करा दें, यहाँ उनकी आज्ञाका पालन ही सेवा है। जैसे आप मुझे हवा करते हो तो वह सेवा नहीं है, सेवा वह है जब वह आज्ञाका पालन करे। महात्माको सन्तोष लोगोंके कल्याणमें होता है। भगवान‍्की प्रसन्नता भक्तकी प्रसन्नतामें है। गुरु-शिष्यका भाव होगा तो एक ही आज्ञाके पालनसे उसका उद्धार हो सकता है। मित्रभावसे करे तो समय लगता है। अर्जुनको भी भगवान‍्ने कहा था, यदि मेरी आज्ञाका पालन नहीं करेगा तो नष्ट हो जायगा, क्योंकि अर्जुनने अपनेको शिष्य माना था। मैं यदि महात्मा हूँ और मेरा गुरु-शिष्यका भाव है, फिर यदि शिष्य आज्ञाका पालन न करे तो नष्ट हो जाता है। यदि मित्रभावसे आज्ञाका पालन न करे तो वह नष्ट नहीं हो सकता। गुरुकी आज्ञाका पालन न करे तो उसका पतन हो जाता है। यदि उसकी आज्ञाका पालन करे तो लाभ-ही-लाभ है। जैसे गङ्गामें स्नान करनेसे लाभ है और मल-मूत्र-विसर्जन करनेमें उतनी ही हानि है। मित्र यदि मित्रकी बात न माने तो न कोई पाप होता है और न कोई पुण्य होता है। हाँ, बस इतना होता है कि मित्रतामें कमी आ जाती है। स्त्रियोंको, पुरुषोंको, सबको खयाल करना चाहिये कि जिसमें किसी भी प्रकारका स्वार्थ हो वह परमात्माको प्राप्त पुरुष नहीं है। जिसमें बिलकुल स्वार्थ नहीं है, वही परमात्माको प्राप्त पुरुष है। जिसके स्पर्श, भाषणसे हमारे यदि पापोंका नाश हो तो समझना चाहिये कि वह महात्मा पुरुष है। जिसके दर्शनसे शान्ति, समता, धैर्य इत्यादि बढ़े, वही महात्मा है। यह सामान्य बात है।

एक तो स्वार्थका त्याग और उनके संगसे अच्छी बातोंका आना, यदि ये बातें हों तो वह महात्मा है। लालटेन यदि यहाँ लावें तो प्रकाश होता है। यह उसका प्रभाव है। इसी प्रकार महात्माके पास जानेसे गुण आ जाते हैं, यह उनका प्रभाव है। जिस प्रकार श्रीरामकी प्रत्येक क्रियाका प्रभाव राक्षसोंपर पड़ता था। राजा युधिष्ठिरकी प्रत्येक क्रियाका प्रभाव शत्रुपर भी पड़ता था। जब राज्यसभामें द्रौपदीके केशोंको खींचा जाता है, तब युधिष्ठिरमें कितनी क्षमा है। जिसको नग्न करनेके लिये दु:शासन खड़ा होता है, उस द्रौपदीने राजा युधिष्ठिरको पूछा कि मैं हारी गयी अथवा नहीं; किन्तु उन्होंने कुछ उत्तर नहीं दिया। दु:शासनने दुर्वचन कहे, भीम चाहता है, यदि महाराज इशारा भी कर दें तो सबको चूर्ण कर दूँ, किन्तु फिर भी वे शान्त बैठे रहे, कितनी क्षमा है। भीष्मजीने बताया था कि जिस देशमें राजा युधिष्ठिर होंगे, उस देशमें धर्मका ही प्रचार होगा, वहाँ अकाल नहीं पड़ेगा, गौओंकी वृद्धि होगी, बीमारी नहीं होगी। वहाँ धर्म-ही-धर्म होगा। राजा युधिष्ठिरका इतना प्रभाव पड़ता था। राजा विराटने युधिष्ठिरको पासेसे मार दिया, किन्तु वे फिर भी क्षमाको धारण किये रहे। खून निकल गया, द्रौपदी एक थाली ले आयी और उसमें खून ले लिया, क्योंकि यदि खून धरतीपर गिर जाता तो वहाँकी भूमि बंजर हो जाती। यदि अर्जुनको यह मालूम हो जाय कि राजा युधिष्ठिरके खून निकल आया है तो वह सबको मार देगा, इसलिये राजा युधिष्ठिरने कहला दिया कि अर्जुन (बृहन्नला)-को कह दो कि वह सीधा अपने कामपर चला जाय। कितनी क्षमा है। विराटद्वारा मारे जानेपर भी उन्होंने उसका बिलकुल अनिष्ट नहीं चाहा। द्रौपदीपर भारी आपत्ति आयी, किन्तु वह अपने पतिव्रतधर्मसे बिलकुल नहीं हटी। इसी प्रकार जयद्रथने द्रौपदीसे बहुत बुरा व्यवहार किया, किन्तु किञ्चिन्मात्र भी वह अपने पतिव्रत-धर्मसे नहीं हटी। पतिव्रत-धर्मके पालनसे स्त्रीकी जो शक्ति होती है, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। पतिव्रत-धर्मका अद्भुत पराक्रम है। यमराज भी उसके सामने नहीं टिक सकता। सावित्रीने पतिव्रत-धर्मके प्रतापसे अपने पतिको जीवित करवा दिया। पतिव्रत-धर्मके आगे यमराज भी कुछ नहीं कर सकता।

विधवा स्त्री अपनी स्वतन्त्रतासे कहीं भी न जाय और वैराग्यसे रहे तो देवतालोग भी उसकी चरणरजकी आकांक्षा करें। जो लोग विधवा स्त्रीको दु:ख देते हैं उनकी खबर ली जायगी। विधवा स्त्रीका कर्तव्य है कि ऐश-आराम, भोग आदिको श्मशानके समान समझे। ब्रह्मचर्यका पालन करनेवाली, संयमसे रहनेवाली विधवा स्त्रीका दर्शन करना चाहिये। देवताके दर्शनसे भी ज्यादा लाभ है। शोक है कि आजकल विधवा स्त्रियोंको दु:ख दिया जाता है, यह तो घोर पाप है। बेचारीके धनको हड़प लेते हैं। अनेक कष्ट देते हैं। जो स्त्रियाँ विधवा स्त्रियोंको ताना मारती हैं, वे घोर नरकमें जाती हैं। उसकी तन, मन, धनसे सेवा करनी चाहिये। उसको शिक्षा देनी चाहिये कि भोग तो विष्ठा-मूत्रके समान है। स्वयं भी उसी तरह समझना चाहिये। भोगोंको तो लात मार देनी चाहिये। भोग तो क्षणभङ्गुर हैं। जिस तरह पुत्र मरा तो मनुष्यको सोचना चाहिये कि आज पुत्र मरा है, इसी प्रकार एक क्षणमें ये भोग जा सकते हैं, इसलिये मुझे वैराग्यसे अपना जीवन बिताना चाहिये। इस प्रकार खूब जोरसे साधन करना चाहिये। पिछला समय तो भोगोंमें बिता दिया, अब तो न बीते। यदि श्वशुर इस प्रकार करता है तो वह विधवा स्त्री भी उसी तरह पालन करती है। ऐसा करनेसे दोनोंका कल्याण है। उसीका जीवन धन्य है जिसने मनुष्य-शरीर प्राप्तकर भगवान‍्की प्राप्ति कर ली। अपने गुण और आचरणको सुधारना चाहिये। फिर उपदेशकी कोई आवश्यकता नहीं है।

किसी भी स्त्रीकी तरफ दृष्टि नहीं जानी चाहिये। यदि नजर जाय तो माँके समान समझना चाहिये। जितने अवगुण हैं, उन सबसे यह बढ़कर है। यह दोष महान् घातक है। मनुष्यको स्त्रियोंसे बिलकुल परहेज करना चाहिये, क्योंकि यह दोष बड़ा भारी है। बड़े-बड़े तपस्वी भी इस दोषसे विचलित हो जाते हैं, नष्ट हो जाते हैं।

कर्णेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय सबसे प्रबल हैं, इनसे बचना कठिन है। कानोंका विषय मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा इत्यादि है। ये लेशमात्र भी नहीं रहने चाहिये। ऐसे-ऐसे भी देखे गये हैं कि बड़ाईके लिये मरनेके लिये भी तैयार हो जाते हैं। मनुष्य जब तीसरी भूमिकामें पहुँच जाता है तो भी बड़ाई उसको नहीं छोड़ती। जिस दिन मान, बड़ाई अपमानके समान लगे, जिस दिन विषयोंसे मन बिलकुल हट जाय, अत्यन्त घृणास्पद दृष्टि हो जाय, उस दिन उसका कल्याण ही है। संसारमें वैराग्यके समान कुछ भी नहीं है। जबतक ये हैं तबतक सारा गुण धूलमें है। विरक्त पुरुषके दर्शनसे भी वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। जिस समय मेरी पन्द्रह वर्षकी अवस्था थी, तब मैंने स्वामी मंगलनाथजीके दर्शन किये। उनको देखनेसे मेरेमें जो वैराग्य उत्पन्न हुआ, उसको कह नहीं सकता। उस वैराग्यने मेरा बहुत काम किया। उनकी वैराग्ययुक्त मुद्रा देखनेसे वैराग्य उत्पन्न हो जाता। वे बड़े ही विरक्त थे। जैसी उनकी मैंने प्रशंसा सुनी थी, उनको देखनेसे यह मालूम हुआ कि इनकी महानताका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं समय-समयपर भाई हनुमानबक्ससे वार्तालाप किया करता था। मंगलनाथजीकी स्मृतिसे वैराग्य और उपरामता मेरेमें होने लगती। इसीके आधारपर मैं कहता हूँ कि महात्माके दर्शन बहुत लाभदायक हैं, किन्तु आजकल ऐसे पुरुषोंका दर्शन होना दुर्लभ हो गया है, इसलिये वैराग्यकी बड़ी आवश्यकता है। मेरेमें यदि कुछ हुआ तो स्वामी मंगलनाथजीके दर्शनसे ही हुआ है। सबसे यही प्रार्थना है कि सबका संसारकी तरफसे वैराग्य हो, ईश्वरसे प्रेम हो तथा वैराग्यको धारण करें।

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