महात्माओंमें अद्भुत शक्ति
प्रवचन—मिति ज्येष्ठकृष्ण १४, संवत् १९८५, दिनांक २८। ५। ३८, सायंकाल ५.३० बजे, कर्णवास
यदि कोई संन्यासी भी इस दृष्टिसे मेरे पास भिक्षा माँगे कि यह साधु पुरुष है, इसका दिया हुआ प्रसाद है और यदि मुझे यह बात मालूम हो जाय तो मैं उस संन्यासीको भिक्षा नहीं दूँगा, क्योंकि यदि प्रसाद देनेसे उसका कल्याण न हो तो फिर मेरेपर उसका कलंक आयेगा। अथवा यदि उसकी श्रद्धा न हो तो भी ठीक नहीं। महापुरुषोंकी दया अपार होती है। महात्मा पुरुषकी तो क्रिया काम करती ही है। एक तो ऐसा होता है कि उसे प्रभुके दर्शन हो गये और दूसरा वह है जो दूसरोंको भी दर्शन करानेकी शक्ति रखता है, उसकी क्रिया व्यर्थ नहीं जाती। वह जो कहता है वह सच हो जाता है। महात्मा पुरुष जिस क्षण शक्तिका प्रयोग करता है, उसी क्षण वह अपना कार्य दिखला देती है। यह अद्भुत शक्ति होती है। जैसे अगस्त्य ऋषिको जब इन्द्रने कहा ‘सर्पं-गच्छ’ अर्थात् जल्दी चल तो उन्होंने तुरन्त पालकीको पटककर कहा कि दुष्ट सर्प हो जा। तब उसने बहुत प्रार्थना की तो उन्होंने कहा मेरा वचन तो मिथ्या नहीं होगा, किन्तु जब द्वापरयुगमें राजा युधिष्ठिरसे तुम्हारा वार्तालाप होगा, तब तुम मुक्त हो जाओगे। यह अद्भुत शक्ति महापुरुषोंमें होती है। महात्मा पुरुष अपनेको महात्मा नहीं कहते। गुण, प्रभावसे पता चलता है, गुण भीतरी चीज है। महात्माके गुणोंकी अद्भुत लीला है। जिसका सारे भूतोंमें द्वेष नहीं है, जो सबमें सम है, जो दयालु है, जिसमें न हर्ष, न द्वेष, न उद्वेग, न भय है, वह परमात्माका प्रिय है।
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
(गीता१२।१३)
जो पुरुष सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित, सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है तथा ममतासे रहित, अहंकारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है।
अनपेक्ष: शुचिर्दक्ष उदासीनो गतव्यथ:।
सर्वारम्भपरित्यागी यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता१२।१६)
जो पुरुष आकांक्षासे रहित, बाहर-भीतरसे शुद्ध, चतुर,पक्षपातसे रहित और दु:खोंसे छूटा हुआ है—वह सब आरम्भोंका त्यागी मेरा भक्त मुझको प्रिय है।
जो सब प्रकारसे शुद्ध है, जिसके आचरणोंसे दूसरोंको शिक्षा मिलती है, जिसमें ये लक्षण हैं, वह भगवान्का भक्त है।