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प्रेम तथा श्रद्धाकी महिमा

प्रवचन—दिनाङ्क ६-४-१९३८, दोपहर, कर्णवास

राजाजी—प्रेमवाली बात समझमें नहीं आयी।

उत्तर—प्रेम विकार नहीं बल्कि भगवान‍्का स्वरूप है। सगुण-साकाररूप भी विकार नहीं है। पंचभूतोंसे बने हुए जो कुछ पदार्थ आप देखते हैं, यही विकार है, किन्तु भगवान् जो अवतार लेते हैं, वह पंचभूतोंका बना हुआ शरीर नहीं है, वह स्वरूप तो चिन्मय है। ब्रह्माका रचा हुआ प्रपंच ही विकार है। ब्रह्माकी सृष्टिसे भगवान् अलग हैं।

ब्रह्माजी बछड़े चुरा ले गये। उनके रचे हुए थे, इसलिये ले गये। बादमें भगवान् जो अपने रूपसे बछड़े बने थे, वे सृष्टिकी वस्तु नहीं थी। जिनको सच्चिदानन्द कहते हैं, उनका सगुण साकार स्वरूप प्रकट हुआ था, वे स्वत: आप ही हैं, वे अलौकिक, अप्राकृत, अद्भुत हैं। ब्रह्माजी कहते हैं—

अस्यापि देव वपुषो मदनुग्रहस्य
स्वेच्छामयस्य न तु भूतमयस्य कोऽपि।
नेशे महि त्ववसितुं मनसाऽऽन्तरेण
साक्षात्तवैव किमुतात्मसुखानुभूते:॥
(भागवत १०। १४। २)

स्वयंप्रकाश परमात्मन्! आपका यह श्रीविग्रह भक्तजनोंकी लालसा-अभिलाषा पूर्ण करनेवाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छाका मूर्तिमान् स्वरूप मुझपर आपका साक्षात् कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करनेके लिये ही आपने इसे प्रकट किया है। कौन कहता है कि यह पञ्चभूतोंकी रचना है? प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रहकी महिमा नहीं जान सकता। फिर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही महिमाको तो कोई एकाग्रमनसे भी कैसे जान सकता है।

वस्तुत: जब वह निर्गुण है तो जैसे मनुष्यमें तीन गुण दिखते हैं—सत-रज-तम, इसी प्रकार भगवान् अवताररूपमें प्रकट होते हैं, उनको हम ज्ञानमय कहते हैं, वे ज्ञानके प्रकाशके रूपमें आते हैं। परमात्मामें जो ज्ञान-प्रकाश दीखता है, वही चिन्मय है, श्रीकृष्ण हैं, वह मुरलीमनोहरके रूपमें, विष्णु हों तो चक्र आदिके रूपमें भी वही हैं। वह भगवान् ही रसरूपमें, आमोद-प्रमोदरूपमें आते हैं। वे प्रेममय, रसमय हैं। साक्षात् भगवान् कृष्णका स्वरूप आनन्दघनरूप ही था। लौकिक पाञ्चभौतिक देह नहीं था। प्रकट और तिरोभाव पाञ्चभौतिक देहसे नहीं होता। हमारा शरीर छूट जाय तो तिरोभाव नहीं होगा। भगवान‍्का शरीर अलौकिक है। ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ संसारमें जो आयुध हैं, उनको यह ज्ञान नहीं है कि हम तलवार हैं। भगवान‍्के आयुधोंको ज्ञान है, वे चेतन हैं। प्रभुका सारा स्वरूप चिन्मय है। इस बातकी साक्षीके लिये भगवान् देवकीके यहाँ चतुर्भुजरूपसे प्रकट हुए और बालक बन गये। उस चतुर्भुजरूपका शव नहीं बचा। तिरोभाव और प्रकट होना भगवान‍्का ही होता है। हमें जैसे त्वचाका ज्ञान है, किन्तु हड्डीमें चेतनता नहीं है। भगवान‍्का शरीर ही आत्मा है, पाञ्चभौतिक शरीर नहीं है।

जिस समय कृष्ण घोड़े हाँकते थे, उस समय अर्जुनने कहा कि विश्वरूप दिखायें। वहाँ कोई अलग रूप नहीं दिखाया कि घोड़ेवाला कृष्ण अलग है और विश्वरूप अलग। भगवान् कहते हैं—

इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम्।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्‍द्रुष्टुमिच्छसि॥
(गीता ११। ७)

हे अर्जुन! अब इस मेरे शरीरमें एक जगह स्थित चराचरसहित सम्पूर्ण जगत् को देख तथा और भी जो कुछ देखना चाहता हो सो देख।

अपनी देहमें कहाँ है वह चीज। भगवान् जिसको जैसा दिखावें, वैसा देखता है। भगवान‍्में जो बात अर्जुनको दीखी वह सेनामें, अन्य किसीको नहीं दीखी, केवल अर्जुनको ही दीखी। अर्जुनने कहा मुझे चतुर्भुजरूप दिखलाइये। ‘तेनैव रूपेण चतुर्भुजेन सहस्रबाहो भव विश्वमूर्ते।’ भगवान् उसी क्षण चार भुजावाले हो गये। भगवान‍्की अपनी इच्छासे जो स्वरूप प्रकट होता है, वह तो असली ही है। संसार रचा हुआ है।

जीवकी सृष्टि ब्रह्माकी सृष्टिसे भिन्न है, कल्पनामात्र है। इसके नाशसे ब्रह्माकी सृष्टिका नाश नहीं होता और ब्रह्माकी सृष्टिसे स्वप्नके संसारका नाश नहीं होता।

किन्तु भगवान‍्का स्वरूप चिन्मय है, उनकी इच्छासे चाहे जिस रूपमें परिवर्तित हो जाता है। सद्वस्तुमें विकार नहीं होता। ऐसे ही प्रेम भगवान‍्का स्वरूप है। ‘तेनैव रूपेण’ कहा और हो गये। भला बताओ सब रूप कहाँ गये? बात यही है कि प्रादुर्भावमें दीखते हैं, तिरोभावमें अदृश्य हो जाते हैं, वे निर्दोष हैं, विकारी नहीं हैं, अनामय हैं। उनमें रोग वगैरह नहीं होते। निराकारपद देकर भी उन्हें निर्विकार कहते हैं। भगवान् चिन्मय और चेतन हैं।

भगवान् सब जगह उपस्थित हैं, निराकाररूपसे ही नहीं साकाररूपसे भी हैं, प्रेमसे प्रकट होते हैं—

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना।
प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥

देखो, भगवान् स्वत: ही अनेकरूपमें ग्वालबाल हो गये। ब्रह्माजी ग्वालबालों और बछड़ोंको इसलिये ले गये कि सच्चे भगवान् होंगे तो और बना लेंगे और यदि झूठा-ढोंगी होगा तो रोयेगा, किन्तु ब्रह्माजीकी पोल निकली। ब्रह्माजी फिर जब वापस लेकर आये तो भगवान‍्के बनाये हुए बछड़े गायब हो गये।

बलरामजीने देखा कि इस समय प्रेम क्यों अधिक दीखता है, तब पूछा तो प्रभुने कहा कि ब्रह्मा बछड़े ले गये सो मैंने दूसरे बना लिये। अब तो बलरामजीको लाठी वगैरह जड़ वस्तुमें भी भगवान् कृष्ण दीखते थे। भगवान‍्का प्रकट होना ऐसा ही है।

प्रश्न—योगियोंमें भी ऐसी बात देखते हैं।

उत्तर—योगियोंका स्वरूप मायिक होगा और ईश्वरका स्वरूप चिन्मय होगा। भगवान् स्वत: चेतन हैं। योगीकी बात ही क्या है, राक्षस भी कई रूप धर लेते हैं। मेघनाद भी मायासे अनेक रूप धर लेता था, किन्तु वे सब मायिक थे और भगवान‍्के रूप मायिक नहीं, सत्य हैं। उनकी वस्तुका विनाश नहीं होता, भगवान‍्का स्वरूप उनका संकल्पमात्र है। इसीलिये भगवान् कृष्ण इसी शरीरसे परमधाम पहुँच गये, क्योंकि भविष्यमें जो भक्त होंगे उन्हें इस बातका ध्यान रहे कि श्रीकृष्ण मनुष्य नहीं थे।

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥
(गीता४।६)

मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। वास्तवमें मैं मनुष्य नहीं हूँ, किन्तु आवश्यकतानुसार प्रकट होता हूँ।

भगवान् प्रत्यक्ष आनन्दकी मूर्ति हैं, यह दिव्यता है, अलौकिकता है। योगी या बाजीगर या राक्षसी मायाकी प्रतीति तो हो जायगी, किन्तु वस्तुत: वह कोई वस्तु नहीं है। प्रादुर्भाव और तिरोभाव समझे कि नहीं? फिर बताता हूँ—योगीकी माया और विद्या जड़ है और नाशवान् है तथा भगवान‍्की नित्य और अविनाशी है। भगवान‍्का शरीर पाञ्चभौतिक नहीं है और योगीका हाड़-मांसका शरीर है। योगी शरीर स्थिर नहीं रख सकता और भगवान् स्थिर रख सकते हैं। योगीका वह संकल्प है और भगवान‍्का स्वरूप है। मान लो राक्षसने रूप धारण किया, यदि उसको मारो तो उसके साथ मायिकरूप भी समाप्त हो जायगा।

योग एक विद्या है। उसका पंचभूतोंसे सम्बन्ध हो जानेसे वह पार्थिव शरीरको चाहे जितना बड़ा और छोटा बना लेता है। परमाणुओंको अधिक और कम कर लेता है। जैसे खेतवाला पानी देता है, उस समय रोक खोलनेसे पानी आता है, इसी प्रकार पार्थिव वस्तु अपने शरीरसे निकालनेसे वह छोटा दीखता है, उसीको वह भारी-से-भारी कर लेता है।

पंचभूतोंसे सम्बन्ध करके वह चाहे सो कर लेते हैं। भगवान‍्में योगीकी विद्या तो है ही, किन्तु अलौकिकता है। वह ब्रह्मा और शिवको भी मालूम नहीं है।

शिव बिरंचि कहुँ मोहई को है बपुरा आन।

शिव और ब्रह्मा भी मोहित हो जाते हैं। ऐसी अद्भुत लीला है। यह बात योगीमें नहीं है।

प्रश्न—मायिक वस्तु बनाते हैं क्या?

उत्तर—नहीं, देखो, यहाँकी सब वस्तुमें चेतनता है, पर दीखती नहीं। तार लगा है, बिजली है, पर स्विच चालू करनेसे कार्य होता है। ऐसे ही भगवान् भी दीखने लगते हैं, ईश्वरके अधिकारमें सब बात है, योगी वगैरह सबकी बात जानते हैं, परन्तु भगवान‍्की बात कोई नहीं जानता।

‘नाहं प्रकाश: सर्वस्य’ मैं जिसको जनाना चाहूँ उसको जनाता हूँ, परन्तु ‘मां तु वेद न कश्चन’ मुझे कोई नहीं जानता। कोई जानता है तो वह मेरा होकर ही जानता है, भिन्न होकर नहीं। भक्तोंपर यह बात लागू नहीं होती। भक्तोंको छोड़कर और कोई नहीं जानते। आजसे पहले जितने भूत हुए, उन सबको भगवान् जानते हैं।

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(गीता७।२६)

हे अर्जुन! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतोंको मैं जानता हूँ, परंतु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता।

प्रश्न—आजसे पहले जितने भूत हुए उन सबको भगवान् जानते हैं, वर्तमानमें जितने हैं उनको भी जानते हैं, तो फिर जीव अनन्त कैसे हुए क्योंकि जब जीव जाननेमें आते हैं तो फिर उन्हें अनन्त कैसे कहा जा सकता है?

उत्तर—हम मरनेके बाद क्या होंगे, यह जाननेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् सब जानते हैं। उनके ज्ञानमें हमारा मोक्ष है तो होगा ही और नहीं तो नहीं होगा। उनका जाना हुआ ही होगा और वही कायम रहेगा। उनके जाननेमें कोई तिलभर भी परिवर्तन नहीं कर सकेगा।

वस्तुत: उस अवस्थाको प्राप्त होनेपर ही असली बात जानेगा। अनन्त है तो अनन्तताका ज्ञान परमात्माको तो है ही। जीव-संख्या अनन्त तो हमारी दृष्टिसे है। अनन्तता तो प्रभु ही जानते हैं। अनन्त जो है वो तो अनन्तको जान लेता है, हम अन्तवाले कैसे जानें? हम तीनों कालमें परिमित हैं।

भविष्यमें हम क्या होंगे यह भगवान् जानते हैं, किन्तु हमें भी मालूम हो जाय, इसके लिये प्रयास करना चाहिये।

जितनी योनियाँ हैं, उनमें मुक्ति नहीं है, केवल साधनसे मुक्ति होती है। जीवोंको परिश्रम नहीं हो, इसलिये इतनी छूट मनुष्यको दी है कि वे चाहे सो कर सकते हैं। भगवान‍्ने अभी हमारा शरीर निश्चित नहीं किया है, मौका दिया है, क्योंकि यदि वे निश्चित कर देंगे तो वहाँ जाना ही पड़ेगा। गीताका अर्थ बड़ा गोपनीय है।

महात्माको छोड़कर और कोई नहीं जानता ‘मूढोऽयं नाभिजानाति’ आगेके प्रकरणमें ‘ते विदु:’ कहा है।

मूढ़में परमात्माको प्राप्त पुरुषोंको छोड़कर बाकी सब आ गये। मैं जिस रूपमें दीखता हूँ, वहाँ मेरा असली रूप छिपा रखा है—

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
(गीता९।११)

मेरे परमभावको न जाननेवाले मूढ़लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं। मनुष्य शरीरधारी समझकर मेरा तिरस्कार करते हैं। कंस गाली देता था, यदि मुझे जानता तो क्या गाली देता? जिस समय दुर्योधनने श्रीकृष्णको बाँधनेका विचार किया तो भगवान् बोले कि मुझे कौन बाँध सकता है, सारा ब्रह्माण्ड मुझमें है—इस प्रकार कहकर बता दिया। उत्तंकके यहाँ गये, वहाँ कहा कि तुम मेरा प्रभाव नहीं जानते। तुम मुझे मनुष्यरूपसे जानते हो, यदि अध्यात्मरूपसे जानते तो शाप नहीं देते, दोगे भी तो निष्फल जायगा। मत्स्य, कूर्म मैं ही हुआ था, उत्तंकने कहा कि मैं वह रूप देखूँगा तो भगवान‍्ने तुरन्त विश्वरूप दिखला दिया। भगवान‍्को और भगवान‍्को प्राप्त हुए महापुरुषको कभी शाप नहीं लगता।

प्रश्न—योगी, ज्ञानी अलग-अलग हैं क्या?

उत्तर—सामान्यत: ये दोनों भगवान‍्के दर्शन नहीं करा सकते। चेष्टा करें तो भी नहीं दिखा सकते और दिखा भी सकते हैं, जैसे वेदव्यासजी। वेदव्यासजीमें दोनों शक्ति थी। उन्होंने कौरवोंको समझाया। अठारह अक्षौहिणी सेनाको मरनेके बाद भी उन्होंने फिर रचकर दिखा दिया। यदि कोई कहे कि मैं परमात्माकी प्राप्ति करा दूँगा तो भगवान् तो पराधीन हो गये न। भक्तोंको दर्शन देते हैं यह तो है ही, परन्तु भक्तोंको यह अधिकार नहीं है कि वे भगवान‍्से मिला दें। ऐसा खुला अधिकार सबको नहीं मिलता।

जैसे राधिकाजीको पूरा अधिकार है, शंकरजीका पूरा अधिकार है। वे चाहें तो भगवान‍्के दर्शन करा देते हैं। नरसी मेहताको शंकरजीने दर्शन करा दिये।

ऐसा अधिकार तो वे किसी विशेष अधिकारीको ही देते हैं। नरसीजीका सकामभाव वास्तवमें नहीं था, लोगोंको दीखता था। राजाने कहा कि यदि तू भक्त है तो भगवान् तेरे गलेमें माला डाल दें तो तुम्हें भक्त जानूँ। तब समयपर भगवान् माला लेकर पहना गये। राधिकाजी और शंकरजी हरेकको दर्शन करा सकते हैं।

प्रश्न—कोई उदाहरण ऐसा है कि अनधिकारीको दर्शन करा दिये।

उत्तर—सोचनेसे मिल भी सकता है। बहुत-से पापियोंको परमात्माकी प्राप्ति करा दी। देखो, भगवान् शंकर कितने ही पापियोंको काशीमें मुक्ति देते हैं।

प्रश्न—काशी सेवन करना तो साधन हुआ?

उत्तर—हाँ, यों तो कुछ-न-कुछ निमित्त होता ही है। अपने लोग तो ऐसा करें कि इसी जन्ममें शीघ्र मुक्ति मिले। भगवान् एक अलौकिक तत्त्व है। उसकी ऐसी दया और महत्त्वकी बात है कि कुछ कहते नहीं बनता। बस, किसी भी रूपसे, नामसे भगवान् मान लो तो फलरूप परमात्मा प्राप्त होंगे। यह भारी दया है। नहीं तो किसीको भी प्राप्ति नहीं होती।

यानि साधनकालमें जीव साधन करता है, लक्ष्य बनाकर उपासना करता है तो प्राप्ति हो जाती है। यह छूट नहीं होती तो किसीको भी प्राप्ति नहीं होती। क्या पता कि कृष्णका स्वरूप ऐसा ही था। हजारों स्वरूप हैं। पाँच हजार वर्ष पहलेके चित्र आज नहीं मिलते।

इसलिये जितने चित्र संसारमें हैं, उनमें शरीर-आकृति तो ले आये, पर हावभाव कैसे आये? देखो, हजार आदमियोंके मनके चित्र अलग-अलग होंगे। फिर भी वह असली रूप नहीं है। परमात्माकी प्राप्तिके पहले तो भूल ही है, क्योंकि परोक्ष उपासना होती है। निराकारका साधन करनेवालोंका जो ध्यान है, वह परोक्षका है। अपरोक्षका तो वर्णन नहीं हो सकता। फल दोनोंका असली है, परन्तु साधनमें दोनोंकी भूल है। उनका भाव असलीका है, इसलिये उनको क्षमा है। भगवान् कहते हैं चाहे जैसा ध्यान करो, वह मेरा ही स्वरूप है।

भगवान‍्का भजन करता हूँ, पर समझता नहीं तो कोई आपत्ति नहीं। मानकर श्रद्धापूर्वक करो तो भगवान् पहले मूढ़से मूढ़को मिलेंगे, पण्डितको नहीं।

प्रश्न—‘ब्रह्मभूयाय कल्पते’ यह जो कहा है, इसमें कितनी प्रत्यक्षता हो जाती है?

उत्तर—‘यो मां पश्यति सर्वत्र’ यह साधन बताया है और ‘तस्याहं न प्रणश्यामि’ यह उसका फल है। गोपियोंको भगवान् सर्वत्र दीखते थे।

प्रश्न—एक आदमी ध्यान करता है तो उसको उसकी ध्यानकी मूर्तिका ही दर्शन होगा या सबमें एक आत्मा दिखेगी?

उत्तर—भक्तिमार्गमें ‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ कहा है। इन शब्दोंमें परोक्ष प्राप्ति है। उसकी सारी क्रीड़ा भगवान‍्से होती है। वह उसीमें आह्लादित होता है। वह मुग्ध हो रहा है, मग्न हो रहा है, भगवान‍्में ही रम रहा हूँ। उसका अनुभव परोक्ष है और फलरूपमें अपरोक्ष हो जाता है। ‘सर्वभूतस्थमात्मानम्’ सारे भूतोंमें आत्मा देखे, यानि उसको भूत नहीं दीखते, अपितु भगवान् दीखते हैं।

भूत समुदाय आँखसे दीखता है, पर वह परमात्माको ही देखता है, भूतोंको नहीं।

जैसे सूर्यकिरणोंमें जलका भाव दिखता है। ऐसे ही भगवान‍्की सत्ताके सिवाय और कुछ नहीं दीखता। ऐसा मालूम पड़ता है कि मैं भगवान‍्से ही मिल रहा हूँ, यह परोक्ष है। प्रत्यक्ष मिलना अपरोक्ष है। भावनासे भगवान् मिल रहे हैं, किन्तु भावनासे फल टिका नहीं रहता। ध्रुवको शंख छुआ दिया, यह भावना नहीं थी।

प्रश्न—परमात्मामें स्थिति है, यह दीखती है क्या?

उत्तर—मानना ब्रह्म-साधनका आरम्भ है। प्रतीत होना परिपक्व अवस्था है और फिर विलक्षण स्थिति होती है।

‘सर्वभूतानि चात्मनि’ आत्मामें देखनेकी गुंजाइश नहीं है। वह तो आत्मा ही देखेगा। वहाँकी विलक्षण अवस्था फलरूप है। परिपक्व अवस्थामें प्रतीति होकर फलरूपमें प्राप्ति होती है। ‘ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप’ नामक पुस्तक है। उसको पढ़ते वह यह समझ रहा है कि मैं वस्तुत: बात नहीं कर रहा हूँ।

वर्तमानकी भूल निकलकर सब बात ठीक हो जाती है। मैं कर्णवासकी बात सुनता था, तब मनमें कर्णवासकी कल्पना किया करता था, परन्तु वह चित्र अब नहीं रहा, क्योंकि वह चित्र नकली था। यहाँ आनेपर दूसरा हो गया। प्रत्यक्ष बात यह है कि यदि कोई बीस बात मुझसे कर्णवासकी पूछे तो उन्नीस बातें मालूम हैं सो कह दी, एक नहीं मालूम तो उसको बतानेमें गड़बड़ हो जाती है। भगवान‍्में ऐसी बात नहीं है। वहाँ तो सब बात दीख जाती है, कुछ गड़बड़ नहीं होती, क्योंकि—

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशया:।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे॥
(मुण्डक उ० २। २। ८)

अर्थात् ‘परावरस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार हो जानेपर इस ज्ञानी पुरुषके हृदयकी ग्रन्थि खुल जाती है, सम्पूर्ण संशय नष्ट हो जाते हैं और समस्त कर्मोंका क्षय हो जाता है।’

गीताके श्लोकमें जो उपदेश है उसका क्या अर्थ है? सो उसमें तो समझका अन्तर है। गीताका अर्थ वह नहीं हो, परन्तु समझमें तो भूल है न। यदि ऐसा होता तो संसारमें एक ही टीका होती। भाषा और बुद्धि तथा व्यक्ति भिन्न-भिन्न हैं, परन्तु चेतन तो एक ही है, उसके विषयमें अन्तर नहीं होगा। प्रकार भिन्न है, परन्तु प्रापणीय वस्तु एक है।

प्रश्न—भक्ति और ज्ञानके उपासकको एक ही प्राप्ति कैसे होती है। साधनमें तो भेद है, फिर फल एक कैसे होता है?

उत्तर—एक गोलाकार जगहपर कई व्यक्ति कहींसे भी चलें, अलग-अलग चलें परन्तु एक ही स्थानपर जाकर सब मिल जायँगे। पूर्व-पश्चिमका उदाहरण तो समझानेके लिये है, साधनमें चलना नहीं पड़ता। ज्ञानवाला भी भक्तिका ही साधन कर रहा है, ज्ञान है पर भक्तिमिश्रित है।

रोटी गेहूँकी, मोठकी मिली है तो समझो कि मोठ थोड़ा है। ऐसे ही मिश्रण वस्तु थोड़ी होती है। ज्ञानमिश्रित भक्तिमें तो भक्ति प्रधान हुई। ये एकदेशीय दृष्टान्त होते हैं।

लोगोंको विलम्ब क्यों हो रहा है? जैसे हम दस आदमी इस वनमें निकल गये। अब घर जाना है, एक आदमी रास्ता जाननेवाला है तो उसके पीछे हम भी चले जायँगे। जिसने रास्ता नहीं देखा होगा, वह यदि कहेगा कि इधरसे चलो तो मार्गका जानकार कहेगा कि कैसा मूर्ख है, पगडण्डियाँ देखकर इसका मन चलायमान हो जाता है और अपनी अकल लगाकर जंगलमें भटक रहा है, फिर पीछे आ जाता है, कहता है कि अब बताओ, तब फिर ठीक चलता है। आगे जाकर फिर भ्रममें पड़ जाता है, कहता है जरा देखूँ तो सही कहीं इस मार्गमें जल्दी पहुँच जाऊँ तो अच्छा है। रास्ता जाननेवाला कहता है कि तू मूर्ख है। मैं तेरे पीछे अपना समय नष्ट नहीं करूँगा।

बात यह है कि मानापमानका भाव ही खराब करता है। ज्ञान-विषयक इतनी तात्त्विक बातें हैं कि कई बातें तो बुद्धिके परस्पर विचारसे, कई साधनसे, कई महात्मा पुरुषके बतलाये हुए साधनसे यानी श्रद्धासे समझमें आती हैं।

एक रोगी है, एक वैद्य है या एक सीखनेवाला और एक सिखानेवाला है। कई बात तो श्लोकसे समझमें आ जाती है, किसी बातको करके बताता है। जैसे गुलाबका फूल ऐसा है बतलाया। किसी बातको प्रयोगसे समझाता है। किसी बातको श्रद्धासे मानना पड़ता है। जैसे सोमलता ऐसी है, किन्तु सोमलता नहीं मिलती, ऐसी हालतमें श्रद्धा ही करनेसे लाभ है। यदि विश्वास नहीं करो तो बस, कुछ लाभ नहीं।

जैसे औषधि-सेवन करनेवालेको कहते हैं कि इससे यह रोग अच्छा होगा, देखो, चरकसंहितामें लिखा है, बस, देखते ही विश्वास हो गया।

इसी प्रकार इस भगवद्विषयमें श्रद्धा प्रधान है। वैद्य रोगीसे पूछता है कि किसकी दवाईमें श्रद्धा है। वह कहता है तुम्हारी दवाईमें। यदि वह कहे कि पिताजीने कहा है, इसलिये आपकी दवाई लेता हूँ, मेरा विश्वास तो दूसरेपर है तो दवाईका असर नहीं होगा। बात यह है कि श्रद्धा ही काम करेगी।

एक औषधि-सेवन करता है तो वैद्यसे पूछता है कि यह क्या है। वैद्य कहता है कि यह अमुक औषधि है। रोगी कहता है कि इससे क्या लाभ होगा। बस, अब उसको लाभ नहीं होगा।

जितनी श्रद्धा होगी उतना काम होगा। मुकदमेमें वकीलका, रोगमें वैद्यका विश्वास करनेसे कभी लाभ तथा कभी धोखा भी होता है, यदि मर गया तो प्रारब्धसे, सुधर गया तो दवाईसे सुधरा हुआ मान लेते हैं। देखो, डॉक्टरको हम शरीर सौंप देते हैं, किन्तु महात्माको हम कुछ नहीं सौंपते। वैद्य तो फीस लेता है, महात्मा तो फीस भी नहीं लेते। वैद्य दवाईके दाम भी, फीसके दाम भी ले लेता है। फीस नहीं दें तो वैद्य आता भी नहीं। इतना विश्वास महात्मामें करे तो शीघ्र प्राप्ति हो जाय। महात्मा कहता है—

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(गीता १६। २१)

काम, क्रोध तथा लोभ—ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

इतना सुननेपर भी नहीं मानता है और मुकदमेमें वकीलके कहनेसे झूठ बोल देता है। वकील पहले फीस लेता है, तब कचहरीमें जाता है और महात्मा कुछ नहीं लेते, तब भी हम विश्वास नहीं करते, मनमानी करते हैं। जितना वकीलपर विश्वास करते हैं, उतना भी महात्मामें विश्वास कर ले तो शीघ्र लाभ हो जाय और जरा भी धोखा नहीं होता। भगवद्विषयमें फिर विश्वास नहीं होनेका कारण अज्ञानता ही है और कुछ नहीं। वकील तो पैसे लेकर भी मुकदमेकी परवाह नहीं करता, डूबे या बचे और यहाँ तो एक कौड़ी भी खर्चा नहीं तथा अनन्त लाभ है। साधु-संत यही चाहते हैं कि जिससे तेरा लाभ है, वही करें। वह कहता है कि अमुक महात्मा तो ऐसा कहते थे तो महात्मा कहते हैं कि वह साधन भी ठीक है, यदि साधक कहे कि मुझे उनसे मिला दें, तो वह मिला देते हैं। यानी महात्मा नि:स्वार्थी होते हैं, फिर भी लोग मारे-मारे फिरते हैं।

मनुष्यको छ: माहकी कैद हो जाय तो वह कानूनकी किताब देखता है। रुपया लगानेको, रिश्वत देनेको, धर्म छोड़नेको तैयार हो जाता है, जिस प्रकार छ: माहकी कैदसे छूटनेके लिये वह तत्पर रहता है, ऐसे ही जन्म-मरणकी बीमारी मिटानेके लिये कटिबद्ध होना चाहिये।

न्यायाधीश कहे कि कैदसे छूटनेके लिये हमारे घर आओ तो वह उसके घर आधी रातको जाकर भी घूस देता है। जबतक वह बात नक्की नहीं हो जाती, तबतक वह प्रयत्नशील रहता है। ऐसे ही भगवान‍्की प्राप्तिके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये।

मुकदमेमें श्रद्धा है, किन्तु साधनमें श्रद्धा नहीं है। यही कारण है और कुछ नहीं। ऐसे ही जो बीमारी मिटानेका प्रयत्न करता है, उसको यदि यह शंका हो जाय कि यह तो असाध्य बीमारी है, तब वह घबराकर विशेष प्रयत्न करता है। ऐसे ही यदि जन्म-मरणरूपी बीमारीमें प्रयत्न करे तो शीघ्र लाभ होता है। इसमें तो साधु कहते हैं कि यह साधन करो, सफलता होगी ही।

रोगसे आतुर जैसा प्रयत्न करता है, वैसा प्रयत्न जन्म-मरणरूपी रोगको मिटानेकी चेष्टाके लिये करे तो यह रोग मिट सकता है।

महात्मा कह दें कि बारह माहमें तो तेरा बहुत पतन हो गया है। इस प्रकारसे तो तूँ रसातलको चला जायगा और तुझे पता भी नहीं चलेगा। वह कहता है हाँ, साधन तो ढीला है, पर आप जैसा बताते हैं ऐसा साधन मुझसे नहीं होगा। अरे तो मरेगा कौन?

विश्वास ही फलदायक है और कुछ नहीं। दवाईके लिये तो चाहे जितनी आपत्ति झेलते हैं और फल भी निश्चित नहीं, किन्तु यदि कहें कि रातको ध्यान लगाओ तो कहता है कि नींद नहीं खुलती। नींद नहीं खुलती तो पहरा बैठा दो। बीस रुपया मासिक खर्च करो, पैसा क्या काम आवेगा? उसको बीस रुपया खर्च करना भी दुखता है, यानी बीस रुपये जितनी भी मुक्तिकी कीमत नहीं समझी।

यदि मर्म जान जाय तो गंगाजीमें खड़ा हो जायगा, क्योंकि मुक्ति मिलेगी। व्यापारमें झूठ मत बोला करो तो वह कहता है कैसे चलेगा? वैद्य कहता है कि मिर्च खाओगे तो शीघ्र मर जाओगे तो वह शीघ्र छोड़ देगा। महात्मा कहते हैं कि सन्ध्या नहीं करोगे तो मर जाओगे तो वह कहता है देखेंगे। करना तो चाहता हूँ पर प्रात:काल नींद नहीं खुलती है। मनुष्य झूठ बोलकर व्यापार करता है, छोड़नेको कहो तो नहीं छोड़ता। झूठ बोलकर वह कल्याणको भी तिलाञ्जलि दे देता है। श्रद्धा होनेके बाद सब झंझट मिट जाता है। वैद्यकी औषधिमें प्रारब्धका सम्बन्ध है भगवद्विषयमें नहीं है। वहाँ पैसा लगता है, यहाँ नहीं। वहाँ कठिनाई है, यहाँ नहीं। औषधि कड़वी होती है, यह साधनकालमें भी आनन्ददायी है। बस, श्रद्धाकी कमी ही विलम्ब करती है। श्रद्धा होनेमें शंका, विलम्ब, कष्ट आदिकी कोई भी बाधा नहीं है। मूर्खतासे ही विलम्ब होता है।

श्रद्धा पूर्ण होनेसे एक क्षणका भी विलम्ब नहीं होता। वैद्यकमें एक क्षणमें लाभ नहीं होता, पर यहाँ तो पूर्ण विश्वास होनेसे एक क्षणमें भगवान‍्की प्राप्ति हो जाती है।

जो कुछ महात्मा कह दे उसे ठीक मान ले। जाबालाके पुत्र सत्यकामने श्रद्धा की थी, किन्तु बहुत समय लगा, जिन्हें श्रद्धासे शीघ्र लाभ हुआ है, ऐसे कई उदाहरण हैं।

वेदव्यासजीने शुकदेवजीको जनकके पास भेजा। श्रद्धा होनेसे बातचीत हुई। शुकदेवजीने कहा कि यही बात पिताजीने कही, मैं भी जानता हूँ, पर शान्ति नहीं मिली। जनक बोले कि श्रद्धा नहीं होनेसे शान्ति नहीं मिलती है, बस, और कुछ नहीं। यानी श्रद्धा ही प्रधान है। उत्तङ्क ऋषिने श्रद्धा की और तुरन्त दर्शन पाया। श्रद्धाके बाद विलम्ब नहीं है। श्रद्धा कैसे हो? इसके लिये ईश्वरसे प्रार्थना करे, कामना होती है तो होने दो। निष्कामभाव ऊँचा है। अरे! स्थिति तो अपनी देख इधर तो यह हालत हो रही है उधर तूँ हिसाब लगाता है छोड़ इस झंझटको, निष्कामभावकी कामना हो गयी तो तुम्हारे बन्धन ही छूट जायँगे।

पाप तो नरकमें ले जायँगे, कामना नरकमें नहीं ले जायगी। परमात्माका अभाव होता तो प्राप्त होनेमें श्रद्धा होनेपर भी विलम्ब हो जाता।

एक आदमीका हार उसे नहीं दीखा। हार था उसके गलेमें ही, किन्तु पूछता है कि मेरा हार कहाँ गया। एकने कहा कि मैं बता दूँ, वह बोला कि तू क्या बतायेगा। फिर भ्रममें पड़ा और फिर उसीसे पूछने आया। उसने बता दिया कि तुम्हारे गलेमें ही है। उसे प्रसन्नता हो गयी। ऐसे ही प्रभु-प्राप्तिकी बात है। श्रद्धा और दृष्टिकोण फिरनेसे एक क्षणमें लाभ होता है। श्रद्धा होनेके बाद कुछ विलम्ब नहीं है।

मुझे कुछ आदमी कहते हैं कि तुम भगवान‍्को मिला सकते हो; हमें ऐसा विश्वास है तो मैं कहता हूँ कि जब भगवान् मेरे अधीन हैं तो फिर मैं भगवान‍्से भी बली हुआ। फिर भगवान‍्से मिलकर क्या करोगे?

भगवान‍्से मिलनेपर क्या दशा हो जायगी सो तो मालूम ही नहीं है और तब तूँ मुझे तो भूल ही जायगा तो मेरी क्या इज्जत रही? क्या मेरेपर विश्वास है! तो कहता है हाँ, और भगवान‍्से मिलनेकी इच्छा करता है। अरे तो फिर विश्वास कहाँ रहा।

जिसको भगवान‍्से मिलना होगा वह तो खाना-पीना छोड़ देगा और पहले भगवान‍्से मिलेगा। उसे कुछ अच्छा नहीं लगेगा। वस्तुत: हम भगवान‍्का महत्त्व समझते नहीं हैं, यदि विश्वास हो जाय तो देर ही नहीं होगी। आपलोगोंको शास्त्रकी बात कही जाती है, युक्तिसंगत कही जाती है, इसमें विश्वास करना चाहिये। देखो मेरी प्रत्येक क्रिया कभी तुम्हारी श्रद्धा घटाती और कभी बढ़ाती है, ऐसे झोल खा रही है।

यदि थोड़ी-सी प्रतिकूल बात कह दें तो लड़नेको तैयार हो जाओगे। ‘सर्वभूतस्थमात्मानम्’ सारे भूतोंको जो आत्मा (पुत्र) माने यह अर्थ किया तो कहेंगे कि पागल हो गया है, यह भी कहीं अर्थ होता है। बस, श्रद्धा ही प्रधान है, श्रद्धासे ही शीघ्र लाभ होता है। मनके विरुद्ध होनेसे श्रद्धा घट जाती है और अनुकूलमें बढ़ जाती है। तत्परतासे कितना लाभ होता है, यह तो करनेसे ही मालूम पड़ता है।

श्रद्धा होनेके लायक पुरुष हो और श्रद्धा हो जाय तो विलम्ब नहीं होगा। या तो पारस नहीं है, या तो बीचमें व्यवधान है या लोहेकी जगह पत्थर है। श्रद्धा होनेपर रात-दिनका अन्तर पड़ जाता है। उसका बोलना, उठना, चलना—सब विलक्षण हो जाता है।
प्रेम-भक्तिका प्रकरण हो तो ऐसी बात सुननेके लिये भगवान् स्वयं आते हैं, हटाओ तो भी नहीं हटते।

शिवजी पार्वतीको उपदेश देते हैं और सुन रहे हैं शुकदेवजी। शुक तो पक्षी था, हम तो मनुष्य हैं, फिर भी हम नहीं सुनते। श्रद्धा नहीं होनेसे ही यह बात होती है।

जिस श्रद्धाकी बात कही है वह पुस्तकोंमें देखी है पर साक्षात् नहीं देखी है। वैसे लक्षणवाला देखनेमें नहीं आता।

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