उपरामता और ध्यानकी महिमा
प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल ५, संवत् १९९५, दिनाङ्क ३। ६। ३८, प्रात:, कर्णवास
परमात्माका ध्यान सबसे बढ़कर है। वैराग्यसे ध्यान निरन्तर रहता है। वैराग्यके समान संसारमें कुछ नहीं है। परमात्मामें प्रेम और संसारसे वैराग्य यह बात सबसे बढ़कर है। संसारसे प्रेम हटाना चाहिये। वैराग्यसे भगवान्में ध्यान, प्रेम अपने-आप हो जाता है। वैराग्य सत्संग-भजनसे होता है और विवेकद्वारा भी होता है। वैराग्यवान् की दृष्टि, वाणीमें वैराग्यकी वृष्टि होती है। वह तो वैराग्यकी मूर्ति होता है। यदि ऐसा पुरुष न मिले तो शास्त्रोंका संग भी सत्संग है। बहुत श्रेष्ठ पुरुष अधिकांशमें गुप्त रहा करते हैं। जातिसे एक ब्राह्मण है, आश्रमसे साधु है, शास्त्रोंका ज्ञाता है, किन्तु वैराग्य नहीं तो सब व्यर्थ हैं। परमात्माकी प्राप्तिवाला पुरुष विरक्ततामें ही मिलता है। जहाँ भोग, ऐश, आराम है, वहाँ परमात्मा नहीं हैं। जहाँ आराम है, वहाँ राम नहीं है। अच्छे-अच्छे साधुओंमें भी लाखोंमेंसे कोई एक पुरुष वैराग्यवान्, प्रभुके तत्त्वको जाननेवाला मिलता है। शेषतक जिसके वैराग्य, उपरामता रहे, वही महात्मा ज्ञानी प्रभुको प्राप्त पुरुष है। जहाँ वैराग्य है, वहाँ बड़ा आनन्द है। वैराग्यके पासमें आराम ठहर ही नहीं सकता। वैराग्य और उपरामता होनेके बाद अपने शरीरका आराम तो भाग ही जाता है। वह तो अपना सारा समय साधनमें बिताता है। भीतरका वैराग्य असली है। जिसके बाहर-भीतर दोनों तरफका वैराग्य है, वही ठीक है। जहाँ भोग, आराम, पाप, प्रमाद है, वहाँ परमात्माकी प्राप्तिका नामोनिशान भी नहीं है। हरेकको अपना समय वैराग्यमें बिताना चाहिये और वैराग्ययुक्त आदमीका संग करना चाहिये। कभी भी विषयासक्त पुरुषका संग नहीं करना चाहिये। उसे प्लेगकी बीमारी समझनी चाहिये। आराम शब्द है, इसका दो भाग कर देना चाहिये—आ, राम अथवा राम, आ। इस तरह करनेसे कल्याण हो सकता है। अच्छे-अच्छे विद्वानोंकी, पण्डितोंकी, महात्माओंकी सेवा करनेकी इच्छा रहती है, किन्तु जब वैराग्य नहीं होता तो श्रद्धा ठहरती नहीं, ऊपरका सत्कार होता है। अच्छे-अच्छे महात्माओंके चरित्रके पढ़नेसे वैराग्य उत्पन्न हो सकता है, ऋषभदेवजी बड़े ही विरक्त थे। वनमें जा रहे थे और चारों ओर वनमें भयंकर आग जल रही थी, किन्तु उन्हें पता ही नहीं लगा, उनका शरीर जलने लगा, किन्तु पता ही नहीं कितना तीव्र वैराग्य है।
जड़भरत खेतमें ध्यानमें मस्त बैठे रहते थे। लोग समझते मूर्ख है, किन्तु वे बड़े ही वैराग्यवान् थे। बड़े भाई खेती किया करते थे। उनके भाईने कहा कि पशुओंको खेतमें मत आने देना। उन्होंने सुन लिया। रास्तेमें जाकर खड़ा हो गया, जो गाय आती उसको खेतमें प्रवेश करा देता। उसके भाईने कहा यह क्या किया। उन्होंने कहा आपहीने तो कहा था कि गायोंको घेरना। उसके भाईने कहा अपने खेतमें नहीं दूसरोंके खेतमें घेरना चाहिये। उसने कहा अपना खेत रहते हुए दूसरोंके खेतमें क्यों? फिर उसने कहा—खेतकी जमीन बराबर कर देना। उन्होंने जहाँ गड्ढा था, वहाँ ऊँची जमीन कर दी और जहाँ ऊँची जमीन थी वहाँ गड्ढा कर दिया। काम सुधरो चाहे बिगड़ो, वह तो ध्यानमें मस्त रहते—इस प्रकारकी उपरामता होती है।
जनक तो गृहस्थ थे, तब भी वे सांसारिक विषयोंसे विरक्त थे। एक बार एक राजा जनकके पास आया और बोला मैं आपके पास उपदेशके लिये आया हूँ। मैं जिज्ञासु हूँ। आप इतना बड़ा राज्य करते हैं, स्त्रियोंके साथ रहते हैं, कुशलतापूर्वक व्यवहार भी करते हैं, तब भी आप हर समय कैसे ब्रह्ममें स्थित रहते हैं? इस बातको बतलाइये। आपका सारा काम न्याययुक्त होता है, सबको आचरणोंसे शिक्षा देते हैं, किन्तु ऐसा व्यवहार करते हुए आपकी परमेश्वरमें अटल स्थिति कैसे रहती है? जनकने कहा—स्नान करो, भोजन करो। भोजन बहुत ही अच्छा बनवाया और रसोईमें एक कच्चे सूतमें तलवार बाँध दी और नीचे थालीमें खूब अच्छा भोजन रख दिया। भोजन तो कर रहा है और दृष्टि तलवारकी तरफ है। इस प्रकार भोजन किया। भोजनोपरान्त बोला महाराज बतलाइये। जनकने पूछा—आज क्या भोजन किया, घेवर था, उत्तर मिला, होंगे। पूड़े थे, होंगे उत्तर मिला। जनकने कहा—आपने ही तो भोजन किया और आपको ही पता नहीं। तब उसने कहा महाराज मेरी दृष्टि तो तलवारकी ओर थी, स्वाद आदिका पता ही नहीं चला। इसी प्रकार निरन्तर परमात्माकी ओर ध्यान लगाना चाहिये। ये सांसारिक भोग तो ऊपरके हैं। एक दिन एक बड़े भारी विरक्त पुरुष आये, शीतकाल था, रात्रि हो गयी। महाराज स्त्रीके साथ सोये हुए थे। उनका एक हाथ स्त्रीपर था, अंगीठी जल रही थी। यह दशा देखते ही वह वापस लौटने लगा। इतनेमें दूसरा हाथ आगमें दे दिया। महात्माने तुरन्त हाथ निकाल दिया। इतनेमें जनक जाग गये। उन्होंने पूछा क्यों आये हो? उसने कहा उपदेशके लिये आया हूँ। उसने सब बातें बतलायीं कि आपका हाथ स्त्रीपर था। जनकने कहा मेरा दाहिना हाथ तो स्त्रीके सन्तोषके लिये था और मेरा बायाँ हाथ इसलिये अग्निमें था कि आपके मनमें सन्देह हो गया था, इसलिये मैंने आगमें दे दिया, मेरे लिये दोनों समान हैं। संन्यास आश्रममें संन्यासीको आगमें जैसे मेरा हाथ है, इस तरह विचरना चाहिये और गृहस्थीको दाहिने हाथकी तरह विचरना चाहिये। इसलिये वैराग्य और उपरामताकी बड़ी आवश्यकता है। वैराग्ययुक्त जो खूूब जोरकी उपरामता उत्पन्न होती है, उसका बड़ा असर पड़ता है। वैराग्य और उपरामता तो साक्षात् अमृत है। इस अमृतका पान करते समय मनुष्य यदि उस रससे छूटना चाहे तो क्या वह उस अमृतको छोड़ सकता है?
वैराग्यसे ध्यान होता है, ध्यानसे संसारमें वैराग्य होता है। वैराग्यका परिणाम उपरामता होती है, उपरामतासे प्रेम हो जाता है, जिससे कल्याण हो जाता है। संसारसे वृत्तियोंका हटना ही उपरामता है। इसलिये हमको किसी प्रकारसे अपने साधनको खूब तेज बनाना चाहिये। जैसे लोभी आदमी यही चाहता है कि और धन हो, उसे सन्तोष नहीं होता, इसी प्रकार हमें साधनके बढ़नेमें सन्तोष नहीं कर लेना चाहिये। संसारके विषयोंसे जो वैराग्य है, वह साधनमें बहुत सहायक है। दु:खी और अनाथकी सेवा करनी चाहिये, सबका सुहृद् बनना चाहिये। मनुष्यको तन, मन, धन सबसे सबकी खूब सेवा करनी चाहिये। यही समझना चाहिये कि मैं तो निमित्तमात्र हूँ, प्रभु ही करवा रहे हैं। कुसंगसे बचते रहना चाहिये। हर समय साधनमें तत्पर रहना चाहिये। भगवान्की स्मृति, ध्यान सबसे ऊँचा साधन है। दम्भी पुरुषोंसे बचते रहना चाहिये। भीतरी वैराग्य होना बड़ा आवश्यक है। धैर्य रखना चाहिये। साधन निरन्तर करते रहना चाहिये। वैराग्यवान् पुरुष सभी परिस्थितिमें सदा प्रसन्न रहता है। उसमें क्लेशोंका नामोनिशान भी नहीं रहता। वह पुरुष संसारके लिये आदर्श हो जाता है। उसकी सारी क्रियाएँ प्रयोजनवाली हैं। उनके आचरणसे मनुष्य शिक्षा ले सकता है, इसलिये उनके आज्ञानुसार हमको कार्य करना चाहिये।
सब प्रकारसे मनुष्यको प्रभुके लिये अपने-आपको अर्पण कर देना चाहिये। सब जगह परमात्माको देखना चाहिये। जैसे मनुष्य हरे रंगका चश्मा लगा लेता है तो उसे सारा संसार हरा-ही-हरा दीखता है। इसी प्रकार यहाँ हरिका चश्मा लगा लेना चाहिये, जिससे सब जगह हरि-ही-हरि दीखे। अपनी सारी क्रिया प्रयोजनवाली होनी चाहिये। एकान्तमें एकाग्रचित्त होकर साधन करना चाहिये। अच्छे गुणोंको तो ग्रहण करना चाहिये, दोषोंको छोड़ देना चाहिये।