समताकी महिमा
प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल १, संवत् १९९५, दिनांक ३०। ५। ३८, प्रात: कर्णवास
कोई भी एक महात्मा है, एक जिज्ञासु आदमी परमात्माकी जगह उसका ध्यान करता है। यदि उस महात्माको मालूम हो जायगा तो वह उसे मना कर देगा, वह कहेगा कि परमेश्वरका ध्यान करो। महात्मा पुरुष तो प्राय: अपना ध्यान करनेके लिये मना ही करते हैं।
राजा रन्तिदेवको उनचासवें दिन भोजन मिला था। वह सबको परमेश्वर समझते थे। उनकी स्त्री और बाल-बच्चे मरणासन्न हो गये थे। जब उनको उनचासवें दिन भोजन प्राप्त हुआ तो इतनेमें एक अतिथि आ गया तो उसको भोजन कराया। इतनेमें एक शूद्र आ गया, उसे भी भोजन करा दिया। फिर जब भोजनके लिये तैयार हुए, इतनेमें एक भील बहुत-से कुत्तोंके साथ आ गया, उसने कहा—मैं कुत्तोंसहित भूखा हूँ। बचे हुए भोजनको उसे दे दिया। जब सिर्फ एक आदमीके पीनेयोग्य जल ही बचा था, इतनेमें फिर एक चाण्डाल आ गया। वह पानी भी उसे दे दिया। देते ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रकट हो गये और रन्तिदेव सपरिवार परमधामको चले गये। यह सम दृष्टि होती है। इस प्रकार जो अपनी समतामें दृढ़ रहता है, वह कुत्ते, चाण्डाल सभीमें भगवान्को देखता है और एक-न-एक दिन भगवान् उन्हींमें प्रकट हो जाते हैं। श्रेष्ठ पुरुष तो न्यायसे प्राप्त हुई सेवाको भी स्वीकार नहीं करते हैं। वे तो त्यागको ही अच्छा समझते हैं। समदर्शी पुरुष ही सेवाका अधिकारी होता है। विषमता करनेवाला पुरुष यदि सेवा करता है और महात्मा उसे स्वीकार करते हैं तो वह महात्मा नहीं है। महात्माकी तो महान् बुद्धि होनी चाहिये। महात्माकी दृष्टिसे तो सम्पूर्ण सृष्टि ही उसकी आत्मा है। बिना समताके भगवान्की प्राप्ति नहीं होती, समताके बाद प्राप्ति होती है।
सबमें जो समान बुद्धिवाला होता है, वह पुरुष परमेश्वरको प्राप्त होता है।
सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥
(गीता२।३८)
जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:खको समान समझकर, उसके बाद युद्धके लिये तैयार हो जा; इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको नहीं प्राप्त होगा।
समताका नाम ही योग है। पण्डित समदर्शी होते हैं।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(गीता५।१८)
वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मणमें तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डालमें भी समदर्शी ही होते हैं।