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॥ श्रीहरि:॥

सत्संग, संयम और साधन

प्रवचन—दिनांक ६-४-१९३८, कर्णवास, प्रात:काल

राजाजी—बात तो सुन लेते हैं, पर मनन तो होता नहीं।

उत्तर—मनन तो मेरा भी नहीं होता। अभी जो बात कही, कल वैसी-की-वैसी नहीं कह सकता।

राजाजी—आपको तो आवश्यकता नहीं है। मैं तो अपने स्वार्थकी बात कहता हूँ।

उत्तर—इस काममें तो जितना ऋणी बने उतना अच्छा। भार उस काममें नहीं लेना चाहिये, जिसमें संसारी स्वार्थ हो। आप सब लोग जो कलकत्ता वगैरहसे आये हैं, जो कुछ गीताजी वगैरहके विषयमें पूछना हो, पहले पूछ लें। बहुत दिनके बाद मिले हैं।

घनश्यामजी—पहले तो नियम सुना देना चाहिये, जैसे आप ऋषिकेशमें कहते थे।

उत्तर—आज भी कहता हूँ सबमें प्रचार कर देना। हम सब यहाँ आये हैं तीर्थसेवन करनेके लिये। यहाँ हमलोगोंको प्रधानत: तीन काम करना है—सत्संग, संयम और साधन। तीनों सकार हैं। सत्संग भी तीन, साधन भी तीन, संयम भी तीन।

सत्संग—अच्छे पुरुषोंका संग, शास्त्रोंका संग और अकेले या दो लोग बैठकर परस्पर मनन करना, बोधयन्त: परस्परम्। उसी विषयमें वार्तालाप करना।

संयम—मन, वाणी और इन्द्रियोंका संयम।

मनका संयम—संसारी पदार्थोंसे मनको रोकना, यानि प्रमाद, भोग और आलस्यसे रोकना चाहिये।

इन्द्रियोंका संयम—भोग, प्रमाद, आलस्यसे इन्द्रियोंको रोकना, वशमें करना। शरीरको भी रोकना, शरीर गिर न जाय, पड़ न जाय, इसलिये आसनसे बैठना। सभी भाई लोग लघुशंकाके लिये यहाँसे बीस कदम दूर जाकर बैठें।

गंगाकी बालूमें लघुशंका नहीं करनी चाहिये। जब लघुशंका ही नहीं करनी है, तब शौच तो जाना ही नहीं। शौच शास्त्रानुसार गृहस्थको गंगाजीसे सौ कदम दूर जाना चाहिये। ब्रह्मचारीको दो सौ कदम, संन्यासीको चार सौ कदम दूर जाना चाहिये।

वाणीका संयम—वाणीसे भगवद्विषयक वाणी बोलनी चाहिये; निन्दा, मिथ्याभाषण नहीं करना चाहिये। फालतू बातें नहीं करनी चाहिये। सत्य हो तो भी कठोर वचन नहीं कहे, वाणीके संयमकी बहुत-सी बातें हैं। ये तो थोड़ेमें कहा है, विस्तार भी हो सकता है। मिथ्या, कठोर, व्यर्थ वचन नहीं बोलना चाहिये। बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनको विस्तारसे कहा जाता है। इन दस बातोंमें सावधान रहनेसे सत्य स्थिर रहता है—

  1. सत्य बोलनेवालेको मितभाषी होना चाहिये।

  2. सोचकर बोलना चाहिये।

  3. बोलते समय क्रोध नहीं करना चाहिये।

  4. लोभसे सावधान रहना चाहिये।

  5. कामके वशीभूत नहीं होना चाहिये।

  6. निंदा-स्तुति नहीं करनी चाहिये। यदि इच्छा हो तो निन्दा अपनी और स्तुति ईश्वरकी करें तो आदत भी बनी रहेगी और काम भी बनेगा।

  7. ‘कल या एक घण्टा बाद ऐसा करूँगा,’ ऐसी भविष्यकी बात नहीं कहनी चाहिये।

  8. भय भी नहीं करना चाहिये। मनमें किसीका भी भय नहीं करना चाहिये। भय तो दोषी आदमी करता है। अपराध नहीं किया तो भय कैसा?

  9. कोई अज्ञानवश मिथ्या बोलता है, वह भी नहीं बोलना चाहिये।

  10. अहंकारसे सावधान रहना चाहिये।

ये वाणी-संयमके दस सूत्र हैं।

जीभमें वाक्-इन्द्रिय और रस-इन्द्रिय दोनों ही हैं, किन्तु केवल जीभपर ही वाक्-इन्द्रिय नहीं है। प, फ, ब, भ, म में जीभकी आवश्यकता नहीं है, पर वाक्-इन्द्रियका अधिकांश आधार जीभपर ही है। तीन हिस्सा जीभपर है, एक हिस्सा अधरपर है।

जिह्वामें रस प्रधान है। भोजन स्वादकी दृष्टिसे नहीं, निर्वाहके लिये करना चाहिये, सारे शरीरमें रस ही प्रधान है। सबकी जड़ भोजन है। विषयबुद्धिसे भोग भोगा हुआ पतन ही करेगा।
भोजन तैयार हुआ तो पहले स्वास्थ्यके लिये देखना चाहिये। चाहे नीमका साग हो, यदि वह शरीरके लिये लाभकारी है।

संयममें दूध और जलको छोड़कर खानेकी एक, लगानेकी एक, चावल-दाल, दाल-रोटी, साग-रोटी इस प्रकार दो ही वस्तुएँ भोजनमें लेनी चाहिये। यदि दो वस्तुओंका नियम नहीं ले सको तो तीन रखो, दाल-साग और फलका, खिचड़ीमें घी लिया तो आपत्ति नहीं, चावलमें घी-चीनी लेना भी एक ही वस्तुकी गिनतीमें है। बस, इससे आगे नहीं बढ़ना, फिर आपकी इच्छा। देखो पाँच वस्तु हो गयी और अधिक क्या होगा? मुझे तो कई दिन हो गये, अधिक वस्तुकी आवश्यकता नहीं पड़ती।

साग, दालमें अमचूर और लाल मिर्चका बचाव करो, ये उत्तेजक हैं। मिर्च चाहो तो गोलमिर्च डाल सकते हो, परन्तु जहाँतक हो सके आसक्तिमें नहीं बँधना चाहिये। दोका त्याग कर दिया तो बहुत हो गया, केवल नमक ही रखो तो और भी अच्छा है। दूध, घी, जलकी तो छूट है ही। भोजन दो बार होता है, किन्तु अधिक संयम करना चाहो, एक बार करो तो और भी अच्छा है। मुझे तो दूधकी ही आदत पड़ गयी है। दूध ले सकते हो। जिसको उपाधि नहीं हो, वह उपाधि नहीं लगावे।

प्रसादका प्रमाण छ: मासातक है, इसके ऊपर लेना भोजन है। यों तो भोजन भी प्रसाद ही है, किन्तु मन्दिर आदिमें जानेपर जो प्रसाद मिले, वह छ: मासा (लगभग ६ ग्राम)-से अधिक नहीं लेना चाहिये। यदि हम बिलकुल नहीं लें तो प्रसादका अपमान होता है। अधिक लें तो मन्दिरका खर्च बढ़ता है। प्रसादमें अपवित्र वस्तु नहीं लेनी चाहिये। निषिद्ध वस्तुका तो लोग प्रमादसे भोग लगाते हैं।

नेत्रोंका संयम—रास्तेमें चलनेमें क्षुद्र जीवोंका नुकसान नहीं हो तथा दृष्टि रास्तेकी तरफ रहे, सब ओरसे समेटी हुई हो। विशेष करके स्त्रियोंकी ओर नहीं जाय, यदि चली जाय तो भगवान‍्का स्मरण कर लेना चाहिये। बस, उसका दोष स्वाहा हो जायगा।

रमणीक पदार्थ—जिससे कामदीपन हो, ऐसे पदार्थ जिसको हम सुन्दरता कहते हैं, जिसको देखकर मनमें कामका विकार हो वह अर्थात् शौकीनी नहीं करना। वशमें करना (यम) ही संयम है, आवश्यक कार्य ही देखना चाहिये।

कानोंका संयम—फालतू बातें नहीं सुननी चाहिये, कोई मिला तो नमस्कार किया और चल दिये। वह भी समझ जायगा कि यह फालतू बात नहीं सुनेगा। कोई अपना भाई हो तो राम-राम, जयगोपाल, पूज्य हो तो प्रणाम करना चाहिये, फालतू बात नहीं करनी चाहिये।

आवश्यकता जितनी मिटा सको, उतनी मिट सकती है। तुम्हारी आवश्यकता पूरी करनेके लिये हमें प्रबन्ध करना पड़ता है।

तुमको बूरा (शक्‍कर) लेना है, वह बाजारमें मिलता है, तो मुझसे लेनेकी आवश्यकता नहीं है। रहा पिसानेका काम, वह हमारेसे ले लो। यानि जो वस्तु बाजारमें मिले, वह हमसे नहीं लो।

जो काम स्वयं कर सको वह कर लो, नौकरकी आवश्यकता नहीं रखनी चाहिये। जितना हो अपना काम आप ही कर ले, देख ले कि यह काम नहीं चलेगा तो दूसरेको कष्ट देना चाहिये।

दूध जिसको बाजारका चलता है, वह मुझे कष्ट नहीं दे। शास्त्रके अनुसार एक नम्बर गाय, दो नम्बर बकरी, तीन नम्बर भैंसका दूध है। बात यह है कि हम यहाँ साधन करनेके लिये आये हैं, बारातमें नहीं आये हैं। मन, इन्द्रिय, वाणी, शरीरको रोकना ही संयम है।

नीचे सोनेसे काम चले तो बिछौना नहीं करना चाहिये। बिछौनेसे काम चलता हो तो चारपाई नहीं बिछानी चाहिये। इस प्रकार संयम करना चाहिये। मुझसे कोई बिछावन माँगे तो मेरे पास तो सिर्फ चटाई है।

हमलोग यहाँ साधन, तप करने आये हैं, आराम तो घरमें होता है, बाहरमें तो कष्ट ही है। यहाँ तो वैराग्य स्वाभाविक ही पैदा होता है और इसीलिये हम यहाँ आये हैं, भोगोंके लिये नहीं।

शरीरका संयम—सोना ज्यादा-से-ज्यादा छ: घंटा और इतना कम भी नहीं सोना जिससे आलस्य आये। आलस्यकी दशामें सत्संगमें तो आना ही नहीं चाहिये। यदि सात घंटा सोनेसे आलस्य मिटे तो सोना अच्छा है। चार बातोंके लिये उपवास करना चाहिये—

  1. यहाँ ७.३० बजेका समय है। ५ मिनट छूट है, इसके बाद विलम्ब हो तो कहला दो, नहीं तो एक बारका उपवास करो, यह नियम हर्जा चुकाना है, दण्ड है।

  2. यदि परस्त्री दीखे तो प्रभुका स्मरण करना चाहिये, इससे दोष मिट जायगा। भोगबुद्धि हो जाय तो उपवास करना चाहिये।

  3. जान-बूझकर मिथ्या बोला जाय तो उपवास करें, क्योंकि यह पाप है।

  4. क्रोध आ जाय तो एक समय उपवास करना चाहिये।

यदि उचित समझो तो समयानुसार सन्ध्या करनी चाहिये। यदि नहीं कर सके तो एक समयका उपवास करना चाहिये।

ये दो माहतक तो यहाँ करके देख लो, पीछे ठीक पड़े तो सदा करना चाहिये। नहीं तो घर जाकर फिर इच्छा आपकी।

संयम और सत्संगके अलावा साधन—

  1. हो सके तो दोनों समय गंगास्नान करना चाहिये। तीन बार करे तो और भी उत्तम है, यह साधनमें शामिल है।

देखो, गंगास्नान साधनमें है, यह बड़ी महत्त्वकी बात है। गंगाके दर्शन, स्पर्श, चिन्तन, स्नान, पानसे पापोंका नाश होता है। केवल स्नान करनेसे ही ये सब बातें हो जाती हैं, इसलिये स्नानका विशेष लाभ है। यह एक प्रधान साधन है। श्रद्धासे स्नान करनेपर मुक्ति हो जाती है। जहाँतक हो सके, गंगा-किनारे आकर ही मरें। तीर्थोंमें सबसे उत्तम भागीरथी तीर्थ है। ज्ञानीको तो लोकसंग्रहके लिये ऐसा करना चाहिये।

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
(गीता ३।२१-२२)

श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसीके अनुसार बरतने लग जाता है।

हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।

  1. भजन-ध्यान एकान्तमें करना चाहिये। ‘तज्जपस्तदर्थभावनम्।’ ११.३० से २.३० बजेतकका समय इसीलिये खाली रखा है कि तीन घंटा एकान्तमें बैठकर मनन करना चाहिये। घरमें तो साधन प्रात:-सायं ही रहता है, दोपहरका नहीं, परन्तु यहाँ तो दोपहरको भी मनन करना चाहिये। कहीं भी बैठकर साधन करो, किन्तु गंगा-किनारे जैसा होगा, वैसा और कहीं नहीं होगा। गंगाके वातावरणमें ऐसी सात्त्विकता है कि उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है।

गंगाकी हवा आती है, उसमें अद्भुत गंध, सात्त्विकता है। ऐसा अध्यात्म-पदार्थ भरा है कि उससे बुद्धि स्वत: सात्त्विक हो जाती है। दोपहरमें भी गंगा-किनारा अच्छा है; परन्तु धूप होनेके कारण वृक्षोंकी छायामें जाना चाहिये। साधन भोजन करनेके बाद करना तो चाहिये; परन्तु उत्तम तो भोजनके पूर्व ही करना है, यह सदाका नियम है।

  1. सेवा—सबकी समभावसे सेवा करना ऊँची बात है। साधन करनेवालोंकी सेवा करना स्वार्थकी बात है। महात्मा और कुत्तेकी समभावसे सेवा करना चाहिये। स्वार्थकी बात यह है कि साधकोंकी सेवा करना साधनसे भी अधिक लाभप्रद है। सौ साधकोंकी एक आदमी सेवा करे तो उसको उनके साधनका एक आना अंश मिल जायगा। सौ साधकोंकी सेवा की तो छ: रुपये हो गये। प्रत्यक्ष तो नहीं दीखता, पर घरमें धन आता है।

१००/- दान दिया तो थैलीमेंसे तो घट गये, परन्तु पुण्य बढ़ गया। ऐसा विश्वास नहीं हो तो दान कौन दे? वह लाभ अपरोक्ष तो नहीं है, परोक्ष है। देखनेमें तो भोजनसे तृप्ति होती है, वही भोजन दूसरेको करा दे तो वस्तुत: लाभ तो है ही। हाँ, शरीरमें तो भूखका कष्ट होगा ही, परन्तु लाभ होगा। भोजनके विषयमें तो हरिश्चन्द्रसे अधिक रन्तिदेवका उदाहरण उत्तम है।

दु:खियोंकी सेवा करनेमें रन्तिदेवने अनाथ, भूखे, दु:खियोंके लिये सारा खजाना लुटा दिया। आखिरमें उन्हें अड़तालीस दिनतक खानेको नहीं मिला। उनचासवें दिन न्यायोचित भोजन मिला, तब राजाने कुटुम्बसहित भोजनकी तैयारी की। इतनेमें एक ब्राह्मण आया, नियमानुसार उन्हें भोजन करवाया। तब फिर भोजन करने बैठे, इतनेमें एक शूद्र आया तो उसको भी दिया। फिर तैयारी की तो एक चाण्डाल कुत्तोंको लेकर आया तो राजाने वह अन्न कुत्तोंको दे दिया। बचा हुआ थोड़ा-सा जल वे पीनेको तैयार थे कि इतनेमें एक चाण्डाल आया तो वह भी चाण्डालको दे दिया। बच्चा, स्त्री तथा स्वयं सब प्यासे, भूखे हैं तो भी प्रसन्नतासे देते हैं। बस, ब्रह्मा, विष्णु, महेश प्रकट हो गये, बोले हम ही चाण्डाल आदि बने थे, वर माँगो। उन्होंने भगवान‍्से माँगा कि मुझे राज्य, स्वर्ग या मुक्ति नहीं चाहिये। दु:खसे पीड़ित प्राणियोंके दु:खकी समाप्ति हो जाय, मेरी यही कामना है। भगवान‍्ने उन्हें सपरिवार वैकुण्ठ भेज दिया।

न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम्॥

देखो राजाको साधनमें कष्ट ही हुआ, किन्तु क्षणभरमें वैकुण्ठको चले गये। सेवा करनेवालेको तो सेवा करनेमें उत्साह होता है। जिनको वस्तुत: सेवामें श्रद्धा, प्रेम है उनको आनन्द होगा। अन्त:करण सेवासे शुद्ध होता है।

तन, मन, धन, जनसे सेवा करनी चाहिये, यदि सेवा ऐसी महत्त्वकी वस्तु नहीं होती तो जो महात्मा कृतकृत्य हो गये हैं, उनको सेवा करनेकी क्या आवश्यकता थी। जो लौकिक लाभहेतु सेवा करते हैं, वह सेवा है। पारलौकिक सेवा ही परम सेवा है।

भगवान‍्ने साधनके लिये भी आज्ञा दी है और सेवाके लिये भी आज्ञा दी है। गीता १८। ६८में कहा है कि मेरे भक्तोंमें जो गीताका प्रचार करेगा वह मुझे प्राप्त होगा। जो गीताका प्रचार करता है, वह साधक ही है।

भगवान् कहते हैं वस्तुत: वह मेरा ही काम है। ऐसा पुरुष न हुआ, न होगा। ऐसा वचन भगवान‍्ने और कहीं नहीं कहा है। भविष्यकी बात कही है—

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम:।
भविता न च मे तस्मादन्य: प्रियतरो भुवि॥
(गीता१८।६९)

उससे बढ़कर मेरा प्रिय कार्य करनेवाला मनुष्योंमें कोई भी नहीं है; तथा पृथ्वीभरमें उससे बढ़कर मेरा प्रिय दूसरा कोई भविष्यमें होगा भी नहीं।

एक मजेकी बात गीतामें यह है कि जितना महत्त्व साधकको दिया है, उतना सिद्धको नहीं दिया है, क्योंकि सिद्ध तो अपनी महिमा ही गायेगा और वह सिद्ध भगवान् ही है। परन्तु साधकको बड़ा कहा है ‘भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया:’ कहा है। श्रद्धा और उपासना शब्द दिया है। जहाँ उपासना कहते हैं, वहाँ ध्यान देकर देखो तो ‘युक्ततम’ यह साधकके लिये है।

परोक्ष वस्तुको ही श्रद्धाकी आवश्यकता है। हमारी बात मान लो यही श्रद्धा है। भगवान् कहते हैं कि जिनको प्राप्ति हो गयी उनकी तो बात ही क्या है, किन्तु जो मुझपर निर्भर है, वह मुझे सबसे अधिक प्रिय है।

योगिनामपि सर्वेषां मद‍्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता६।४७)

सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् योगी मुझमें लगे हुए अन्तरात्मासे मुझको निरन्तर भजता है, वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है।

श्रद्धा शब्द लगाया वहाँ अपरोक्ष है। सिद्धको तो प्रत्यक्ष है। प्रत्यक्षसे बढ़कर जो श्रद्धा है, वह परम श्रद्धा है। मेरे पास दस हजार रुपये हैं। मैं कह दूँ तो विश्वास कर लेना—यह श्रद्धा है। प्रत्यक्षसे बढ़कर श्रद्धा—वटका वृक्ष है, इसको आमका कह दूँ तो मान लो—यह उत्तम श्रद्धा है। जो है, उससे उलटी बात मान लेना ही प्रत्यक्षसे बढ़कर श्रद्धा है।

राजा द्रुपदको सन्तान नहीं थी। भगवान् शिवकी उपासना की, वरदानमें कन्या मिली। द्रुपद बोले कि इससे तो मेरा कार्य सिद्ध नहीं हुआ। शिव बोले कि बारह वर्षके बाद लड़की ही लड़का हो जायगा। परम श्रद्धा होनेसे राजाने सब जगह लड़का होनेकी बात फैला दी और विवाह भी लड़कीके साथ कर दिया। पुत्रवधू ने अपने माता-पितासे वास्तविकता बतायी तो उसके पिताने द्रुपदके नगरको घेर लिया, द्रुपदको चिन्ता हुई कि क्या करें। उस राजाने कहा कि तुम बड़े मूर्ख हो; जो हमारी लड़कीके साथ अपनी लड़कीका विवाह कर दिया। अपने श्वशुरद्वारा आक्रमणकी बात सुनकर शिखण्डी उत्तराखण्डमें (वनमें) चला गया। वहाँ कुबेरका एक यक्ष बैठा था।

उससे बात की और कहा कि मैं पुरुष हो जाऊँ तो बच सकता हूँ। तब कुबेरके सेवकने अपना पुरुषत्व उसे दे दिया और उसका स्त्रीत्व ले लिया। शिखण्डीने घर जाकर कहा कि मैं लड़का हो गया। उस राजाको द्रुपदने कहा कि देखो आपने बिना विचारे चढ़ाई की। शिखण्डीको बुलाया तो वह लड़का दीखा। यह देखकर राजा लज्जित हो गया। वह पहले स्त्री था, इसलिये भीष्म शिखण्डीपर हाथ नहीं उठाते थे। राजा द्रुपदको कितना विश्वास हो गया कि शिवके वचनोंमें परम श्रद्धा होनेसे लड़कीको भी लड़का माना। यह परम श्रद्धा है। ऐसे पुरुषोंकी महिमा भगवान‍्ने गायी है कि वही प्रेमी है।

हमलोग तीर्थमें संयम, सेवा और साधनके लिये आये हैं।

ती+अर्थ=तीन अर्थ तीर्थमें मिलते हैं। होते चार हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; परन्तु अर्थ तो खर्च हो जाता है, बाकी तीन मिलते हैं।

राजसी तो कामना लेकर आता है। सात्त्विक धर्मपालन और मोक्ष-प्राप्तिके लिये आते हैं, गुणातीत तीर्थोंको पवित्र करने आते हैं। महात्मा तो तीर्थोंको भी तीर्थ बनाने आते हैं। तीर्थ-संज्ञा संतोंसे ही है। भागीरथीकी महिमा भागीरथसे है। भक्त या अवतारके निमित्तसे ही तीर्थ बने हैं। भक्तकी महिमा भगवान‍्के प्रतापसे और भगवान‍्की महिमा भक्तके प्रतापसे है। जो ईश्वरको नहीं मानते, उन्हें ईश्वरको मालूम करानेवाले भक्त ही हैं। प्रह्लादने हिरण्यकशिपुको बताया कि भगवान् हैं।

आज संसारमें भगवान‍्की मान्यता भक्तके प्रतापसे है। भगवान् कहते हैं कि भक्तके पीछे मेरी इज्जत है। नहीं तो कौन पूछे? यह बड़ी गोपनीय बात है।

संसारमें भक्तिका प्रचार भगवान् स्वयं नहीं करते। वह तो भक्तोंके द्वारा ही होता है। अपने लिये जो विधान है भगवत्कृपापर निर्भर करना है। दूसरोंको भगवान‍्में लगाना—यह प्रयत्नसाध्य है। भगवान‍्की शरण जाना अपना काम है। वह स्वत: शरण नहीं लेते। संसारको भक्तिमें लगाना है, इसमें (प्रचारमें) स्वतन्त्रता है। पापीको भगवान् मदद नहीं देते, ऐसी बात शास्त्रोंमें नहीं मिलती। भक्तिके प्रचारमें भगवान् उसे सहायता देते हैं। राज्यके प्रतिकूल करनेपर राजा निकाल देता है, सहायता नहीं देता, परन्तु अनुकूलमें मदद मिलती है।

भगवान् अपना प्रचार नहीं करते, क्योंकि वह उनके लिये लज्जाकी बात है। भक्तोंद्वारा प्रचार कराते हैं, इसलिये वे भक्तोंके अधीन हैं। यह तो विनोद है। इसमें भगवान‍्को कठोर भी कह सकते हैं। यह भक्तिमार्गके रहस्यकी बात है।

भक्त मुझसे बड़ा है। मैं भक्तके चरणकी रज हूँ ‘अहं भक्तपराधीन:’ भगवान‍्की दृष्टिसे यह कथन है। भक्त यही कहता है कि मैं आपका दास हूँ, सेवक हूँ।

भक्तकी दृष्टिमें भगवान् बड़े और भगवान‍्की दृष्टिमें भक्त बड़े हैं। शंकरको विष्णु बड़ा मानते हैं, विष्णु शंकरको बड़ा कहते हैं कि शंकरकी भक्तिवाला ही मेरे रहस्यको जानता है। मेरे प्रेमियोंसे मेरी प्रार्थना है कि जो प्रसिद्ध संत हैं करपात्रीजी, हरिबाबा आदि, उनकी सेवा-सत्कार मेरे-से अधिक करना चाहिये। वस्तुत: मैं ठीक कहता हूँ। उनका तिरस्कार मुझे खटकता है, मेरा नहीं खटकता। यह बात स्पष्ट कही है।

राजाजी—लोग भक्तोंका तिरस्कार क्यों करते हैं?

उत्तर—मूर्खतासे करते हैं। जैसे नारायणस्वामी आये हैं। किसीने कहा कि हम तो जयदयालजीके सत्संगमें आये हैं तो इसमें नारायणस्वामीका तिरस्कार है। दूसरेका तिरस्कार हो ऐसे शब्द नहीं कहना चाहिये। एक महत्त्वकी बात है—

दो भाई ईश्वरके ऊपर श्रद्धा करते हैं। एक तो कहता है कि श्रद्धा करता हूँ, दूसरा श्रद्धा करता है किन्तु कहता नहीं है, नहीं कहनेवाले काममें ही रहना चाहिये। ईश्वर तो अन्तर्यामी हैं, जानते हैं, परन्तु साधारण मनुष्यको तो कहनेसे ही मालूम होगा नहीं बोलनेसे नहीं मालूम होगा। जो कहते हैं कि मैं सेवा करूँगा, एक नहीं कहता और सेवा करता है तो यही उत्तम है। वह चाहे जाने या न जाने, श्रद्धा तो वही उत्तम है जो कही न जाय। रामचन्द्रजी भी कहते हैं कि मुझे मालूम होता कि वनमें जानेसे भाई मारा जायगा तो मैं सचेत हो जाता। क्या उनको मालूम नहीं था! न जाने क्या लक्ष्य करके कहते हैं। सीताके लिये व्याकुल होते हैं। क्या वे जानते नहीं थे! परन्तु चरित्र करना था, इसलिये ऐसे बने हुए हैं।

रामायण देखनेपर मालूम होता है कि लक्ष्मण, पार्वती आदिको भी उनका चरित्र देखकर भ्रम हो गया था।

महात्मामें जो प्रेम है, श्रद्धा है, इसे वे महापुरुष नहीं जानें तो हानि नहीं। सम्बन्धको महात्मा नहीं समझें, यह कैसे हो सकता है। वे मूर्ख तो हैं ही नहीं। महात्मा और ईश्वरकी श्रद्धा, भक्ति जितनी गोपनीय रखोगे, उतनी बढ़ेगी। यही बात पाप-पुण्य, भजन-ध्यानमें है। तुम्हारेमें कोई अच्छी बात है, उसको दबा लो। कपूरकी डिब्बी खोलनेसे कपूर उड़ जाता है। अपना मुँह खोलनेसे श्रद्धा घट जाती है। निकालना तो अवगुणों और पापोंको चाहिये। एक और महत्त्वकी बात है। किसी महापुरुषमें प्रेम है। अपनी आत्मा उनके गुण-प्रभावको देखकर श्रद्धासे झुकती है और वे मना करते हैं तो मनसे प्रणाम करनेका अधिक महत्त्व है। गुप्तका जो महत्त्व है, वह दिखानेमें नहीं है। भगवान‍्की षोडश प्रकारकी पूजासे भी मूल्यवान् मानसिक पूजा है। अंतरंगभाव बहिरंगसे बहुत ऊँचे दर्जेके हैं। उत्तम क्रिया तो अंतरंगभावसे ही करनी चाहिये। धनके लिये कह दे कि मेरे पास दस लाख रुपया है तो अभी डाका पड़ जाय और कह दे कि हम तो कपड़े लाये हैं तो कुछ भय नहीं होता।

राजाजी—गुणोंपर डाका कैसे पड़ता है?

उत्तर—गुणोंको प्रकाशित करनेसे डाका पड़ता ही है, क्योंकि प्रकाशित करनेसे निजका साधन रुक जायगा और मान-प्रतिष्ठासे लुट जायगा, यही डाका है। उसके पास जो कुछ है, उसे लोग ले जायँगे। अगर साधन (भक्ति)-की रक्षा चाहो तो छिपाकर रखो। इसके लिये कपूरका उदाहरण ठीक है, समझ लो खोला तो उड़ा। कपूरमें तो घटना ही है बढ़ना नहीं है, पर भक्ति तो बढ़ती है। प्रकाशित करते हैं मूर्खतासे और आसक्तिसे। अपनी श्रेष्ठता प्रकाशित करना अपने गलेमें छूरी मारना है। इस बातमें महात्मा पुरुषकी नकल नहीं करनी चाहिये।

एक भाई अंग्रेजीमें बात करता है, लिखता है तो दस आदमी कहेंगे कि यह होशियार है, किन्तु हम निर्णय नहीं कर सकेंगे कि यह बी० ए० पास है या एम० ए०। ऐसे ही सूक्ष्म बातकी तो महापुरुष ही जाँच करते हैं। बाहरी क्रियासे जाँच नहीं होती, अन्तरकी क्रियासे होती है। रामानुजाचार्य, शंकराचार्य आदि तो शिष्य बनाते थे, उसमें कोई दोष नहीं मानते थे। कोई-कोई ठीक नहीं समझता तो शिष्य नहीं बनाता, परन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि जो स्वीकार करते हैं, वे ऊँचे हैं और जो स्वीकार नहीं करते, वह नीचे है, ऐसी बात नहीं है। साधकको तो मान-प्रतिष्ठासे लाख कोस दूर रहना चाहिये। जो कल्याण चाहे, उसे उनसे दूर रहना चाहिये। सिद्ध पुरुष क्या करते हैं, साधकको यह नहीं देखना चाहिये।

बस, मान, बड़ाई, आलस्य, प्रमादका ध्यान रहे और कुछ नहीं। सिद्धमें भी यदि साधकके समान बर्ताव है तो वह विशेष गुण है, गौरव है, प्रशंसाके लायक है।

साधु-महात्मा जिससे प्रसन्न हों, वही कार्य करना चाहिये। वे अपने लिये अधिक लाभ सोच सकते हैं। यदि उनको (महात्माको) विक्षेप हो तो ऐसा लाभ नहीं उठाना चाहिये, चाहे अपनी मुक्ति होती हो तो भी महात्माको विक्षेप हो, ऐसा काम नहीं करना चाहिये। एक साधुकी भिक्षामें बाधा आती हो तो दूसरा साधु भिक्षा नहीं ले। कह दे कि हम तो उपवास ही करेंगे।

साधुको विक्षेप हो और अपनी मुक्ति हो तो किसी कामकी नहीं और दोनोंको लाभ हो, दोनोंका हित हो तो गौरवकी बात है। सबसे नीची बात साधुको विक्षेप कराकर लाभ उठाना है, फिर अपनेको नुकसान और साधुको लाभ हो—यह दूसरी बात है। दोनोंको लाभ हो तो यह सर्वोत्तम बात है। मेरा तो स्वार्थ है, आप भले पधारे।

राजाजी—हम यह कैसे कह सकते हैं। हम तो अपने स्वार्थके लिये ही आये हैं।

उत्तर—हम भी स्वार्थके लिये आये हैं। सबको यही मानना चाहिये।

राजाजी—बस, अब क्या कहें। हो गयी बात।

उत्तर—प्रवृत्ति तो किसी लेन-देनको लेकर ही होती है, इसलिये कोई-न-कोई लाभ तो होगा ही। हम सब लाभके लिये ही आये हैं।

राजाजी—हाँ, यह तो ठीक ही है।

उत्तर—अपनी आपसी बातें हैं, यह भी लाभकी हैं। मैं यह मान लूँ कि तुम्हें कैसे मिलेगी तो यह ठीक नहीं। तुम्हारे ही पीछे मैं और मेरे पीछे आपकी परस्पर बात होती है।

कल राजाजीके यहाँ दोपहरमें बात हुई, शामको रेतीपर हुई। मैं तो कहता हूँ कि यदि आप कोई नहीं आयें तो मैं यहाँ बैठकर वृक्षसे तो बात करूँगा नहीं।

चूरू, बाँकुड़ा, कलकत्ता, यहाँ कहनेवाला भी मैं ही हूँ। मेरे स्थानमें दूसरा तो आता ही नहीं, फिर तारतम्यता कैसी। मैं बाँकुड़ा भी रहता हूँ, सबसे व्यवहार होता है, परन्तु यहाँपर दूसरी बात है। आदमियोंकी विशेषतासे बातें विशेष होती हैं। ऐसी चेष्टा करनी चाहिये कि बढ़िया-बढ़िया बातें हों तो सबको बढ़िया ही मिलेगी।

राजाजी—यही बड़ी मार्केकी बात है, ध्यान रखना चाहिये।

उत्तर—बस, बढ़िया-बढ़िया बात होनेकी चेष्टा होनी चाहिये। आज एक माह बाँकुड़ासे चले हो गया, मुझे तो विशेषरूपसे एक माहमें पन्द्रह घंटे बहुत लाभप्रद मिले, बाकी समय यों ही गया। दो घंटा राजाजीका, तीन घंटा रेतीका, एक घंटा रेवाड़ीमें, छ:-आठ घंटा चूरूमें लाभप्रद बीता। यों तो समय एक माह बीत गया, पर लाभप्रद तो पन्द्रह घंटा ही बीता। आपलोग निमित्त हैं, इसलिये यहाँ विशेष बातें होती हैं। और जहाँ कहीं व्याख्यानका काम पड़ा, वहाँपर तो जबरदस्ती बिना इच्छा कहा, वह गिनतीमें नहीं है। मूल्यवान् तो आपलोगोंके कारण ही होता है। यह समय असली बीतता है।

मैं तो यह देखता हूँ कि अब समय कैसा बीता। वही ठीक समझता हूँ, जिसमें दामी बात हो।

जिस समय विशेष बातें हृदयमें पैदा हों, वही ऊँचे दर्जेका समय है। उन विशेष बातोंमें प्रधान निमित्त सुननेवाले हैं। जैसा वातावरण होगा, वैसी बात होगी।

चरखी दादरीका समय जबरदस्ती निकाला था। चरखी दादरीमें एक घण्टेमें इतनी ऊँची बात हुई कि वैसी बात कहीं नहीं हुई। बड़े मार्केकी बात हुई। वे बोले कि सारे जीवनकी बात एक घण्टेमें मिल गयी, वहाँ सब बात कह दी थी। प्रधानता तो सुननेवालोंकी है, जब सुननेवालोंको लाभ है तो मेरेको तो अधिक ही होगा।

राजाजी—आपको क्यों नहीं हो?

महात्मा पुरुषकी बुद्धिमें भी भगवान‍्की सारी बात नहीं आ सकती। जैसे आकाशका प्रतिबिम्ब दर्पणमें नहीं आता, ऐसे ही महात्माकी बुद्धिमें जो बात है, वह दूसरेको समझानेके इतने विकल्प तैयार नहीं कर सकते कि समझा सकें। जितनी मनमें समझानेकी शक्ति है, उतनी हाव-भावमें नहीं, हाव-भावमें जितनी है, उतनी सब सुननेवालोंको लाभप्रद नहीं होती, क्योंकि कोई कहता है कि मैं सुन नहीं पाया। फिर जितनी सुनी, उतनी मनने नहीं पकड़ी। मनने जितनी पकड़ी, उतनी बुद्धिमें नहीं आयी। बुद्धि जो समझी है, उतनी धारण नहीं हुई। आत्मामें जो धारण हुई है, वही लाभप्रद है। जितना सुना उसका कितना अंश धारण हुआ। जहाँसे बातें चली हैं, वहाँकी तो बात ही क्या है? ऐसी बातें होती रहें तो तलवार चलनेकी भी परवाह नहीं करेगा। इस प्रकारकी बातें हर समय होनेके लिये मुझे उपाय बताओ तो मैं हर समय ही करूँ। बात यह है कि अरणीकी लकड़ीमें आग है, पर संघर्षसे ही प्रकट होती है।

राजाजी—हाँ, यह बात तो है, पर बदन काटनेकी बात समझमें नहीं आयी।

उत्तर—मनके अनुकूल बातें होती हैं, तब वह तन्मय हो जाता है। उसकी शरीरमें स्थिति नहीं रहती। जैसे सुषुप्तिमें ऐसी अवस्था होती है कि शरीर काटा जाय तो कुछ असर नहीं होता।

यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २२)

परमात्माकी प्राप्तिरूप जिस लाभको प्राप्त होकर उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता और परमात्मप्राप्तिरूप जिस अवस्थामें स्थित योगी बड़े भारी दु:खसे भी चलायमान नहीं होता।

इस प्रकार उसको साधन अवस्थामें ऐसा आनन्द होता है कि उस रसका वर्णन करनेमें नहीं आता, ऐसा रसास्वाद आता है। सिद्ध पुरुष और परमेश्वर रसमय है, परन्तु वे (साधक) रसका-सा अनुभव लेते हैं।

भगवान् कहते हैं कि भक्त तो आनन्दमयको भी आनन्द देनेवाला है, मेरे आनन्दकी सीमा नहीं रहती। रामचन्द्रजीको देखकर राजा जनकका भी अद्भुतभाव हो गया था। देखो एक अनोखी बात—चन्द्रकान्तमणि पत्थर है, वह चाँदनी रातमें अमृत बहाने लगती है। पत्थर होते हुए भी अमृत झरता है, जड़ वस्तुमें भी द्रवीभाव होता है। चन्द्रस्थानमें प्रभु हैं, चन्द्रकान्तमणिके स्थानपर महात्मा हैं।

प्रेमरसका द्रवीभाव किस प्रकार होता है? प्रेम जब पूर्णावस्थाको प्राप्त होता है, तभी द्रवीभाव होता है। महात्मा पुरुषमें किसी प्रकारका विकार नहीं होना चाहिये। यह विकार नहीं है तो क्या है? ज्ञानके सिद्धान्तसे कुछ नहीं, भक्तिके सिद्धान्तसे परमात्माका स्वरूप है। भक्ति, ज्ञान, आनन्द यह परमात्माका साक्षात् स्वरूप है।

भगवान् वाणीसे अतीत हैं, फिर हम वाणीसे कहते हैं कि आनन्दघन हैं, सगुण हैं। बुद्धिग्राह्य तो सगुण ही हैं। जब विशेष रूपमें प्रकट होते हैं, तब पहले प्रकाश होता है और फिर साक्षात् होते हैं। प्रकाशके भी दो भेद हैं, जैसे किरण और सूर्य। सूक्ष्म किरण और स्थूल सूर्य; किरण सूर्यकी अपेक्षा निराकार है। चेतनता खास स्वरूप है।

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परन्तप॥
(गीता११।५४)

परन्तु हे परंतप अर्जुन! अनन्यभक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुज रूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।

ज्ञानकी सातवीं भूमिकामें सगुणका दर्शन नहीं होता। भक्तमें भगवान् आते हैं, तब विशेष रूपमें आते हैं।

जो उस विज्ञानानन्दघन परमात्माको प्राप्त होते हैं उनकी द्रवीभूत अवस्था होती है। सगुणकी प्राप्तिवालोंको तो होती है परन्तु निर्गुणमें भी होती है, पर सभीको नहीं होती।

जहाँ संसार है वहाँ विकार है, जहाँ संसार नहीं है वहाँ विकार नहीं है। हर्ष, शोक, अनुकूलता प्रतिकूलता ही दु:ख है।

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