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सेवा, प्रणाम, बलिवैश्वदेव एवं मानसिक पूजासे कल्याण

प्रवचन—मिति ज्येष्ठशुक्ल ३, संवत् १९४५, दिनांक १। ६। ३८, प्रात:काल, कर्णवास

मनमें सदा ही सेवाभाव रखे। जो सेवा किया करते हैं उनको लक्ष्यमें रखकर सेवा करनी चाहिये। जैसे रेलमें जाते हैं, हम आरामसे बैठें, दूसरा चाहे दु:ख पावे, यह भाव नहीं रहना चाहिये। अपने कष्ट सहकर दूसरोंको आराम पहुँचाना बड़ी अच्छी बात है। इससे दोनोंको ही आराम होगा। अच्छे मनुष्योंमें यदि यह भाव नहीं आया तो फिर दूसरोंमें कैसे आ सकता है। सेवाभाव बड़ा अच्छा है। सदा दूसरोंको आराम पहुँचानेका ध्येय रखना चाहिये। कम-से-कम दूसरोंको कष्ट तो नहीं पहुँचाना चाहिये। सबकी आत्माका हित करना चाहिये—

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता१२।४)

वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत और सबमें समानभाववाले योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

दूसरेकी आत्माको सुख पहुँचानेके समान कोई धर्म नहीं है और दु:ख पहुँचानेके समान कोई पाप नहीं है। यह बात सर्वदा ध्यानमें रखनी चाहिये, न्याययुक्त सुख देना चाहिये।

परहित बस जिन्ह के मन माहीं।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

जिनके मनमें दूसरेका हित वास करता है, उनके लिये संसारमें कुछ भी दुर्लभ नहीं है। भगवान् भी दुर्लभ नहीं हैं। इसलिये आजसे ही यह प्रण कर लेना चाहिये। इस शरीरपर श्रद्धा नहीं करनी चाहिये। महात्माओं आदिके वचनोंपर श्रद्धा रखनी चाहिये। शरीर तो चाहे पूज्य-से-पूज्यका मरे, उसे तो फूँक देना होगा। उनकी तो हड्डियाँ हमारे पैरों तले आयेंगी, इसलिये उनके वचनोंमें श्रद्धा करनी चाहिये, जिससे कल्याण हो। उनके वचनोंपर श्रद्धा करनी ही वास्तवमें श्रद्धा है। सभ्यताके नातेसे चाहे कोई भी आ जाय, उसको भोजन आदि तो देना ही चाहिये। मूर्खलोग वचनोंके पालनको तो गौण मानते हैं और शरीरकी सेवाकी प्रधानता मानते हैं। जिनके पास धन है, उसको देनेसे क्या लाभ है। उसको देना चाहिये जिसे कोई न देता हो, जिसके पास कुछ नहीं है। गौरांग महाप्रभु ऐसा ही करते थे। दु:खियोंकी अपेक्षा उस महात्माकी सेवा तब करनेकी आवश्यकता है जब वे असमर्थ हो जायँ और दु:खियोंकी सेवामें तो सबसे आगे रहना चाहिये। एक महात्मा बीमार है और एक अनाथ बीमार है तो कहे कि आप तो महात्माकी सेवा करें, क्योंकि आपको ज्यादा लाभ होगा और मैं अनाथकी सेवा करूँगा। अपने तो चाहे थोड़ा ही लाभ हो, यह बड़े महत्त्वकी बात है। सबसे नीची सेवा अपनेको लेनी चाहिये। जिसको कोई नहीं छुए, उसकी खूब सेवा करनी चाहिये। एक बीमार है, उसकी दवाई आदिका सब प्रबन्ध है किन्तु उसकी टट्टी, पेशाबको कोई नहीं उठाता तो उसकी सबसे नीची सेवाको अपने लेना चाहिये। सबसे नीची सेवा ढूँढनी चाहिये। भगवान् श्रीकृष्णने भी पैर धुलानेका काम लिया था। ऐसी सेवा मिल जाय तो खूब प्रसन्न होना चाहिये। यह सेवाके विषयकी बात है। परमात्मातक यही कानून रखना चाहिये। जैसे एक मन्दिरमें खूब भीड़ हो रही है और उसी समय दर्शन करनेसे खूब लाभ होता है तो उसे पीछे रह जाना चाहिये। जब भीड़ समाप्त हो जाय तो फिर ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिये कि प्रभो! मैं समयपर नहीं पहुँच सका तो फिर वही सबसे अच्छा रहेगा, यदि विश्वास हो। इसी प्रकार गङ्गाजीमें स्नान करनेकी बात है। अपनेको सबसे घटिया चीज लेनी चाहिये। सारी दुनिया चाहे एक तरफ हो, अपनेको दूसरी तरफ ही रहना चाहिये। अपनेको तो सेवक समझना चाहिये। सबसे घटिया चीज तो अपने लेनी चाहिये और बढ़िया दूसरोंको देनी चाहिये। यहाँतक कि चाहे भगवान् भी आ जायँ और दर्शन करनेवालोंकी खूब भीड़ है तो वह दर्शन नहीं करेगा। अन्तमें जब भीड़ समाप्त हो जायगी तो भगवान‍्को उसके लिये ठहरना पड़ेगा। भगवान‍्की इतनी सामर्थ्य नहीं है कि उसे दर्शन दिये बिना चले जायँ। अपने भाइयोंको तो अच्छी चीज और अपनेको घटिया चीज लेनी चाहिये। जहाँ खूब भीड़ हो, वहाँ लोगोंको धक्का आदि नहीं देना चाहिये। जैसे दस आदमियोंने भोजन किया और स्वयं भूखा रह गया तो कोई बात नहीं। वह भूख भोजनसे बहुत अच्छी है, किन्तु धैर्य, विश्वास रखना चाहिये। यही निष्काम सेवा है। सभी कार्योंमें स्वार्थका त्याग होना चाहिये। सब काममें निष्कामभाव रखना चाहिये। इतना महत्त्व तो भगवान‍्की सेवामें भी नहीं है, क्योंकि यहाँ प्राप्तका त्याग दूसरोंके लिये है। आप भूखा मर रहा है, किन्तु कोई भूखा आ जाय तो प्रसन्नतासे देना चाहिये। हमारेमें अभी यह भाव नहीं आया है। चाहे उपवास हो जाय, किन्तु दूसरोंको भोजन दे देना चाहिये। इस उपवासके महत्त्वके बराबर एक सालकी एकादशीका महत्त्व भी नहीं है, किन्तु ऐसा विश्वास नहीं है, मूर्खताके कारण ही विश्वास नहीं है। ऐसे उपवासमें मृत्यु हो जाय तो वह मोक्षपदको प्राप्त हो जाता है। एकादशीके उपवासका इतना महत्त्व नहीं है, जितना कि उसके नियमोंका। अतिथि-सेवामें यम-नियमोंकी कोई आवश्यकता नहीं। प्रसन्नताके साथ स्वयं भूखा रहकर दूसरोंको भोजन दे देना चाहिये। यह सेवाकी बड़ी ऊँची बात है। सब कामोंमें जो स्वार्थका त्याग है, वही सबसे ऊँचा है। अच्छी-अच्छी सेवा सबको दे और नीची-नीची अपने लेवे, यह नीची सेवा ही सबसे अच्छी हो जायगी। भगवान‍्के दर्शनमें भी पहले सबको दर्शन कराये, अन्तमें फिर स्वयं कर ले। जहाँ भगवान् यह घोषणा करें कि मैं इस सभाके लोगोंमेंसे एकको दर्शन दूँगा, वहाँ अपनेको टाल देना चाहिये। इस प्रकार सब टाल देंगे तो फिर भगवान‍्को सभीको दर्शन देना पड़ेगा। अतिथिको स्वयं भूखा रहकर जो भोजन दिया जाता है, वह चौबीस एकादशीके उपवाससे भी बड़ा है।

अपने घरमें जितने बड़े हैं, उन सबको नित्यप्रति प्रणाम करना चाहिये, किन्तु स्त्रियोंको चाहिये कि वह पुरुषोंको प्रणाम करते समय दूरसे ही करें, क्योंकि विवाहके बाद उनका एक पति ही है। पुरुषोंको चाहिये कि जो परमपूज्य हैं उनको चरण छूकर प्रणाम करना चाहिये और जो अवस्थामें बराबर हैं, उनको दूरसे ही प्रणाम कर लेना चाहिये। यह प्रथा अपने घरमें कर लेनी चाहिये। इससे घरमें कलह नहीं हो सकता। इसलिये आजसे ही यह व्यवहार शुरू कर देना चाहिये।

हरेक भाईको बलिवैश्वदेव तो अवश्य करना चाहिये। बिना बलिवैश्वदेवके जो भोजन करता है, वह पापका भोजन करता है। यह क्रियात्मक बात होनी चाहिये। यह बहुत सरल काम है। यदि प्रेमसे बलिवैश्वदेव किया जाय तो फिर वह अमृतके समान है। जैसे साक्षात् अग्निको नारायणका स्वरूप मानकर यदि आहुति दी जाय तो बहुत अच्छा हो। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भगवान् प्रकट हो जाते हैं। बलिवैश्वदेव तो करना ही चाहिये। इसमें अनेकों लाभ हैं। खर्च कुछ भी नहीं है। समय तीन मिनटसे ज्यादा नहीं लगता। माहात्म्य तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। प्रत्यक्ष फल शान्ति मिलती है। प्रणाम करनेमें भी न कुछ खर्च लगता है और न समय लगता है। आपको सेवाकी, प्रणामकी और बलिवैश्वदेवकी बात बतलायी गयी। ये सब प्रेमसे करना चाहिये।

हमलोग भगवान‍्के मन्दिरमें जाते हैं, सजावट वगैरह देखते हैं, इससे ज्यादा लाभ नहीं होता। वहाँ जाकर भगवान‍्के स्वरूप देखकर, उनके चरित्रोंकी तरफ लक्ष्य करके मुग्ध होना चाहिये। भगवान् रामका जीवन-चरित्र आँखोंके सामने आ गया। प्रभुसे प्रार्थना करे, हे नाथ! हर समय आपका चिन्तन बना रहे, यह ज्यादा अच्छी बात है।

स्त्रियाँ मन्दिर जायँ तो पतिके साथ जायँ। विधवा पुत्रके साथ और अविवाहिता पिताके साथ जा सकती है। मन्दिरमें दोनों बात है—लाभ-हानि। लाभ तो है ही, हानि इसलिये कि पुजारी अच्छा भी होता है और बुरा भी होता है। वह धर्मभ्रष्ट कर सकता है।

अपने घरमें मूर्तिकी स्थापना करे, अन्यथा मानसिक मूर्तिकी स्थापना करे, यदि प्रेमसे पूजा करे तो मानसिक पूजा उन दोनोंसे ही अच्छी है। साथ-साथमें भगवान‍्का जाप तो है ही। स्वरूप, लावण्य, गुण और प्रभाव—इन चारोंको देखकर मुग्ध होना चाहिये। इसका हर समय असर रखनेके लिये यह बात है, वह रामजीकी मूर्ति है उसकी हर समय तुष्टि-पुष्टि रखनी चाहिये। यहाँ तो प्रेमरस है। भगवान‍्की मूर्तिको साथ-साथ देखें। प्रत्येक क्रिया करते समय भगवान् रामको साथ-साथ रखना चाहिये। स्त्रीके साथ बात करते समय यह लक्ष्य रखना चाहिये कि भगवान् रामने स्त्रीसे कैसे बात की थी। प्रत्येक क्रिया श्रीरामको लक्ष्य करके करनी चाहिये। प्रात:काल खुराककी तरह एक घंटेतक भगवान‍्का मनन करना चाहिये और उसको भरकर सारे दिन मनसे भगवान‍्का मनन करे। बुद्धिसे निश्चय करे कि हमारी सारी क्रिया ‘राम आदर्श हैं’ ऐसा समझकर होनी चाहिये। एक मनुष्य किसीको दान देता है, यह तो कर्म है। दान देनेसे जो दया आती है, यह गुणोंकी वृद्धि है। इसी प्रकार पापसे दुर्गुण और पुण्यसे सद‍्गुण होते हैं। जप-ध्यान तो हो ही रहा है। यह प्रभुकी असली सेवा है। इस प्रकारका जो जीवन है वह बड़ा पवित्र है। भगवान‍्के गुणोंका जो अक्षरश: पालन करता है और करवाता है, वह भगवान‍्की भक्तिद्वारा भगवान‍्को प्राप्त हो जाता है। उसके समान प्रभुका प्यारा कार्य करनेवाला न कोई है, न होगा ही। यह सबसे बढ़कर बात है। जो शेषकी बातको काममें नहीं लाता है और केवल पूजा ही करता है वह लाभ तो पायेगा ही, क्योंकि वह तो निरन्तर करता है और वह दो ही घण्टे करता है। अन्तवाली क्रिया सबसे अच्छी है। जिसका जो इष्ट हो, उसे निरन्तर अपने इष्टको याद रखना चाहिये।

रामजी युद्ध कर रहे हैं, युद्धसे भागते नहीं हैं। जो यह समझते हैं कि गीता पढ़नेसे संन्यासी हो जाता है, यह बात नहीं है। जो कर्मोंके फलको त्याग देता है, वह संन्यासी है। सब कर्म भगवान‍्के अर्पण कर देना चाहिये। अर्थात् जो भी कुछ करे, वह भगवान‍्की आज्ञासे करना चाहिये। सांख्ययोगसे कर्मयोग अच्छा है। वैश्यको चाहिये—

कृषिगौरक्ष्यवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम्।
(गीता १८।४४)

खेती, गोपालन और व्यापार वैश्यका स्वाभाविक कर्म है। जो अपने कर्ममें लगा रहता है, वह परमात्माको प्राप्त कर लेता है।

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८।४६)

जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परमसिद्धिको प्राप्त हो जाता है।

संसार बड़ा भारी रंगमंच है, जो चौरासी लाख योनियाँ हैं, उसमें हम भी एक पात्र हैं। भीतरमें तो साक्षात् नारायण हैं।

सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥

अपने कर्मद्वारा सन्तोष कराना चाहिये। वर्तमानमें गौकी सेवा तो प्राय: छूट ही गयी है, इसलिये जिस कामसे गौकी वृद्धि हो वही कार्य करना चाहिये। वैश्यको उपरोक्त तीनमेंसे दो काम तो करने ही चाहिये। यदि दो भी न हो तो कम-से-कम एक तो करना ही चाहिये। आजकल तो नरकवाला काम ही हो रहा है।

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(गीत१६।२१)

काम, क्रोध तथा लोभ—ये तीन प्रकारके नरकके द्वार आत्माका नाश करनेवाले अर्थात् उसको अधोगतिमें ले जानेवाले हैं। अतएव इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।

व्यापारमें लोभकी प्रधानता रहती है, लोभसे पतन हो जाता है। हमारे व्यापारका ध्येय रुपये हैं, जहाँ रुपये ध्येय हैं, वहाँ तो लोभ ही है। सुख-दु:ख, लाभ-हानि आदि समान समझकर व्यापार करना चाहिये। जो कुछ है वह प्रभुका है, भीतर ऐसा समझना चाहिये। भगवान् अर्जुनसे इसीलिये युद्ध करा रहे हैं कि प्रजाको सुख मिले। यहाँ सारी दुनिया प्रजा है, लड़ाई उनके साथ की जाय जो रुपये इकट्ठे करते हैं। जैसे बाढ़ आ गयी, वहाँ एक मनुष्य गया और चीजोंके दूने-तिगुने दाम कर दिये। यह महापाप है। वहाँ तो मुफ्तमें ही दे देना चाहिये। यह समझना चाहिये कि यहाँ बाढ़ आयी हुई है, इसलिये निरन्तर दु:खियोंको देना चाहिये। व्यापार न्यायसे करना चाहिये। लाभ ज्यादा नहीं लेना चाहिये। अच्छी चीजमें खराब चीज नहीं मिलानी चाहिये। ऐसी मिलावट करनेसे मनुष्यके स्वास्थ्यका नाश हो जाता है। ऐसा करनेवाला नरकमें जाता है। जैसे, घीमें चर्बी मिला देना, ताजा आटेमें पुराना आटा मिला देना, वह सारा पाप उनको लगेगा जो इस प्रकार बेच रहे हैं। इसी प्रकार झूठ, कपटसे जो अधिक नफा लेते हैं, खराब चीज बेचते हैं—ये सब पाप हैं। वर्तमानमें अधिकांशमें जो लोग व्यापार कर रहे हैं, वह तो नरककी ओर ले जानेवाला है। मनुष्यका जैसा ध्येय रुपयोंकी ओर रहता है, वैसा ही प्रभुकी ओर रहना चाहिये।

ज्यादा खर्च करनेकी आवश्यकता नहीं है। ईश्वरके पैसे समझकर जितना कम खर्च होगा, उतना ही अच्छा है। मूलधन प्रभुका समझे। ज्यादा धन हो तो एक दान-खाता खोल दे। इस प्रकार व्यापार करना चाहिये, जैसा व्यापार तुलाधार वैश्यका था।

गीताका यह उद्देश्य नहीं है कि कर्मको छोड़ दो। गीतामें कोई भी ऐसा श्लोक नहीं है कि कर्म छोड़ दो। अर्जुनने तो संन्यास धारण ही नहीं किया, उसने तो कर्म ही किये। गीता संन्यासी बनाती है, यह बात नहीं है।

ध्यान एकान्तमें हो तो यह बड़ी अच्छी बात है और ध्यान रखते हुए यदि काम करे तो और भी अच्छा है। जैसे एक पानीकी टंकी है, उसमें एक नल है, यदि दो हो तो जल्दी भरेगा। तीन हो तो और भी जल्दी भरेगा। तीन नल यह है कि जप करें, मीठे वचन बोलें, मनसे भगवान‍्के स्वरूपका चिन्तन करें, चरित्रोंको ध्यानमें रखें। सब इन्द्रियोंसे काम लेना चाहिये। ऐसा करनेवाला बहुत जल्दी लक्ष्यतक पहुँच सकता है। इसलिये काम करते समय भगवान‍्का स्मरण रखना चाहिये। यदि ऐसा सम्भव नहीं होता तो भगवान् यह नहीं कहते—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।

इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर।

इसलिये स्मरण करते हुए काम करना चाहिये। भगवान‍्की बातपर विश्वास करना चाहिये। सबमें भगवान् हैं, यह बात समझनी चाहिये। ऐसा समझनेसे फिर हम भगवान‍्को भूल ही कैसे सकते हैं।

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता६।३०)

जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है, उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता।

सर्वत:पाणिपादं तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वत:श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति॥
(गीता१३।१३)

वह सब ओर हाथ-पैरवाला, सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा सब ओर कानवाला है, क्योंकि वह संसारमें सबको व्याप्त करके स्थित है।

भगवान् सर्वत्र हैं, यदि यह बात समझमें आ जाय तो फिर हम प्रभुको कैसे भूल सकते हैं। जिस प्रकार प्रह्लाद सर्वत्र प्रभुको देखता था, उसी प्रकार हमें भी सर्वत्र प्रभुको देखना चाहिये और स्मरण करते हुए कर्म करना चाहिये। निरन्तर प्रभुका स्मरण करना चाहिये। युवकोंको तो अवश्य ही ऐसा करना चाहिये।

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