चित्त शान्त कैसे हो?
आपका कृपापत्र मिले बहुत दिन हो गये। स्वभावदोषसे उत्तर लिखनेमें देर हुई, इसके लिये क्षमा करें। आपके चित्तकी स्थितिका हाल जानकर कोई आश्चर्य नहीं हुआ। धन होनेसे चित्तमें शान्ति नहीं होती। जब धन नहीं होता तब मनुष्य समझता है कि मैं धनी हो जाऊँगा, तब सुखी हो जाऊँगा! परन्तु ज्यों-ज्यों धन बढ़ता है, त्यों-त्यों अभाव बढ़ते हैं। अभावोंकी पूर्तिके लिये चित्त अशान्त रहता है, और ‘अशान्तस्य कुत: सुखम्’ (गीता २। ६६) अशान्तको सुख कहाँ? आपके घरमें धन-पुत्रकी प्रचुरता, मनमाने भोग आपको सहज ही प्राप्त हैं, परन्तु अशान्तिकी आग तो और भी जोरसे धधकती है। आपके पत्रको पढ़कर शास्त्रकारोंके ये वाक्य प्रमाणित हो गये कि—
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति।
हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते॥
यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशव: स्त्रिय:।
एकस्यापि न पर्याप्तं तदित्यतितृषां त्यजेत्॥
‘भोगके द्वारा कामनाकी निवृत्ति नहीं होती, जैसे अग्निमें घी या ईंधन पड़नेपर वह और भी जोरसे जलती है, इसी प्रकार भोगरूपी ईंधनसे कामाग्नि और भी अधिक प्रज्वलित होती है। पृथ्वीमें जितना धान्य, यव, सुवर्ण, पशु, स्त्री आदि विषय हैं, सब-का-सब एक आदमीको मिल जाय तब भी उसकी प्यास नहीं बुझती।’ अतएव इस प्यासको ही मिटाना चाहिये। बुढ़ापेमें सब कुछ जीर्ण हो जाता है, परन्तु एक यह तृष्णा जीर्ण नहीं होती। ‘तृष्णैवैका न जीर्यते।’ इस कामाग्निमें तो वैराग्यरूपी जलधारा ही छोड़नी चाहिये। आपके चित्तकी अशान्ति मिटनेका सहज उपाय मेरी समझसे यह है कि घर-धनसे ममता छोड़कर भगवान्को अपना मानिये और यथासाध्य उनके नामका प्रीतिपूर्वक जप कीजिये। आपका वश चलता हो तो धनको गरीबोंकी सेवामें लगाइये। जो भूखोंको अन्न देता है, रोते हुओंकी सेवा करके उनके आँसू पोंछता है, रोगीके लिये दवा, पथ्य और सेवाकी व्यवस्था करता है, स्वयं सेवा-शुश्रूषा करता है, अभावग्रस्तोंके अभावोंको धनके द्वारा मिटाता है, ऊपरसे अच्छे बने हुए इज्जतदार गरीबोंकी गुप्त सेवा करता है—उसीका धन सार्थक है। इस सेवामें भी यह भाव रखना चाहिये कि मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ। भगवान्की चीज भगवान्के काममें लग रही है। भगवान्की बड़ी कृपा है जो उन्होंने इसमें मुझको निमित्त बनाया। किसीको कुछ देकर कभी अभिमान, अहसान या शासन नहीं करना चाहिये। मेरी तुच्छ सम्मतिके अनुसार आप यह साधन कीजिये। आपकी सब बातोंका प्रतीकार इसमें हो जायगा।
१—धन-पुत्रादि विषयोंमें बार-बार दु:ख-दोषदृष्टि, इनकी अनित्यता और क्षणभंगुरताका विचार। इनमें ममत्व अज्ञानवश आरोपित है, वास्तवमें ये मेरे नहीं हैं, ऐसा बार-बार विचार।
२—शरीर मैं नहीं हूँ। इस शरीरके बननेके पहले भी मैं था, इसके नाशके बाद भी रहूँगा, नाम कल्पित है, मैं इनका द्रष्टा हूँ। इनके मान-अपमानसे मेरा मानापमान नहीं होता और इनके नाशसे मेरा नाश नहीं होता, ऐसा विचार।
३—प्रतिदिन गायत्रीकी २१ मालाका जाप।
४—प्रतिदिन रातको एकान्तमें भगवत्प्रार्थना। प्रार्थना अपने शब्दोंमें हृदय खोलकर करनी चाहिये। चाहे हो वह मानसिक ही।
५—सप्ताहमें एक दिन मौन और एकान्तमें रहकर भगवान्का ध्यान करनेकी चेष्टा करना। और सप्ताहभरकी अपनी दशापर विचार करके अगले सप्ताह और भी दृढ़ताके साथ साधनमार्गमें अग्रसर होनेका संकल्प करना।
६—जिनसे मनोमालिन्य हो, उनसे सच्चे हृदयसे क्षमा माँग लेना और इसमें अपना अपमान न समझना।
७—धन और पदके मानका यथासाध्य विचारपूर्वक त्याग करना।
८—सर्वथा सबमें भगवान्को देखनेकी चेष्टा करना। जिससे बोलनेका काम पड़े, उसमें पहले भगवान्के स्वरूपकी भावना करके उस भावनाको याद रखते हुए ही व्यवहार करना।
९—सरकारी अफसरोंसे मिलना-जुलना कम कर देना।
१०—अधिक मसालेकी चीज और मिठाई न खाना।
११—चापलूस, खुशामदी और अपनी झूठी बड़ाई करनेवालोंसे सम्बन्ध त्याग देना।
१२—रोज उपनिषद्, महाभारत-शान्तिपर्व, रामचरितमानस पढ़ना। श्रीमद्भगवद्गीता सर्वोत्तम है।
१३—घरमें अपनेको दो दिनके अतिथिकी तरह समझना, मालिकीके अभिमानका त्याग।
१४—ताश, शतरंज न खेलना।
१५—कभी किसीसे कठोर वचन न कहना।