गीता गंगा
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गोपी-प्रेमकी महिमा

आपका पत्र मिले बहुत दिन हो गये। गोपी-प्रेमकी बात किसी प्रेमीसे पूछिये। मैं तो इसका अधिकारी भी नहीं हूँ। मुझ अनधिकारीको ही जब यह इतना आनन्द देता है, तब जो महानुभाव अधिकारपूर्वक इसका यथार्थ रसास्वादन करते हैं, उनके लिये तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। श्रीराधिकाजी स्वयं रसराज रसिकशेखर भगवान् श्रीकृष्णको रस-सागरमें निमग्न कर देनेवाली उन्हींकी स्वरूपभूता ह्लादिनी शक्ति हैं। श्रीकृष्णमें जो परम उच्च निष्काम ‘रति’ होती है, उसे प्रेम कहते हैं—श्रीचैतन्यचरितामृतमें कहा गया है कि वही रति जब बढ़ते-बढ़ते क्रमश: स्नेह, मान, प्रणय, राग और अनुरागके रूपमें परिणत होकर ‘भाव’ रूपा होती है, तब वह बड़ी ही विलक्षण होती है। यही ‘भाव’ जब ‘महाभाव’ स्वरूपको प्राप्त होता है, तब उसे प्रेमकी अत्युच्च स्थिति कहते हैं। श्रीमती राधिकाजी इस ‘महाभाव’ का ही मूर्तिमान् दिव्य विग्रह हैं। इन ‘महाभाव’ रूपा श्रीराधिकाजीकी जो महाभाग्यवती सखियाँ रसराज श्रीकृष्णके साथ उनके मिलनकी साधनामें लगी रहती हैं, वे ही श्रीगोपीजनके नामसे प्रख्यात हैं। इनका प्रेम ऐसा दिव्य और विलक्षण है कि तनिक-सा स्मरणमात्र भी साधकको इस मायाके क्षेत्रसे बाहर—अति दूर उस दिव्य प्रेमसाम्राज्यमें ले जाता है, जहाँका सभी कुछ अनोखा है। जहाँ कभी कोई वस्तु पुरानी होती ही नहीं। श्रीकृष्ण जैसे नित्य नवसुन्दर हैं और सदा एकरस होनेपर भी उनका सौन्दर्य जैसे प्रतिक्षण नये-नये रूपमें वर्द्धित होता रहता है, वैसे ही वहाँकी प्रत्येक वस्तु—गो, गोप-गोपी, पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-लता सच्चिदानन्द-रसमय, दिव्य और नित्य-नवीनरूपमें प्रकाशित होती रहती है, इसी प्रकार यह गोपीप्रेम भी नित्य-नूतन बना रहता है। हमारे इस जगत‍्में ऐसी बात नहीं है। प्रेमके प्रथम प्रयासमें प्रेमी जितना सुन्दर और मधुर प्रतीत होता है, कुछ दिनोंके बाद उसके उस सौन्दर्य और माधुर्यकी वैसी अनुभूति नहीं होती। वह पुराना पड़ जाता है। उसमें पहले-जैसा आकर्षण नहीं रह जाता। उससे मिलनेके लिये चित्तमें पहले-जैसी छटपटी नहीं रह जाती। परन्तु इस गोपी-प्रेममें यह बात नहीं है। इसकी अलौकिक आनन्द-सुधाधारा नित्य नवीन आनन्ददायिनी होती है; क्योंकि इसी दिव्य प्रेमसे नित्य नव-सुन्दर रसिकशिरोमणि रसमय श्रीश्यामसुन्दरके नित्य नव-सौन्दर्यके दर्शन होते रहते हैं। इस प्रेमकी तनिक-सी छाया भी समस्त ब्रह्माण्डोंके ऐश्वर्य-सुखको—यहाँतक कि मोक्ष-सुखको भी नीरस और हेय बना देती है। फिर बस, जीवनमें केवल एक ही साध बनी रह जाती है और वह पूरी होती रहनेपर भी कभी पूरी होती ही नहीं! वह साध है नित्य-निरन्तर प्रतिक्षण अपने जीवनाधार अखिलरसामृतमूर्ति श्यामसुन्दरके नित्य नये-नये सौन्दर्य और माधुर्यको देखते रहना।

क्या लिखा जाय। गोपी-प्रेमके इस ‘भाव’ राज्यमें जिनका तनिक-सा भी प्रवेश है, उनकी दशा कुछ कही नहीं जाती। यह प्रेमरस-सागर अगाध और असीम है। इसमें जो डूबा उसे क्या मिल गया, कुछ कहा नहीं जा सकता। अहा! इस अगाध एकरस महासागरमें कितनी विचित्रता है! यह नित्य स्थिर होनेपर भी परम चंचल है। इसमें नित्य नयी-नयी भाव-लहरियाँ उठती रहती हैं—उनमें जरा भी विराम या विश्राम नहीं है, धन्य हैं वे, जो इसमें डूबे हुए इन लहरियोंके साथ लहराते रहते हैं। बिजलीकी चमककी भाँति कहीं एक बार क्षणमात्रके लिये भी इस प्रेमकी और इस प्रेमके विषय रसघनविग्रह श्यामसुन्दरकी झाँकी हो जाती है तो वह सदाके लिये आनन्द-रससागरमें डुबो देनेवाली होती है।

यह गोपी-प्रेम उन्हींको प्राप्त होता है जो कर्म-धर्म, भुक्ति-मुक्ति, ज्ञान-वैराग्य सबका मोह छोड़कर केवल प्रेम ही चाहता है और सारे भोगोंकी लालसाको तथा असत्य, हिंसा, काम, क्रोध, मान, बड़ाई, परचर्चा, लोकवार्ता आदिको सर्वथा त्यागकर परम आश्रय मानकर श्रीगोपीजनोंकी चरणोपासना करता है और एक प्रेमलालसासे युक्त होकर उनसे केवल प्रेमकी ही भीख माँगता रहता है।

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