कुछ व्यवहार-सम्बन्धी बातें
पत्नीके साथ कैसा व्यवहार किया जाय?
आपकी शंकाओंका समाधान आपके अपने विवेकसे ही होगा। आपका विशेष आग्रह है, इसलिये इस सम्बन्धमें मेरे विचार सेवामें लिखता हूँ। यदि आपको अपने कर्तव्य-निर्णयमें इनसे कुछ सहायता मिलनेकी सम्भावना दीख पड़े तो आप इनका उपयोग कर सकते हैं।
यह सत्य है कि सब विषयोंमें स्त्री-पुरुषका समानाधिकार दोनोंके हितके लिये ही अवांछनीय है, और ऐसा समानाधिकार सम्भव भी नहीं है। स्त्री-पुरुषके पारस्परिक सुखके लिये और समाज-व्यवस्थाके सुचारुरूपसे संचालित होनेके लिये दोनोंमें कार्योंका और मर्यादाओंका भेद आवश्यक है। यह भी सत्य है कि हिन्दूधर्मशास्त्रके अनुसार स्त्रीका धर्म है कि वह पतिको परमेश्वरका स्वरूप समझकर उसकी सेवा करे। परन्तु इसका अर्थ यह नहीं समझ लेना चाहिये कि पुरुषको जबरदस्ती परमेश्वरके पदपर बैठकर स्त्रीसे दासता करानेका हक है। यह स्त्रीधर्म है, और इसका उद्देश्य महान् है। परमात्माकी दृष्टिमें स्त्री-पुरुष दोनोंकी ही आवश्यकता है और अपने-अपने क्षेत्रमें दोनोंका ही महत्त्व है। परन्तु जीवदृष्टिसे दोनों ही भगवान्के एक-से अंश हैं। और मनुष्यके नाते परमात्माकी प्राप्तिका अधिकार दोनोंको ही है। पर समाजकी सुशृंखलाके लिये दोनोंके क्षेत्र और कार्य-विभाग अलग-अलग हैं। अपने-अपने क्षेत्रमें रहकर अपने-अपने कर्तव्यकर्म करते हुए ही दोनों भगवत्प्राप्तिके मार्गमें अग्रसर हों ऐसी व्यवस्था होनी चाहिये। भगवत्प्राप्तिमें प्रधान साधन है भगवदाकार वृत्ति। स्त्रीका क्षेत्र घर है, उसका प्रधान कार्य गृहस्थीकी सँभाल है, उसकी भगवदाकार-वृत्ति कैसे हो? इसलिये यह विधान किया गया कि स्त्री पतिको परमेश्वर और घरको परमेश्वरका मन्दिर समझे और घर-सन्तानकी सेवा-सँभाल तथा पतिकी परिचर्याके द्वारा ही चित्तको भगवदाकार बनाकर भगवान्को प्राप्त कर ले। इसके अतिरिक्त समाज-व्यवस्था और दाम्पत्य सुख आदिके लिये भी पतिभक्ति आवश्यक है। पर यह स्त्रीका धर्म है। पतिको तो यह मानना चाहिये कि स्त्री मेरी सहधर्मिणी है, गुलाम नहीं है। उसके साथ ऐसा प्रेमका बर्ताव करना चाहिये जिससे उसको सुख पहुँचे, उसका अपमान न हो, उसे मन-ही-मन रोना न पड़े और साथ ही उसका हितसाधन भी हो। जो पुरुष स्त्रियोंको गुलाम समझकर उनके साथ बुरा व्यवहार करते हैं, उन्हें सदा सन्त्रस्त रखते हैं, बीमारी आदिमें उनके इलाजका उचित प्रबन्ध नहीं करते और अपने हाथों उनकी सेवा करते सकुचाते हैं, वे मेरी समझसे कर्तव्यसे च्युत होते हैं और पाप करते हैं। आपको चाहिये, आप प्रेमयुक्त बर्तावसे पत्नीका स्वभाव बदलनेकी चेष्टा करें।
बालकको मारना चाहिये या नहीं?
नीतिमें छठे वर्षसे पंद्रहवें वर्षतक बच्चेको ताड़ना देनेकी बात लिखी है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि माता-पिता, गुरु या अभिभावक उसे निर्दयताके साथ पीटा करें। मार खाते-खाते बच्चे ढीठ हो जाते हैं, तब उनके सुधरनेकी आशा ही नहीं रहती। सबसे बुरी बात तो यह है कि उनका विकास रुक जाता है। ताड़नाका अर्थ उन्हें शृंखलामें रखना है, जिससे वे उच्छृंखल न होने पावें। बच्चोंको मारना नहीं चाहिये।
वर्तमान स्कूल-कॉलेज
मैं तो आजकलके स्कूल-कॉलेजोंसे डरा हुआ हूँ। या तो उनमें आमूल परिवर्तन होना चाहिये, नहीं तो उनमें अपने बच्चोंको भेजनेमें कम-से-कम उनको तो सावधान रहना ही चाहिये, जो हिन्दू-संस्कृतिका नाश अपने कुलमें नहीं होने देना चाहते।