॥ श्रीहरि:॥
महात्मा शब्दका अर्थ और प्रयोग
‘महात्मा’ शब्दका अर्थ है ‘महान् आत्मा’ यानी सबका आत्मा ही जिसका आत्मा है। इस सिद्धान्तसे ‘महात्मा’ शब्द वस्तुत: एक परमेश्वरके लिये ही शोभा देता है, क्योंकि सबके आत्मा होनेके कारण वे ही महात्मा हैं। श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् स्वयं कहते हैं—
‘अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:।’
(१०।२०)
‘हे अर्जुन! मैं सब भूतप्राणियोंके हृदयमें स्थित सबका आत्मा हूँ।’
परन्तु जो पुरुष भगवान्को तत्त्वसे जानता है अर्थात् भगवान्को प्राप्त हो जाता है वह भी महात्मा ही है, अवश्य ही ऐसे महात्माओंका मिलना बहुत ही दुर्लभ है। गीतामें भगवान्ने कहा है—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(७।३)
‘हजारों मनुष्योंमें कोई ही मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियोंमें कोई ही पुरुष (मेरे परायण हुआ) मुझको तत्त्वसे जानता है।’
जो भगवान्को प्राप्त हो जाता है, उसके लिये सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा उसीका आत्मा हो जाता है; क्योंकि परमात्मा सबके आत्मा हैं और वह भक्त परमात्मामें स्थित है। इसलिये सबका आत्मा ही उसका आत्मा है। इसके सिवा ‘सर्वभूतात्मभूतात्मा’ (गीता ५।७), यह विशेषण भी उसीके लिये आया है। वह पुरुष सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंको अपने आत्मामें और आत्माको सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंमें देखता है। उसके ज्ञानमें सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंके और अपने आत्मामें कोई भेद-भाव नहीं रहता।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥
(ईश० ६)
‘जो समस्त भूतोंको अपने आत्मामें और समस्त भूतोंमें अपने आत्माको ही देखता है, वह फिर किसीसे घृणा नहीं करता।’
सर्वत्र ही उसकी आत्मदृष्टि हो जाती है, अथवा यों कहिये कि उसकी दृष्टिमें एक विज्ञानानन्दघन वासुदेवसे भिन्न और कुछ भी नहीं रहता। ऐसे ही महात्माओंकी प्रशंसामें भगवान्ने कहा है—
‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥’
(गीता ७।१९)
‘सब कुछ वासुदेव ही हैं, इस प्रकार (जाननेवाला) महात्मा अति दुर्लभ है।’
खेदकी बात है कि आजकल लोग स्वार्थवश किसी साधारण-से-साधारण मनुष्यको भी महात्मा कहने लगते हैं। ‘महात्मा’ या ‘भगवान्’ शब्दका प्रयोग वस्तुत: बहुत समझ-सोचकर किया जाना चाहिये। वास्तवमें महात्मा तो वे ही हैं जिनमें महात्माओंके लक्षण और आचरण हों। ऐसे महात्माका मिलना बहुत ही दुर्लभ है, यदि मिल भी जायँ तो उनको पहचानना तो असम्भव-सा ही है, ‘महत्सङ्गस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च’ (नारदभक्तिसूत्र ३९)। ‘महात्माका संग दुर्लभ, दुर्गम और अमोघ है।’
साधारणतया उनकी वही पहचान सुनी जाती है कि उनका संग अमोघ होनेके कारण उनके दर्शन, भाषण और आचरणोंसे मनुष्योंपर बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। ईश्वर-स्मृति, विषयोंसे वैराग्य, सत्य, न्याय और सदाचारमें प्रीति, चित्तमें प्रसन्नता तथा शान्ति आदि सद्गुणोंका स्वाभाविक ही प्रादुर्भाव हो जाता है। इतनेपर भी बाहरी आचरणोंसे तो यथार्थ महात्माओंको पहचानना बहुत ही कठिन है; क्योंकि पाखण्डी मनुष्य भी लोगोंको ठगनेके लिये महात्माओं-जैसा स्वाँग रच सकता है। इसलिये परमात्माकी पूर्ण दयासे ही महात्मा मिलते हैं और उन्हींकी दयासे उनको पहचाना भी जा सकता है।