महात्माओंकी महिमा
ऐसे महापुरुषोंकी महिमाका कौन बखान कर सकता है? श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहास, सन्तोंकी वाणी और आधुनिक महात्माओंके वचन इनकी महिमासे भरे हैं।
गोस्वामी तुलसीदासजीने तो यहाँतक कह दिया है कि भगवान्को प्राप्त हुए भगवान्के दास भगवान्से भी बढ़कर हैं—
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
सो कुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्रीरघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत॥
ऐसे महात्मा जहाँ विचरते हैं, वहाँका वायुमण्डल पवित्र हो जाता है, श्रीनारदजी कहते हैं—
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि। (नारद भ० ६९)
‘वे अपने प्रभावसे तीर्थोंको (पवित्र करके) तीर्थ बनाते हैं, कर्मोंको सुकर्म बनाते हैं और शास्त्रोंको सत्-शास्त्र बना देते हैं।’ वे जहाँ रहते हैं, वही स्थान तीर्थ बन जाता है या उनके रहनेसे तीर्थका तीर्थत्व स्थायी हो जाता है; वे जो कर्म करते हैं, वे ही सुकर्म बन जाते हैं, उनकी वाणी ही शास्त्र है अथवा वे जिस शास्त्रको अपनाते हैं, वही सत्-शास्त्र समझा जाता है।
शास्त्रमें कहा है—
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन।
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिँ-
ल्लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेत:॥
(स्कन्द पु० माहे० कौ० खं०४५।१४०)
‘जिसका चित्त अपार संवित् सुखसागर परब्रह्ममें लीन है, उससे कुल पवित्र, माता कृतार्थ और पृथ्वी पुण्यवती हो जाती है।’
धर्मराज युधिष्ठिरने भक्तराज विदुरजीसे कहा था—
भवद्विधा भागवतास्तीर्थभूता: स्वयं विभो।
तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्त:स्थेन गदाभृता॥
(श्रीमद्भा०१।१३।१०)
‘हे स्वामिन्! आप-सरीखे भगवद्भक्त स्वयं तीर्थरूप हैं। (पापियोंके द्वारा कलुषित हुए) तीर्थोंको आपलोग अपने हृदयमें स्थित भगवान् श्रीगदाधरके प्रभावसे पुन: तीर्थत्व प्राप्त करा देते हैं।’
महात्माओंका तो कहना ही क्या है, उनकी आज्ञा पालन करनेवाले मनुष्य भी परमपदको प्राप्त हो जाते हैं। भगवान् स्वयं भी कहते हैं कि जो किसी प्रकारका साधन न जानता हो, वह भी महान् पुरुषोंके पास जाकर उनके कहे अनुसार चलनेसे मुक्त हो जाता है।
अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(गीता १३।२५)
‘परन्तु दूसरे इस प्रकार मुझको तत्त्वसे न जानते हुए दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले महापुरुषोंसे सुनकर ही उपासना करते हैं। वे सुननेके परायण हुए पुरुष भी मृत्युरूप संसार-सागरसे नि:सन्देह तर जाते हैं।’