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अक्रोध

मानव-धर्मका दसवाँ लक्षण अक्रोध यानी क्रोध न करना है। मनके विरुद्ध कार्य होनेपर जो एक ज्वालामयी वृत्ति उत्पन्न होती है उसे क्रोध कहते हैं। क्रोध उत्पन्न होते ही मनुष्यकी बुद्धि मारी जाती है, उसके कर्तव्याकर्तव्यका ज्ञान लुप्त हो जाता है और वह चाहे सो कर बैठता है। भगवान् ने श्रीगीताजीमें कहा है—

त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(१६। २१)

‘काम, क्रोध और लोभ आत्माका पतन करनेवाले यह तीन नरकके दरवाजे हैं, अतएव इन तीनोंका त्याग करना चाहिये।’ धर्मराजने कहा है, ‘क्रोध मनुष्यका नाश कर देता है, क्रोधके वश होकर ही मनुष्य पाप करता है और गुरुजनोंका अपमान, श्रेष्ठ पुरुषोंका कठोर वाणीसे तिरस्कार तथा सबका अनादर करता है। क्रोधी मनुष्य यह नहीं जान सकता कि कहाँ कैसे बोलना चाहिये और कौन-सा कार्य करना चाहिये। क्रोधमें मनुष्य न मारने योग्य पुरुषको भी मार डालता है, आत्महत्या कर बैठता है, अतएव क्रोधका परित्याग करना चाहिये।’

वास्तवमें क्रोध बहुत-से पापोंका मूल है। क्रोध जितना दूसरोंको दु:खदायी होता है, उससे अधिक अपनेको होता है, क्रोधका आवेश होते ही आँखें लाल हो जाती हैं, शरीर काँपने लगता है, रोमांच हो जाता है, हृदय जलने लगता है, जबान बेकाबू हो जाती है और उससे अपशब्द या भले आदमियोंमें न बोलने योग्य शब्द निकलने लगते हैं; दूसरेका अहित करनेसे पहले ही अपने मनमें जलन और दु:ख आरम्भ हो जाते हैं। क्रोधी समझता है मैं दूसरेकी बुराई करूँगा, परंतु पहले वह अपनी ही करता है। तदनन्तर यदि दूसरा निर्बल होता है तो उसे मारने दौड़ता है। यदि सबल है तो स्वयं अपने-आपको मारने लगता है। कुएँमें पड़ने दौड़ता है, फाँसी लगा लेता है। इसीसे अच्छे समर्थ पुरुष निर्बल मनुष्यद्वारा दु:ख पाकर भी उसे पापसे बचानेके लिये उसपर क्रोध नहीं करते, क्योंकि निर्बलके मनमें क्रोध उत्पन्न होनेपर आत्महत्याकी प्रवृत्ति जाग्रत् हो उठती है। कोई-कोई तो आत्महत्या कर भी बैठते हैं, जिससे वह महापापी होते हैं।

मनके विरुद्ध बातोंको सहनेका अभ्यास करनेसे क्रोधका नाश होता है। मनुष्यको यह इच्छा क्यों करनी चाहिये कि सब लोग मेरे मनके अनुकूल ही चलें। जब वह स्वयं दूसरोंके अनुकूल नहीं चल सकता, तब उसे दूसरोंको सर्वथा अपने अनुकूल चलानेका क्या अधिकार रह जाता है? जब अधिकार नहीं तब प्रतिकूलतामें क्रोध क्यों होना चाहिये?

इसका यह अर्थ नहीं कि कोई किसीसे अच्छी बात भी न कहे, जिन विचारोंको हम ईमानदारीसे उत्तम समझते हैं और जो सब लोगोंकी दृष्टिमें इस समय अनुकूल नहीं है, पर उन विचारोंके अनुसार कार्य होनेसे हमारी समझसे सब लोगोंका कल्याण हो सकता है। ऐसे विचारोंका प्रचार प्रतिकूल अवस्थामें भी हमें अवश्य करना चाहिये; परंतु करना चाहिये प्रेमके बलपर, कठोर वाणी या लाठीके जोरसे नहीं। जिन लोगोंके पास प्रेमका साधन रहता है वे प्रतिकूल भाव रखनेवालोंको भी धीरे-धीरे अनुकूल बना सकते हैं, पर जो तीव्र समालोचनाके नामपर कठोरताका प्रयोग कर बैठते हैं, वे अपनी बात दूसरोंको सुनानेका भी अवसर खो देते हैं। उनकी अच्छी बात भी लोग सुनना नहीं चाहते और कोई सुनता भी है तो दोषदृष्टिको लेकर, जिससे उसपर कोई अच्छा प्रभाव नहीं पड़ सकता। प्रचारकी आवश्यकता इसीलिये तो है कि उन बातोंका लोगोंमें अभाव है, लोग उनसे प्रतिकूल विचार रखते हैं। प्रतिकूल विचारवाले सहसा आज ही किसी बातको मान लेंगे यह सम्भव नहीं, बल्कि यह अवश्य सम्भव है कि वे नाराज होकर क्रोधके आवेशमें आ जायँ, याद रखना चाहिये कि ऐसी स्थितिमें उनका क्रोध अपने मनोऽनुकूल कार्यमें बाधा पड़नेके कारण स्वाभाविक होता है, वे किसी बुरी नीयतसे क्रोध नहीं करते। ऐसी अवस्थामें उचित यह है कि अपनी शुद्ध नीयतके सच्चे विचारोंका प्रचार करनेवाले उनके क्रोधको शान्ति और सुखके साथ सहन करते हुए उनसे प्रेम करें, उनके क्रोधका बदला क्षमा और सेवासे दें, उनकी गालियोंका और मारका बदला परमेश्वरसे उनका कल्याण चाहनेकी प्रार्थनाके रूपमें दें, वह भी ढोंगसे या उन्हें चिढ़ानेके लिये नहीं, पर सच्चे हृदयसे। यदि ऐसा होगा तो हमारे विचारोंका प्रचार होना कोई बड़ी बात नहीं, आज नहीं हो कुछ दिनों बाद होगा। परंतु यदि प्रचारक अपनेसे प्रतिकूल रहने या बोलनेवालेको शत्रु समझने लगेगा, अधिक क्या उसपर तनिक-सा भी क्रोध करेगा तो उसके शुद्ध विचारोंमें विकृति उत्पन्न हो जायगी, उसका हृदय द्वेषको स्थान दे बैठेगा। शुद्ध विचारोंके प्रचारकी इच्छा क्रमश: परदोषदर्शन, परदोषप्रकाश, मिथ्या दोषारोपण, निन्दा और प्रतिपक्षी समझकर दूसरोंको हर तरहसे नीचा दिखाने और गिरानेकी घृणित इच्छाके रूपमें परिणत होकर उसके मन-वचन-कर्मको दूषित और कलंकित कर देगी और पथभ्रष्ट लोगोंको सुपथपर लानेके लिये मनमें जो दया उत्पन्न हुई थी, वह पथभ्रष्टोंको प्रतिपक्षी या वैरी समझनेके कारण हिंसा बनकर उभयपक्षके कष्ट और संतापका कारण बन जायगी। फिर दोनों ओरकी शक्ति परछिद्रान्वेषण, गाली-गलौज और पर-अपकारमें ही व्यय होने लगेगी। बहुत जगह प्राय: ऐसा ही हुआ करता है और आजकल हो भी रहा है। अपनी छातीपर हाथ रखकर हम स्वयं विचार कर सकते हैं।

यह परिणाम तो असहिष्णु होनेके कारण प्राय: शुद्ध नीयतवाले कार्यकर्ताओंकी कार्यप्रणालीसे हो जाता है, पर जो लोग किसी निजी स्वार्थवश अच्छे विचारोंके प्रचार करनेका स्वाँग रचते हैं वे तो बड़े ही भयंकर जीव हैं, उनके द्वारा तो समाज तथा देशका अहित ही होता है। स्वार्थी मनुष्य किसीका हित-अहित सोचता है? उसे तो अपना उल्लू सीधा करनेसे मतलब। अतएव शुद्ध नीयतवाले पुरुषोंको भी सहिष्णु अवश्य बनना चाहिये, उन्हें क्रोधका तो अधिकार ही नहीं है। फिर यह बात भी तो है कि वे जिस एक विचारको आज अपने सच्चे मनसे लोकोपकारी समझते हैं, सम्भव है इसमें वे भूलते हों, प्रतिकूल विचारवालोंकी समझ ही ठीक हो, यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि मुझसे कभी भूल नहीं होती। ऐसी अवस्थामें बात-बातपर क्रोध करके किसी बातको अपने पल्ले बाँध लेना, आगे चलकर अपनी भूल समझमें आ जानेपर भी भूलका त्याग करनेमें बड़ी बाधा पहुँचाता है।

कुछ लोग क्रोधको आवश्यक समझते हैं और उसका नाम तेज रखते हैं, परंतु यह भूल है। हिंसा, क्रोध आदि दुर्गुण कभी आवश्यक नहीं हुआ करते। मनुष्यका स्वभाव वास्तवमें क्रोधी नहीं है, मनुष्यने इन पशुधर्मोंको भ्रमसे अपना बना लिया है। जिससे अपनी और दूसरोंकी बुराई होती है, वह वस्तु आवश्यक कैसे हो सकती है? तेज तो वह है जिससे पाप करनेवाला मनुष्य भी उस तेजके प्रभावसे बच जाय।

धर्मराज कहते हैं कि दक्षता, शूरता और तत्परता—ये तेजके गुण हैं, पर ये गुण क्रोधीमें कहाँ रहते हैं? वह तो कर्तव्यज्ञानशून्य हो जाता है। मूर्खलोग ही क्रोधको तेज मान लेते हैं, क्रोध तो रजोगुणका परिणाम है और एक महान् दुर्गुण है। इसपर कुछ लोग कहेंगे कि क्रोध न होगा तो संसारमें पापियोंको दण्ड मिलना बंद हो जायगा, जिससे अनाचार-अत्याचार बढ़कर जगत‍्में दु:खका दावानल जला देंगे। चोर, डाकू, बदमाशोंकी संख्या बढ़ जायगी। पर ऐसा कहनेवाले यह नहीं समझते कि वास्तवमें पापी या चोर-डाकुओंको पहचानना क्या क्रोधीका काम है? क्रोधरत पुरुष तो अपने-आपतकको पहचानना भूल जाता है। सगे माता-पिताकी पहचान खो देता है, वह पापी-पुण्यात्माका निर्णय कैसे कर सकेगा? उसके हाथमें दण्डविधान होनेपर वह तो उन्मत्तकी भाँति दोषी-निर्दोषी सभीको दण्ड देने लगेगा। सत्यपर आरूढ़, खुशामद न करनेवाले भले लोग मारे जायँगे, और खुशामदी दीन निष्ठुर लोग उसके तलुए चाटकर बच जायँगे; न्याय और धर्मका नाश हो जायगा। इसीलिये न्यायका कार्य शान्त, शिष्ट और विचारशील विवेकी पुरुषके जिम्मे रहता है न कि क्रोधीके। न्यायाधीश यदि क्रोधी होगा तो वह न्याय कैसे कर सकेगा? और जो दण्ड न्यायरहित केवल क्रोध या क्रोधजनित द्वेष, हिंसा या प्रतिहिंसासे प्रेरित होकर दिया जायगा, वह अन्याययुक्त दण्ड तो पाप, ताप, अनुताप और अशान्तिको बढ़ानेका ही कारण होगा। इससे दण्ड देनेमें क्रोधकी आवश्यकता सिद्ध नहीं होती।

फिर क्या दण्डसे ही अपराध मिटते हैं? क्या यह सत्य नहीं है कि एक बार पथ-भ्रष्ट होकर किसी प्रकार पापाचरण करनेवाले मनुष्योंको समाज या राज्यने दण्ड दे-देकर ढीठ, निरंकुश और भयानक पापोंका अभ्यासी बना दिया है। दण्डके स्थानपर यदि प्रेम होता तो शायद जगत‍्में इतने अपराधों और पापोंकी सृष्टि ही न हुई होती। ज्यों-ज्यों अस्पताल बढ़ते हैं, त्यों-ही-त्यों रोग बढ़ते हैं, ज्यों-ज्यों कानून बढ़ते हैं, त्यों-ही-त्यों कानूनसे बचनेकी छलपूर्ण कला भी बढ़ती है। इसी प्रकार ज्यों-ही-ज्यों दण्ड बढ़े, त्यों-ही-त्यों अपराध भी बढ़ते गये। दण्डसे भीति बढ़ती है; परंतु पापवासनाका नाश नहीं होता। पापवासनाका नाश तो प्रेमपूर्वक विवेक उत्पन्न कराने और क्षमाशील पुरुषद्वारा परमात्मासे उसके लिये की जानेवाली क्षमा-प्रार्थनासे होता है। दण्ड सहन करते-करते तो मनुष्यकी प्रकृति ही पापमयी बन जाती है। पापोंसे उसकी घृणा निकल जाती है, ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं कि एक बार किसीको दण्ड हुआ, दण्ड भुगतनेके बाद समाजने उससे उसी प्रकार घृणा की, पुलिसकी दु:खदायिनी पैनी नजर उसपर सदा बनी रही, कुछ घृणा और कुछ पुलिसके भयसे लोगोंने उसे पासतक नहीं बैठने दिया, आजीविका नष्ट हो गयी, भूखके मारे प्राण जाने लगे। ‘बुभुक्षित: किं न करोति पापम्’ कोई उपाय न देखकर किसी तरह पापी पेटके लिये कुछ रोटियाँ तो मिल जायँगी,यह सोचकर किसी भी बहाने उसने जेल जाना उचित समझा और कोई ऐसा अपराध किया जिससे वह जेल चला गया। यों होते-होते वह महान् अपराधी और जेलका कीड़ा बन गया। समाजने घृणा न की होती, राज्यने व्यर्थ न सताया होता तो उसका जीवन सुधरना सम्भव था। सभी अपराधी जन्मगत पापी प्रकृतिके नहीं होते, कुसंगवश या परिस्थितिमें पड़कर पाप करनेवाले ही अधिक होते हैं। उनका जीवन शुद्ध बनाये रखनेकी जिम्मेवारी समाजपर है और यह काम अक्रोधी पुरुष ही कर सकते हैं।

अक्रोधका अर्थ कायरता नहीं है। इस विषयमें क्षमाके प्रकरणमें बहुत कुछ लिखा जा चुका है, फिरसे दुहरानेकी आवश्यकता नहीं; पर यह स्मरण रखना चाहिये कि क्रोधका दमन किये बिना मनुष्य न तो स्वयं सुखी हो सकता है और न उसके द्वारा समाज या देशका ही मंगल सम्भव है। जो स्वयं रात-दिन जलता और दूसरोंको जलानेके ही लिये जीवन धारण करता है, जिसे देखकर लोग काँप उठते हैं वह क्रूर मनुष्य जगत‍्का क्या मंगल कर सकता है? क्रूरता क्रोधका ही परिणाम है।

तो क्या पुत्र, शिष्य या सेवकोंपर भी क्रोध नहीं करना चाहिये? अवश्य ही क्रोध तो कभी किसीपर भी नहीं करना चाहिये। तो क्या माता-पिता अपनी सन्तान और गुरु शिष्यादिको जो शिक्षा देते हैं वह अनुचित है? नहीं, वह तो उचित है, क्रोधके साथ अविचार और द्रोह रहता है; परंतु पुत्र, शिष्य या सेवकको माता-पिता, गुरु या भला मालिक जो कभी शिक्षाके लिये कुछ कहता है तो उसमें उनका हित समाया रहता है। अपने बच्चों और शिष्योंको कोई दूसरा कुछ कह बैठे तो माता-पिता, गुरु उससे लड़ने लगते हैं; इससे यह सिद्ध होता है कि उनमें उनका ममत्व है। जिसमें ममत्व है उसके नाशकी इच्छा कोई नहीं करता, नाशकी इच्छा अविचारसे होती है; क्रोधमें अविचारकी प्रधानता रहती है। जिसमें अविचार नहीं परंतु विवेक-बुद्धि है, जिसमें जलन नहीं है, जिसका मन विकारसे रहित है, जिसमें उसी समय तीसरे व्यक्तिसे सरल हास्ययुक्त बातचीत कर सकनेकी पूरी गुंजाइश है वह क्रोध कहाँ है? वह तो क्रोधका स्वाँगमात्र है। तो क्या वह दम्भ है? जो बात मनमें नहीं और ऊपरसे दिखलायी जाती है वही तो दम्भ है। बात ठीक है, पर वह दम्भ नहीं है, वह तो सन्तान और शिष्योंकी नित्य भावी मंगल-कामनासे उन्हें सत्पथपर लाने और कायम रखनेके लिये गुरुजनोंके हृदयमें एक स्वाभाविक कर्तव्यकी प्रेरणा होती है। जो सन्तान और शिष्य आदिको क्रोधरूपमें दीखनेपर भी असलमें क्रोध नहीं परंतु रोग-नाशके लिये दी जानेवाली कड़वी दवाके सदृश कठोरतासे आच्छादित एक स्नेहपूर्ण कोमल वृत्तिकी क्षणिक भयावनी क्रिया होती है। यदि वास्तवमें क्रोध हो तो उससे अनर्थ ही सम्भव है चाहे वह किसीपर भी हो!

नौकरोंके प्रति तो क्रोध करनेका कोई अधिकार ही नहीं है! वे हमसे गरीब हैं, उनके पास अर्थका संकोच है इसीलिये वे हमारी नौकरी करते हैं। उनको किसी तरह अपनेसे छोटा या हीन नहीं समझना चाहिये। इसका यह मतलब नहीं कि नीति छोड़कर नौकरोंसे काम न करावे या उन्हें सिर चढ़ा ले, मतलब यही है कि उनके साथ योग्यतानुसार मित्र या शिष्यके या सन्तानके प्रति जैसा बर्ताव किया जाता है वैसा ही प्रेमपूर्ण बर्ताव नीतिको सदा साथ रखते हुए करना चाहिये।

परमार्थके मार्गमें तो क्रोध एक महान् प्रबल शत्रु है, जबतक क्रोध है, तबतक परमार्थमें उन्नतिलाभ करना बहुत ही कठिन है। जहाँ मनकी जरा-सी प्रतिकूलता सहन करनेकी शक्ति नहीं, वहाँ पारमार्थिक उन्नतिकी आशा कहाँसे की जाय? क्रोध ऐसी आग है जो सारे शरीरमें ज्वाला फूँक देती है। जिसका शरीर-मन क्रोधाग्निसे धधक उठता है, उससे परमात्माका भजन कब सम्भव है?

एक कहानी

एक जिज्ञासु किसी संतके पास गया और उनसे प्रार्थना की कि ‘महाराज! मुझे भगवान‍्के दर्शन हों ऐसा उपाय बतलाइये।’ संतने पूरे एक वर्षतक एकान्तमें बैठकर निरन्तर भजन करनेकी आज्ञा दी और कहा कि वर्ष पूरा हो उस दिन मनको मारकर नहा-धोकर मेरे पास आना। जिज्ञासु भजन करने लगा। संतकी कुटियामें एक भंगी झाड़ू देने आया करता था। वर्ष पूरा होनेके दिन संतने उससे कहा कि अमुक स्थानमें एक मनुष्य बैठा भजन करता है, वह जब नहाने लगे, तब उसके पास जाकर झाडू़से धूल उड़ाना। भंगीने ऐसा ही किया। जिज्ञासु क्रोधमें भरकर मारने दौड़ा और बोला कि ‘दुष्ट! तूने मुझे अपवित्र कर दिया।’ तदनन्तर वह फिरसे नहाकर संतके पास गया और बोला— ‘प्रभो! एक वर्ष पूरा हो गया है, अब तो भगवान‍्के दर्शन होने चाहिये।’ संतने कहा—‘भाई! तेरा मन अभी मरा कहाँ है, अभीतक तो तू साँपकी तरह काटने दौड़ता है, जा, सालभर फिर भजन कर और मनको मार! जिज्ञासुने फिर एक सालतक भजन किया। दूसरा वर्ष पूरा होनेके दिन संतने उसी भंगीसे फिर कहा कि ‘आज वह नहाकर उठे तब तू उसके शरीरमें झाड़ू छुआ देना।’ भंगीने वही किया। इस बार जिज्ञासु मारने तो नहीं दौड़ा; परंतु दो-चार कड़वी-मीठी सुनाकर उसने भंगीका तिरस्कार किया और फिरसे नहाकर संतके पास गया तथा भगवद्दर्शनके लिये प्रार्थना की। संत बोले— ‘जिज्ञासु! अभीतक तेरा मनरूपी सर्प फुफकार मारता है। इसके मरे बिना भगवान् कैसे मिलें, जा, एक साल फिर साधन कर। देख! इस बार परीक्षामें उत्तीर्ण नहीं हुआ तो फिर तुझे भगवान् नहीं मिलेंगे।’ जिज्ञासु अबकी बार बड़ी दृढ़तासे आसनपर बैठा, साल पूरा होनेके दिन संतने भंगीसे कहा कि ‘भाई! आज तू जाकर उसके नहाकर उठते ही कूड़ेकी टोकरी माथेपर डाल देना।’ भंगीने ऐसा ही किया। जिज्ञासु क्रोधको जीत चुका था, उसने भंगीको प्रणाम किया और सच्ची दीनतासे बोला— ‘भाई! तूने मेरा बड़ा उपकार किया, तू ऐसा न करता तो मैं क्रोधके चंगुलसे कैसे छूटता? तुझे धन्य है।’

इसीलिये ‘श्रीचैतन्य महाप्रभुने भक्तको तृणसे भी अधिक दीन, वृक्षके समान सहनशील, अमानी और दूसरोंको मान देनेवाला होकर भजन करनेकी आज्ञा दी है।’ क्षमा और निरहंकाररूपी शस्त्रोंसे ही क्रोधरूपी शत्रुपर विजय प्राप्त की जा सकती है। बौद्ध-ग्रन्थ धम्मपदमें लिखा है ‘जो भड़के हुए क्रोधके बहके हुए रथको रोक सकता है वह बुद्धिमान् रथी है, सिर्फ हाथसे लगाम पकड़े रहनेमें कोई चतुराई नहीं है।’

भगवान् गीतामें कहते हैं—

शक्नोतीहैव य: सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात्।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्त: स सुखी नर:॥
(५। २३)

‘जो शरीर-नाशके पहले ही काम-क्रोधसे उत्पन्न वेगको सह सकता है यानी काम-क्रोधको जीत लेता है, वही मनुष्य योगी और सुखी है।’

महात्मा चरणदासजी कहते हैं—

दोहा—जेहि घट आवे धूमसूँ,
करै बहुत ही रव्वार।
पति खोवै बुधिकूँ हनै,
कहा पुरुष कहा नार॥
चौपाई—वह बुद्धि भ्रष्ट करि डारै,
वह मारहि मार पुकारै।
वह सब तन हिंसा छावै,
कहिं दया रहन न पावै॥
वह गुरुसूँ बोले बैंडा,
साधूसूँ डोलै ऐंडा।
वह हरिसूँ नेह छुटावै,
वह नरक माहिं ले जावै॥
वह आतमघाती जानो,
वह महामूढ़ पहचानो।
सोटोंकी मार दिलावै,
कबहूँ वह शीश कटावै॥
वह नीच कमीना कहिये,
ऐसेसूँ डरता रहिये।
वह निकट न आवन दीजै,
अरु छिमा अंक भरि लीजै॥
जब छिमा आय कियो थाना,
तब सब ही क्रोध हिराना।

अन्तमें भक्त कबीरजीके वचन सुन लीजिये—

दोहा—कोटि करम लागे रहैं, एक क्रोधकी लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार॥
दसौं दिसासे क्रोधकी, उठी अपरबल आग।
सीतल संगत संतकी, तहाँ उबरिये भाग॥
कुबुधि कमानी चढ़ रही, कुटिल बचनका तीर।
भरि भरि मारै कानमें, सालै सकल सरीर॥
जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप।
जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ क्षमा तहँ आप॥
कबीर नवै सो आपुको, परको नवै न कोय।
घालि तराजू तौलिये, नवै सो भारी होय॥
ऊँचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय।
नीचा होय सो भरि पिवै, ऊँचा प्यासा जाय॥

भगवान् नारद कहते हैं—

क्रोधमूलो मनस्ताप: क्रोध: संसारसागरम्।
धर्मक्षयकर: क्रोधस्तस्मात्तं परिवर्जयेत्॥

‘क्रोध ही मनके सन्तापकी जड़ है, क्रोध ही संसार-सागरमें डालता है और क्रोधसे ही धर्मका नाश होता है, अतएव क्रोधका सर्वथा त्याग करना चाहिये।’

क्रोध-त्यागके उपाय

(१) क्रोध आवे तब चुप रह जाय, हो सके तो क्रोध आनेपर पाँच मिनट रुक जानेका नियम कर ले।

(२) बड़ोंपर क्रोध आते ही उनके चरणोंमें गिर पड़े।

(३) सबमें परमात्माको देखनेका अभ्यास करे। ईश्वरपर क्रोध कैसा?

(४) सबको आत्मरूप देखनेका अभ्यास करे। अपने-आपपर प्राय: कोई क्रोध नहीं करता।

(५) किसीके कुछ कहनेपर क्रोध आवे तो इस बातका विचार करे कि उसका कहना ठीक है या नहीं। यदि ठीक है तो क्रोध कैसा? उसने मेरा कोई दोष बतलाया और वह दोष या वैसा ही कोई दूसरा दोष मुझमें है तो उसने सावधान करके उपकार किया, दोष प्रकट करके मेरा असली रूप दुनियाके सामने रख दिया, निन्दा करके मानका बोझा उतार दिया। यदि झूठा दोषारोपण करता है तो वह भूला है और भूला हुआ दयाका पात्र है। किसी प्रकार भी क्रोधको जगह नहीं देनी चाहिये। बारम्बार इस प्रकारके विचारका अभ्यास रहनेसे क्रोधका कारण उपस्थित होनेपर भी इस विचारकी स्मृति हो सकती है और इससे क्रोधके दमनमें बहुत मदद मिलती है।

(६) अहंकार या मदके त्यागका अभ्यास करे।

(७) क्रोधको सदा ही दुर्गुण और अधोगतिमें ले जानेवाला समझे।

(८) क्रोधियोंकी दुर्गतिका इतिहास देखे।

(९) एक डायरी बना ले जिसमें क्रोध आते ही नोट कर ले और रातको सोते समय संख्या देखकर पश्चात्ताप करे और आगे ऐसा न होनेके लिये मनको दृढ़ करे तथा परमात्मासे विनय करे।

(१०) नित्य प्रात:काल इच्छाशक्तिसे क्रोध न आने देनेकी प्रबल भावना करे और परमात्मासे विनय करे।

(११) क्रोध आनेपर भगवन्नामका जप करने लगे, हो सके तो नियम कर ले कि क्रोधका आवेग आते ही एक पूरी माला जप किये बिना जबान नहीं खोलूँगा। हो सके तो एक बारके क्रोधके लिये कम-से-कम एक वक्त उपवास करे।

यह मनु महाराजकथित मानव-धर्मके दस धर्मोंकी संक्षिप्त व्याख्या है। पाठकोंसे सविनय प्रार्थना है कि वे इसके अनुसार अपने जीवनको बनानेकी चेष्टा करें।

॥ श्रीकृष्णार्पणमस्तु॥

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