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साधकोपयोगी अमूल्य बातें

जिस साधकको कर्मयोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह मान लेना चाहिये कि ‘मैं योगी हूँ’। जिसको ज्ञानयोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह धारणा कर लेनी चाहिये कि ‘मैं जिज्ञासु हूँ’। जिसको भक्तियोगके मार्गपर चलना हो, उसको पहले यह मान लेना चाहिये कि ‘मैं भक्त हूँ’। तात्पर्य है कि साधकको योगी होकर या जिज्ञासु होकर अथवा भक्त होकर साधन करना चाहिये।

जो योगी होकर साधन करता है, उसको जबतक योग (समता)-की प्राप्ति न हो, तबतक सन्तोष नहीं करना चाहिये। ‘योग’ नाम समताका है—‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २। ४८)। रोग-द्वेष, हर्ष-शोक आदि द्वन्द्व योगी बननेमें बाधक हैं। अत: साधकका उद्देश्य राग-द्वेष मिटानेका होना चाहिये। कर्म दो उद्देश्यसे किये जाते हैं—फल-प्राप्तिके लिये और फल-त्यागके लिये। जो फल-प्राप्तिके उद्देश्यसे कर्म करता है, वह ‘कर्मी’ होता है और जो फल-त्यागके उद्देश्यसे कर्म करता है, वह ‘कर्मयोगी’ होता है। इसलिये कर्मयोगके साधकको पहले ही यह धारणा कर लेनी चाहिये कि मैं योगी हूँ; अत: फल-प्राप्तिके लिये कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस प्रकार फलासक्तिका त्याग करके उसको अपना कर्तव्य-कर्म करते रहना चाहिये।*

* तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष:॥
(गीता ३।१९)

उसके सामने अनुकूल या प्रतिकूल जो भी परिस्थिति आये, उसका सदुपयोग करना चाहिये, भोग नहीं करना चाहिये। सुखी-दु:खी, राजी-नाराज होना परिस्थितिका भोग है। अनुकूल परिस्थितिमें दूसरोंकी सेवा करना और प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखेच्छाका त्याग करना उसका सदुपयोग है। सदुपयोग करनेसे अनुकूल और प्रतिकूल दोनों परिस्थितियाँ राग-द्वेष मिटानेमें हेतु हो जाती हैं।

कर्ममात्रका सम्बन्ध ‘पर’ के साथ है, ‘स्व’ के साथ नहीं है। कारण कि ‘स्व’ अर्थात् स्वयंमें कभी अभाव नहीं होता। अभाव न होनेके कारण स्वयंको कुछ नहीं चाहिये। जब कुछ नहीं चाहिये तो फिर अपने लिये कोई कर्म करना बनता ही नहीं। दूसरी बात, जिन करणोंसे कर्म किये जाते हैं, वे प्रकृतिके हैं। प्रकृतिके साथ स्वयंका कोई सम्बन्ध न होनेसे स्वयंपर अपने लिये कुछ भी करना लागू होता ही नहीं। इसलिये जो मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, वह कर्मोंसे बँध जाता है—‘यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धन:’ (गीता ३। ९)। परन्तु जो अपने लिये कुछ न करके दूसरोंके लिये ही सब कर्म करता है, वह कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है—‘यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते’ (गीता ४। २३)। निष्कामभावपूर्वक दूसरेके लिये कर्म करनेका नाम ‘यज्ञार्थ कर्म’ है। यज्ञार्थ कर्म करनेवालेको परिणाममें यज्ञशेषके रूपमें ‘योग’ की प्राप्ति हो जाती है—

यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
(गीता ३।१३)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम्।
(गीता ४।३१)

मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ, मैं साधक हूँ—यह साधकका स्थूलशरीर नहीं है, प्रत्युत भावशरीर है। स्थूलशरीर योगी, जिज्ञासु अथवा भक्त नहीं होता। अगर साधकमें पहले ही यह भाव हो जाय कि ‘मैं संसारी नहीं हूँ, मैं तो साधक हूँ’ तो उसका साधन बड़ा तेज चलेगा। जैसे, विवाहके समय जब लड़का ‘दूल्हा’ बन जाता है, तब उसकी चाल बदल जाती है। कारण कि उसकी अहंतामें यह बात आ जाती है कि ‘मैं तो दूल्हा हूँ’। इसी तरह साधककी अहंतामें भी ‘मैं साधक हूँ’—यह बात आनी चाहिये। अगर अहंतामें ‘मैं संसारी हूँ’—यह बात बैठी रहेगी तो संसारका काम बढ़िया होगा१, साधन बढ़िया नहीं होगा।

१.संसारका बढ़िया काम भी परिणाममें घटिया ही होता है।

जो बात अहंतामें आ जाती है, उसको करना बड़ा सुगम हो जाता है। इसलिये साधकके लिये अपनी अहंताको बदलना बहुत आवश्यक है। जो सेवक, जिज्ञासु या भक्त बनकर साधन नहीं करता, उसका किया हुआ साधन निरर्थक तो नहीं जाता, पर उसकी सिद्धि वर्तमानमें नहीं होती। अत: मैं साधक हूँ, मैं कर्मयोगी हूँ, मैं ज्ञानयोगी हूँ अथवा मैं भक्तियोगी हूँ—ऐसा मानकर साधन करना चाहिये।

कर्मयोगका एक नाम ‘सेवा’ है। इसलिये कर्मयोगके साधकको ‘मैं सेवक हूँ’ यह बात अहंतामें लानी चाहिये। ‘मैं सेवक हूँ’—इस अहंतासे यह बात पैदा होगी कि मेरा काम सेवा करना है, कुछ चाहना मेरा काम नहीं है। साधकमात्रके लिये यह खास बात है कि मेरेको संसारसे कुछ लेना नहीं है, मेरेको स्वार्थी, भोगी नहीं बनना है। संसारका सुख लेनेके लिये मैं नहीं हूँ। जो सुख चाहता है, वह सेवक नहीं होता२।

२.सेवक सुख चह मान भिखारी।
ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी॥
लोभी जसु चह चार गुमानी।
नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी॥
(मानस, अरण्य० १७। ८)

कोई-सा भी साधक हो, उसको पहलेसे ही सुखको तिलांजलि देनी पड़ेगी। साधकका काम साधन करना है, सुख भोगना नहीं। जो भोगी होता है, वह साधक नहीं होता। भोगी रोगी होता है, योगी नहीं होता। भोगीको दु:ख पाना ही पड़ता है। वह दु:खसे कभी बच सकता ही नहीं।

सेवक वह होता है, जो हर समय सेवा करता है। वह भोजन करे तो भी सेवा, शौच-स्नान करे तो भी सेवा, कपड़े धोये तो भी सेवा, व्यापार करे तो भी सेवा; जो भी काम करे सब सेवा-भावसे करे। परन्तु ऐसा तब होगा, जब उसके भीतर यह भाव रहे कि ‘मैं सेवक ही हूँ’। अगर उसमें ‘मैं मनुष्य हूँ’ अथवा ‘मैं ब्राह्मण हूँ’, ‘मैं वैश्य हूँ’, ‘मैं गृहस्थ हूँ’, ‘मैं साधु हूँ’ आदि भाव पहले हैं और ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पीछे है तो उससे कर्मयोग बढ़िया नहीं होगा। कर्मयोगीमें ‘मैं सेवक हूँ’ यह भाव पहले और ‘मैं मनुष्य हूँ’ आदि भाव पीछे रहने चाहिये। ऐसे ही ‘मैं भक्त हूँ’, ‘मैं जिज्ञासु हूँ’ अथवा ‘मैं साधक हूँ’—यह भाव पहले रहना चाहिये। जैसे ब्राह्मणमें ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ यह भाव (ब्राह्मणपना) हरदम जाग्रत् रहता है, ऐसे ही साधकमें ‘मैं साधक हूँ’ यह भाव हरदम जाग्रत् रहना चाहिये। ऐसा होनेसे मनुष्यभाव, शरीरभाव मिट जाता है। ‘मैं मनुष्य हूँ’—यह पांचभौतिक मनुष्यशरीर है और ‘मैं साधक (सेवक, जिज्ञासु अथवा भक्त) हूँ—यह भावशरीर है। भावशरीरकी मुख्यता होनेसे साधन निरन्तर होता है।

कर्मयोगी स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंकी सेवा करता है। शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना ‘स्थूलशरीर’ की सेवा है। विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना ‘सूक्ष्मशरीर’ की सेवा है। समाधि लगाना, अपने सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्चयसे विचलित न होना ‘कारणशरीर’ की सेवा है। स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता—तीनोंको ही ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ न मानना उनकी सेवा है। कारण कि स्थूलशरीरकी स्थूल जगत् के साथ, सूक्ष्मशरीरकी सूक्ष्म जगत् के साथ और कारणशरीरकी कारण जगत् के साथ एकता है। इसलिये शरीरको संसारसे अलग मानना बहुत बड़ी गलती है। शरीर और संसारको ‘अपना’ तथा ‘अपने लिये’ मानना बहुत घातक है। ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत जाय! इसलिये कर्मयोगीको ऐसा मानना चाहिये कि मैं संसारका हूँ और संसारकी सेवाके लिये हूँ। इस विषयमें एक दृष्टान्त है। लोगोंमें यह बात प्रचलित है कि रुपयोंके पास रुपया आता है; क्योंकि जिनके पास रुपये होते हैं, वे उन रुपयोंसे कई नये काम-धन्धे शुरू करके और रुपये कमा लेते हैं। एक आदमीने जब सुना कि रुपयेके पास रुपया आता है तो वह अपने हाथमें एक रुपयेका सिक्का बजाते हुए बाजारमें घूमने लगा। एक दूकानमें रुपयोंकी ढेरी पड़ी थी तो बजाते समय रुपया जाकर उस ढेरीपर गिर गया! वह बोला कि बात क्या है? रुपयेके पास रुपया आना चाहिये? तो दूकानदार बोला कि हाँ, रुपयेके पास ही रुपया आया है। तुम्हारा रुपया छोटा है, ढेरीके रुपये बड़े हैं तो बड़ेके पास छोटा जायगा कि छोटेके पास बड़ा जायगा? छोटा ही बड़ेके पास जायगा। इसी तरह संसार शरीरके लिये नहीं है, प्रत्युत शरीर संसारके लिये है। संसार हमारे लिये नहीं है, प्रत्युत हम संसारके लिये हैं। इसलिये साधकके भीतर यह भाव रहता है कि मैं संसारके काम आऊँ।

साधकको चाहिये कि वह चाहे तो मैंपनको शुद्ध कर ले, चाहे मैंपनको मिटा दे, चाहे मैंपनको बदल दे। कर्मयोगी मैंपनको शुद्ध करता है, ज्ञानयोगी मैंपनको मिटाता है और भक्तियोगी मैंपनको बदलता है। इसलिये कर्तृत्वाभिमान रहते हुए भी मनुष्य कर्मयोग और भक्तियोगका अनुष्ठान कर सकता है। परन्तु कर्तृत्वाभिमान रहते हुए ज्ञानयोगका अनुष्ठान नहीं कर सकता। वह ज्ञानकी बातें भले ही सीख ले, पर सिद्धि नहीं होगी। कर्मयोग और भक्तियोगमें पहले कामना मिटती है, पीछे अहंकार मिटता है। ज्ञानयोगमें पहले अहंकार मिटता है, पीछे कामना स्वत: मिटती है। तात्पर्य है कि कर्मयोग और भक्तियोग अहंता रहते हुए भी चल सकते हैं, पर ज्ञानयोग अहंता रहते हुए नहीं चल सकता। इसलिये अहंकारके रहते हुए ज्ञानयोग कष्टपूर्वक चलता है—‘अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२। ५) और अहंकार मिटनेपर सुखपूर्वक चलता है—‘सुखेन ब्रह्मसंस्पर्शमत्यन्तं सुखमश्नुते’ (गीता ६।२८)। परन्तु जो भोग भी भोगता रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ भी करता रहे, रुपये भी इकट्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी करता रहे, उसका कोई भी योग सिद्ध नहीं होता। वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना तो दूर रहा!

भक्त मैंपन (अहंकार)-को मिटाता नहीं है, प्रत्युत बदलता है। मैंपनको बदलना बहुत सुगम होता है। जैसे, लड़कीका विवाह होता है तो ‘मैं कुँआरी हूँ’ यह मैंपन सुगमतासे बदल जाता है। ऐसे ही भक्त मैंपनको बदल देता है कि ‘मैं संसारका नहीं हूँ, मैं तो भगवान् का हूँ’। मैंपनको बदलना सुगम भी है और श्रेष्ठ भी। मैंपनको बदलनेसे साधनमें तल्लीनता होकर अपने-आप स्वाभाविक ही सिद्धि हो जाती है।

साधकमें यह बात सबसे पहले होनी चाहिये कि ऐश-आराम करना, शरीरका पालन-पोषण करना मेरा काम नहीं है। शरीर-निर्वाहका प्रबन्ध तो भगवान् ने पहले ही कर रखा है। भगवान् के यहाँसे निर्वाहका प्रबन्ध तो है, पर भोग भोगनेका, संग्रह करनेका, लखपति-करोड़पति बननेका प्रबन्ध नहीं है। माँके स्तनोंमें दूध पहले आता है, पीछे हमारा जन्म होता है। जब जीवननिर्वाहका प्रबन्ध भगवान् की तरफसे है, तो फिर भजन क्यों नहीं करे? यद्यपि भजनकी जिम्मेवारी मनुष्यमात्रपर है, तथापि बूढ़े, विधवा और साधुपर विशेष जिम्मेवारी है। इन तीनोंको भगवद्भजनके सिवाय और काम ही क्या है? सुख भोगना, आराम करना, अनुकूलता चाहना—इसके लिये मनुष्यशरीर है ही नहीं—

एहि तन कर फल बिषय न भाई।
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई॥
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं।
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं॥
(मानस, उत्तर० ४४।१)

इसलिये जो सुख-आराम, मान-बड़ाई चाहता है, वह साधक नहीं हो सकता। वह तो भोगी है। मान-बड़ाई चाहना भी भोग है, क्योंकि मान शरीरका और बड़ाई नामकी होती है, अपनी (स्वयंकी) नहीं। मनुष्य मरनेके बाद भी बड़ाई चाहता है कि दो-चार पुस्तकें बना दें अथवा कोई ऐसा मकान बना दें, जिससे लोग मेरेको याद करें। इसको मारवाड़ी भाषामें ‘गीतड़ा और भीतड़ा’ कहते हैं। पर साधकको मान-बड़ाई, यश-कीर्तिसे दूर रहना चाहिये—‘बिच्छू-सी बड़ाई जाके नागिनी-सी नारी है’। उसको तो परमात्माकी प्राप्ति करना है। स्वर्ग आदि ऊँचे लोकोंकी प्राप्ति करना भी साधकका काम नहीं है—‘स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई’। भगवान् कहते हैं—

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छति मद् विनान्यत्॥
(श्रीमद्भा०११।१४।१४)

‘स्वयंको मेरे अर्पित करनेवाला भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्माका पद, इन्द्रका पद, सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य, पातालादि लोकोंका राज्य, योगकी समस्त सिद्धियाँ और मोक्षको भी नहीं चाहता।’

अनेक लोगोंका यह स्वभाव होता है कि वे सेवा वहीं करते हैं, जहाँ मान-बड़ाई मिले। मान-बड़ाई, वाहवाहीके बिना वे काम कर ही नहीं सकते। कोई अच्छा काम हो जाय तो वे कहते हैं कि इसको हमने किया, पर काम बिगड़ जाय तो दूसरोंपर दोष लगाते हैं। ऐसी वृत्तिवालोंका कल्याण कैसे होगा? सब अच्छा काम मैंने किया—यह ‘कैकेयीवृत्ति’ है और सब अच्छा काम दूसरोंने किया—यह ‘रामवृत्ति’ है। कैकेयी कहती है—

तात बात मैं सकल सँवारी।
भै मंथरा सहाय बिचारी॥
कछुक काज बिधि बीच बिगारेउ।
भूपति सुरपति पुर पगु धारेउ॥
(मानस, अयोध्या० १६०। १)

और रामजी कहते हैं—

गुरु बसिष्ट कुल पूज्य हमारे।
इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे।
भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे।
भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥
(मानस, उत्तर० ८।३-४)

अत: मान-बड़ाई, सुख-आराम पानेके उद्देश्यसे काम करना साधकके लिये अनुचित है।

साधक जिस मार्गको अपना ले, उसीमें दृढ़तासे लगा रहे। फिर सुख आये या दु:ख आये, प्रशंसा हो या निन्दा हो, उसकी परवाह न करे। जितना कष्ट आता है, विपरीत परिस्थिति आती है, वह केवल हमारी उन्नतिके लिये ही आती है। इसमें एक रहस्यकी बात है कि जब हमारा साधन ठीक चलता है और ठीक चलते-चलते हम कुछ सुख भोगने लगते हैं और अभिमान करने लगते हैं कि मैं अच्छा साधक बन गया हूँ, तब भगवान् विपरीत परिस्थिति भेजते हैं। परन्तु जब हम ज्यादा घबरा जाते हैं तो फिर भगवान् अनुकूलता भेज देते हैं। समय-समयपर अनुकूलता-प्रतिकूलता भेजकर भगवान् हमें चेताते रहते हैं, हमारी रक्षा करते रहते हैं।

मेरेको कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत देना-ही-देना है—ऐसा विचार करनेसे मनुष्य साधक बन जाता है। अगर साधक सेवक होगा तो सेवा करते-करते उसका सेवकपनेका अभिमान मिट जायगा अर्थात् सेवक न रहकर केवल सेवा रह जायगी और वह सेवारूप होकर सेव्यके साथ एक हो जायगा अर्थात् उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जायगी। ऐसे ही अगर साधक जिज्ञासु होगा तो उसमें जिज्ञासुपनेका अभिमान मिटकर केवल जिज्ञासा रह जायगी। केवल जिज्ञासा रहते ही जिज्ञासा-पूर्ति हो जायगी अर्थात् तत्त्वज्ञान हो जायगा। इसी तरह अगर साधक भक्त होगा तो उसमें भक्तपनेका अभिमान नहीं रहेगा और वह भक्तिरूप हो जायगा अर्थात् उसके द्वारा प्रत्येक क्रिया भक्ति (भगवान् के लिये) ही होगी। भक्तिरूप होकर वह भगवान् के साथ अभिन्न हो जायगा।

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