विज्ञानसहित ज्ञान
जितने भी शास्त्र (दर्शन) हैं, उनके दो विभाग हैं—ईश्वरको माननेवाले और ईश्वरको न माननेवाले। ईश्वरको माननेवाले शास्त्रोंमें गीता मुख्य है। गीताका खास सिद्धान्त है—‘वासुदेव: सर्वम्’ अर्थात् सब कुछ परमात्मा ही हैं। जिन दार्शनिकोंने अपने दर्शन-(अनुभव) में, अपने मतमें पूर्ण सन्तोष कर लिया, वे तो वहीं रुक गये, पर जिन्होंने अपने दर्शनमें सन्तोष नहीं किया, उन्होंने ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव कर लिया। ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव होनेपर सम्पूर्ण दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें परस्पर मतभेद सर्वथा मिट जाता है और वे सब एक हो जाते हैं।
शास्त्रोंमें जगत्, जीव और परमात्मा—इन तीनोंका ही विवेचन आता है; क्योंकि इन तीनोंके सिवाय चौथी कोई वस्तु है ही नहीं। इन तीनोंको गीताने अनेक नामोंसे कहा है; जैसे—‘जगत्’ को अपरा, क्षेत्र, क्षर आदि, ‘जीव’ को परा, क्षेत्रज्ञ, अक्षर आदि और ‘परमात्मा’ को ब्रह्म, पुरुषोत्तम आदि नामोंसे कहा है। भगवान् ने गीतामें अपरा (जगत्) और परा (जीव)—दोनोंको ही अपनी प्रकृति (स्वभाव या शक्ति) बताया है*।
* भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्॥
(गीता७।४-५)
‘पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश—ये पंचमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार—इस प्रकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी यह अपरा प्रकृति है और हे महाबाहो! इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न जीवरूप बनी हुई मेरी परा प्रकृतिको जान, जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।’
जैसे शक्तिमान् के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती, ऐसे ही परमात्माके बिना जगत् और जीवकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। परमात्माके ही एक अंशमें जीव है और जीवके ही एक अंशमें जगत् है—‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७। ५)। इसलिये गीतामें जगत्, जीव और परमात्माके वर्णनका तात्पर्य उनको अलग-अलग बतानेमें नहीं है, प्रत्युत सबको एक और अभिन्न बतानेमें ही है*।
* एतज्ज्ञेयं नित्यमेवात्मसंस्थं नात: परं वेदितव्यं हि किञ्चित्।
भोक्ता भोग्यं प्रेरितारं च मत्वा सर्वं प्रोक्तं त्रिविधं ब्रह्ममेतत्॥
(श्वेताश्वतर० १।१२)
‘अपने ही भीतर स्थित इस ब्रह्मको ही सर्वदा जानना चाहिये; क्योंकि इससे बढ़कर जाननेयोग्य तत्त्व दूसरा कुछ भी नहीं है। भोक्ता (जीवात्मा), भोग्य (जगत्) और उनके प्रेरक परमेश्वरको जानकर मनुष्य सब कुछ जान लेता है। इस प्रकार यह तीन भेदोंमें बताया हुआ ब्रह्म ही है अर्थात् जीव, जगत् और परमात्मा—तीनों समग्र ब्रह्मके ही रूप हैं।’
परा और अपरा—दोनों प्रकृतियोंके साथ परमात्माका समान सम्बन्ध है। परन्तु परा प्रकृतिका सम्बन्ध अपरा प्रकृतिके साथ नहीं है। कारण कि परा और अपरा—दोनोंका स्वभाव अलग-अलग है। परा नित्य अपरिवर्तनशील तथा अविनाशी है और अपरा (शरीर-संसार) निरन्तर परिवर्तनशील तथा विनाशी है। परा प्रकृति परमात्माका अंश होनेसे परमात्माके ही स्वभाववाली है अर्थात् जैसे परमात्मा नित्य अपरिवर्तनशील तथा अविनाशी स्वभाववाले हैं, ऐसे ही उनका अंश परा प्रकृति भी है। तात्पर्य यह हुआ कि जीव परमात्माका अविभाज्य अंश है और शरीर संसारका अविभाज्य अंश है।
जीव तथा परमात्मा ‘प्राप्त’ हैं और स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर तथा संसार ‘प्रतीति’ हैं। ‘प्राप्त’ सत्-रूप है और ‘प्रतीति’ असत्-रूप है। असत् की तो सत्ता विद्यमान नहीं है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। तात्पर्य है कि ‘प्राप्त’ दीखता नहीं है, पर उसकी सत्ता मौजूद है और ‘प्रतीति’ दीखती तो है, पर उसकी सत्ता मौजूद है ही नहीं। मैं अमुक वर्ण, आश्रम आदिका हूँ—यह ‘प्रतीति’ को लेकर है और मैं साधक (योगी, मुमुक्षु, भक्त आदि) हूँ—यह ‘प्राप्त’ को लेकर है। जब मनुष्यमें ‘प्रतीति’ की मुख्यता होती है, तब वह संसारी होता है और जब उसमें ‘प्राप्त’ की मुख्यता होती है, तब वह साधक होता है। इसलिये साधकमें ‘प्राप्त’ की मुख्यता होनी चाहिये। प्रतीतिकी मुख्यता होनेसे साधनकी सिद्धि में बहुत कठिनता होती है। मुक्ति अथवा भक्तिकी प्राप्ति प्रतीतिको नहीं होती, प्रत्युत ‘प्राप्त’-(स्वयं) को ही होती है। इसलिये भगवान् ने सातवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें अपने भक्तोंके चार प्रकार (अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी) बताकर नवें अध्यायके तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक कहा कि दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय—ये सभी व्यक्ति चार प्रकारके भक्त बन सकते हैं। इसी बातको दूसरे शब्दोंमें कहें तो भगवान् की प्राप्ति दुराचारी, पापयोनि, स्त्रियाँ, वैश्य, शूद्र, ब्राह्मण तथा क्षत्रियको नहीं होती, प्रत्युत ‘भक्त’ (स्वयं) को होती है*! (गीता ९। ३३)। इसलिये शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिकी मुख्यता रखनेवाला कोई भी मनुष्य भोगी तो बन सकता है, पर योगी नहीं बन सकता।
* नाहं विप्रो न च नरपतिर्नापि वैश्यो न शूद्रो
नो वा वर्णी न च गृहपतिर्नो वनस्थो यतिर्वा।
किन्तु प्रोद्यन्निखिलपरमानन्दपूर्णामृताब्धे-
र्गोपीभर्तु: पदकमलयोर्दासदासानुदास:॥
‘मैं न तो ब्राह्मण हूँ, न क्षत्रिय हूँ, न वैश्य हूँ, न शूद्र हूँ; न ब्रह्मचारी हूँ, न गृहस्थ हूँ और न संन्यासी ही हूँ; किन्तु सम्पूर्ण परमानन्दमय अमृतके उमड़ते हुए महासागररूप गोपीकान्त श्यामसुन्दरके चरणकमलोंके दासोंका दासानुदास हूँ।’
जो ‘प्राप्त’ है, वह ‘परा प्रकृति’ है और जो ‘प्रतीति’ है, वह ‘अपरा प्रकृति’ है। परा और अपरा—दोनों ही प्रकृतियाँ भगवान् की होनेसे भगवत्स्वरूप हैं—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९)। परन्तु जीव-(परा) ने जगत् (अपरा) को धारण कर लिया अर्थात् उसको स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता देकर अपना मान लिया—‘मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति’ (गीता १५। ७)। यही जीवकी मूल भूल है, जिसके कारण वह जगत् बन गया* अर्थात् जगत् की तरह परिवर्तनशील, जन्मने-मरनेवाला बन गया।
* त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥
(गीता ७।१३)
‘इन तीनों गुणरूप भावोंसे मोहित यह सम्पूर्ण जगत् (प्राणिमात्र) इन गुणोंसे अतीत अविनाशी मुझे नहीं जानता।’
—इस श्लोकमें जीवात्माके लिये ‘जगत्’ शब्द आया है।
इस भूलको मिटानेके लिये साधकको चाहिये कि वह ‘परा’ को अर्थात् अपने-आपको भगवान् के अर्पित कर दे और ‘अपरा’ को अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिको संसारके अर्पित कर दे, संसारकी सेवामें लगा दे। ‘मैं भगवान् का और भगवान् के लिये ही हूँ’—ऐसा स्वीकार कर लेना अपने-आपको भगवान् के अर्पित करना है और ‘शरीर संसारका और संसारके लिये ही है’—ऐसा अनुभव कर लेना शरीरको संसारके अर्पित करना है। इस प्रकार भगवान् की चीज भगवान् को दे दी—यह ‘भक्तियोग’ हो गया, संसारकी चीज संसारको दे दी—यह ‘कर्मयोग’ हो गया और न तो भगवान् से तथा न संसारसे ही कुछ चाहनेसे स्वयं असंग हो गया—यह ‘ज्ञानयोग’ हो गया। इस प्रकार कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग—तीनों सिद्ध होनेसे परा और अपराकी स्वतन्त्र सत्ताकी मान्यता मिट जाती है और ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अनुभव हो जाता है।
जो अपना कल्याण चाहता है, वह अगर अपरा-(जगत्) को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘कर्मयोग’ (भौतिक साधना) है, अगर परा-(जीव अर्थात् चेतन) को सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘ज्ञानयोग’ (आध्यात्मिक साधना) है और अगर परमात्माको सच्चा मानता है तो उसके लिये ‘भक्तियोग’ (आस्तिक साधना) है। अगर वह किसीको भी सच्चा नहीं मानता तो भी उसका कल्याण हो जायगा! कारण कि किसीको भी न माननेसे उसपर संसार आदिका प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह स्वत: निर्विकल्प हो जायगा। मनुष्यपर उसी वस्तुका असर पड़ता है, जिसको वह सच्चा मानता है।
हमने संसारकी चीज संसारको दे दी तो अब हम संसारसे कुछ चाहनेके अधिकारी ही नहीं रहे। इसी तरह भगवान् की चीज भगवान् को दे दी तो हमें स्वत: प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी। प्रेमसे बढ़कर कोई चीज है ही नहीं, जिसकी चाहना हम भगवान् से करें। संसारकी चीज संसारको देना ‘योग’ है और संसारसे कुछ चाहना ‘भोग’ है। भगवान् की चीज भगवान् को देना ‘योग’ है और भगवान् से कुछ माँगना ‘भोग’ है।
वास्तवमें मनुष्यशरीर कर्मयोनि अथवा भोगयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि भगवान् ने मनुष्यको प्रेमके लिये ही बनाया है—‘एकाकी न रमते।’ इसलिये प्रेमकी प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है। सम्पूर्ण योनियोंमें एक मनुष्य ही ऐसा है, जो भगवान् को अपना मान सकता है, भगवान् से कह सकता है कि मैं तेरा हूँ, तू मेरा है अथवा केवल तू-ही-तू है। कारण कि भगवान् ने संसारको जीवोंके लिये बनाया है और मनुष्यको अपने लिये बनाया है। मनुष्यमें संसारको अपना न माननेकी और भगवान् को अपना माननेकी जो योग्यता और सामर्थ्य है, वह भी वास्तवमें भगवान् की ही दी हुई है। भगवान् की दी हुई योग्यता और सामर्थ्यसे ही मनुष्य भगवान् से प्रेम करता है।
संसार निरन्तर बदलनेवाला (अप्राप्त) है तथा अपना नहीं है, फिर भी वह हमारेको प्रिय लगता है और परमात्मा सब देश, काल आदिमें ज्यों-के-त्यों विद्यमान (नित्यप्राप्त) हैं तथा अपने हैं, फिर भी वे हमारेको प्रिय नहीं लगते! इसका कारण यह है कि हम संसारकी निन्दा तो करते हैं, पर उसकी सत्ता और महत्ता नहीं है तथा वह अपना नहीं है—यह अनुभव नहीं करते। इसी तरह हम परमात्माकी महिमा तो गाते हैं, पर उनको सत्ता और महत्ता देकर अपना स्वीकार नहीं करते। इसलिये साधकका खास काम है—विवेकपूर्वक संसारको अपना न मानना और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान् को अपना मानना, जो कि वास्तविकता है।
जब मनुष्य संसारको अपना और अपने लिये मान लेता है, तब उसको अपनी और संसारकी (परा और अपराकी) स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है। इसका परिणाम यह होता है कि जीव जगत् के अधीन (पराधीन) हो जाता है और जन्म-मरणमें पड़कर दु:ख पाता है। इस पराधीनतासे छूटनेके लिये साधकके लिये तीन खास बातें हैं—
(१) मेरा कुछ नहीं है।
(२) मेरेको कुछ नहीं चाहिये।
(३) मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है।
(१) हमारा स्वरूप (स्वयं) सत्तामात्र है। इस स्वरूपके साथ कुछ भी नहीं है। संसारकी कोई भी वस्तु और क्रिया स्वरूपतक नहीं पहुँचती। तात्पर्य यह हुआ कि अपने पास अपने सिवाय कुछ भी नहीं है। ‘मैं’ कहलानेवाला स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर भी अपने साथ नहीं है और हम उसके साथ नहीं हैं। अगर शरीर हमारे साथ रहता तो हमारे अनेक जन्म कैसे होते? हम अनेक शरीर कैसे धारण करते? अगर हम शरीरके साथ रहते तो मुक्ति कभी होती ही नहीं। प्रत्येक देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, क्रिया, परिस्थिति, अवस्था आदिमें निरन्तर परिवर्तन होता है, उत्पत्ति-विनाश होता है, पर अपनेमें (स्वरूपमें) कभी किंचिन्मात्र भी परिवर्तन, उत्पत्ति-विनाश नहीं होता। इन देश, काल आदि सबके अभावका अनुभव हमें होता है, पर अपने अभावका अनुभव कभी किसीको नहीं होता। परिवर्तनशील एवं नाशवान् वस्तु (शरीर-संसार) अपरिवर्तनशील एवं अविनाशी तत्त्वके साथ कैसे रह सकती है और उसके क्या काम आ सकती है? अमावस्याकी रात सूर्यके साथ कैसे रह सकती है और सूर्यके क्या काम आ सकती है? सांसारिक शरीर, बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, सुन्दरता आदि संसारके ही काम आते हैं, हमारे काम किंचिन्मात्र भी नहीं आते। तात्पर्य है कि अपरा प्रकृति और उसके कार्य शरीर-संसारके द्वारा हमें कुछ भी नहीं मिलता, हमारी किंचिन्मात्र भी पुष्टि नहीं होती, हित नहीं होता, हो सकता भी नहीं। अनन्त ब्रह्माण्ड मिलकर भी हमारी पूर्ति, सन्तुष्टि नहीं कर सकते। इसलिये अनन्त सृष्टियों, अनन्त ब्रह्माण्डोंमें एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो हमारी हो और हमारे लिये हो!
जीव और परमात्मा—दोनों ही अकिंचन हैं। जीव इसलिये अकिंचन है कि उसके लिये संसारमें ‘मेरा कुछ नहीं है’ अर्थात् उसका भगवान् के सिवाय और किसीसे सम्बन्ध नहीं है, और परमात्मा इसलिये अकिंचन हैं कि उनके सिवाय दूसरी कोई सत्ता नहीं है—‘मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति’ (गीता ७। ७), ‘सदसच्चाहम्’ (गीता९। १९)। जबतक जीवकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता है, तबतक उसके पास अपना करके कुछ नहीं है और जब उसकी दृष्टिमें संसारकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती, तब भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है—‘वासुदेव: सर्वम्।’ उसकी भगवान् के साथ आत्मीयता हो जाती है—‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७। १८), ‘मयि ते तेषु चाप्यहम्’ (गीता ९।२९)। इसलिये भगवान् ने रुक्मिणीजीसे कहा है कि ‘हम सदाके अकिंचन हैं और अकिंचन भक्तोंसे ही हम प्रेम करते हैं और वे हमारेसे प्रेम करते हैं—
निष्किञ्चना वयं शश्वन्निष्किञ्चनजनप्रिया:।
(श्रीमद्भा० १०।६०।१४)
भगवान् दर्शन भी अकिंचन भक्तोंको ही देते हैं— ‘त्वामकिञ्चनगोचरम्’ (श्रीमद्भा० १। ८। २६)। इसलिये कोई भी वस्तु अपनी और अपने लिये नहीं है—ऐसा स्वीकार करके अनुभव करते ही हम अकिंचन हो जाते हैं, भगवान् के प्रेमी हो जाते हैं—‘प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:’ (गीता ७। १७)।
(२) इच्छा अभावसे पैदा होती है। सत्तामात्र अपने स्वरूपमें कभी अभाव नहीं होता—‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २। १६)। इसलिये अपनेमें कोई इच्छा नहीं होती। जब अनन्त सृष्टिमें कोई वस्तु हमारी और हमारे लिये है ही नहीं और कोई वस्तु स्वयंतक पहुँच सकती ही नहीं, हमें प्राप्त हो सकती ही नहीं तो फिर किसकी इच्छा करें और क्यों करें? जिस शरीरको हम ‘मैं’, ‘मेरा’ और ‘मेरे लिये’ मानते हैं, वह शरीर भी हमें आजतक प्राप्त हुआ नहीं, प्राप्त है नहीं, प्राप्त होगा नहीं, प्राप्त होना सम्भव ही नहीं। कारण कि वह निरन्तर बदलता है और हम निरन्तर रहते हैं। तात्पर्य है कि शरीरका स्वयंसे कभी संयोग हुआ ही नहीं; क्योंकि ये दोनों ही परस्पर विरुद्ध स्वभाववाले हैं। इसलिये न तो हमें संसारसे कुछ चाहिये और न भगवान् से ही कुछ चाहिये। संसारसे इसलिये कुछ नहीं चाहिये कि उसके पास ऐसी कोई वस्तु है ही नहीं, जो वह हमें दे सके। भगवान् से भी शान्ति, मुक्ति, सद्गति, दर्शन आदि कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि इनको देना भगवान् का कर्तव्य है, जो उनके अधीन है। हमारा काम भगवान् को उनका कर्तव्य बताना नहीं है, प्रत्युत अपने कर्तव्यका पालन करना है। हमारा कर्तव्य यह है कि हम भगवान् के सिवाय किसीको भी अपना न मानकर अपनेको सर्वथा अर्पण कर दें और भगवान् से कुछ भी न माँगें; क्योंकि वास्तवमें भगवान् के सिवाय अपना कोई है ही नहीं।
एक मार्मिक बात है कि भगवान् के सिवाय दूसरी वस्तुको अपना माननेसे भगवान् से सम्बन्ध-विच्छेद अर्थात् विमुखता होती है। इसी तरह भगवान् से कोई वस्तु माँगनेसे उस वस्तुके साथ सम्बन्ध होता है और देनेवाले (भगवान्) से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। मनुष्यसे यही भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुओंको तो अपना मानता है, पर उनको देनेवालेको अपना नहीं मानता! मिली हुई वस्तुएँ तो बिछुड़ जायँगी, पर भगवान् नहीं बिछुडे़ंगे।
(३) सत्तामात्र हमारे स्वरूपमें कोई क्रिया नहीं है। क्रियामात्र प्रकृतिमें ही होती है। स्वयं किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं करता—‘नैव किञ्चित्करोमीति’ (गीता ५। ८), ‘नैव किञ्चित्करोति स:’ (गीता ४। २०)। मनुष्य जो कुछ करता है, कुछ-न-कुछ पानेके लिये ही करता है। जब सृष्टिमात्रमें कोई भी वस्तु हमारी और हमारे लिये है ही नहीं तो फिर किसको पानेके लिये कर्म किया जाय? इसलिये हमें अपने लिये कुछ करना है ही नहीं।
अगर हम शरीर आदि किसी भी वस्तुको अपना मानें तो कभी सर्वथा निष्काम हो सकते ही नहीं; क्योंकि शरीरको रोटी-कपड़ा आदि सब कुछ चाहिये। सर्वथा निष्काम हुए बिना क्रियाका त्याग भी नहीं हो सकता; क्योंकि कामना-पूर्तिके लिये क्रिया करनी ही पड़ेगी। इसलिये ‘मेरा कुछ नहीं है’—यह अनुभव होनेपर ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’—ऐसा अनुभव करनेकी सामर्थ्य आ जाती है, और ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’—यह अनुभव होनेपर ‘मेरेको कुछ नहीं करना है’—ऐसा अनुभव करनेकी सामर्थ्य आ जाती है।
‘मेरा कुछ नहीं है’—ऐसा माननेसे मनुष्य ममतारहित हो जाता है, ‘मेरेको कुछ नहीं चाहिये’—ऐसा माननेसे कामनारहित हो जाता है और ‘मेरेको (अपने लिये) कुछ नहीं करना है’—ऐसा माननेसे कर्तृत्वरहित हो जाता है। ममतारहित, कामनारहित और कर्तृत्वरहित होनेसे मनुष्य ‘स्व’ में स्थित अर्थात् ‘मुक्त’ हो जाता है*।
* विहायकामान्य:सर्वान्पुमांश्चरति नि:स्पृह:।
निर्ममोनिरहङ्कार: स शान्तिमधिगच्छति॥
एषा ब्राह्मी स्थिति:...........................।
(गीता २।७१-७२)
अगर साधक अपनी सत्ताको परमात्माकी सत्ताके अर्पित कर देता है अर्थात् ‘मैं भगवान् का हूँ और भगवान् मेरे हैं’—ऐसी आत्मीयता (अभिन्नता) स्वीकार कर लेता है तो वह ‘स्वकीय’ में स्थित अर्थात् ‘भक्त’ हो जाता है।
अगर कोई साधक ज्ञानमार्ग-(निर्गुणोपासना) का आग्रह रखकर भक्तिमार्ग-(सगुणोपासना) की उपेक्षा, अनादर, खण्डन, निन्दा अथवा तिरस्कार करता है तो उसको मुक्त होनेके बाद भी भक्तिकी प्राप्ति नहीं होगी। अगर साधक अपने साधनका आग्रह न रखे, भक्तिकी उपेक्षा, तिरस्कार न करे, प्रत्युत उसका आदर करे तो उसको मुक्त होनेके बाद भक्तिकी प्राप्ति स्वत:-स्वाभाविक हो जायगी। इसलिये गीतामें भगवान् ने ‘येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि’ (४। ३५) पदोंसे कहा है कि ‘तत्त्वज्ञान होनेपर सम्पूर्ण प्राणियोंको नि:शेषभावसे पहले अपनेमें देखेगा’ (द्रक्ष्यसि आत्मनि)—यह मुक्तिकी प्राप्ति है, और ‘उसके बाद मेरेमें देखेगा’ (अथो मयि)—यह भक्तिकी प्राप्ति है। वास्तवमें हम शरीरके साथ कभी मिल सकते ही नहीं और परमात्मासे कभी अलग हो सकते ही नहीं। अत: मुक्त होना और भक्त होना वास्तविकता है।
मुक्तिमें तो सूक्ष्म अहम् की गंध रह जाती है, जिससे द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि मतभेद पैदा होते हैं, पर प्रेमकी प्राप्तिमें अहम् का सर्वथा अभाव हो जाता है*, जिससे सम्पूर्ण मतभेद मिटकर ‘वासुदेव: सर्वम्’ का अर्थात् परा-अपराके सहित भगवान् के समग्ररूपका अनुभव हो जाता है।
* प्रेम भगति जल बिनु रघुराई।
अभिअंतर मल कबहुँ न जाई॥
(मानस, उत्तर० ४९। ३)
यही ‘विज्ञानसहित ज्ञान’ है, जिसको जाननेके बाद फिर कुछ जाननेयोग्य शेष रहता ही नहीं—‘यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते’ (गीता ७। २) और जिसको जानकर साधक जन्म-मरणरूप संसारसे मुक्त हो जाता है—‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’ (गीता ९। १)। इसी विज्ञानसहित ज्ञानका वर्णन भगवान् ने सातवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें अध्यायमें किया है। फिर बारहवें अध्यायमें इसका निर्णय किया है कि केवल ज्ञानकी अपेक्षा विज्ञानसहित ज्ञान श्रेष्ठ है। कारण कि ‘ज्ञान’ में निर्गुणकी उपासना है और ‘विज्ञान’ में सगुण-(समग्र) की उपासना है। सगुणकी उपासना समग्रकी उपासना है। परन्तु निर्गुणकी उपासना समग्रके एक अंगकी उपासना है; क्योंकि निर्गुणमें गुणोंका निषेध होनेसे उसके अन्तर्गत सगुण (समग्र) नहीं आ सकता, जबकि सगुण-(समग्र) में किसीका भी निषेध न होनेसे निर्गुण भी उसके अन्तर्गत आ जाता है। इसलिये सगुणका उपासक विज्ञानसहित ज्ञानको अर्थात् सगुण-निर्गुण, साकार-निराकारके सहित भगवान् के समग्ररूपको जान लेता है*।
* जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्॥
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु:।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस:॥
(गीता ७।२९-३०)
‘वृद्धावस्था और मृत्युसे मुक्ति पानेके लिये जो मनुष्य मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको जान जाते हैं।’
‘जो मनुष्य अधिभूत तथा अधिदैवके सहित और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं, वे मुझमें लगे हुए चित्तवाले मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।’
‘ज्ञान’ से मुक्ति प्राप्त होती है और ‘विज्ञान’ से भक्ति प्राप्त होती है। मुक्तिमें परमात्मासे सधर्मता होती है—‘मम साधर्म्यमागता:’ (गीता १४। २) और भक्तिमें परमात्मासे आत्मीयता (अभिन्नता) होती है—‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्’ (गीता ७।१८)। अन्तिम प्रापणीय तत्त्व भक्ति ही है; अत: इसीकी प्राप्तिमें मानव जीवनकी पूर्णता है।