Hindu text bookगीता गंगा
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अभिमान!

ओ अन्यायी अभिमान! तैंने मुझे खूब छकाया, तेरे ही कारण मुझे बारम्बार नाना प्रकारके दु:ख सहने पड़ते हैं। विद्याके रूपमें तैंने मुझे अनेक सत्पुरुषोंका तिरस्कार करनेके लिये बाध्य किया। फँसानेवाली विद्यासे रहित, लोगोंकी बाह्यदृष्टिमें अशिक्षित सच्चे तत्त्वज्ञानियोंकी शरणमें जाकर उनकी व्याकरणरहित विवेकमयी सद्वाणी सुननेसे तैंने ही मुझे रोका। तैंने ही धनके रूपमें मुझसे बड़े-बड़े अनर्थ कराये। सरल अकिंचन भक्तजनोंकी सत्संगतिमें जानेसे मेरा अपमान होगा, इस भावनासे तैंने ही मुझे वहाँ नहीं जाने दिया। पद और उपाधिके रूपमें तैंने ही मेरी आँखें लाल रखीं। तैंने ही सौजन्यता, दया और नम्रताका हरण कर लिया। तैंने ही संत-समागमसे मुझे वंचित किया। मालिकीके रूपमें तैंने ही मुझे अपने सरलहृदय नौकरोंसे और गरीबोंसे दिल खोलकर नि:संकोच बातें नहीं करने दीं। जाति और वर्णके रूपमें तैंने ही मुझे अपनेसे छोटी कहलानेवाली जातिके अपने ही-सरीखे मनुष्योंको पददलित कराया। राजा या शासकके रूपमें तैंने ही मुझसे रोती और बिलखती हुई भूखी प्रजापर अत्याचार करनेको बाध्य किया। जमींदारके रूपमें तैंने ही गरीब किसानोंपर मुझसे अमानुषिक अत्याचार करवाये। तैंने ही विलास-सामग्रियोंके संग्रहके लिये मुझे गरीबोंकी झोपड़ियाँ जलाने और उनका घर तहस-नहस करनेके लिये उत्साहित किया। पाण्डित्यके रूपमें तैंने ही मुझसे ईश्वरका खण्डन करवाकर महापापमें प्रवृत्त किया। तैंने ही शुष्क शास्त्रवितण्डामें भक्तिके अमीरससे मुझे अलग कर रखा। तैंने ही अक्खड़पनसे मुझे सबका द्रोही बनाया। माता, पिता, गुरुका अपमान तैंने ही करवाया। तेरे ही कारण मैंने सबको तुच्छ समझा। तुझीने मुझे लड़ाई उधार लेनेकी आदत सिखायी। तेरे ही कारण मैं दूसरोंकी सच्ची और हितकर बातें सुननेसे वंचित रहा। तेरी ही गुलामी स्वीकार करके मैंने झूठ, कपट और चोरीका आश्रय लिया। तेरे ही कारण मैंने लोगोंके सामने साधु और भक्त बनकर उन्हें धोखा दिया। तेरे ही कारण प्रेमका मिथ्या परिचय देकर मैंने सर्वान्तर्यामी परमात्माको ठगना चाहा। तेरे ही कारण मैंने भाँति-भाँतिके पाप कमाये। तैंने ही मुझे धर्मके पवित्र मार्गसे नीचे ढकेल दिया। तेरे ही कारण मुझे हरि-नाम-कीर्तनमें शरम आती है और हरि-कथा-श्रवणमें संकोच होता है। अरे! अभिन्न होनेपर भी तैंने ही मुझे परमात्मासे अलग कर रखा है। पापी! दूर हो यहाँसे। बहुत दिन हो गये, अब तो मेरा पिण्ड छोड़, जिससे हृदयमें अनन्त कालसे जलती हुई आगको परमात्मरसकी अमृत-वृष्टिसे बुझाकर सुखी हो सकूँ!

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