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सत्संग

तुलयाम लवेनापि न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
भगवत्संगिसंगस्य मर्त्यानां किमुताशिष:॥
(भागवत १। १८। १३)
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥
(रामचरितमानस)

परमात्माका नाम ‘सत्’ है और उसीके साथ नित्य संग करना ‘सत्संग’ कहलाता है, परन्तु परमात्माका संग सर्वदा अभिन्नरूपसे होते हुए भी जबतक हमारे अन्तरमें भ्रमका अस्तित्व है तबतक उसका प्रत्यक्ष होना बड़ा कठिन है। अथवा, तबतक हमें उसका संग नहीं प्राप्त होता जबतक कि हम अपने अनन्य प्रेमसे उस नित्य निरंजन परमात्माको इतना प्रसन्न न कर लें कि जिसके प्रभावसे हमारे इच्छानुकूल उसे साकार बनकर अपने दुर्लभ संगसे हमें कृतार्थ करनेके लिये हमारे बीचमें आना पड़े। इस वास्तविक फलस्वरूप सत्संगको प्राप्त करनेके लिये जो सर्वप्रथम और सुन्दर साधन है, उसको भी सत्संग ही कहते हैं। इस सत्संगका अर्थ सत्पुरुषोंके साथ संग करना है। सत्पुरुष उनको कहते हैं जो उस सर्वव्यापी परमात्माके नित्य अस्तित्वमें अपने भिन्न माने हुए अनित्य अस्तित्वको सर्वथा विलीन कर चुके हैं अथवा जो उस ‘सत्’ परमात्माकी प्राप्तिके लिये अपने समस्त स्वजन-बान्धव और धन-सम्पत्तिका मोह त्यागकर और देह तथा कर्मोंका अभिमान छोड़कर निरन्तर उसीके गुण गाने और सुननेमें लगे रहते हैं, जिनका चित्त उस परमात्माके चिन्तनमें ही लगा रहता है, जो सबके सुहृद्, सन्तोषी और सहनशील हैं, जो समस्त चराचरमें अपने एकमात्र इष्टदेवका ही दर्शन करते हैं, जो ‘सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥’ —समस्त जगत‍्को श्रीसीताराममय समझकर सबको प्रणाम करते हैं, जो एक आज्ञाकारी अनुगत सेवककी तरह सदा अपने स्वामी परमात्माकी आज्ञाका पालन करनेके लिये सचेष्ट रहते हैं और जिनके विकसित मुखमण्डलमें, जिनके दिव्य हास्यमें और जिनकी सरल, स्पष्ट और तेजपूर्ण वाणीमें परमात्माकी एक विशेष विभूतिका दर्शन होता है, ऐसे संतोंका संग करना ही सत्संग कहलाता है।

जब साधक परमात्माकी नित्य कृपाका अनुभव कर उसके द्वारा सत्संगकी स्पृहा करता है और जब वह संत-मिलनके लिये व्याकुल हो उठता है, तब परमात्मा उसकी उत्कण्ठाको देखकर अपने किसी प्रिय भक्तको प्रेरित कर उसके समीप भेज देते हैं। परन्तु इस अवस्थामें भी साधक प्राय: सत्पुरुषको पहचाननेमें भूल कर बैठता है। अपनी सांसारिक दृष्टिके मोहमय तराजूपर वह उसे तौलना चाहता है और ऐसे तराजूमें उस बाह्याडम्बरशून्य संतका पलड़ा अवश्य ही हलका रह जाता है। साधक उसके पलड़ेको हलका देखकर प्राय: अश्रद्धा करने लगता है, जिससे उसको तत्काल ही पूर्ण लाभ नहीं होता। पहले तो साधुका मिलना कठिन और दूसरे उसको पहचानना बड़ा कठिन है, परन्तु बिना पहचानके भी किया हुआ साधु-संग कदापि निष्फल नहीं जाता। संतके चिन्तन, दर्शन, स्पर्श और उसके साथ भाषणमात्रसे साधकका यथाधिकार कल्याण होता है! उस तेज:पुंजसे निकले हुए पवित्र ज्योतिर्मय परमाणु जहाँपर पड़ते हैं, वहींपर प्रकाश कर देते हैं। भगवान् नारद कहते हैं—

‘महत्संगस्तु दुर्लभोऽगम्योऽमोघश्च।’
(नारद-भक्ति-सूत्र ३९)

‘महापुरुषोंका संग दुर्लभ, अगम्य और अमोघ है।’

ऐसे महापुरुष ही परमात्माके अप्रतिम प्रभावको तत्त्वसे जानते हैं और इसीसे वे दिन-रात उसीके स्मरण-चिन्तनमें संलग्न रहते हैं। साधक भी ऐसे पुरुषोंके संगसे परमात्माके प्रभावको जान लेता है और प्रभाव जाननेपर उसमें प्रीति उत्पन्न होती है!

जाने बिनु न होइ परतीती।
बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती॥

श्रीभगवान् कहते हैं—

सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो
भवन्ति हृत्कर्णरसायना: कथा:।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
श्रद्धा रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति॥
(भागवत ३। २५। २५)

‘महात्माओंके संगसे मेरे पराक्रमकी सूचक, हृदय और कानोंको तृप्त करनेवाली कथाएँ सुननेको मिलती हैं और उनके सुननेसे मोक्ष-मार्गमें शीघ्र ही श्रद्धा, भक्ति और प्रीति उत्पन्न होती है।’ गौड़ीय वैष्णव-सम्प्रदायके आचार्य पूज्यपाद श्रीचैतन्य महाप्रभुके एक शिष्यका नाम श्रीहरिदास था। श्रीहरिदास सच्चे ‘हरि-दास’ थे, चौबीसों घंटे परमात्माका नाम-कीर्तन किया करते थे। कहते हैं, उनके नाम-कीर्तनकी प्रतिदिनकी संख्या तीन लाखसे अधिक हो जाती थी। एक समय श्रीहरिदासजी घूमते-फिरते एक गाँवमें पहुँचे, वहाँके थानेदार साहेबने हरिनाम-ध्वनिसे घबड़ाकर उन्हें भ्रष्ट करनेके लिये एक परमरूपवती वेश्याको नियुक्त किया। वेश्या भलीभाँति सज-धजकर श्रीहरिदासजीकी कुटियापर गयी। हरिदासजी नाम-कीर्तनमें मग्न थे। वेश्याने स्वाभाविक चेष्टा की; परन्तु उनका नाम-कीर्तन बंद नहीं हुआ। प्रात:कालसे कुछ पूर्व श्रीहरिदासजी उठे और वेश्याको देखकर बोले कि ‘आज तो मुझे नाम-कीर्तनमें विलम्ब हो गया। यदि तुम रातको फिर आओ तो सम्भवत: मैं तुमसे बातें कर सकूँ।’ इतना कहकर वे फिर अपने उसी काममें लग गये। वेश्याको बड़ा आश्चर्य हुआ, उसने सोचा कि ‘यह कैसा मनुष्य है जो मेरे इस ‘जगलुभावने’ रूपको देखकर भी स्थिर रह सकता है? इसके चेहरेपर कोई विकार दिखायी नहीं देता; खैर, आज न सही, कहाँ जायगा?’ वेश्या लौट गयी और रातको फिर दूने उत्साहसे सुसज्जित होकर आयी, आज उसने विशेषरूपसे प्रयत्न किया, परन्तु हरिदासजीका वही ढंग रहा। अनेक प्रकारकी चेष्टा करते-करते रात बीत गयी, वेश्याके उत्साहमें बड़ा धक्‍का लगा, उसके चेहरेपर निराशा-सी छा गयी। हरिदासजी उठे और उन्होंने फिर वही कलवाले शब्द सुना दिये। वेश्या दु:ख, आश्चर्य और झुँझलाहटमें भरी हुई घर लौट गयी, परन्तु लोगोंके उत्साह दिलानेपर तीसरी रातको वह फिर हरिदासजीकी कुटियापर पहुँची। आज उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर हरिदासजीको डिगानेका निश्चय कर लिया। बड़ी-बड़ी चेष्टाएँ कीं, विविध प्रकारसे हाव-भाव दिखलाकर हार गयी, परन्तु वहाँ तो वही ‘सूरदासकी कारी कमरिया चढ़े न दूजो रंग’ वाली बात थी। हरिदासजी टस-से-मस नहीं हुए। नाम-कीर्तन ज्यों-का-त्यों जारी रहा। वेश्या बड़े ही आश्चर्यसे विचार करने लगी कि ‘हो-न-हो इस साधुको कोई ऐसा अनोखा परम सुन्दर पदार्थ प्राप्त है जिसके सामने मेरा यह रूप सर्वथा तुच्छ है, नहीं तो इसकी क्या मजाल थी कि मेरी इस जोरसे जलती हुई रूपकी अग्निमें यह पतंग होकर न पड़ जाता? मैंने भी आजतक अनेक एक-से-एक बढ़कर सुन्दर रूप देखे हैं, परन्तु ऐसा कोई रूप आजतक नहीं देखा जिसने इस फकीरकी तरह मुझको पागल बना दिया हो?’

संतके एक क्षणके संगसे ही विवेककी विमल ज्योति उत्पन्न हो जाती है, यहाँ तो तीन रात बीत चुकी थी, संतका अमोघ संग तथा साथ-साथ श्रीहरिनाम-श्रवणका फल भी था। वेश्याके हृदयमें विवेक जाग्रत् हुआ, पाप-तापका नाश हो गया, साधुके मूक-संगसे उसने परमात्माका प्रभाव जाना और अपने मनमें सोचने लगी कि ऐसा परम मनोहर रूप भला किसका होगा? सुना है श्रीकृष्णका रूप अत्यन्त सुन्दर है, वह अपनी जोड़ी नहीं रखता। सम्भवत: इस फकीरको भी उसका रूप दिखलायी पड़ता हो। बात ठीक थी! श्रीहरिदासजी उसी जन-मन-मोहिनी ‘साँवली सूरति’ पर मस्त थे। सत्य है, जो एक बार उस अनुपम रूपको एक क्षणभरके लिये भी देख लेता है, वह अपने मनको सदाके लिये खो बैठता है। संसारके एक-एक साधारण रूपपर लोग मोहित हो जाते हैं, परन्तु जो इन सारे रूपोंका मूल है, जगत‍्के समस्त रूप जिस महान् रूप-राशिका एक क्षुद्र अंश हैं, उस रूप-राशिको निरखकर कौन ऐसा है जो पागल न हो जाय? महाराज विदेह भी जिस ‘कोटि मनोज लजावनिहारे’ रूपको देखकर चकित हो गये थे—

मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥

और वे विश्वामित्रजीसे कहने लगे थे कि—

सहज बिरागरूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥

आज परम भाग्यवती वेश्याके मनमें भी उसी ‘मधुर’ मनोहर मूरतिको देखनेकी लालसा उत्पन्न हुई, उसने दौड़कर सरल भावसे श्रीहरिदासजीके चरण पकड़ लिये और कहा कि ‘प्रभो! मैं आपका सर्वनाश करनेके लिये आयी थी, परन्तु आपकी इस ‘अनोखी मस्ती’ ने तो मुझे भी ‘सर्वनाशसे बचा लिया।’ अब आप दया करके मुझे आपके उस ‘परम सुन्दर’ का दर्शन कराइये कि जिसको देखकर आपने इस प्रकार जगत‍्की सारी सुन्दरताकी उपेक्षा कर अपनेको मस्त बना लिया है।’ सत्संगका अमोघ फल हुआ। श्रीहरिदासजीने अपना आसन और अपनी पवित्र माला उसे दे दी और कहा कि ‘गाँवमें जाकर अपनी सारी सम्पत्ति गरीबोंको लुटा दो और आकर यहींपर बैठ जाओ तथा इसी प्रकार हरिनाम-कीर्तनकी धुन लगा दो! स्वयं पावन होओ और जगत‍्को पावन करो। इसीसे तुम उस मेरे ‘परम सुन्दर’ का अतुल सौन्दर्य देखकर कृतार्थ हो सकोगी।’ इस तरह वेश्याको—अपना तप नाश करनेके लिये आनेवाली दुराचारिणी वेश्याको—‘भक्ति और भक्तिका बाना’ देकर संत हरिदासजी वहाँसे चल दिये। वेश्या उस ‘परम सुन्दर’ के दर्शन पाकर धन्य हुई और उसने अपनी भक्तिके प्रतापसे अनेक पामर पुरुषोंका परित्राण किया।

यह है सत्संगका अव्यर्थ प्रताप, यह है बिना जाने और बुरी नीयतसे किये हुए सत्संगका एक अमोघ फल और यह है भगवद्भक्तोंकी महिमाका एक ज्वलन्त उदाहरण!

भगवान् नारदने कहा है—

तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्।’
(नारद-भक्ति-सूत्र ४१)

उस (भगवान्)-में और उसके भक्तोंमें कुछ भी भेद नहीं है, वरं कई बातोंमें तो भक्त अपने भगवान‍्से बढ़े हुए हैं। भगवान‍्की महिमाका विस्तार भक्त ही तो किया करते हैं।

मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम ते अधिक राम कर दासा॥

इसीलिये श्रीनारदजीने पुकारकर कहा है कि—

‘तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम्।’
(नारद-भक्ति-सूत्र ४२)

‘उसी (साधुसंग) की साधना करो, उसीकी साधना करो!’

उपर्युक्त विवेचनसे यह पता लगा होगा कि सत्संग ही परमात्माका दर्शन करवा देनेमें एक प्रधान साधन है। एक क्षणभरका सत्संग भी बड़े भारी भयसे उबारकर भगवान‍्की प्राप्तिके कल्याणमय मार्गपर ला पहुँचाता है। जिन लोगोंने सत्संगका आश्रय ग्रहण कर लिया है, वे धन्य हैं। सत्संगकी शरण लेनेवाले भक्तोंका भार उस ‘सत्’ परमात्मापर पड़ जाता है। अतएव दु:संगसे सर्वथा बचकर यथासाध्य सत्संगका सेवन करना चाहिये। यदि खोज करनेपर भी साधु-महात्माओंके दर्शन न हों तो उपनिषद्, श्रीगीताजी, योगदर्शन और गोस्वामी तुलसीदासजीकी रामायण आदि सद‍्ग्रन्थोंका पठन-पाठन करना चाहिये। यह भी सत्संग है। किसी धर्मिक स्थानमें बैठकर परस्पर हरि-चर्चा करना, हरि-गुण-गान और श्रवण करना तथा श्रीहरिनाम-संकीर्तन करना भी सत्संग ही है। जनता सत्संगकी ओर जितनी अधिक झुकेगी उतना ही जगत‍्का मंगल है। अतएव हम सबको सत्संगमें लगने और दूसरोंको लगानेके लिये चेष्टा करनी चाहिये। भगवत्प्राप्ति चाहनेवालोंके लिये तो यही सबसे पहला और उत्तम साधन है।

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