॥ श्रीहरि:॥
चेतावनी!
बहुत गयी थोड़ी रही, नारायण अब चेत।
काल चिरैया चुगि रही, निसिदिन आयू खेत॥
काल्हि करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पलमहँ परलै होयगी, फेर करैगा कब॥
रामनामकी लूट है, लूटि सकै तो लूट।
फिरि पाछे पछितायगा प्रान जाहिंगे छूट॥
तेरे भावैं जो करो, भलो बुरो संसार।
नारायण तू बैठकर, अपनो भवन बुहार॥
उम्र बीत रही है, रोज-रोज हम मौतके नजदीक पहुँच रहे हैं। वह दिन दूर नहीं है जब हमारे इस लोकसे कूच कर जानेकी खबर अड़ोसी-पड़ोसी और सगे-सम्बन्धियोंमें फैल जायगी। उस दिन सारा गुड़ गोबर हो जायगा। सारी शान धूलमें मिल जायगी। सबसे नाता टूट जायगा। जिनको ‘मेरा-मेरा’ कहते जीभ सूखती है, जिनके लिये आज लड़ाई उधार लेनेमें भी इनकार नहीं है, उन सबसे सम्बन्ध छूट जायगा, सब कुछ पराया हो जायगा। मनका सारा हवाई महल पलभरमें ढह जायगा। जिस शरीरको रोज धो-पोंछकर सजाया जाता है—सर्दी-गर्मीसे बचाया जाता है, जरा-सी हवासे परहेज किया जाता है—सजावटमें तनिक-सी कसर मनमें संकोच पैदा कर देती है, वह सोने-सा शरीर राखका ढेर होकर मिट्टीमें मिल जायगा। जानवर खायेंगे तो विष्ठा बन जायगा, सड़ेगा तो कीड़े पड़ जायँगे। यह सब बातें सत्य—परम सत्य होनेपर भी हम उस दिनकी दयनीय दशाको भूलकर याद नहीं करते। यही बड़ा अचरज है। इसीलिये युधिष्ठिरने कहा था—
अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।
शेषा: स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्॥
प्रतिदिन जीव मृत्युके मुखमें जा रहे हैं, पर बचे हुए लोग अमर रहना चाहते हैं इससे बढ़कर आश्चर्य क्या होगा? अतएव भाई! बेखबर मत रहो। उस दिनको याद रखो; सारी शेखी चूर हो जायगी। ये राजमहल, सिंहासन, ऊँची-ऊँची इमारतें, किसी काममें न आयेंगी। बड़े शौकसे मकान बनाया था, सजावटमें धनकी नदी बहा दी थी, पर उस दिन उस प्यारे महलमें दो घड़ीके लिये भी इस देहको स्थान न मिलेगा। घरकी सारी मालिकी छिनमें छिन जायगी। सारी पद-मर्यादा मटियामेट हो जायगी।
इस जीवनमें किसीकी कुछ भलाई की होगी तो लोग अपने स्वार्थके लिये दो-चार दिन तुम्हें याद करके रो लेंगे। सभाओंमें शोकके प्रस्ताव पास कर रस्म पूरी कर दी जायगी! दु:ख देकर मरोगे तो लोग तुम्हारी लाशपर थूकेंगे, वश न चलेगा तो नामपर तो चुपचाप जरूर ही थूकेंगे। बस, इस शरीरका इतना-सा नाता यहाँ रह जायगा!
अभी कोई भगवान्का नाम लेनेको कहता है तो जवाब दिया जाता है—‘मरनेकी भी फुरसत नहीं है, कामसे वक्त ही नहीं मिलता।’ पर याद रखो, उस दिन अपने-आप फुरसत मिल जायगी। कोई बहाना बचेगा ही नहीं। सारी उछल-कूद मिट जायगी, तब पछताओगे, रोओगे पर ‘फिर पछताये का बनै जब चिड़िया चुग गयी खेत’ मनुष्य-जीवन जो भगवान्को प्राप्त करनेका एकमात्र साधन था, उसे तो यों ही खो दिया, अब बस, रोओ! तुम्हारी गफलतका यह नतीजा ठीक ही तो है।
पर अब भी चेतो! विद्या, बुद्धि, वर्ण, धन, मान, पदका अभिमान छोड़कर सरलतासे परमात्माकी शरण लो। भगवान्की शरणके सामने ये सभी कुछ तुच्छ हैं, नगण्य हैं!
विद्या-बुद्धिके अभिमानमें रहोगे, फल क्या होगा? तर्क-वितर्क करोगे, हार गये तो रोओगे—पश्चात्ताप होगा। जीत गये तो अभिमान बढ़ेगा। अपने सामने दूसरेको मूर्ख समझोगे। ‘हम शिक्षित हैं’ इसी अभिमानसे तो आज हमारे मनने बड़े-बड़े पुरखाओंको मूर्खताकी उपाधि प्रदान कर दी है। इस बुद्धिके अभिमानने श्रद्धाका सत्यानाश कर दिया। आज परमेश्वर भी कसौटीपर कसे जाने लगे! जो बात हमारे तुच्छ तर्कसे कभी सिद्ध नहीं होती, उसे हम किसीके भी कहनेपर कभी माननेको तैयार नहीं! इसी दुरभिमानने सच्छास्त्र और संतोंके अनुभवसिद्ध वचनोंमें तुच्छ भाव पैदा कर दिया। हम उन्हें कविकी कल्पनामात्र समझने लगे। धनके अभिमानने तो हमें गरीब भाइयोंसे—अपने ही-जैसे हाथ-पैरवाले भाइयोंसे सर्वथा अलग कर दिया। ऊँची जातिके घमण्डने मनुष्योंमें परस्पर घृणा उत्पन्न कर एक-दूसरेको वैरी बना दिया। व्यभिचार, अत्याचार, अनाचार आज हमारे चिरसंगी बन गये। बड़े-से-बड़े पुरुष आज हमारी तुली-नपी अक्लके सामने परीक्षामें फेल हो गये!
पद-मर्यादाकी तो बात ही निराली है, जहाँ कुर्सीपर बैठे कि आखें फिर गयीं, आसमान उलटा दिखायी पड़ने लगा! दो दिनकी परतन्त्रतामूलक हुकूमतपर इतना घमण्ड, चार दिनकी चाँदनीपर इतना इतराना! अरे, रावण-हिरण्यकशिपु-सरीखे धरती तौलनेवालोंका पता नहीं लगा, फिर हम तो किस बागकी मूली हैं। सावधान हो जाओ। छोड़ दो इस विद्या, बुद्धि, वर्ण, धन, परिवार, पदके झूठे मदको, तोड़ दो अपने-आप बाँधी हुई इन सारी फाँसियोंको, फोड़ दो भण्डा जगत्के मायिक रूपका, जोड़ दो मन उस अनादिकालसे नित्य बजनेवाली मोहनकी महामायाविनी किन्तु मायानाशिनी मधुर मुरली-ध्वनिमें और मोड़ दो निश्चयात्मिका बुद्धिकी गतिको निज नित्य-निकेतन नित्य सत्य आनन्दके द्वारकी ओर!