हम चाहते नहीं
इस स्थूलवादप्रधान इन्द्रियसुखान्वेषी संसारमें स्वाभाविक ही ईश्वरपर श्रद्धा कम होती चली जा रही है। विषयवारुणीकी मादकतासे जगत् उन्मत्त होता चला जा रहा है। जो लोग अपनेको ईश्वरवादी मानते हैं और ईश्वरको सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी कहते हैं, वे भी जब छिपकर पाप करते हैं, मनमें पाप-वासनाओंको स्थान देते नहीं सकुचाते, तब यही प्रतीत होता है कि उनका ईश्वरको सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी भी कहना विडम्बनामात्र है।
ऐसी स्थितिमें ईश्वर और ईश्वरभक्तिके लिये कुछ अधिक कहना-सुनना अरण्य-रोदनके समान ही होता है, परन्तु इस त्रितापतप्त संसारके लिये ईश्वरभक्तिकी सुधा-धाराके सिवा अन्य कोई साधन भी नहीं है, जो हमें प्रतिदिन बढ़ते हुए दु:ख-दावानलसे बचाकर शीतल कर सके। इसलिये जगत्के मनोऽनुकूल न रहनेपर भी समय-समयपर संतोंने इस ओर लोगोंका ध्यान खींचनेकी चेष्टा की है।
ईश्वर स्वयंसिद्ध है और प्रत्यक्ष है। उसे किसीके द्वारा अपनी सिद्धि करानेकी अपेक्षा नहीं है। जीव जबतक मायामुग्ध रहता है तबतक उसे नहीं दीखता जिस दिन उसका भाग्योदय होता है उस दिन संत-महात्माओंकी कृपासे उसकी आँखें खुलती हैं, तब वह अपने सामने ही उस विश्वविमोहन मोहनको देखकर मुग्ध हो जाता है। उस समय उसका जो मायाका आवरण हटता है वह फिर कभी सामने नहीं आ सकता, वह कृतकृत्य हो जाता है; परन्तु मायामुग्ध प्राणीके लिये ऐसा अवसर कठिनतासे आता है, जब भगवान् कृपाकर उसे सांसारिक विपत्तियोंमें डालते हैं, जब जगत्से हृदयमें निराशा उत्पन्न होती है उस समय संतोंका संग प्राप्त होनेपर भगवान्की ओर जीवकी रुचि होती है। भगवान्का स्मरण दु:खमें अनायास हुआ करता है। इसीसे देवी कुन्तीने भगवान् श्रीकृष्णसे विपत्तिका वरदान माँगा था।
जब चारों ओरसे विपत्तिके बादल मँडराने लगते हैं, कहींसे भी कोई सहारा नहीं मिलता, उस समय मनुष्यका हृदय स्वाभाविक ही उस अनजाने-अनदेखे निराश्रयके परम आश्रय किसी अचिन्त्य शक्तिकी गोदमें आश्रय चाहता है। उस समय उसके मुखसे सहसा यह शब्द निकल पड़ते हैं कि ‘प्रभो! अब तो तू ही बचा’, उधरसे तुरंत उत्तर मिलता है ‘मा शुच:’ और उसे तत्काल आश्रय मिल जाता है; क्योंकि यह भगवान्का विरद है।
जो इस प्रकार निराश्रयका आश्रय है, विपत्कालका परम बन्धु है, सबके द्वारा त्याग दिये जानेपर भी जो सदा साथ रहता है, दलित-अपमानित होनेपर भी जो हृदयसे लगानेको तैयार है, पुकारते ही उत्तर देता है, सदा सब तरहसे अभय-दान देनेको प्रस्तुत रहता है और विशाल भुजा फैलाये तुम्हें आलिंगन करनेको आगे बढ़ता रहता है। रे अभागे जीव! ऐसे परम हितैषी जीवन-सखाकी भी तू उपेक्षा करता है। अरे, उसे हृदयसे चाहने और एक बार पुकारनेमें भी तुझे संकोच मालूम होता है।
हम धनके लिये खून-पानी एक कर देते हैं, स्त्री-पुत्रादिके लिये धर्म-कर्मतकको तिलांजलि दे डालते हैं, मान-बड़ाईके लिये भाँति-भाँतिके ढोंग रचते हैं, उनकी प्राप्तिके लिये चित्त सतत व्याकुल रहता है, खाना-पीना भूल जाते हैं, मान-अपमान सहते हैं, रातों रोते हैं; खुशामदें और मिन्नतें करते हैं, निष्कपट चित्तसे उन्हें पानेका प्रयत्न करते हैं, परन्तु उस परमात्माके लिये क्या करते हैं? जो हमारा परम धन है, परम आत्मीय है, क्या कभी उसके लिये हमने सच्चे मनसे एक भी आँसू बहाया? क्या कोई अपने हृदयको भलीभाँति टटोलकर छातीपर हाथ रखकर यह कह सकता है कि मैं परमात्माके लिये बहुत रोया, बहुत व्याकुल हुआ, परन्तु उधरसे कोई उत्तर आश्वासनका नहीं मिला। मेरा हृदय उसके लिये तलमला उठा, परन्तु उसने मुझे दर्शन नहीं दिये। सच्ची बात तो यह है कि हमारे अनन्त शरीरोंमें आजतक कभी ऐसा सौभाग्य नहीं हुआ, यदि होता तो फिर इस कष्टमय स्थितिमें हम रहते ही क्यों? हमारी आँखोंमें आँसू बहुत बार बहते हैं पर वह बहते हैं विषयोंके लिये, परमात्माके लिये नहीं। इसीलिये परमात्मा सदा हमारे साथ रहकर भी हमारी आँखोंसे ओझल रहता है। इसीसे उस नित्यके संगीको हम कभी नहीं देख पाते। उसको पानेके लिये धर्म-कर्म छोड़कर छल, कपट, पाप करनेकी आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है केवल छल छोड़कर उसे चाहनेकी। जिस दिन उसके लिये हमारा चित्त व्याकुल हो उठेगा, जिस दिन उसका वियोग क्षणभरके लिये भी सहन नहीं होगा, जिस दिन कृष्णविरहके दावानलसे हृदय दग्ध होने लगेगा, जिस दिन उन पापोंसे भी बढ़कर प्यारे श्यामसुन्दरके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं सुहावेगा, उस दिन उसी क्षणमें उसे बाध्य होकर दर्शन देने पड़ेंगे। उस समय उसको भी हमारा क्षणभरका वियोग सहन नहीं होगा। उसकी तो प्रतिज्ञा है—
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११)
भगवान्का मिलना कठिन नहीं है, कठिन है विषय-व्यामोहसे विमुक्त होकर उसे हृदयसे चाहना और अन्तरकी आवाजसे उसे पुकारना। यह सदा स्मरण रखो कि वह हमसे मिलनेके लिये सदा ही आतुर है, पर हम अभागे उसे चाहते नहीं।