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दीवाली

दीवालीपर हमारे यहाँ प्रधानत: चार काम हुआ करते हैं—घरका कूड़ा-कचरा निकालकर घरको साफ करना और सजाना, कोई नयी चीज खरीदना, खूब रोशनी करना और श्रीलक्ष्मीजीका आह्वान तथा पूजन करना। काम चारों ही आवश्यक हैं; किंतु प्रणालीमें कुछ परिवर्तन करनेकी आवश्यकता है। यदि वह परिवर्तन कर दिया जाय तो दीवालीका महोत्सव बारहवें महीने न आकर नित्य ही बना रहे और कभी उससे जी ऊबे भी नहीं! पाठक कहेंगे कि यह है तो बड़े मजेकी बात परन्तु रोज-रोज इतना खर्च कहाँसे आवेगा? इसका उत्तर यह है कि फिर बिना ही रुपये-पैसेके खर्चके यह महोत्सव बना रहेगा और उनकी रौनक भी इससे खूब बढ़ी-चढ़ी रहेगी। अब तो उस बातके जाननेकी उत्कण्ठा सभीके मनमें होनी चाहिये। उत्कण्ठा हो या न हो, मुझे तो सुना ही देनी है—ध्यानसे सुनिये—

दीवालीपर हम कूड़ा निकालते हैं, परन्तु निकालते हैं केवल बाहरका ही। भीतरका कूड़ा ज्यों-का-त्यों भरा रहता है, जिसकी गंदगी दिनोंदिन बढ़ती ही रहती है। वह कूड़ा रहता है—भीतर घरमें, शरीरके अन्दर मनमें। कूड़ेके कई नाम हैं—काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, मद, वैर, हिंसा, ईर्ष्या, द्रोह, घृणा और मत्सर आदि—ये प्रधान-प्रधान नाम हैं। इनके साथी और चेले-चाँटे बहुत हैं। इन सबमें प्रधान तीन हैं—काम, क्रोध और लोभ। इनको साथियोंसहित झाड़ूसे झाड़-बुहार बाहर निकालकर जला देना चाहिये। कूड़े-कचरेमें आग लगा देना अच्छा हुआ करता है। जहाँ यह कूड़ा निकला कि घर सदाके लिये साफ हो गया। इसके बाद घर सजानेकी बात रही। हमलोग केवल ऊपरी सजावट करते हैं जिसके बिगड़ने और नाश होनेमें देर नहीं लगती। सच्ची सजावट है। अंदरके घरको दैवी सम्पदाके सुन्दर-सुन्दर पदार्थोंसे सजानेमें। इनमें अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, दया, शौच, मैत्री, प्रेम, सन्तोष, स्वाध्याय, अपरिग्रह, निरभिमानिता, नम्रता, सरलता आदि मुख्य हैं।

हमारी धारणा है कि साफ सजे हुए घरमें लक्ष्मीदेवी आती हैं, बात ठीक है परन्तु लक्ष्मीजी सदा ठहरती क्यों नहीं? इसीलिये कि हमारी सफाई और सजावट केवल बाहरी होती है और फिर वे ठहरीं भी चंचला, उन्हें बाँध रखनेका कोई साधन हमारे पास नहीं है।

हाँ, एक उपाय है, जिससे वह सदा ठहर सकती हैं। केवल ठहर ही नहीं सकतीं, हमारे मना करनेपर भी हमारे पीछे-पीछे डोल सकती हैं। वह उपाय है उनके पति श्रीनारायणदेवको वशमें कर भीतर-से-भीतरके गुप्त मन्दिरमें बंद कर रखना। फिर तो अपने पतिदेवके चारु चरण-चुम्बन करनेके लिये उन्हें नित्य आना ही पड़ेगा। हम द्वार बंद करेंगे तब भी वह आना चाहेंगी, जबरदस्ती घरमें घुसेंगी। किसी प्रकार भी पिण्ड नहीं छोड़ेंगी। इतनी माया फैलावेंगी कि जिससे शायद हमें तंग आकर उनके स्वामीसे शिकायत करनी पड़ेगी। जब वे कहेंगे तब मायाका विस्तार बंद होगा। तब भी देवीजी जायँगी नहीं, छिपकर रहेंगी। पतिको छोड़कर जायँ भी कहाँ? चंचला तो बहुत हैं परन्तु हैं परम पतिव्रता-शिरोमणि! स्वामीके चरणोंमें तो अचल होकर ही रहती हैं।’ अवश्य ही फिर ये हमें तंग नहीं करेंगी। श्रीके रूपमें सदा निवास करेंगी।

अच्छा तो अब इन लक्ष्मीदेवीजीके स्वामी श्रीनारायणदेवको वशमें करनेका क्या उपाय है? उपाय है किसी नयी वस्तुका संग्रह करना। दीवालीपर लक्ष्मीमाताकी प्रसन्नताके लिये हम नयी चीजें तो खरीदते हैं परन्तु खरीदते ऐसी हैं जो कुछ काल बाद ही पुरानी हो जाती हैं। श्रीनारायणदेव ऐसी क्षणभंगुर वस्तुओंसे वशमें नहीं होते। उनके लिये तो वह अपार्थिव पदार्थ चाहिये जो कभी पुराना न हो, नित्य नूतन ही बना रहे। वह पदार्थ है ‘विशुद्ध और अनन्य प्रेम।’ इस प्रेमसे परमात्मा नारायण तुरन्त वशमें हो जाते हैं। जहाँ नारायण वशमें होकर पधारे कि फिर हमारे सारे घरमें परम प्रकाश आप-से-आप छा जायगा; क्योंकि सम्पूर्ण दिव्यातिदिव्य प्रकाशका अगाध समुद्र उनके अंदर भरा हुआ है। हम टिमटिमाते हुए दीपकोंकी ज्योतिके प्रकाशमें लक्ष्मीदेवीको बुलाते हैं, बहुत करते हैं तो आजकलकी बिजलीकी रोशनी कर देते हैं, परन्तु यह प्रकाश कितनी देरका है? और है भी सूर्यके सामने जुगनूकी तरह दो कौड़ीका। श्रीनारायणदेव तो प्रकाशके अधिष्ठान हैं। सूर्य उन्हींसे प्रकाश पाते हैं। चन्द्रमामें चाँदनी उन्हींसे आती है, अग्निको प्रभा उन्हींसे मिलती है। यह बात मैं नहीं कहता, शास्त्र कहते हैं और भगवान् स्वयं अपने श्रीमुखसे भी पुकारकर कहते हैं—

यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्॥
(गीता१५।१२)

जब समस्त जगत‍्की घोर अमावस्याका नाश करनेवाले भगवान् भास्कर, सुधावृष्टिसे संसारका पोषण करनेवाले चन्द्रदेव और जगत‍्के आधार अग्निदेवता उन्हींके प्रकाशसे प्रकाशित होते हैं—इन तीनोंका त्रिविध प्रकाश उन्हींके प्रकाशाम्बुधिका एक क्षुद्र कण है, तब जहाँ वह स्वयं आ जायँ, वहाँके प्रकाशका तो ठिकाना ही क्या! उनका वह प्रकाश केवल यहींतक परिमित नहीं है। ब्रह्माकी जगत्-उत्पादनी बुद्धिमें उन्हींके प्रकाशकी झलक है। शिवकी संहार-मूर्तिमें भी उन्हींके प्रकाशका प्रचण्ड रूप है। ज्ञानी मुनियोंके हृदय भी उसी आलोक-कणसे आलोकित हैं। जगत‍्के समस्त कार्य, मन-बुद्धिकी समस्त क्रियाएँ उसी नित्य प्रकाशके सहारे चल रही हैं।

अतएव पहले काम, क्रोध, लोभरूप कूड़ेको निकालकर घर साफ कीजिये, फिर दैवी सम्पत्तिकी सुन्दर सामग्रियोंसे उसे सजाइये। तदनन्तर प्रेमरूपी नित्य नवीन वस्तुका संग्रह कीजिये और उससे लक्ष्मीपति श्रीनारायणदेवको वश कर हृदयके गम्भीर अन्तस्तलमें विराजित कीजिये, फिर देखिये—महालक्ष्मीदेवी और अखण्ड अपार आलोकराशि स्वयमेव चली आवेंगी! देवीका अलग आवाहन करनेकी आवश्यकता नहीं रह जायगी।

हाँ, एक यह बात आप और पूछ सकते हैं कि श्रीनारायणको वशमें कर देनेवाला वह प्रेम कहाँ, किस बाजारमें मिलता है? इसका उत्तर यह है कि वह किसी बाजारमें नहीं मिलता—‘प्रेम न वाणी नीपजै, प्रेम न हाट बिकाय।’ उसका भण्डार तो आपके अन्दर ही है। ताला लगा है तो उसे खोल लीजिये, खोलनेका उपाय—चाभी श्रीभगवन्नाम-चिन्तन है। प्रेमका कुछ अंश बाहर भी है परन्तु वह जगत‍्के जड-पदार्थोंमें लगा रहनेसे मलिन हो रहा है। उसका मुख श्रीनारायणकी ओर घुमा दीजिये। वह भी दिव्य हो जायगा। उसी प्रेमसे भगवान् वशमें होंगे। फिर लक्ष्मी-नारायण दोनोंका एक साथ पूजन कीजियेगा। इस तरह नित्य ही दीवाली बनी रहेगी। टका लगेगा न पैसा, पर काम ऐसा दिव्य बनेगा कि हम सदाके लिये सुखी—परम सुखी हो जायँगे। इसीको कहते हैं—

‘सदा दिवाली संतके आठों पहर अनन्द’

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