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दीवानोंकी दुनिया

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:॥
(गीता २। ६९)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘जो सब भूतप्राणियोंके लिये रात्रि है, संयमी पुरुष उसमें जागता है और सब भूतप्राणी जिसमें जागते हैं, तत्त्वदर्शी मुनिके लिये वह रात्रि है।’ अर्थात् साधारण भूतप्राणी और यथार्थ तत्त्वके जाननेवाले अन्तर्मुखी योगियोंके ज्ञानमें रात-दिनका अन्तर है। साधारण संसारी लोगोंकी स्थिति क्षणभंगुर, विनाशशील सांसारिक भोगोंमें होती है, उल्लूके लिये रात्रिकी भाँति उनकी दृष्टिमें वही परम सुखकर है, परन्तु इसके विपरीत तत्त्वदर्शियोंकी स्थिति नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमानन्द परमात्मामें होती है; उनके विचारमें सांसारिक विषयोंकी सत्ता ही नहीं है, तब उनमें सुखकी प्रतीति तो होती ही कहाँसे? इसीलिये सांसारिक मनुष्य जहाँ विषयोंमें संग्रह और भोगोंमें लगे रहते हैं—उनका जीवन भोगपरायण रहता है, वहाँ तत्त्वज्ञ पुरुष न तो विषयोंकी कोई परवा करते हैं और न भोगोंको कोई वस्तु ही समझते हैं। साधारण लोगोंकी दृष्टिमें ऐसे महात्मा मूर्ख और पागल जँचते हैं, परन्तु महात्माओंकी दृष्टिमें तो एक ब्रह्मकी अखण्ड सत्ताके सिवा मूर्ख-विद्वान‍्की कोई पहेली ही नहीं रह जाती। इसीलिये वे जगत‍्को सत्य और सुखरूप समझनेवाले अविद्याके फंदेमें फँसकर राग-द्वेषके आश्रयसे भोगोंमें रचे-पचे हुए लोगोंको समय-समयपर सावधान करके उन्हें जीवनका यथार्थ पथ दिखलाया करते हैं। ऐसे पुरुष जीवन-मृत्यु दोनोंसे ऊपर उठे हुए होते हैं। अन्तर्जगत‍्में प्रविष्ट होकर दिव्य दृष्टि प्राप्त कर लेनेके कारण इनकी दृष्टिमें बहिर्जगत‍्का स्वरूप कुछ विलक्षण ही हो जाता है। ऐसे ही महात्माओंके लिये भगवान‍्ने कहा है—

वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:।
(गीता ७। १९)

‘सब कुछ एक वासुदेव ही है, ऐसा मानने-जाननेवाला महात्मा अति दुर्लभ है।’ ऐसे महात्मा देखते हैं कि ‘सारा जगत् केवल एक परमात्माका ही विस्तार है, वही अनेक रूपोंसे इस संसारमें व्यक्त हो रहे हैं। प्रत्येक व्यक्त वस्तुके अन्दर परमात्मा व्याप्त हैं। असलमें व्यक्त वस्तु भी उस अव्यक्तसे भिन्न नहीं है। परम रहस्यमय वह एक परमात्मा ही अपनी लीलासे भिन्न-भिन्न व्यक्तरूपोंमें प्रतिभासित हो रहे हैं, जिनको प्रतिभासित होते हैं, उनकी सत्ता भी उन परमात्मासे पृथक् नहीं है। ऐसे महात्मा ही परमात्माकी इस अद‍्भुत रहस्यमय पवित्र गीतोक्त घोषणाका पद-पदपर प्रत्यक्ष करते हैं कि—

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थित:॥
न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन:॥
(९। ४-५)

‘मुझ सच्चिदानन्दघन अव्यक्त परमात्मासे यह समस्त विश्व परिपूर्ण है और ये समस्त भूत मुझमें स्थित हैं, परन्तु मैं उनमें नहीं हूँ, ये समस्त भूत भी मुझमें स्थित नहीं हैं, मेरी योगमाया और प्रभावको देख कि समस्त भूतोंका धारण-पोषण करनेवाला मेरा आत्मा उन भूतोंमें स्थित नहीं है।’ अजब पहेली है, पहले आप कहते हैं कि ‘मेरे अव्यक्त स्वरूपसे सारा जगत् भरा है, फिर कहते हैं, जगत् मुझमें है, मैं उसमें नहीं हूँ, इसके बाद ही कह देते हैं कि न तो यह जगत् ही मुझमें है और न मैं ही इसमें हूँ। यह सब मेरी मायाका अप्रतिम प्रभाव है—मेरी लीला है।’ यह अजब उलझन उन महात्माओंकी बुद्धिमें सुलझी हुई होती है, वे इसका यथार्थ मर्म समझते हैं। वे जानते हैं कि जगत‍्में परमात्मा उसी तरह सत्यरूपसे परिपूर्ण है, जैसे जलसे बर्फ ओत-प्रोत रहती है यानी जल ही बर्फके रूपमें भास रहा है। यह सारा विश्व कोई भिन्न वस्तु नहीं है; परमात्माके संकल्पसे, बाजीगरके खेलकी भाँति उस संकल्पके ही आधारपर स्थित है। जब कोई भिन्न वस्तु ही नहीं है तब उसमें किसीकी स्थिति कैसी? इसीलिये परमात्माके संकल्पमें ही विश्वकी स्थिति होनेके कारण वास्तवमें परमात्मा उसमें स्थित नहीं है, परन्तु विश्वकी यह स्थिति भी परमात्मामें वास्तविक नहीं है, यह तो उनका एक संकल्पमात्र है। वास्तवमें केवल परमात्मा ही अपने-आपमें लीला कर रहे हैं, यही उनका रहस्य है। इस रहस्यको तत्त्वसे समझनेके कारण ही महात्माओंकी दृष्टि दूसरी हो जाती है। इसलिये वे प्रत्येक शुभ-अशुभ घटनामें सम रहते हैं—जगत‍्का बड़े-से-बड़ा लाभ उनको आकर्षित नहीं कर सकता; क्योंकि वे जिस परम वस्तुको पहचानकर प्राप्त कर चुके हैं उसके सामने कोई लाभ लाभ ही नहीं है। इसी प्रकार लोकदृष्टिसे भासनेवाले महान्-से-महान् दु:खमें भी वे विचलित नहीं होते; क्योंकि उनकी दृष्टिमें दु:ख-सुख कोई (ईश्वरसे भिन्न) वस्तु ही नहीं रह गये हैं। ऐसे महापुरुष ही ब्रह्ममें नित्य स्थित समझे जाते हैं। भगवान‍्ने गीतामें कहा है—

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम्।
स्थिरबुद्धिरसंमूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित:॥
(५। २०)

ऐसे स्थिरबुद्धि संशयशून्य ब्रह्मवित् महात्मा लोकदृष्टिसे प्रिय प्रतीत होनेवाली वस्तुको पाकर हर्षित नहीं होते और लोकदृष्टिसे अप्रिय पदार्थको पाकर उद्विग्न नहीं होते; क्योंकि वे सच्चिदानन्दघन सर्वरूप परब्रह्म परमात्मामें नित्य अभिन्नभावसे स्थित हैं। जगत‍्के लोगोंको जिस घटनामें अमंगल दीखता है, महात्माओंकी दृष्टिमें वही घटना ब्रह्मसे ओत-प्रोत होती है, इसलिये वे न तो ऐसी किसी घटनाका विरोध करते हैं और न उससे विपरीत घटनाके लिये आकांक्षा करते हैं; क्योंकि वे सांसारिक शुभ-अशुभके परित्यागी हैं।

ऐसे महापुरुषोंद्वारा जो कुछ क्रियाएँ होती हैं, उनसे कभी जगत‍्का अमंगल नहीं हो सकता, चाहे वे क्रियाएँ लोकदृष्टिमें प्रतिकूल ही प्रतीत होती हों। सत्यपर स्थित और केवल सत्यके ही लक्ष्यपर चलनेवाले लोगोंकी चाल, विपरीतगति असत्यपरायण लोगोंको प्रतिकूल प्रतीत हो सकती है और वे सब उनको दोषी भी बतला सकते हैं, परन्तु सत्यपर स्थित महात्मा उन लोगोंकी कोई परवा नहीं करते। वे अपने लक्ष्यपर सदा अटलरूपसे स्थित रहते हैं। लोगोंकी दृष्टिमें महाभारत-युद्धसे भारतवर्षकी बहुत हानि हुई, पर जिन परमात्माके संकेतसे यह संहार-लीला सम्पन्न हुई उनकी और उनके रहस्यको समझनेवाले दिव्यकर्मी पुरुषोंकी दृष्टिमें उससे देश और विश्वका बड़ा भारी मंगल हुआ। इसीलिये दिव्यकर्मी अर्जुन भगवान‍्के संकेतानुसार सब प्रकारके धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल भगवान‍्के वचनके अनुसार ही महासंग्रामके लिये सहर्ष प्रस्तुत हो गये थे। जगत‍्में ऐसी बहुत-सी बातें होती हैं जो बहुसंख्यक लोगोंके मतसे बुरी होनेपर भी उनके तत्त्वज्ञके मतमें अच्छी होती हैं और यथार्थमें अच्छी ही होती हैं, जिनका अच्छापन समयपर बहुसंख्यक लोगोंके सामने प्रकट और प्रसिद्ध होनेपर वे उसे मान भी लेते हैं अथवा ऐसा भी होता है कि उनका अच्छापन कभी प्रसिद्ध ही नहीं हो पाता। परन्तु इससे उनके अच्छे होनेमें कोई आपत्ति नहीं होती। सत्य कभी असत्य नहीं हो सकता, चाहे उसे सारा संसार सदा असत्य ही समझता रहे। अतएव जो भगवत्तत्त्व और भगवान‍्की दिव्य लीलाका रहस्य समझते हैं, उनके दृष्टिकोणमें जो कुछ यथार्थ प्रतीत होता है वही यथार्थ है। परन्तु उनकी यथार्थ प्रतीति साधारण बहुसंख्यक लोगोंकी समझसे प्राय: प्रतिकूल ही हुआ करती है; क्योंकि दोनोंके ध्येय और साधनमें पूरी प्रतिकूलता रहती है।

सांसारिक लोग धन, मान, ऐश्वर्य, प्रभुता, बल, कीर्ति आदिकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी कुछ भी परवा न कर अपना सारा जीवन इन्हीं पदार्थोंके प्राप्त करनेमें लगा देते हैं और इसीको परम पुरुषार्थ मानते हैं। इसके विपरीत परमात्माकी प्राप्तिके अभिलाषी पुरुष परमात्माके लिये इन सारी लोभनीय वस्तुओंका तृणवत्, नहीं-नहीं, विषवत् परित्याग कर देते हैं और उसीमें उनको बड़ा आनन्द मिलता है। पहलेको मान प्राण-समान प्रिय है तो दूसरा मान-प्रतिष्ठाको शूकरी-विष्ठा समझता है। पहला धनको जीवनका आधार समझता है तो दूसरा लौकिक धनको परमधनकी प्राप्तिमें प्रतिबन्धक मानकर उसका त्याग कर देता है। पहला प्रभुता प्राप्तकर जगत् पर शासन करना चाहता है तो दूसरा ‘तृणादपि सुनीचेन तरोरिव सहिष्णुना’ बनकर महापुरुषोंके चरणकी रजका अभिषेक करनेमें ही अपना मंगल मानता है। दोनोंके भिन्न-भिन्न ध्येय और मार्ग हैं। ऐसी स्थितिमें एक-दूसरेको पथभ्रान्त समझना कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। यह तो विषयी और मुमुक्षुका अन्तर है। परन्तु इससे पहले किये हुए विवेचनके अनुसार मुक्त अथवा भगवदीय लीलामें सम्मिलित भक्तके लिये तो जगत‍्का स्वरूप ही बदल जाता है। इसीसे वह इस खेलसे मोहित नहीं होता। जब छोटे लड़के काँचके या मिट्टीके खिलौनोंसे खेलते और उनके लेन-देन, ब्याह-शादीमें लगे रहते हैं, तब बड़े लोग उनके खेलको देखकर हँसा करते हैं, परन्तु छोटे बच्चोंकी दृष्टिमें वह बड़ोंकी भाँति कल्पित वस्तुओंका खेल नहीं होता। वे उसे सत्य समझते हैं और जरा-जरा-सी वस्तुके लिये लड़ते हैं, किसी खिलौनेके टूट जाने या छिन जानेपर वे रोते हैं! वास्तवमें उनके मनमें बड़ा कष्ट होता है। नया खिलौना मिल जानेपर वे बहुत हर्षित होते हैं। जब माता-पिता किसी ऐसे बच्चेको, जिसके मिट्टीके खिलौने टूट गये हैं या छिन गये हैं, रोते देखते हैं तो उसे प्रसन्न करनेके लिये कुछ खिलौने और दे देते हैं जिससे वह बच्चा चुप हो जाता है और अपने मनमें बहुत हर्षित होता है, परन्तु सच्चे हितैषी माता-पिता बालकको केवल खिलौना देकर ही हर्षित नहीं करना चाहते; क्योंकि इससे तो इस खिलौनेके टूटनेपर भी उन्हें फिर रोना पड़ेगा। अतएव वे समझाकर उनका यह भ्रम भी दूर कर देना चाहते हैं कि खिलौने वास्तवमें सच्ची वस्तु नहीं हैं। मिट्टीकी मामूली चीज हैं, उनके जाने-आने या बनने-बिगड़नेमें कोई विशेष लाभ-हानि नहीं है। इसी प्रकारकी दशा संसारके मनुष्योंकी हो रही है। संसारके लोग जिन सब वस्तुओंके नाश हो जानेपर रोते और पुन: मिलनेकी आकांक्षा करते हैं या जिनकी अप्राप्तिमें अभावका अनुभव कर दु:खी होते हैं और प्राप्त होनेपर हर्षसे फूल जाते हैं, तत्त्वदर्शी पुरुष इस तरह नहीं करते, वे इस रहस्यको समझते हैं, इसलिये वे समय-समयपर बच्चोंके साथ बच्चे-से बनकर खेलते हैं, बच्चोंके खेलमें शामिल हो जाते हैं, परन्तु होते हैं उन बच्चोंको खेलका असली तत्त्व समझाकर सदाको शोकमुक्त कर देनेके लिये ही!

ऐसे भगवान‍्के प्यारे भक्त विश्वकी प्रत्येक क्रियामें परमात्माकी लीलाका अनुभव करते हैं। वे सभी अनुकूल और प्रतिकूल घटनाओंमें परमात्माको ओत-प्रोत समझकर, लीलारूपमें उनको अवतरित समझकर, उनके नित्य नये-नये खेलोंको देखकर प्रसन्न होते हैं और सब समय सब तरहसे और सब ओरसे सन्तुष्ट रहते हैं। ऐसे लोगोंको जगत‍्के लोग—जिनका मन भोगोंमें उन्हें सुखरूप समझकर फँसा हुआ है—स्वार्थी, अकर्मण्य, आलसी, पागल, दीवाने और भ्रान्त समझते हैं, परन्तु वे क्या होते हैं, इस बातका पता वास्तवमें उन्हींको रहता है। ऐसे दीवानोंकी दुनिया दूसरी ही होती है, उस दुनियामें कभी राग-द्वेष, रोग-शोक, सुख-दु:ख नहीं होते, वह दुनिया सूर्य-चन्द्रसे प्रकाशित नहीं होती, स्वत: प्रकाशित रहती है, इतना ही नहीं, उसी दुनियाके परम प्रकाशसे सारे विश्वको प्रकाश मिलता है।

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