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गीताका पर्यवसान साकार ईश्वरकी शरणागतिमें है

श्रीमद्भगवद‍्गीता भगवान् सच्चिदानन्दकी दिव्य वाणी है, इसका यथार्थ अर्थ भगवान् ही जानते हैं, हमलोग अपनी-अपनी भावना और दृष्टिकोणके अनुसार गीताका अर्थ निकालते हैं, यही स्वाभाविक भी है। परन्तु स्वयं भगवान‍्की वाणी होनेसे गीता ऐसा आशीर्वादात्मक ग्रन्थ है कि किसी तरह भी इसकी शरण ग्रहण करनेसे शेषमें परमात्मप्रेमका पथ मिल जाता है। गीतापर अबतक अनेक टीकाएँ बनी हैं और भिन्न-भिन्न महानुभावोंने गीताका प्रतिपाद्य विषय भी भिन्न-भिन्न बतलाया है, उन विद्वानों और पूज्य पुरुषोंके चरणोंमें ससम्मान नमस्कार करता हुआ, उनके विचारोंका कुछ भी खण्डन करनेकी तनिक-सी भी इच्छा न रखता हुआ मैं पाठकोंके सामने अपने मनकी बात रखना चाहता हूँ। शास्त्र-प्रतिपादित ज्ञानयोग, ध्यानयोग, समाधियोग, कर्मयोग आदि सर्वथा उपादेय हैं और प्रसंगवश गीतामें इनका उल्लेख भी पूर्णरूपसे है, परन्तु मेरी समझसे गीताका पर्यवसान ‘साकार भगवान‍्की शरणागति’ में है और यही गीताका प्रधान प्रतिपाद्य विषय है। गीताके प्रधान श्रोता अर्जुनके जीवनसे यही सिद्ध होता है।

अर्जुन भगवान् श्रीकृष्णके बड़े प्रेमी सखा थे, उनके चुने हुए मित्र थे। आहार, विहार, भोजन, शयन—सभीमें साथ रहते थे, अर्जुनने भगवान‍्को अपने जीवनका आधार बना लिया था, इसीलिये उनके ऐश्वर्यकी तनिक-सी भी परवा न कर मधुररूप प्रियतम उन्हींको अपना एकमात्र सहायक और संगी बनाकर अपने रथकी या जीवनकी बागडोर उन्हींके हाथमें सौंप दी थी। दुर्योधन उनकी करोड़ों सेनाको ले गया, परन्तु इस बातका अर्जुनके मनमें कुछ भी असन्तोष नहीं था। उसके हृदयमें सेनाबल—जडबलकी अपेक्षा प्यारे श्रीकृष्णके प्रेम-बलपर कहीं अधिक विश्वास था। इसीलिये भगवान‍्की आज्ञासे अर्जुन युद्धमें प्रवृत्त हुए थे। परन्तु युद्धक्षेत्रमें पहुँचते ही वे इस भगवत्-निर्भरताको भूल गये। भगवान् श्रीकृष्णकी प्रेरणासे युद्धमें प्रवृत्त होनेपर उन्हें बीचमें अपनी बुद्धि लगाकर युद्धको बुरा बतलानेकी कोई आवश्यकता नहीं थी, किन्तु बड़े समझदार अर्जुनके मनमें यहाँ अपनी समझदारीका अभिमान जागृत हो उठा और इसीसे वे लीलामय प्रियतम भगवान‍्की प्रेरणाके विरुद्ध ‘मैं युद्ध नहीं करूँगा’ कहकर चुप हो बैठे। यही अर्जुनका मोह था। एक ओर निर्भरता छूटनेसे चित्त अनाधार होकर अस्थिर हो रहा था, जिसके चेहरेपर विषादकी रेखाएँ स्पष्टरूपसे प्रस्फुटित हो उठी थीं, परन्तु दूसरी ओर ज्ञानाभिमान जोर दे रहा था, इसीपर भगवान‍्ने अर्जुनको प्रज्ञावादियोंकी-सी बातें कहनेवाला कहकर चेतावनी दी। उनको स्मरण दिलाया कि ‘तुझे इस ज्ञान-विवेकसे क्या मतलब है, तू तो मेरी लीलाका यन्त्र है, मेरे इच्छानुसार लीलाक्षेत्रमें खेलका साधन बना रह।’ परन्तु अपने ज्ञानके अभिमानसे मोहित अर्जुनको इस तत्त्वकी स्मृति नहीं हुई, इसीलिये भगवान‍्ने आत्मज्ञान, कर्म, ध्यान, समाधि, भक्ति आदि अनेक विषयोंका उपदेश दिया, बीच-बीचमें कई तरहसे सावधान करनेका प्रयत्न भी चालू रखा, अपना प्रभाव, ऐश्वर्य, सत्ता, व्यापकता, विभुत्व आदि स्पष्टरूपसे दिखलानेके साथ ही लीलाका संकेत भी किया, बीच-बीचमें चुटकियाँ लीं। भय दिखलाया अर्जुन उनके ऐश्वर्यमय कालरूपको देखकर काँपने लगे, स्तुति की, परन्तु उन्हें वास्तविक लीलाकार्यकी पूर्वस्मृति नहीं हुई। इससे अन्तमें परम प्रेमी भगवान‍्ने १८ वें अध्यायके ६४वें श्लोकमें अपने पूर्वकृत उपदेशकी गौणता बतलाते हुए अगले उपदेशको ‘सर्वगुह्यतम’ कहकर अपना हृदय खोलकर रख दिया। यहाँका प्रसंग भगवान‍्की दयालुता और उनके प्रेमानन्त-समुद्रका बड़ा सुन्दर उदाहरण है। अपना प्रिय सखा, अपनी लीलाका यन्त्र, निज ज्ञानके व्यामोहमें लीलाकार्यको विस्मृत हो गया, अतएव उससे कहने लगे—‘प्रियवर, मेरे परम प्यारे! इन पूर्वोक्त उपदेशोंसे तुझे कोई मतलब नहीं है, तू अपने स्वरूपको पहचान, तू मेरा प्यारा है—अपना है, इस बातका स्मरण कर, इसीमें तेरा हित है, मेरे ही कार्यके लिये मेरे अंशसे तेरा अवतार है। अतएव तू मुझीमें मन लगा ले, मेरी ही भक्ति कर, मेरी ही पूजा कर, मुझे ही नमस्कार कर, मैं शपथपूर्वक कहता हूँ, तू मेरा प्यारा अंग है, मुझीको प्राप्त होगा, पूर्वोक्त सारे धर्मका आश्रय या उनमें अपना कर्तव्यज्ञान छोड़कर केवल मेरी लीलाका यन्त्र बना रह, एक मेरी ही शरणमें पड़ा रह, तुझे पाप-पुण्यसे क्या मतलब, तुझे चिन्ता भी कैसी, मैं आप ही सब सँभालूँगा। मेरा काम मैं आप करूँगा, तू तो अपने स्वरूपको स्मरण कर, अपने अवतारके हेतुको सिद्ध कर, मुझ लीलामयकी विश्वलीलामें लीलाका साधन बना रह।’

बस, इस उपदेशसे अर्जुनकी आँखें खुल गयीं, उन्हें अपने स्वरूपकी स्मृति हो गयी। ‘मैं लीलाका साधन हूँ, भगवान‍्के हाथका खिलौना हूँ, इनकी शरणमें पड़ा हुआ किंकर हूँ, यह बात स्मरण हो आयी, तुरंत मोह नष्ट हो गया और तत्काल अर्जुन लीलामें सम्मिलित हो गये, लीला आरम्भ हो गयी।

अर्जुनने भगवान‍्के उपर्युक्त गीतोक्त अन्तिम वचनोंको सुनते ही पिछले ज्ञानोपदेशसे मन हटा लिया। अपने-आपको भगवान‍्की लीलामें समर्पित करके अर्जुन निश्चिन्त हो गये और लीलामयकी इच्छा तथा संकेतानुसार प्रत्येक कार्य करते रहे।

महाभारतकी संहारलीला समाप्त हुई, अश्वमेधलीला हुई, अब अर्जुनको शान्तिके समय भगवान‍्की ज्ञानलीलामें सम्मिलित होनेकी आवश्यकता जान पड़ी, परन्तु गीतोक्त ज्ञानकी तो उन्होंने कोई परवा ही नहीं की थी। उन्हें कोई आवश्यकता भी नहीं थी, क्योंकि वे तो ‘सर्वोत्तम, सर्वगुह्यतम’ शरणागतिका परम मन्त्र ग्रहणकर भगवान‍्के यन्त्र बन चुके थे। भगवान् दूसरी लीलाके लिये द्वारका जानेकी तैयारी करने लगे। अर्जुनको इधर ज्ञानलीलाके प्रसारमें साधन बनना था, इससे एक दिन उन्होंने एकान्तमें भगवान‍्से पूछा कि ‘हे प्रियतम! हे लीलामय! संग्रामके समय मैं आपके ‘माहात्म्यम्’ और ‘रूपमैश्वरम्’ को जान चुका हूँ, उस समय आपने मुझे जिस ज्ञानका उपदेश दिया था, उसे मैं भूल गया हूँ, आप शीघ्र द्वारका जाते हैं, मुझे वह ज्ञान एक बार फिर सुना दीजिये। मेरे मनमें उसे फिरसे सुननेके लिये बार-बार कौतूहल होता है।’ भगवान‍्ने अर्जुनको उलाहना देते हुए कहा कि ‘तैंने बड़ी भूल की, जो ध्यान देकर उस ज्ञानको याद नहीं रखा, उस समय मैंने योगमें स्थित होकर ही तुझे ‘गुह्य’ सनातन ज्ञान सुनाया था, (श्रावितस्त्वं मया ‘गुह्यं’ ज्ञापितश्च सनातनम्। महा० अ० १६। ९) अब मैं उसे उसी रूपमें दुबारा नहीं सुना सकता, तथापि तुझे दूसरी तरहसे वह ज्ञान सुनाता हूँ।’ (इसका यह अर्थ नहीं कि भगवान् वह ज्ञान पुन: सुनानेमें असमर्थ थे, अचिन्त्यशक्ति सच्चिदानन्दके लिये कुछ भी असम्भव नहीं है।) भगवान‍्का उलाहना देना युक्तियुक्त ही है; क्योंकि शरणागतिके ‘सर्वगुह्यतम’ भावमें स्थित होनेपर भी सब तरहकी लीलाविस्तारमें सम्मिलित होनेके लिये ज्ञानयोगादिके भी स्मरण रखनेकी आवश्यकता थी, लीला-कार्यमें पूर्ण योग देनेके लिये इसका प्रयोजन था, इसीलिये भगवान‍्ने फटकार बतायी, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि अर्जुन भगवत्-शरणागतिरूप गीताके प्रतिपाद्यको भूल गये थे। श्रीकृष्ण-शरणागतिमें तो उनका जीवन रँगा हुआ था, दूसरे शब्दोंमें श्रीकृष्ण-शरणागतिके तो वे मूर्तिमान् जीते-जागते स्वरूप थे। प्रेम और निर्भरताके नशेमें ज्ञानकी वे विशेष बातें, जो जगत‍्के लोगोंके लिये आवश्यक थीं, अर्जुन भूल गये थे, जो भगवान‍्ने ‘अनुगीता’ के स्वरूपमें प्रकारान्तरसे उन्हें फिर समझा दी। अनुगीताके आरम्भमें भगवान‍्के द्वारा कथित ‘गुह्य’ शब्द विशेष ध्यान देनेयोग्य है। इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान‍्ने उसी ज्ञानके भूल जानेके कारण अर्जुनको फटकारा है, जो ‘गुह्य’ था। न कि ‘सर्वगुह्यतम’। अनुगीताके प्रसंगसे अर्जुनको ज्ञानभ्रष्ट समझना, गीतोक्त उपदेशको विस्मृत हो जानेवाला जानना और भगवान‍्की वक्तृत्व और स्मृतिशक्तिमें मर्यादितपन मानना हमारी भूलके सिवा और कुछ नहीं है। गीताके प्राण, गीताका हृदय, गीताका उद्देश्य, गीताका ज्ञान, गीताकी गति, गीताका उपक्रम-उपसंहार और गीताका तात्पर्यार्थ ‘साकार भगवान‍्की शरणागति’ है, उसके सम्बन्धमें अर्जुनको कभी व्यामोह नहीं हुआ। इस लोकमें तो क्या इससे पहले और पीछेके सभी लोकों और अवस्थाओंमें वह इसी शरणागत सेवककी स्थितिमें रहे। इसीलिये महाभारतकारने अर्जुनकी सायुज्यमुक्ति नहीं बतलायी जो सत्य तत्त्व है, क्योंकि लीलामयकी लीलामें सम्मिलित रहनेवाले परम ज्ञानी नित्यमुक्त अनुचर निजजनोंके लिये मुक्ति अनावश्यक है।

भगवान् श्रीकृष्ण उद्धवसे कहते हैं—

न पारमेष्ठ्यं न महेन्द्रधिष्ण्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्।
न योगसिद्धीरपुनर्भवं वा
मय्यर्पितात्मेच्छति मद्विनान्यत्॥
(श्रीमद्भा० ११।१४।१४)

‘जिन भक्तोंने मेरे प्रति अपना आत्मसमर्पण कर दिया है वे मुझे छोड़कर ब्रह्मपद, इन्द्रपद, चक्रवर्ती-राज्य, पातालका साम्राज्य, योगकी सिद्धियाँ, यहाँतक कि अपुनरावर्ती (सायुज्य मोक्ष) भी नहीं चाहते।’ वास्तवमें भगवान‍्की लीलामें लगे हुए शरणागत भक्तको मुक्तिकी परवा ही क्यों होने लगी? सच्ची बात तो यह है कि जबतक (भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते) भोग-मोक्षकी पिशाचिनी इच्छा हृदयमें रहती है, तबतक लीलामें सम्मिलित होनेका भाव ही नहीं उत्पन्न होता या तो वह जगत‍्के भोगोंमें रहना चाहता है या जगत‍्से भागकर छूटना चाहता है। लीलामें योग देना नहीं चाहता। अर्जुन तो लीलामें सम्मिलित थे, बीचमें अपने ज्ञानाभिमानका मोह हुआ, भगवान‍्की ओरसे सौंपे हुए पार्टको छोड़कर दूसरा मनमाना पार्ट खेलनेकी इच्छा हुई, यह मोह भगवान‍्ने गीतोक्त ‘सर्वगुह्यतम’ उपदेशसे नष्ट कर दिया, अर्जुन स्वस्थ हो गये। इसीलिये इस लोककी लीलाके बाद परम धाममें भी अर्जुन भगवान‍्की सेवामें ही संलग्न देखे जाते हैं। धर्मराज युधिष्ठिर दिव्य देह धारण कर देवताओं, महर्षियों और मरुद‍्गणोंसे स्तुति किये हुए उन स्थानोंमें गये, जहाँ कुरुकुलके उत्तम पुरुष पहुँचे थे। इसके बाद वे परम धाममें भगवान् गोविन्द श्रीकृष्णका दर्शन करते हैं—

ददर्श तत्र गोविन्दं ब्राह्मेण वपुषान्वितम्।
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दीप्यमानं स्ववपुषा दिव्यैरस्त्रैरुपस्थितम्।
चक्रप्रभृतिभिर्घोरैर्दिव्यै: पुरुषविग्रहै:॥
उपास्यमानं वीरेण फाल्गुनेन सुवर्चसा।
तथास्वरूपं कौन्तेयो ददर्श मधुसूदनम्॥
(महा० स्वर्गा० ४।२—४)

‘धर्मराजने वहाँ अपने ब्राह्म शरीरसे युक्त गोविन्द श्रीकृष्णको देखा, वे अपने शरीरसे देदीप्यमान थे। उनके पास चक्र आदि दिव्य और घोर अस्त्र दिव्य पुरुषका शरीर धारण किये हुए उनकी सेवा कर रहे थे। महान् तेजस्वी वीर अर्जुन (फाल्गुन) उनकी सेवा कर रहे थे। ऐसे स्वरूपमें युधिष्ठिरने भगवान् मधुसूदनको देखा।’ इस विवेचनसे यह स्पष्ट सिद्ध हो गया कि गीताका पर्यवसान या प्रतिपाद्य विषय ‘साकार ईश्वरकी शरणागति’ है। यही परम गुह्यतम तत्त्व भगवान‍्ने अर्जुनको समझाया, यही उन्होंने समझा और उनके इस लोक तथा दिव्य भागवतधामका दिव्य जीवन इसीका ज्वलन्त प्रमाण है। इससे कोई यह न समझे कि भगवान् और अर्जुन दिव्य परम धाममें साकाररूपमें रहनेके कारण उसीमें सीमाबद्ध हैं, वे लीलासे दिव्य साकार-विग्रहमें रहनेपर भी अनन्त और असीम हैं।

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