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ईश्वरकी ओर झुकें

एक बहिन लिखती है कि माताएँ मोह छोड़कर बालकोंको पढ़नेके लिये गुरुकुलोंमें भेजें, गहने तथा विलायती वस्त्रोंसे घृणा करें और शौकीनी छोड़कर ईश्वरकी ओर झुकें—इन विषयोंपर कुछ अवश्य लिखना चाहिये। एक दूसरी सुशिक्षिता बहिनने वर्तमान स्कूल-कॅालेजोंकी बुराइयाँ, बढ़ती हुई फैशन और कर्तव्यविमुखता, धर्महीनता, ईश्वरभक्तिका ह्रास, विलासिता और विदेशी सभ्यताकी तरफ शिक्षिता बहिनोंकी बढ़ती हुई रुचिकी ओर ध्यान खींचते हुए इन बुराइयोंसे बचकर सब परमात्माकी ओर झुकें इस विषयपर कुछ लिखनेके लिये विशेषरूपसे आग्रह किया है।

यद्यपि साधारणत: अध्यात्मविद्याके प्रचार और विलासिता त्यागकर ईश्वरकी ओर झुकनेके विषयमें प्राय: लिखा ही जाता है और हमारा विचार ईश्वरभक्ति, वैराग्य और सदाचारके सिवा अन्य बहिरंग विषयोंपर कुछ लिखनेका था भी नहीं, तथापि इन बहिनोंके विशेष अनुरोधसे आज प्रसंगवश इन विषयोंपर कुछ लिखना पड़ा है। किसी बहिन या भाईको कोई शब्द अप्रिय लगे तो वे क्षमा करें। हमारा विचार किसीके चित्तपर आघात पहुँचानेका नहीं है, अपना मत जो कुछ हृदयसे ठीक जँचा वही लिख दिया है। यह आग्रह भी नहीं है कि कोई इसे मानें। यदि किसीको अपनी बुराइयाँ दीखें तो उन्हें सुधारनेका अवश्य प्रयत्न करना चाहिये। पहली बहिनने तीन विषय बतलाये हैं। इन तीनोंपर विवेचन करनेमें दूसरी बहिनकी बातोंका उत्तर भी शायद आ जायगा।

(१) माताएँ मोह छोड़कर अपने बालकोंको ऋषिकुल-गुरुकुलोंमें भेजें।

(२) गहने और विलायती वस्त्रोंका व्यवहार तथा शौकीनी छोड़ें।

(३) ईश्वरकी ओर झुकें।

इन तीनोंमें तीसरी बात सबसे पहले आवश्यक है। मनुष्य-जीवन ईश्वरको प्राप्त करनेके लिये ही है। समस्त सांसारिक कार्य इसी महान् उद्देश्यको सतत सामने रखकर करने चाहिये। इसीको भूल जानेके कारण आज हम लक्ष्यभ्रष्ट होकर अनेक प्रकारके कष्ट भोग रहे हैं, इसीसे आज हमारा जीवन अशान्त और त्रितापतप्त है, इसीसे तरह-तरहके दु:ख-दावानलसे जगत् दग्ध हो रहा है, इसीसे हमारा कोई कार्य शुद्ध सात्त्विकताको लिये हुए प्राय: नहीं होता। यदि मनुष्य अपने इस महान् लक्ष्यपर स्थिर होकर समस्त कर्म भगवान‍्की ‘कुरुष्व मदर्पणम्’ आज्ञाके अनुसार उनके अर्पण-बुद्धिसे करने लगे तो सारे दु:ख-कष्टोंका अनायास ही अन्त हो सकता है। अतएव ईश्वरकी ओर झुकना तो सबसे पहली और सबसे अधिक आवश्यक बात है। इसमें स्त्री-पुरुषका कोई भेद नहीं है। ईश्वर प्राप्तिके सब समान अधिकारी हैं। सरलहृदया स्त्रियाँ तो तर्क-जालग्रस्त पुरुषोंकी अपेक्षा सच्ची भक्ति होनेपर सम्भवत: परमात्माकी प्राप्ति शीघ्र कर सकती हैं।

आवश्यकता लक्ष्य बदलनेकी है, कर्मोंका स्वरूप बदलनेकी नहीं। घरका प्रत्येक कार्य ईश्वरकी सेवा समझकर नि:स्वार्थबुद्धिसे करना ईश्वरभक्ति ही है। जो स्त्री-पुरुष परमात्माका नित्य स्मरण रखते हुए सब कार्य उसीके आज्ञानुसार उसीके लिये करते हैं, वे भी सच्चे भक्त हैं, ऐसे भक्तोंसे पापकर्म कभी नहीं हो सकते। शरीरसुखकी स्पृहा ही पाप करानेमें प्रधान कारण होती है, जब साधककी बुद्धि ईश्वरकी सेवाके महत्त्वको जान जाती है तब उसमें शरीरसुखस्पृहा नहीं ठहर सकती। जैसे सूर्यके उदय होनेपर अन्धकारको कहीं जगह नहीं मिलती, इसी प्रकार ईश्वरप्रेमकी जागृति होनेपर विषयप्रेमका नाश हो जाता है। जब विषयप्रेम ही नहीं रहता तब विषयोंकी प्राप्तिके लिये पाप क्यों होने लगे? अतएव हमारी माँ-बहिनोंको चाहिये कि वे अपने जीवनकी गति ईश्वरकी ओर कर दें। यह हो जानेपर सारा मोह आप-से-आप छूट जायगा, ईश्वरप्रेमसे सात्त्विक भावोंके विकासके साथ-ही-साथ बुद्धि इस बातका अचूक निर्णय करनेमें आप ही समर्थ हो जायगी कि कौन-सा काम करना और कौन-सा नहीं करना चाहिये।

आज जो माताएँ बालकोंको मोहवश या मिथ्या प्यार-दुलारके कारण पाठशालाओंमें भेजनेसे हिचकती हैं, विद्यालाभकी अवधिसे पूर्व ही प्रमादवश बालकोंका विवाह कर वधूका मुख देखना चाहती हैं, कर्तव्यका ज्ञान होनेपर वे स्वयं हानि-लाभ समझकर उचित व्यवस्था करने लगेंगी। वही माता-पिता बालकके वास्तविक हितैषी हैं जो उसे सद्विद्या सिखाकर इस लोक और परलोकमें सुखी बनानेका प्रयत्न करते हैं। परन्तु जो मोह या स्वार्थवश उन्हें पढ़ाना नहीं चाहते या ऐसी विद्या पढ़ाते हैं जिससे वे किसी भी भले-बुरे उपायसे केवल धन कमाना ही सीख जायँ, अथवा उन्हें बाल्यावस्थामें ही विवाह-बन्धनमें बाँधकर उनके ब्रह्मचर्यका नाश कर डालते हैं, वे वास्तवमें बालकोंके सच्चे हितैषी माँ-बाप नहीं हैं।

परलोकवाद और परमात्माको माननेवाले प्रत्येक व्यक्तिको यह मानना पड़ेगा कि अपने किये हुए अच्छे-बुरे कर्मोंके अनुसार परमात्माके विधानसे अच्छी-बुरी योनियाँ और सुख-दु:ख प्राप्त होते हैं। अच्छे-बुरे कर्मोंका होना सत्संग-कुसंग और सद्विद्या-कुविद्यापर विशेष निर्भर करता है, अत: जो माता-पिता बालकोंको कुसंगमें रखकर या उन्हें कुविद्या-दान करवाकर उनके भविष्य जीवनको—परलोकको बिगाड़ देते हैं, वे वास्तवमें उनके साथ भ्रमवश शत्रुताका ही कार्य करते हैं।

प्राचीन कालकी शिक्षापद्धति और शिक्षालयोंमें जो बात थी, सो आज नहीं है। चक्रवर्ती राजाका पुत्र और दरिद्र कंगालका बालक दोनों ही अरण्यवासी, दयामय, ब्रह्मज्ञाननिष्ठ, विजितेन्द्रिय, सर्वविद्या-निधान, ईश्वरभक्त, सन्तोषी, समदर्शी आचार्यके यज्ञधूम-धूसरित नदीतीरस्थ प्राकृतिक शोभासम्पन्न पवित्र आश्रममें सहोदर भाइयोंकी भाँति एक साथ रहकर युवावस्था प्राप्त न होनेतक बड़ी सावधानीसे ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए संयम, विनय और निष्कपट सेवाके बलसे शुद्ध विद्याध्ययन करते थे। आज न वैसे गुरु हैं, न गुरुकुल हैं और न वैसे शिष्य ही हैं।

इस समय जिस स्थूलवादप्रधान जड शिक्षाका प्रचार हो रहा है, वह तो भारतीय सभ्यता और संस्कृतिका नाश करनेवाली ही सिद्ध हो रही है। स्कूल, कॉलेज और उनके छात्रावासोंका दृश्य देखिये। विद्यासे विनयसम्पन्न होनेकी बात तो दूर रही, आज कॉलेजोंके छात्र प्राय: गर्वमें भरे हुए मिलते हैं, जहाँ विद्यार्थी-जीवनमें महान् संयमकी आवश्यकता है, वहाँ आज उच्छृंखलता, इन्द्रियपरायणता, विलासिता और फैशनका प्राधान्य हो रहा है। सजावट-बनावटकी भरमार है। छात्रावासोंमें यज्ञसामग्रियोंकी जगह आज चश्मा, नेकटाई, रिष्टवाच, दर्पण, कंघी, सेफ्टीरेजर, साबुन, सेंट और तरह-तरहके जूते मिलते हैं। दिल्लगियाँ उड़ाना, भद्दी जबानें बोलना, परस्पर अनुचित प्रेमपत्र भुगताना, प्रोफेसरोंके मजाक उड़ाना, बड़ोंका असम्मान करना और हर किसीकी निरंकुश आलोचना करना उनके लिये मामूली बात है। चरित्र-बल तो बुरी तरह नाश हो रहा है, छात्र-जीवनमें ही तरह-तरहकी बीमारियाँ घेर लेती हैं। स्वास्थ्य बिगड़ जाता है, आँखोंकी ज्योतिका घट जाना तो आजकलके शिक्षित नवयुवकोंकी आँखोंपर चश्मोंकी संख्या देखनेसे ही सिद्ध है। जो छात्र बहुत संयमी समझे जाते हैं, वे प्राय: नवीन सभ्यता, उन्नति या क्रान्तिके नामपर घरकी बातोंसे घृणा करने और पुरानी नामधारी वस्तुमात्रको अनावश्यक और अवनतिका कारण समझ बैठते हैं। धर्मको अनावश्यक समझना, धर्म-कर्मसे घृणा होना तो इस शिक्षा और शिक्षालयोंके वातावरणका सहज परिणाम है। दु:खकी बात है, पर सत्य है कि आजकल हमारे स्कूल-कॉलेजोंमें छात्रोंके चरित्र-बलका बुरी तरह नाश होने लगा है। छात्रोंपर असर पड़ता है अध्यापकोंके जीवनका, परन्तु अधिकांश अध्यापक प्राय: उन्हीं कॉलेजोंसे निकले हुए परिमित अनुभवसम्पन्न जवान छात्र ही होते हैं। उनसे हम इन्द्रियजयी साधनसम्पन्न ऋषि-मुनियोंके चरित्रकी आशा भी नहीं कर सकते।

इसके सिवा आजकलकी शिक्षामें खर्चके मारे तो गृहस्थ तबाह हो जाता है! पुत्रको ग्रेजुएट बनानेमें गरीब पिताको कितनी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ता है, इस बातकी उस बेपरवा मनचले छैले पुत्रको खबर भी नहीं होती। पिता बड़ी उमंगसे बुढ़ापेमें सुख मिलनेकी आशासे ऋण करके पुत्रको पढ़ाता है, परन्तु आजकलका पढ़ा-लिखा पुत्र अपने पिता-पितामहोंको अपने मनमें मूर्ख मानने लगता है, घरका काम करनेमें उसे लज्जा मालूम होती है। किसानका लड़का पढ़-लिखकर खेती करनेमें या दूकानदारका लड़का दूकानदारी करनेमें अपनी शानमें बट्टा लगना समझता है। घरका स्वाभाविक काम छूट जाता है, नौकरी मिलती नहीं, दुर्गति जरूर होती है। आजकल भारतमें जिस बेकारीसे लोग हैरान हैं, उसका एक कारण यह शिक्षा भी है। मेहनत-मजदूरी या कारीगरीसे काम चलानेवालोंकी अपेक्षा सभ्य पढ़े-लिखे बाबुओंकी अधिक दुर्दशा है।

कॅालेजोंसे निकले हुए छात्रोंमेंसे कुछको छोड़कर अधिकांश प्राय: तीन श्रेणियोंमें बँटते हैं—वकील, डॉक्टर और क्लर्क। यह बात निर्विवाद है कि जितने वकील, डॉक्टर बढ़े हैं, उतने ही मुकदमे और बीमारोंकी संख्या बढ़ी है। क्लर्कोंकी वृद्धिसे चरित्र-बल नष्ट हो रहा है। नौकरी चाहिये, उम्मेदवारोंकी भरमार है, सस्ते-से-सस्तेमें रहनेको तैयार हैं। इधर महँगी बढ़ी हुई है, कम नौकरीमें पेट भरता नहीं, मजबूरन चोरियाँ करनी पड़ती हैं—‘बुभुक्षित: किं न करोति पापम्’ यह इस शिक्षाका परिणाम है। खेद तो इसी बातका है कि इस प्रकारकी धर्म-संयमहीन शिक्षाका भयानक दुष्परिणाम देखते हुए भी हमलोग व्यामोहसे उसीके प्रचारमें अपना पूरा लाभ समझ रहे हैं। यही हमारी विपरीत बुद्धिके लक्षण हैं। मनीषियोंको चाहिये कि वे इस दूषित शिक्षाप्रणालीमें शीघ्र आवश्यक परिवर्तन करानेका प्रयत्न करें।

ऋषिकुल-गुरुकुलोंकी स्थापना प्राय: इसी उद्देश्यसे हुई थी कि वे संस्थाएँ इन दोषोंसे बची रहें, परन्तु अभीतक उन सबकी स्थिति भी सन्तोषजनक नहीं है; क्योंकि वातावरण और अध्यापक सभी जगह प्राय: एक-से ही हैं। तथापि स्कूल-कॉलेजोंकी अपेक्षा इनमें कहीं-कहीं कुछ संयम और धर्मशिक्षाकी ओर भी ध्यान दिया जाता है। कई जगह कम-से-कम अठारह सालकी उम्रतक बालकको अविवाहित रखनेका अनिवार्य नियम है। यदि प्रबन्धकर्ता अच्छे हों तो अन्तत: इन संस्थाओंमें एक सीमातक ब्रह्मचर्यरक्षाकी स्कूल-कॉलेजोंकी अपेक्षा कुछ अधिक सम्भावना की जा सकती है। कम-से-कम इसी लाभकी दृष्टिसे माताओंको मोह छोड़कर अपने बालकोंको ऐसी चुनी हुई संस्थाओंमें अवश्य भेजना चाहिये, जहाँ कम-से-कम अठारह सालकी उम्रतक उनके ब्रह्मचर्यकी वास्तविक रक्षाके साथ ही धार्मिक शिक्षाका समुचित प्रबन्ध हो। माता वही है जो अपने बालकका परलोक सुधारना चाहती है। देवी मदालसाने लोरीमें ही पुत्रोंको ब्रह्मज्ञानका उपदेश किया था। बच्चोंका ऐहलौकिक और पारलौकिक सच्चा हित उनको ब्रह्मचारी, वीर, धीर, संयमी, सत्यवादी और अनन्य ईश्वरभक्त बनानेमें ही है। माताओंको इस ओर पूरा ध्यान देना चाहिये। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं—

पुत्रवती जुबती जग सोई।
रघुपति भगतु जासु सुतु होई॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी।
राम बिमुख सुत तें हित जानी॥

‘गहनोंका अधिक व्यवहार भी बड़ा हानिकर है। गहनोंकी प्रथाके कारण ही भले घरके गरीब लड़कोंको प्राय: लड़कियाँ नहीं मिलतीं। ऋण करके भी गहने चढ़ाने पड़ते हैं। माताएँ गहनोंका मोह छोड़ दें तो उनका और समाजका दोनोंका भला है। गहनोंके कारण ही घरोंमें प्राय: लड़ाइयाँ हुआ करती हैं। गहना पहननेवाली बहिनोंको यह समझ रखना चाहिये कि शोभा गहने-कपड़ोंमें नहीं है। सच्ची शोभा शील, सदाचार और सादगीमें है, जिससे लोक-परलोक दोनों सुधरते हैं। इसी प्रकार विदेशी वस्त्रोंमें देशकी और धर्मकी बड़ी हानि हो रही है। आर्थिक हानि तो है ही, परन्तु लाखों मन जानवरोंकी चर्बी इन कपड़ोंमें लगती है, यही हाल यहाँकी मिलोंके बने कपड़ेका है, इसलिये जहाँतक हो सके, बहिनोंको चरखेसे कते हुए सूतके हाथसे बुने कपड़े ही पहनने चाहिये। इनमें चर्बी नहीं लगती, गरीब भाई बहिनोंका कताई-बुनाईसे पेट भरता है। उन्हें पेटके लिये पाप नहीं करना पड़ता, जीवहिंसा नहीं होती, पवित्रता बनी रहती है, लज्जा नहीं जाती और धर्म बचता है।

अब दो शब्द शिक्षिता बहिनोंकी सेवामें निवेदित हैं, इस शर्तपर कि वे इस अप्रिय सत्यके लिये कृपा कर नाराज न हों। आजकल पढ़ी-लिखी बहिनोंमें फैशनकी बीमारी बहुत जोरसे बढ़ रही है, वे ज्यादा गहना पहनना तो पसन्द नहीं करतीं, परन्तु जो एक दो अँगूठियाँ, चूड़ियाँ या कर्णफूल आदि रखना चाहती हैं, वे जरूर बहुमूल्य चमकदार रत्नोंके चाहती हैं। विलायतीकी जगह देशी वस्त्र या खादी पहनती हैं, परन्तु फैशनकी भावना बढ़ती जाती है। पढ़ी-लिखी बहिनें घरके काम-काजमें, रसोई बनाने आदिमें, पति या सास-ससुरकी सेवा करनेमें प्राय: उपेक्षा करती हैं, इन कामोंको वह हीन और नौकर-नौकरानियोंके करनेलायक समझती हैं और लेख लिखने, नाटक, उपन्यास, गल्प आदि पढ़नेमें विशेष रुचि रखती हैं। कई बहिनोंको सन्तानके पालन-पोषणमें भी कष्ट मालूम होने लगा है। यों देशी पोशाकके अंदर धीरे-धीरे विदेशी सभ्यताकी संक्रामक व्याधिका विस्तार हो रहा है। यह बात धीरे-धीरे बहिनोंके लेखों, कविताओं, उद‍्गारों और उनके चरित्रोंसे सिद्ध होने लगी है। बहिनोंको सावधान रहना चाहिये। यूरोपका दाम्पत्य-जीवन हमारा आदर्श कदापि नहीं है। वहाँकी ऊपरी चमक-दमक और स्त्री-स्वातन्त्र्यकी मधुर मोहनीमें कभी नहीं भूलना चाहिये। यूरोपकी स्त्रियाँ आजकल सन्तानोत्पादन और सन्तानके लालन-पालनतकको भाररूप समझकर मातृत्वका नाश करनेपर भी उतारू हो चली हैं। किसी वैराग्यसे नहीं, वेहद आरामतलबी और अनुचित विलास-प्रियतासे! यूरोपका आदर्श हिन्दू-ललनाओंके लिये बड़ा ही घातक है। सुधार, संस्कृति, शिक्षा, सभ्यता, उन्नति, प्रगति या क्रान्ति आदिके नामपर कहीं सर्वस्व नाशकारी—‘विषकुम्भं पयोमुखम्’ का प्रयोग न हो जाय! सावधान!

वास्तवमें नश्वर शरीरको सजाकर सुन्दर बननेकी लालसा तो हास्यास्पद ही है। इसमें कौन-सी वस्तु ऐसी है जो सुन्दर हो? घृणित वस्तुओंसे बने हुए इस ढाँचेको सजाना प्रमादके सिवा और कुछ भी नहीं है। शरीरकी सजावटकी भावना इसी वासनाके कारण होती है कि दूसरोंमें ‘मैं अच्छा दीखूँ।’ इस भावनासे सुन्दर गहने-कपड़े पहनने-न-पहननेका उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना मनका। सुन्दरता किसी वस्तुमें नहीं है, वह है अपने मनकी भावनामें, कोई बहिन खूब गहनोंसे लदकर बाहर निकलनेमें अपनी शोभा समझती है, तो कोई दूसरी तरहकी बाहरी टीप-टॉपमें समझती है। अतएव बहिनोंको मनसे विलासिता, फैशनका सर्वथा त्याग करना चाहिये।

इसके सिवा जिस देशमें करोड़ों अपने ही जैसे शरीरधारी भाई-बहिनोंको पेटभर अनाज और लाज रखनेके लिये चार हाथ कपड़ा नहीं मिलता, उस देशके लोगोंको वास्तवमें गहने-कपड़ोंसे सज्जित होनेका धर्मत: अधिकार ही क्या है? शरीरको सुन्दर बनाने और दिखानेकी भावनाको हटाकर जगत‍्की परिमित और जहाँ-तहाँ बिखरी हुई अल्प सुन्दरताका मोह छोड़कर उस सुन्दरताकी खान, सर्वव्यापी, सबके अधिष्ठान, अतुलित सुन्दर परमात्माके प्रति मन लगाना चाहिये, जिसकी सुन्दरताका एक परमाणु पाकर जगत‍्के असंख्य नर-नारी सौन्दर्यके मदमें मतवाले हो रहे हैं—जिस प्रेमसिन्धुकी एक बूँदसे जगत‍्में माता-पिताका सन्तानमें, गुरुका शिष्यमें, स्त्रीका स्वामीमें, स्वामीका स्त्रीमें, मित्रका मित्रमें, भ्रमरका गन्धमें, चकोरका चन्द्रमामें, चातकका मेघमें, कमलका सूर्यमें—इन नाना रूपों और नामोंमें बँटकर भी जो प्रेम नित्य नया बन रहा है, अनादिकालसे अबतक चला आ रहा है, तथापि यह प्रेम कभी पुराना नहीं होता।

हम सबको उस परमात्माकी ओर लगनेकी ही चेष्टा करनी चाहिये। एक दिन इस शरीरको अवश्य छोड़ना होगा, उस समय सब नाते छूट जायँगे। सबसे सम्बन्ध टूट जायगा। जगत‍्का सम्बन्ध अल्प और अनित्य है, वास्तवमें नाटकवत् है। यहाँ तो बड़ी सावधानीसे रहना चाहिये। जैसे नाटकका पात्र नाटककी किसी भी वस्तुको, यहाँतक कि पोशाकको भी अपनी न समझकर रंगमंचपर अपने स्वाँगके अनुसार सावधानीसे अभिनय करता है, जैसे चतुर नमकहलाल और ईमानदार नौकर सचेत और धर्मपर डटा रहकर मालिकका काम करता है, उसी प्रकार परमात्माके नाट्यमंच इस जगत‍्में हमलोगोंको इस जगन्नाटकके उस एकमात्र स्वामी और सूत्रधार प्रभुके आज्ञानुसार उसीके लिये, उसीकी शक्तिके सहारे, उसीके गुणोंका स्मरण करते हुए, अपना-अपना कर्तव्यकर्म बड़ी सावधानीसे निर्लेप रहकर करना चाहिये। जिसके जिम्मे जो काम हो वह वही करे, पर करे प्रभुके लिये और प्रभुका समझकर, किसी भी वस्तुपर अपनी सत्ता न समझे, यहाँतक कि अपनेपर भी अपनी सत्ता नहीं! भगवान‍्की इस आज्ञाको सदा स्मरण रखना चाहिये—

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
(गीता ९। २७)

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