श्रीरुक्मिणीका अनन्य प्रेम
श्रीमद्भागवतमें अनिर्वचनीय प्रेमके दो चरित्र बड़े ही पुनीत और अलौकिक हैं। प्रथम प्रेमकी जीवित प्रतिमा प्रात:स्मरणीया गोपबालाओंका और दूसरा भगवती श्रीरुक्मिणीजीका। विदर्भदेशके राजा भीष्मकके रुक्मी, रुक्मरथ, रुक्मबाहु, रुक्मकेश और रुक्ममाली नामक पाँच पुत्र और रुक्मिणी नामक सबसे छोटी एक कन्या थी। रुक्मिणीजी साक्षात् रमा थीं, भगवान्में उनका चित्त तो स्वाभाविक ही अनुरक्त था; परन्तु लीलासे नारदादि तत्त्वज्ञानियोंके द्वारा भगवान् श्रीकृष्णके माहात्म्य, रूप, वीर्य, गुण, शोभा और वैभवका अनुपम वर्णन सुनकर अपने मनमें दृढ़ निश्चय कर लिया कि श्रीकृष्ण ही मेरे पति हैं। आरम्भमें साधकको अपना ध्येय निश्चित करनेकी ही आवश्यकता होती है। ध्येय निश्चित होनेके पश्चात् उसकी प्राप्तिके लिये साधन किये जाते हैं। जिसका लक्ष्य ही स्थिर नहीं, वह निशाना क्या मारेगा? भगवती रुक्मिणीने दृढ़ निश्चय कर लिया कि जो कुछ भी हो, चाहे जितना लोभ या भय आवे, मुझे तो श्रीकृष्णको ही अपने जीवनाधाररूपमें प्राप्त करना है। भक्त भगवान्को जैसे भजता है भगवान् भी भक्तको वैसे ही भजते हैं। श्रीरुक्मिणीने जब श्रीकृष्णका माहात्म्य सुनकर उनको पतिरूपसे वरण किया तो उधर भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रने भी रुक्मिणीको बुद्धि, लक्षण, उदारता, रूप, शील और गुणोंकी खान समझकर—योग्य अधिकारी मानकर—पत्नीरूपसे ग्रहण करनेका निश्चय कर लिया। श्रीरुक्मिणीके बड़े भाई रुक्मी भगवान् श्रीकृष्णसे द्वेष रखते थे; उन्होंने अपने पिता, माता और भाईयोंकी इच्छाके विपरीत रुक्मिणीजीका विवाह श्रीकृष्णसे न कर शिशुपालसे करना चाहा और उन्हींके इच्छानुसार सम्बन्ध पक्का भी हो गया। जब यह समाचार श्रीरुक्मिणीजीको मिला तब उन्हें बड़ा दु:ख हुआ, उन्होंने अपना जीवन पहलेसे ही भगवान् पर न्योछावर कर दिया था। अब इस विपत्तिमें पड़कर उन्होंने अपने मनकी दशा श्रीकृष्णके प्रति निवेदन करनेके अभिप्रायसे एक छोटा-सा पत्र लिखा और उसे एक विश्वासी वृद्ध ब्राह्मणके हाथ द्वारका भेज दिया। पत्र क्या था, प्रेम-समुद्रके कुछ अमूल्य और अनुपम रत्नोंकी एक मंजूषा थी। थोड़े-से शब्दोंमें अपना हृदय खोलकर रख दिया गया था। नवधा भक्तिके अन्तिम सोपान आत्मनिवेदनका सुन्दर स्वरूप उसके अंदर था। ब्राह्मण देवता द्वारका पहुँचकर श्रीकृष्णचन्द्रके द्वारपर उपस्थित हुए। द्वारपाल उन्हें अंदर ले गया। भगवान् श्रीकृष्णने ब्राह्मण देवताको देखते ही सिंहासनसे उतरकर उनकी अभ्यर्थना की। अपने हाथों आसन दिया और आदरपूर्वक बैठाकर भलीभाँति उनकी पूजा की। ब्राह्मणके भोजन-विश्रामादि कर चुकनेपर भगवान् श्रीकृष्ण उनके पास जाकर बैठ गये और अपने कोमल करकमलोंसे उनके पैर दबाते-दबाते धीरभावसे कुशल-समाचार पूछनेके बाद ब्राह्मणसे बोले—‘महाराज! मैं उन सब ब्राह्मणोंको बारम्बार मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ जो सदा सन्तुष्ट रहते हैं, जो दरिद्र होनेपर भी अपना जीवन सुखसे बिताते हैं, जो साधु हैं, प्राणिमात्रके परम बन्धु हैं और जो निरभिमानी तथा शान्त हैं। ब्रह्मन्! आप अपने राजाके राज्यमें सुखसे तो रहते हैं? जिस राजाके राज्यमें प्रजा सुखी है, वही राजा मुझको प्रिय है।’ इस प्रकार कुशल-प्रश्नके बहानेसे भगवान्ने ब्राह्मण और क्षत्रियोंके उस धर्मको बतला दिया जिससे वे भगवान्के प्रियपात्र बन सकते हैं। ब्राह्मणने सारी कथा संक्षेपमें सुनाकर वह प्रेम-पत्रिका भगवान्को दिखलायी जिसपर श्रीरुक्मिणीके द्वारा अपनी प्रेम-मुद्रिकाकी मुहर लगायी हुई थी। भगवान्की आज्ञा पाकर ब्राह्मणने पत्र पढ़ सुनाया। पत्रमें लिखा था—
‘हे त्रिभुवनकी सुन्दरताके समुद्र! हे अच्युत! जो कानोंके छिद्रोंद्वारा हृदयमें प्रवेश करके (तीनों प्रकारके) तापोंको शान्त करते हैं, आपके वे सब अनुपम गुण और नेत्रधारियोंकी दृष्टिका जो परम लाभ है ऐसे आपके मनमोहन स्वरूपकी महिमा सुनकर मेरा चित्त आपपर आसक्त हो गया है, लोकलज्जाका बन्धन भी उस (प्रेमके प्रवाह)-को नहीं रोक सकता। हे मुकुन्द! ऐसी कौन कुलवती, गुणवती और बुद्धिमती कामिनी है जो आप-जैसे अतुलनीय कुल, शील, स्वरूप, विद्या, अवस्था, सम्पत्ति और प्रभावसम्पन्न पुरुषको विवाह-समय उपस्थित होनेपर पतिरूपसे वरनेकी अभिलाषा नहीं करेगी? हे नरश्रेष्ठ! आप ही तो मनुष्योंके मनको रमानेवाले हैं। अतएव हे विभो! मैंने आपको पति मानकर आत्मसमर्पण कर दिया है, अतएव आप यहाँ अवश्य पधारकर मुझे अपनी धर्मपत्नी बनाइये। हे कमलनयन! मैं अब आपकी हो चुकी। क्या सियार कभी सिंहके भागको हर ले जा सकता है? मैं चाहती हूँ, आप वीरश्रेष्ठके भाग—मुझको सियार—शिशुपाल यहाँ आकर स्पर्श भी न कर सके। यदि मैंने पूर्त (कुँआ, बावड़ी आदि बनवाना), इष्ट (अग्निहोत्रादि), दान, नियम, व्रत एवं देवता, ब्राह्मण और गुरुओंके पूजनद्वारा भगवान्की कुछ भी आराधना की है तो भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं आकर मेरा पाणिग्रहण करें और दमघोषनन्दन (शिशुपाल) आदि दूसरे राजा मेरे हाथ भी न लगा सकें। हे अजित! परसों विवाहकी तिथि है, अतएव आप एक दिन पहले ही गुप्तरूपसे पधारिये, फिर पीछेसे आये हुए अपने सेनापतियोंको साथ लेकर शिशुपाल, जरासन्धादिकी सेनाको नष्ट-भ्रष्ट कर बलपूर्वक मुझे ग्रहण कीजिये, यही मेरी विनय है। यदि आप यह कहें कि तुम तो अन्त:पुरमें रहती हो तुम्हारे बन्धुओंको मारे बिना मैं किस तरह तुम्हारे साथ विवाह कर सकता हूँ या तुम्हें हरकर ले जा सकता हूँ? तो मैं आपको उसका उपाय बताती हूँ, हमारे कुलकी सनातन रीतिके अनुसार कन्या पहले दिन कुलदेवी भवानीकी पूजा करनेके लिये बाहर मन्दिरमें जाया करती है वहाँ मुझे हरण करना सुलभ है। इतना लिखनेके पश्चात् अन्तमें देवी रुक्मिणी लिखती हैं—
यस्याङ्घ्रिपंकजरज:स्नपनं महान्तो
वाञ्छन्त्युमापतिरिवात्मतमोऽपहत्यै।
यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रसादं
जह्यामसून् व्रतकृशाञ्छतजन्मभि: स्यात्॥
(श्रीमद्भा० १०। ५२। ४३)
‘हे कमललोचन! उमापति महादेव तथा उनके समान दूसरे ब्रह्मादि महान् लोग अपने अन्त:करणका अज्ञान मिटानेके लिये आपके जिस चरण-रजके कणोंसे स्नान करनेकी प्रार्थना करते रहते हैं, यदि मैं उस प्रसादको नहीं पा सकी तो निश्चय समझियेगा कि मैं व्रत-उपवासादिके द्वारा शरीरको सुखाकर इन व्याकुल प्राणोंको त्याग दूँगी। (यों बारम्बार करते रहनेपर अगले) सौ जन्मोंमें तो आपका प्रसाद प्राप्त होगा ही।’
कुछ लोग कहते हैं कि इस पत्रमें कौन-सी बड़ी बात है? किसी पुरुषके रूप-गुणपर मुग्ध होकर घरवालोंकी इच्छाके विरुद्ध उसे प्रेम-पत्र लिखना कौन-सी आदर्श बात है? परंतु ऐसा कहनेवाले सज्जन भूलते हैं। श्रीरुक्मिणीजीने किसी पार्थिव रूप-गुणपर मुग्ध होकर यह पत्र नहीं लिखा, पत्रके अन्तिम श्लोकसे स्पष्ट सिद्ध है कि रुक्मिणी किसी राजा या बलवान् कृष्णको नहीं जानती और चाहती थी। रुक्मिणी जानती थी देवदेव महादेवादिद्वारा वन्दितचरण कमललोचन साक्षात् भगवान् श्रीकृष्णको! रुक्मिणीका त्याग और निश्चय देखिये। इष्ट, पूर्त, दान, नियम, व्रत और देवता, गुरु-ब्राह्मणोंकी पूजा आदि सबका फल रुक्मिणी केवल एक ही चाहती है। यही तो भक्तका निष्काम कर्म है। भक्तके द्वारा दान, यज्ञ, तप आदि सभी कर्म किये जाते हैं, परन्तु किसलिये? धन, जन, भोग, स्वर्गादिके लिये नहीं केवल भगवान्को पानेके लिये। घर, द्वार, परिवार और भाई-बन्धुका ममत्व त्यागकर इसी प्रकार तो भगवत्प्राप्तिके लिये भक्तको लोकलज्जा और मर्यादाका बाँध तोड़कर आत्मसमर्पण करना पड़ता है। इतनेपर भी यदि भगवान् नहीं मिलते तो भक्त ऊबता नहीं। उसका निश्चय है कि ‘आज नहीं तो क्या है, कभी सौ जन्मोंमें तो उनका प्रसाद प्राप्त होगा ही।’ जहाँ इतना विशुद्ध और अनन्य प्रेम होता है वहाँ भगवान् आये बिना कभी रह नहीं सकते। अतएव रुक्मिणीजीका पत्र सुनते ही भगवान्ने ‘भक्तकी भीर’ हरनेके लिये निश्चय कर लिया और आप ब्राह्मणसे कहने लगे—‘भगवन्! जैसे रुक्मिणीका चित्त मुझमें आसक्त है वैसे ही मेरा भी मन उसीमें लग रहा है। मुझे तो रातको नींद भी नहीं आती.....मैंने निश्चय कर लिया है कि युद्धमें अधम क्षत्रियोंकी सेनाका मन्थनकर उसके बीचसे, काष्ठके भीतरसे अग्निशिखाके समान, मुझको एकान्तभावसे भजनेवाली अनिन्दितांगी राजकुमारी रुक्मिणीको ले आऊँगा।’ वही भक्त सबसे श्रेष्ठ समझा जाता है जो अपने अन्तरके प्रेमकी प्रबल टानसे भगवान्के चित्तमें उससे मिलनेके लिये अत्यन्त व्याकुलता उत्पन्न कर दे। इस प्रकारकी अवस्थामें भगवान् भक्तसे मिले बिना एक क्षण भी सुखकी नींद नहीं सो सकते। जैसे भक्त अपने प्रियतम भगवान्के विरहमें तारे गिनता हुआ रात बिताता है वैसे ही भगवान् भी उसीके ध्यानमें जागा करते हैं। ऐसी स्थिति हो जानेपर प्राप्तिमें विलम्ब नहीं होता। भगवान् दौड़ते हैं इस प्रकारके भक्तको सादर ग्रहण करनेके लिये!
भगवान्की रुख देखकर चतुर सारथि दारुक उसी क्षण शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक नामक चारों घोड़े जोतकर रथ ले आया और भगवान्ने उसपर सवार हो रथ बहुत शीघ्र हाँकनेकी आज्ञा देकर विदर्भ-देशके कुण्डिनपुरको प्रस्थान किया। ब्राह्मण देवता तो साथ थे ही।
श्रीरुक्मिणीजीने सारी रात जागते बितायी। सूर्योदय होनेपर आया, ब्राह्मण नहीं लौटे, रुक्मिणीकी विरह-व्यथा उत्तरोत्तर बढ़ रही थी, वह मनमें इस प्रकार चिन्ता करने लगी कि ‘अहो! रात बीत गयी, सबेरे मुझ अभागिनीके विवाहका दिन है। कमललोचन भगवान् श्रीकृष्ण अबतक नहीं आये, न ब्राह्मण देवता ही लौटे। क्या उन अनिन्दितात्मा श्रीकृष्णने मुझमें कहीं कोई निन्दनीय बात देखी है? क्या इसीलिये वे मेरे पाणिग्रहणका उद्योग करके नहीं पधारते? क्या भगवान् विधाता और महादेव मुझ अभागिनीके प्रतिकूल हैं? क्या भगवती गिरिजा, रुद्राणी गौरी भी मेरे अनुकूल नहीं हैं?’ इस प्रकार चिन्ता करती हुई श्रीरुक्मिणीजी, जिनका चित्त केवल गोविन्दकी चिन्तासे ही भरा हुआ है, जिनके नेत्रोंसे आँसू बह रहे हैं, अपने उन नेत्रोंको मूँदकर भगवान् हरिका ध्यान करने लगीं।
प्रेमके उदय होनेपर एक क्षणका वियोग भी भक्तके लिये असह्य हो उठता है। परन्तु उस वियोगकी विकट दशामें वह अपने प्रियतम भगवान् पर कभी नाराज नहीं होता। उस समय वह अपना अन्तर टटोलता है, वह सोचता है कि प्रियतमके पधारनेमें क्यों विलम्ब हो रहा है? क्या मेरे हृदय-सिंहासनके सजानेमें कोई त्रुटि रह गयी है? क्या स्वागतकी तैयारीमें कोई कसर है? इस अवस्थामें भक्त बड़ी सावधानीसे अपने हृदयके गम्भीरतम प्रदेशमें घुसकर चोरकी तरह उसमें छिपे हुए संसार-संस्कारके लेशको भी निकाल देना चाहता है; उसे यह दृढ़ विश्वास रहता है कि मेरी पूरी तैयारी होनेपर तो प्रियतम आये बिना कभी रह नहीं सकते; कहीं-न-कहीं मेरी तैयारीमें ही दोष है। रुक्मिणीजी इसीलिये चिन्ता करती हैं कि श्रीकृष्णने क्या मुझमें कोई निन्दनीय बात देखी है जो प्रेममार्गके प्रतिकूल हो? जब व्याकुलता और बढ़ती है, धैर्य छूटने लगता है, तब वह भक्त सभी उपायोंको काममें लाता है। ऐसे समय ही उसे देवी-देवताओंका स्मरण होता है। जब उनसे भी आश्वासन नहीं मिलता तब हृदय भर आता है, आँखें छल-छल करने लगती हैं, रोमांच हो आता है, चित्त सर्वथा निर्विषय होकर अपने प्रियतमकी एकान्त और अनन्यचिन्ताके विस्तृत सागरमें तरंगकी भाँति तल्लीन और एकरस बन जाता है। बस, यही भक्त और भगवान्के मिलनका शुभ समय होता है और इसी क्षणमें भक्त अपने भगवान्को पाकर सन्तुष्ट, तृप्त, पूर्णकाम और अकाम बनकर तद्रूप हो जाता है।
रुक्मिणीजीके भगवान् श्रीकृष्णके ध्यानमें मग्न होते ही उनकी बाँह, ऊरु, भुजा और नेत्र आदि अंग भावी प्रियकी सूचना देते हुए फड़क उठे और उसी क्षण भगवान् श्रीकृष्णके शुभागमनका प्रिय समाचार लेकर वही वृद्ध ब्राह्मण आ पहुँचे। भगवान्की आगमनवार्ता सुनकर रुक्मिणीजीको जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है। श्रीकृष्ण और बलदेवका आगमन सुनकर रुक्मिणीके पिता राजा भीष्मकने उनके स्वागत और अतिथि-सत्कारका पूरा प्रबन्ध किया। भगवान्की भुवनमोहिनी रूपराशिको निरखकर नगरके नर-नारियोंका चित्त उसीमें रम गया और सभी प्रेमके आँसू बहाते हुए कहने लगे कि यदि हमने कभी कुछ भी सुकृत किया हो तो त्रिलोकीके विधाता अच्युतभगवान् कुछ ऐसा करें कि ये मनमोहन अनूपरूप-शिरोमणि श्रीकृष्ण ही रुक्मिणीका पाणिग्रहण करें। श्रीरुक्मिणीजी अम्बिकाकी पूजाके लिये गयीं, वहाँ देवीका पूजनकर बड़ी-बूढ़ियोंसे आशीर्वाद प्राप्तकर बाहर आकर अपने रथपर चढ़ना ही चाहती थीं कि इतनेहीमें माधव श्रीकृष्णचन्द्रने आकर शत्रुओंकी सेनाके सामने ही गरुड़चिह्नयुक्त अपने रथपर तुरंत ही रुक्मिणीको चढ़ा लिया और चल दिये। लोगोंने पीछा किया, परन्तु किसीकी कुछ भी नहीं चली, भगवान् और बलदेवजी शत्रुओंका दर्प दलनकर देवी रुक्मिणीसहित द्वारकामें आ पहुँचे और वहाँ विधिपूर्वक उनका विवाह-संस्कार सम्पन्न हुआ। श्रीकृष्णको रुक्मिणीसे (जो श्रीलक्ष्मीजीका अवतार हैं) मिलते देखकर पुरवासियोंको परम आह्लाद हुआ। भक्त और भगवान्के मिलन-प्रसंगमें किसे आनन्द नहीं होता?
अनन्यगति श्रीरुक्मिणीजी निरन्तर भगवान्की सेवामें रत रहतीं। एक दिन भगवान् श्रीकृष्ण महाराजने प्रसन्नतापूर्वक मन्द-मन्द मुसकराते हुए रुक्मिणीसे कुछ ऐसी रहस्ययुक्त बातें कहीं, जिनको सुनकर रुक्मिणीजी थोड़ी देरके लिये व्याकुल हो गयीं। अपना समस्त ऐश्वर्य सौंपकर भी भगवान् समय-समयपर भक्तकी यों परीक्षा किया करते हैं, वह इसीलिये कि भक्त कहीं ऐश्वर्यके मदमें मत्त होकर प्रेमकी अनिर्वचनीय स्थितिसे च्युत न हो जाय। यद्यपि श्रीरुक्मिणीजीके लिये ऐसी कोई आशंका नहीं थी, परन्तु भगवान्ने अपने भक्तोंका महत्त्व बढ़ाने और जगत्को सच्चे प्रेमकी अनुपम शिक्षा देनेके लिये रुक्मिणीजीकी वाणीसे भगवत्प्रेमका तत्त्व कहलाना चाहा और इसीलिये उनसे रहस्ययुक्त वचन कहे। भगवान् बोले—‘हे राजकुमारी! लोकपालोंके समान धनसम्पन्न, महानुभाव, श्रीमान् तथा रूप और उदारतासे युक्त महान् बली नरपति तुमसे विवाह करना चाहते थे। कामोन्मत्त शिशुपाल तुम्हें ब्याहनेके लिये बारात लेकर आ पहुँचा था; तुम्हारे भ्राता और पिता भी तुम्हारा विवाह शिशुपालके साथ करनेका निश्चय कर चुके थे, तो भी तुमने सब प्रकारसे अपने योग्य उन राजकुमारोंको छोड़कर, जो किसी बातमें तुम्हारे समान नहीं हैं ऐसे मुझ-जैसेको अपना पति क्यों बनाया? हे सुभ्रु! तुम जानती हो, हम राजाओंके भयसे समुद्र-किनारे आ बसे हैं; क्योंकि हमने बलवानोंसे वैर बाँध रखा है, फिर हम राज्यासनके अधिकारी भी नहीं हैं। जिनका आचरण स्पष्ट समझमें नहीं आ सकता, जो स्त्रियोंके वशमें नहीं रहते, ऐसे हम-सरीखे पुरुषोंकी पदवीका अनुसरण करनेवाली स्त्रियाँ प्राय: कष्ट और दु:ख ही उठाया करती हैं। हे सुमध्यमे! हमलोग स्वयं निष्किंचन (धन-सम्पत्तिरहित) हैं और धन-सम्पत्तिरहित दरिद्र ही हमसे प्रेम करते हैं। धनवान् लोग प्राय: हमको नहीं भजते। जो लोग धन, जाति, ऐश्वर्य, आकार और अवस्थामें परस्पर समान हों, उन्हींसे मित्रता और विवाह करना शोभा देता है। उत्तम और अधमोंमें विवाह या मित्रता कभी उचित नहीं होती। हे रुक्मिणी! तुम दूरदर्शिनी नहीं हो, इसीसे बिना जाने तुमने मुझ-जैसे गुणहीनको नारदादिके मुखसे प्रशंसा सुनकर वर लिया, वास्तवमें तुमको धोखा हुआ। यदि तुम चाहो तो अब भी जिसके संगसे तुम इस लोक और परलोकमें सुख प्राप्त कर सको, ऐसे किसी अन्य योग्य क्षत्रियको ढूँढ़ सकती हो। तुम्हारा हरण तो हमने शिशुपाल, दन्तवक्त्र आदि घमण्डी राजा और हमसे वैरभाव रखनेवाले तुम्हारे भाई रुक्मीका दर्प-दलन करनेके लिये किया था; क्योंकि बुरे लोगोंका तेज नाश करना ही हमारा कर्तव्य है।’ इतना कहकर अन्तमें भगवान् बोले—
उदासीना वयं नूनं न स्त्र्यपत्यार्थकामुका:।
आत्मलब्ध्याऽऽस्महे पूर्णा गेहयोर्ज्योतिरक्रिया:॥
(श्रीमद्भा० १०। ६०। २०)
‘हे राजकुमारी! हम आत्मलाभसे ही पूर्ण होनेके कारण स्त्री, पुत्र और धनादिकी कामना नहीं रखते। हम उदासीन हैं, देह और गृहमें हमारी आसक्ति नहीं है। जैसे दीपककी ज्योति केवल प्रकाश करके साक्षीमात्र रहती है वैसे ही हम समस्त क्रियाओंके केवल साक्षीमात्र हैं।’
भगवान्के इस रहस्यपूर्ण कथनपर हम क्या कहें; भगवान्ने इस बहाने भक्तको अपना वास्तविक स्वरूप और भक्तका कर्तव्य तथा उसके लक्षण बतला दिये। भगवती रुक्मिणीको (तुम ऐसे किसी अन्य योग्य क्षत्रियको ढूँढ़ सकती हो) इन शब्दोंसे बड़ी मर्मवेदना हुई, वे मस्तक अवनत करके रोने लगीं, अश्रुधारासे उनका शरीर भीग गया। दारुण मनोवेदनासे कण्ठ रुक गया और अन्तमें वे अचेत होकर गिर पड़ीं। भगवान् रुक्मिणीकी इस प्रेम-दशाको देख मुग्ध होकर तुरन्त पलंगसे उठे और चतुर्भुज होकर दो हाथोंसे रुक्मिणीको उठा लिया और दो करकमलोंसे उनके बिखरे हुए केशोंको सँवारकर आँसू पोंछने लगे। रुक्मिणीजीको चेत हुआ तब भगवान् बोले—‘राजकुमारी! मैं तो हँसी करता था, तुम्हारे चरित्रको मैं भलीभाँति जानता हूँ, तुम्हारे मुखसे प्रणयकोपके प्रकट करनेवाली बातें सुननेके लिये ही मैंने इतनी बातें कही थीं।’
भगवान् भक्तकी परीक्षा तो बड़ी कठिन लिया करते हैं, परन्तु फिर तुरन्त सँभाल भी लेते हैं। भगवान्ने रुक्मिणीको बहुत समझाकर धैर्य बँधाया, तब भगवान्के चरणकमलोंकी नित्य अनुरागिणी देवी रुक्मिणी बड़े मधुर शब्दोंमें भगवान्से कहने लगीं—‘हे कमलनयन! आपने जो ऐसा कहा कि ‘मैं तुम्हारे समान नहीं था, तुमने क्यों मेरे साथ विवाह किया?’ सो आपका कथन सर्व-सत्य है, मैं अवश्य ही आपके योग्य नहीं हूँ। कहाँ ब्रह्मादि तीनों देवोंके या तीनों गुणोंके नियन्ता दिव्य शक्तिसम्पन्न आप साक्षात् भगवान् और कहाँ मैं अज्ञानी तथा सकाम पुरुषोंके द्वारा पूजी जानेवाली गुणमयी प्रकृति! हे प्रभो! आपका यह कहना कि ‘हम राजाओंसे डरकर समुद्रकी शरणमें आकर बसे हैं’ सर्वथा सत्य है; क्योंकि शब्दादि गुण ही राजमान (प्रकाश पानेवाले) होनेके कारण ‘राजा’ हैं, उनके भयसे ही मानो समुद्रके सदृश अगाध विषयशून्य भक्तोंके हृदयदेशमें आप चैतन्यघन आत्मारूपसे प्रकाशित हैं। आपका यह कहना भी ठीक है कि ‘हमने बलवानोंसे वैर बाँध रखा है और हम राज्यासनके अधिकारी नहीं हैं।’ बहिर्मुख हुई प्रबल इन्द्रियोंके साथ अथवा जिनकी प्रबल इन्द्रियाँ विषयोंमें आसक्त हैं उनसे कभी आपको प्रीति नहीं है। हे नाथ! राज्यासन तो घोर अविवेकरूप है, मनुष्य राज्यपदको पाकर ज्ञानशून्य कर्तव्यविमूढ़ होकर अंधा-सा बन जाता है, ऐसे राजपदको तो आपके सेवकोंने ही त्याग दिया है फिर आपकी तो बात ही क्या है? हे भगवन्! ‘आपने कहा कि हमारे आचरण स्पष्ट समझमें नहीं आ सकते’ सो सत्य है, आपके चरणकमलके मकरन्दका सेवन करनेवाले मुनियोंके ही आचरण स्पष्ट समझमें नहीं आते, पशु-समान अज्ञानी मनुष्य उनकी तर्कना भी नहीं कर सकते। जब आपके अनुगामी भक्तोंका चरित्र ही इतना अचिन्त्य और अलौकिक है तब आप—जो साक्षात् ईश्वर हैं, उनके चरित्रका दुर्बोध या अलौकिक होना कोई आश्चर्य नहीं। आपने कहा कि ‘हम निष्किञ्चन हैं, निष्किञ्चन ही हमसे प्रेम करते हैं’ सो हे स्वामी! जिन ब्रह्मादि देवताओंकी सभी पूजा करते हैं वे भी जब सादर आपको पूजते हैं, तब आप निष्किञ्चन तो नहीं हैं, परन्तु एक तरहसे आप निष्किञ्चन ही हैं, क्योंकि आपसे भिन्न कुछ है ही नहीं। जो लोग धन-सम्पत्तिके मदसे अंधे हो रहे हैं और केवल अपने शरीरके पालन-पोषणमें ही रत हैं वे आप कालरूपको नहीं जानते। आप पूजनीयोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, जगत्-पूज्य ब्रह्मादि आपको इष्टदेव मानकर पूजते हैं। उनके आप प्रिय हैं और वे आपके प्रिय हैं। आप सम्पूर्ण पुरुषार्थ और परमानन्दरूप हैं, आपको प्राप्त करनेकी अभिलाषासे श्रेष्ठ बुद्धिवाले लोग सब वस्तुओंका त्याग कर देते हैं। हे विभो! ऐसे श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुषोंसे ही आपका सेव्य-सेवक-सम्बन्ध उचित है; स्त्री-पुरुषरूप सम्बन्ध योग्य नहीं है। कारण, इस सम्बन्धमें आसक्तिके कारण प्राप्त हुए सुख-दु:खोंसे व्याकुल होना पड़ता है, इसलिये आपका यह कहना कि ‘समान लोगोंमें ही मित्रता और विवाह होना चाहिये’ सो ठीक ही है। आपने कहा कि ‘नारदादिके मुखसे प्रशंसा सुनकर मुझे वर लिया’ सो भगवन्! ऐसे सर्वत्यागी मुनिगण ही आपके प्रभावको जानते और कहते हैं, आप जगत्के आत्मा हैं और भक्तोंको आत्मस्वरूप प्रदान करते हैं, यह समझकर ही मैंने आपको वरा है। आपने कहा कि ‘तुम दूरदर्शिनी नहीं हो’ सो प्रभो! आपकी भ्रुकुटियोंके बीचसे उत्पन्न कालके वेगसे जिनके समस्त विषय-भोग नाश हो जाते हैं, ऐसे ब्रह्मादि देवताओंको भी मैंने पति बनाना उचित और श्रेष्ठ नहीं समझा तो फिर शिशुपालादि तुच्छ लोगोंकी बात ही क्या है? हे गदाग्रज! हे प्रभो! सिंह जैसे अपनी गर्जनासे पशुपालकोंको भगाकर अपना आहार ले आता है, वैसे ही आप शार्ङ्गधनुषके शब्दसे राजाओंको भगाकर अपना भाग, जो मैं हूँ, उसे हर लाये हैं, ऐसे आप उन राजाओंके भयसे समुद्रकी शरणमें आकर बसे हैं—यह कहना ठीक नहीं है। आपने कहा कि ‘ऐसे पुरुषोंकी पदवीका अनुसरण करनेवाली स्त्रियाँ दु:ख उठाया करती हैं’ सो हे कमललोचन! अंग, पृथु, भरत, ययाति और गय आदि राजाओंके सिरमौर महाराजाओंने आपके भजनकी इच्छासे चक्रवर्ती राज त्याग दिया और आपकी पदवी पानेके लिये वनोंमें जाकर तपमें लग गये। क्या उनको कोई कष्ट मिला? क्या वे आपको नहीं प्राप्त हुए? वे तो सब कष्टोंसे पार होकर आपकी चरण-पदवी प्राप्तकर आपके परमानन्दस्वरूपमें लीन हो गये हैं। भगवन्! आप सब गुणोंकी खान हैं। आपके चरणकमलोंकी मकरन्द-सुगन्धका वर्णन साधुगणोंद्वारा किया गया है, लक्ष्मी सदा उसका सेवन करती हैं, भक्तजन उससे मोक्ष पाते हैं, ऐसे चरणकमलोंके मकरन्दकी सुगन्ध पाकर अपने प्रयोजनको विवेकबुद्धिसे देखनेवाली कौन ऐसी स्त्री होगी जो आपको छोड़कर किसी मरणशील और कालके भयसे सदा शंकित दूसरे पार्थिव पुरुषका आश्रय लेगी? अतएव आपने जो यह कहा कि ‘दूसरा पुरुष ढूँढ़ सकती हो’ सो ठीक नहीं है। आप जगत्के अधिपति और सबके आत्मा हैं। इस लोक और परलोकमें सब अभिलाषाएँ पूरी करनेवाले हैं, मैंने योग्य समझकर ही आपको पति बनाया है। मेरी यही प्रार्थना है कि मैं देवता, पशु, पक्षी आदिकी किसी भी योनिमें भ्रमण करूँ परन्तु सर्वत्र आपहीके चरणोंकी शरणमें रहूँ। नाथ! जो लोग आपको भजते हैं, आप समदर्शी और नि:स्पृह होते हुए भी उनको भजते हैं और आपके भजनसे ही इस असार संसारसे मुक्ति मिलती है। हे अच्युत! हे शत्रुनाशन! जो स्त्रियोंके घरोंमें गधेके समान बोझा ढोते हैं, बैलकी तरह नित्य गृहस्थीके कामोंमें जुते रहकर क्लेश भोगते हैं, कुत्तेके समान जिनका तिरस्कार होता है, बिलावकी तरह जो दीन बने हुए गुलामोंकी भाँति स्त्री आदिकी सेवामें लगे रहते हैं ऐसे शिशुपालादि राजा उसी (अभागिनी) स्त्रीके पति हों जिसके कानोंमें शिव-ब्रह्मादिकी सभाओंमें आदर पानेवाली आपकी पवित्र कथाओंने प्रवेश नहीं किया हो। हे स्वामी! जिसने आपके चरणारविन्दकी मकरन्द-सुगन्धको कभी नहीं पाया अर्थात् जिसने आपके चरणोंमें मन लगानेका आनन्द कभी नहीं पाया, वही मूढ़ स्त्री बाहर त्वचा, दाढ़ी, मूँछ, रोम, नख और केशोंसे ढके हुए तथा भीतर माँस, हड्डी, रुधिर, कृमि, विष्ठा, कफ, पित्त और वातसे भरे हुए जीवन्मृत (जीते ही मुर्देके समान) पुरुषको पतिभावसे भजेगी। हे कमलनयन! आपने कहा कि ‘हम उदासीन हैं, आत्म-त्यागसे पूर्ण हैं’ सो सत्य है। आप निजानन्दस्वरूपमें रमण करनेके कारण मुझपर अत्यन्त अधिक दृष्टि नहीं रखते तथापि मेरी यही प्रार्थना है कि आपके चरणोंमें मेरा चित्त सदा लगा रहे। आप इस जगत्की वृद्धिके लिये उत्कृष्ट रजोगुणको स्वीकार करते हुए मुझ (प्रकृति)-पर दृष्टि डालते हैं, उसीको मैं परम अनुग्रह मानती हूँ। प्रभो! मैं आपके कथनको मिथ्या नहीं मानती; जगत्में कई स्त्रियाँ ऐसी हैं जो स्वामीके रहते भी अन्य पुरुषपर आसक्त हो जाती हैं। पुंश्चली स्त्रियोंका मन विवाह हो जानेपर भी नये-नये पुरुषोंपर आसक्त होता रहता है; किन्तु चतुर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वे ऐसी असती स्त्रियोंसे विवाह कभी न करें; क्योंकि ऐसी स्त्रियाँ दोनों कुलोंको कलंकित करती हैं जिससे स्त्रीके साथ ही पुरुषकी भी इस लोकमें अकीर्ति और परलोकमें बुरी गति होती है।’
इस प्रकार भगवान्को तत्त्वसे जाननेवाली प्रेमकी प्रत्यक्ष मूर्ति देवी रुक्मिणीजीने अपने भाषणमें भगवान्का स्वरूप, माहात्म्य, भगवत्प्राप्तिके उपाय, भक्तोंकी निष्ठा, भक्तोंके कर्तव्य और भगवान्से विमुख अधम जीवोंकी दशा तथा उनकी गतिका वर्णन किया। देवी रुक्मिणीके इस भाषणसे भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और सकामभावकी निन्दा, निष्कामकी प्रशंसा तथा सब कुछ छोड़कर प्रेमसे भगवत्प्राप्तिके लिये व्याकुल रहनेवाले भक्तोंका महत्त्व बतलाते हुए उन्होंने कहा—
दूतस्त्वयाऽऽत्मलभने सुविविक्तमन्त्र:
प्रस्थापितो मयि चिरायति शून्यमेतत्।
मत्वा जिहास इदमंगमनन्ययोग्यं
तिष्ठेत तत्त्वयि वयं प्रतिनन्दयाम:॥
(श्रीमद्भा० १०। ६०। ५७)
‘तुमने मुझको ही वरनेका दृढ़ निश्चय करके अपने प्रणकी सूचना देनेके लिये मेरे पास दूत भेजा और जब मेरे आनेमें कुछ विलम्ब हुआ तब तुमने सब जगत्को शून्य देखकर यह विचार किया कि यह शरीर और किसीके भी योग्य नहीं है। इसका न रहना ही उत्तम है, अतएव मैं तुम्हारे प्रेमका बदला चुकानेमें असमर्थ हूँ। तुमने जो किया सो तुम्हारे ही योग्य है, हम तुम्हारे इस सर्वोच्च प्रेम-भावका अभिनन्दन करते हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण और भगवती रुक्मिणीके इस संवादपर टीका करनेकी हममें कोई योग्यता नहीं और न हम अपना अधिकार ही समझते हैं। भक्त साधक बारम्बार इस संवादको मन लगाकर पढ़ें, मनन करें और अपना कर्तव्य निश्चित करें।