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गीता और भगवान् श्रीकृष्ण

ब्रह्माण्डानि बहूनि पंकजभवान्
प्रत्यण्डमत्यद‍्भुतान्
गोपान्वत्सयुतानदर्शयदजं
विष्णूनशेषांश्च य:।
शम्भुर्यच्चरणोदकं स्वशिरसा
धत्ते च मूर्तित्रयात्
कृष्णो वै पृथगस्ति कोऽप्यविकृत:
सच्चिन्मयो नीलिमा॥
कृपापात्रं यस्य त्रिपुररिपुरम्भोजवसति:
सुता जह्नो: पूता चरणनखनिर्णेजनजलम्।
प्रदानं वा यस्य त्रिभुवनपतित्वं विभुरपि
निदानं सोऽस्माकं जयति कुलदेवो यदुपति:॥
(शंकराचार्य)
शृणु सखि कौतुकमेकं नन्दनिकेतांगने मया दृष्टम्।
गोधूलिधूसरांगो नृत्यति वेदान्तसिद्धान्त:॥

शुद्ध सच्चिदानन्दघन नित्य निर्विकार अज अविनाशी घट-घटवासी पूर्णब्रह्म परमात्मा लीलामय भगवान् श्रीकृष्णके चारु चरणारविन्दोंकी परमपावनी भवभयहारिणी ऋषि-मुनिसेविता सुरासुर-दुर्लभ भक्तजन-दिव्यनेत्रांजनस्वरूपा चरणधूलिको असंख्य नमस्कार है, जिसके एक कणप्रसादसे अनादिकालीन त्रितापतप्त मायामोहित जीव समस्त बन्धनोंसे अनायास ही मुक्त होकर लीलामयकी नित्य नूतन मधुर लीलामें सदैव सम्मिलित रहनेका प्रत्यक्ष अनुभव कर अपार आनन्दाम्बुधिमें सदाके लिये निमग्न हो जाता है। साथ ही पूर्ण ब्रह्मकी उस पूर्ण ज्ञानमयी वाङ्मयी मूर्ति श्रीमद्भगवद‍्गीताके प्रति अनेक नमस्कार है जिसके किंचित् अध्ययनमात्रसे ही मनुष्य सुदुर्लभ परमपदका अधिकारी हो जाता है। गीता भगवान‍्की दिव्य वाणी है, वेद तो भगवान‍्का नि:श्वासमात्र हैं; परन्तु गीता तो स्वयं आपके मुखारविन्दसे निकली हुई त्रितापहारिणी दिव्य सुधा-धारा है। गीतानायक भगवान् श्रीकृष्ण, गीताके श्रोता अधिकारी भक्त-शिरोमणि महात्मा अर्जुन और भगवती भागवती गीता तीनोंके प्रति पुन:-पुन: नमस्कार है।

नमो नमस्तेऽस्तु सहस्रकृत्व:
पुनश्च भूयोऽपि नमो नमस्ते॥
नम: पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते
नमोऽस्तु ते सर्वत एव सर्व।

भगवान‍्का तत्त्व भक्तिसे जाना जाता है बुद्धिवादसे नहीं

विश्वके जीवोंका परम सौभाग्य है कि उन्हें श्रीकृष्ण-नाम-कीर्तन, श्रीकृष्ण-लीला-श्रवण और श्रीकृष्णोपदेश-अध्ययनका परम लाभ मिल रहा है। भगवान् श्रीकृष्ण जीवोंपर दया करके ही पूर्णरूपसे द्वापरके अन्तमें अवतीर्ण हुए थे। मनुष्य-बुद्धिका मिथ्या गर्व आजकल बहुत ही बढ़ गया है, इसीसे भगवान् श्रीकृष्णकी पूर्ण ईश्वरता और उनके पूर्ण अवतारपर लोग शंका कर रहे हैं, यह जीवोंका परम दुर्भाग्य समझना चाहिये कि आज स्वयं भगवान‍्के अवतार और उनकी लीलाओंपर मनमानी टीका-टिप्पणियाँ करनेका दु:साहस किया जाता है और इसीमें ज्ञानका विकास माना जाता है। कुछ लोग तो यहाँतक मानते और कहते हैं कि भगवान‍्का अवतार कभी हो नहीं सकता। क्यों नहीं हो सकता? इसीलिये कि हमारी बुद्धि भगवान‍्का मनुष्यरूपमें अवतार होना स्वीकार नहीं करती। वाह री बुद्धि! जो बुद्धि क्षण-क्षणमें बदल सकती है, जिस बुद्धिका निश्चय तनिकसे भय या उद्वेगका कारण उपस्थित होते ही परिवर्तित हो जाता है, जो बुद्धि आज जिस वस्तुमें सुख मानती है, कल उसीमें दु:खका अनुभव करती है, जो बुद्धि भविष्य और भूतका यथार्थ निर्णय ही नहीं कर सकती और जो बुद्धि निरन्तर मायाभ्रममें पड़ी हुई है, वह बुद्धि प्रकृतिके प्रकृत स्वामी परमात्माके कर्तव्य, उनकी अपरिमित शक्ति-सामर्थ्यका निर्णय करे और उनको अपने मनोऽनुकूल नियमोंकी सीमामें आबद्ध रखना चाहे, इससे अधिक उपहासास्पद विचार और क्या हो सकता है? अनादिकालसे जीव परमानन्दरूप परमात्माकी खोजमें लगा है, परमात्माकी प्राप्तिके लिये वह मनुष्य-जीवन धारण करता है, परमात्माकी प्राप्ति परमात्माको जाननेसे होती है, इसके लिये और कोई भी साधन नहीं है—‘तमेव विदित्वातिमृत्युमेति, नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।’ परन्तु उनका जानना अत्यन्त ही कठिन है। कारण, उनका स्वरूप अचिन्त्य है, मनुष्य अपने बुद्धिबलसे भगवान‍्को कभी नहीं जान सकता, वह अपने विद्या, बुद्धिके बलसे जड संसारके तत्त्वोंका ज्ञान प्राप्त कर सकता है, परन्तु परमात्माका ज्ञान बुद्धिके सहारे सर्वथा असम्भव है।

‘न तत्र चक्षुर्गच्छति, न वाग्गच्छति, नो मनो न विद्मो न विजानीमो’, ‘यन्मनसा न मनुते’ (केन०) ‘नैषा तर्केण मतिरापनेया नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन’(कठ०)।

श्रुतियाँ इस प्रकार पुकार रही हैं, फिर क्षणजीवन-स्थायी अस्थिरमति मनुष्य अपने बुद्धिवादके भरोसे परमात्माके परम तत्त्वका पता लगाना चाहता है ‘किमाश्चर्यमत: परम्!’

भगवान‍्को जाननेके बाद फिर कुछ जानना शेष नहीं रह जाता, गीतामें भगवान‍्ने कहा है, ‘मैं जैसा हूँ वैसा तत्त्वसे मुझे जानते ही मनुष्य मुझमें प्रवेश कर जाता है यानी मद्रूपताको प्राप्त हो जाता है।’ (माम् तत्त्वत: अभिजानाति य: च यावान् अस्मि) तत: माम् तत्त्वत: ज्ञात्वा तदनन्तरम् विशते। (गीता १८। ५५) परन्तु इस प्रकार जाननेका उपाय है केवल उनकी परम कृपा। भगवत्कृपाद्वारा ही भक्त उन्हें तत्त्वत: जान सकता है।

यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूॸस्वाम् (कठ०)

भगवान् जिसपर कृपा करते हैं वही उन्हें पाता है, उसीके समीप वे अपना स्वरूप प्रकट करते हैं।

सोइ जानइ जेहि देहु जनाई।
जानत तुम्हहि तुम्हइ होइ जाई॥
तुम्हरिहि कृपा तुम्हहि रघुनंदन।
जानहिं भगत भगत उर चंदन॥

इस कृपाका अनुभव उनकी ‘परा’ (अनन्य) भक्तिसे होता है, जिसके साधन भगवान‍्ने अपने श्रीमुखसे ये बतलाये हैं—

बुद्धॺा विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च॥
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्‍कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:॥
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते॥
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति।
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम्॥
(गीता १८। ५१—५४)

(१) जिसकी बुद्धि तर्कजालसे छूटकर, परम श्रद्धासे ईश्वर-प्रेमके समुद्रमें अवगाहन कर विशुद्ध हो जाती है।

(२) जिसकी धारणामें एक भगवान‍्के सिवा अन्य किसीका भी स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह जाता।

(३) जो अन्त:करणको वशमें कर लेता है।

(४) जो पाँचों इन्द्रियोंके शब्दादि पाँचों विषयोंमें आसक्त नहीं होता।

(५) जो राग-द्वेषको नष्ट कर डालता है।

(६) जो ईश्वरीय साधनके लिये एकान्तवास करता है।

(७) जो केवल शरीर-रक्षणार्थ सदा अल्प भोजन करता है।

(८) जिसने मन, वाणी और शरीरको जीत लिया है।

(९) जिसको इस लोक और परलोकके सभी भोगोंसे नित्य अचल वैराग्य है।

(१०) जो सदा-सर्वदा परमात्माके ध्यानमें मस्त रहता है।

(११) जिसने अहंकार, बल, घमण्ड, काम, क्रोधरूप दुर्गुणोंका सर्वथा त्याग कर दिया है।

(१२) जो भोगके लिये आसक्तिवश किसी भी वस्तुका संग्रह नहीं करता।

(१३) जिसको सांसारिक वस्तुओंमें पृथक्-रूपसे ‘मेरापन’ नहीं रह गया है।

(१४) जिसके अन्त:करणकी चंचलता नष्ट हो गयी है।

(१५) जो सच्चिदानन्दघन परब्रह्ममें लीन होनेकी योग्यता प्राप्त कर चुका है।

(१६) जो ब्रह्मके अन्दर ही अपनेको अभिन्नरूपसे स्थित समझता है।

(१७) जो सदा प्रसन्नहृदय रहता है।

(१८) जो किसी भी वस्तुके लिये शोक नहीं करता।

(१९) जिसके मनमें किसी भी पदार्थकी आकांक्षा नहीं है।

(२०) जो सब भूतोंमें सर्वत्र समभावसे आत्मारूप परमात्माको देखता है।

इन लक्षणोंसे युक्त होनेपर साधक मेरी (भगवान् की) पराभक्तिको प्राप्त होता है, ‘मद्भक्तिं लभते पराम्’ जिससे वह भगवान‍्का यथार्थ तत्त्व जान सकता है।

ईश्वरका अवतार

आजके हम क्षीणश्रद्धा, क्षीणबुद्धि, क्षीणबल, क्षीणपुण्य, साधनहीन, विषय-विलासमोहित, रागद्वेषविजड़ित, काम-क्रोध-मद-लोभपरायण, अजितेन्द्रिय, मानसिक संकल्पोंके गुलाम, अनिश्चितमति, दुर्बलहृदय मनुष्य तर्कके बलसे ईश्वरको तत्त्वसे जाननेका दावा करते हैं और यह कहनेका दु:साहस कर बैठते हैं कि बस, ईश्वर ऐसा ही है। यह अभिमानपूर्ण दुराग्रहके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। ईश्वरकी दिव्य क्रियाओं और उनकी अप्राकृत लीलाओंके सम्बन्धमें युक्तियाँ उपस्थित करके उन्हें सिद्ध या असिद्ध करते जाना नितान्त हास्यजनक बालकोचित कार्य है और इसीलिये यह किया भी जाता है। परमात्माके वे बालक, जैसे अपनी ससीम बुद्धिकी सीमामें परम पिताकी असीम क्रियाशीलता और अपरिमित सामर्थ्यको बाँधनेका ईश्वरकी दृष्टिमें एक विनोदमय खेल करते हैं, इसी प्रकार मैं भी, जो अपने उन बड़े भाइयोंसे सब तरह छोटा हूँ—अपने उन भाइयोंके खेलका प्रतिद्वन्द्वी बनकर परम पिताको और अपने बड़े भाइयोंको अपनी मूर्खतापर हँसाकर प्रसन्न करनेके लिये कुछ खेल रहा हूँ, अन्यथा न तो मैं ईश्वरावतारको सिद्ध करनेकी आवश्यकता समझता हूँ, न उसे सिद्ध करनेका अपना अधिकार ही मानता हूँ, न वैसी योग्यता समझता हूँ, न साधक और सदाचारी होनेका ही दावा करता हूँ और न सांसारिक विद्या-बुद्धि एवं तर्कशीलतामें ही अपनेको दूसरे पक्षके समकक्ष पाता हूँ, ऐसी स्थितिमें मेरा यह प्रयत्न इसीलिये समझना चाहिये कि इसी बहाने भगवान‍्के कुछ नाम आ जायँगे, उनकी दो-चार लीलाओंका स्मरण होगा, जिनके प्रभावसे महापापी मनुष्य भी परमात्माके प्रेमका अधिकारी बन जाता है।

अवतारके विरोधियोंकी प्रधान दलीलें हैं—

(१) पूर्ण परब्रह्मका अवतार धारण करना सम्भव नहीं।

(२) यदि अखण्ड ब्रह्म अवतार धारण करता है तो उसकी अखण्डता नहीं रह सकती जो ईश्वरमें अवश्य रहनी चाहिये।

(३) ब्रह्मके एक ही निर्दिष्ट देश, काल, पात्रमें रहनेपर शेष सृष्टिका काम कैसे चलेगा?

(४) किसी देश, काल, पात्रविशेषमें ही ईश्वरको माननेसे ईश्वरकी महत्ताको संकुचित किया जाता है।

(५) ईश्वर सर्वशक्तिमान् होनेके कारण बिना ही अवतार धारण किये दुष्ट-संहार, शिष्टपालन और धर्मसंस्थापनादि कार्य कर सकता है, फिर उसको अवतार-धारण करनेकी क्या आवश्यकता है।

(६) ईश्वरके मनुष्यरूपमें अवतार लेनेकी कल्पना उसका अपमान करना है।

इसी प्रकार और भी कई दलीलें हैं, इन सबका एकमात्र उत्तर तो यह है और यही मेरी समझसे सबसे उपयुक्त है कि ‘सर्वशक्तिमान् ईश्वरमें सब कुछ सम्भव है, छोटे-बड़े होनेमें उनका कोई संकोच-विस्तार नहीं होता; क्योंकि उनका रूप ही ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ है, उनकी इच्छाका मूल उन्हींके ज्ञानमें है, अत: वे कब, क्यों, कैसे, क्या करते हैं? इन प्रश्नोंका उत्तर वे ही दे सकते हैं। परन्तु उन भगवान‍्को हम-जैसे अतपस्क, अभक्त, जिज्ञासाशून्य, ईश्वरनिन्दक जीवोंके सामने अपनी गोपनीय लीला प्रकाश करनेकी गरज ही क्या है? अस्तु।

अतएव विनोदके भावसे ही उपर्युक्त दलीलोंका कुछ उत्तर दिया जाता है।

दलीलोंका उत्तर

(१) सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्मके लिये ऐसी कोई बात नहीं जो सम्भव न हो। जब नाना प्रकार विचित्र सृष्टिकी रचना, उसका पालन, विधिवत् समस्त व्यवहारोंका संचालन तथा चराचर छोटे-बड़े समस्त भूतोंमें विकसित एवं अविकसित आत्मसत्तारूपमें निवास आदि अद‍्भुत कार्य सम्भव हैं, तब अपनी इच्छासे अवतार धारण करना उनके लिये असम्भव कैसे हो सकता है।

(२) अखण्ड ब्रह्मके अवतार धारण करनेसे उनकी अखण्डतामें कोई बाधा नहीं पहुँचती। परमात्माका स्वरूप जगत‍्के औपाधिक पदार्थोंकी तरह ससीम नहीं है, जगत‍्के पदार्थ एक समय दो जगह नहीं रह सकते, परन्तु परमात्माके लिये ऐसी बात नहीं कही जा सकती। क्या परमात्मा असंख्य जीवोंमें आत्मरूपसे वर्तमान नहीं है? यदि है तो क्या वह खण्ड-खण्ड है? यदि उन्हें खण्ड मानते हैं तो अनेक ब्रह्म मानने पड़ते हैं। परन्तु ऐसी बात नहीं है। वे एक जगह मनुष्य-शरीरमें अवतीर्ण होनेपर भी अनन्तरूपसे अपनी सत्तामें स्थिर रहते हैं। यह सारा संसार ब्रह्मसे उत्पन्न है, सभी जीवोंमें ब्रह्मकी आत्मसत्ता है जो ‘निरंश’ भगवान‍्का सनातन अंश है। ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:’ इतना होनेपर उनकी अखण्डतामें कोई अन्तर नहीं पड़ता, वे सृष्टिके पूर्व जैसे थे वैसे ही अब हैं, उनकी पूर्णता नित्य और अनन्त है। क्योंकि—

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥

—वह पूर्ण है, यह पूर्ण है, पूर्णसे ही पूर्णकी वृद्धि होती है, पूर्णके पूर्णको ले लेनेपर भी पूर्ण ही बच रहता है।

आकाशमें लाखों नगर बस जानेपर भी आकाशकी अखण्डतामें कोई बाधा नहीं पड़ती, यद्यपि दीवारोंसे घिरे हुए अंशविशेषमें छोटे-बड़ेकी कल्पना होती है। आकाशका उदाहरण भी भगवान‍्की अखण्डताको बतलानेके लिये पर्याप्त नहीं है; क्योंकि यह अनन्त और असीम नहीं है, सान्त और ससीम है; परन्तु भगवान् तो नित्य अनन्त और असीम हैं।

यही भगवान‍्की महिमा है, इसीसे वेद उन्हें ‘नेति-नेति’ कहते हैं। ऐसे महामहिम भगवान‍्के सगुण-निर्गुण दोनों ही रूपोंकी कल्पना की जाती है। भगवान‍्के वास्तविक स्वरूपको तो भगवान् ही जानते हैं। अतएव अवतार लेनेपर भी वे अखण्ड ही रहते हैं।

(३) जब भगवान् अपनी सत्तामें सदैव समानभावसे पूर्ण रहते हैं, तब उनके एक जगह अवतार धारण करनेपर उनके द्वारा शेष सृष्टिके कार्य-संचालन होनेमें कोई बाधा आ ही कैसे सकती है?

(४) ईश्वरका संकोच नहीं होता, वे ‘आत्ममायया’ अपनी लीलासे नरदेह धारण करते हैं। किसी निर्दिष्ट देश, काल, पात्रमें प्रकट होनेपर भी वे व्यापक अव्यक्त अग्निकी भाँति समस्त ब्रह्माण्डमें व्याप्त रहते हैं और जिस सत्ताके द्वारा सृष्टि-क्रमका संचालन किया जाता है, उसमें भी स्थित रहते हैं। यही उनकी अलौकिकता है। अवतारवादी लोग ईश्वरको केवल देहदृष्टिसे नहीं पूजते, वे उन्हें पूर्ण परात्पर भगवत्-भावसे ही पूजते हैं। इसलिये वे उनको छोटा नहीं बनाते, वरं कृपावश अपनी महिमासे अपने नित्य स्वरूपमें पूर्णरूपसे स्थित रहते हुए ही हमारे उद्धारके लिये प्रकट हुए हैं, ऐसा समझकर वे उनकी महिमाको और भी बढ़ाते हैं। यहाँपर यह कहा जा सकता है कि आत्मरूपसे तो सभी जीव ईश्वरके अवतार हैं, फिर किसी खास अवतारको ही भगवान् क्यों मानना चाहिये? यद्यपि भगवान‍्की आत्मसत्ता सबमें व्याप्त होनेसे सभी ईश्वरके अवतार हैं; परन्तु वे जीवभावको प्राप्त रहनेके कारण कर्मवश मनुष्यादि शरीरमें प्रकट हुए हैं, वे कर्मफल भोगनेमें परतन्त्र हैं, परन्तु भगवान् तो यह कहते हैं कि—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥

—मैं अविनाशी, अजन्मा और सर्व भूतोंका ईश्वर रहते हुए ही अपनी प्रकृतिको साथ लेकर लीलासे देह धारण करता हूँ।

इससे पता चलता है, वे जीवोंका उद्धार करनेके लिये स्वतन्त्रतासे दिव्य देह धारण करते हैं। अतएव उनमें कोई संकोच नहीं होता।

(५) ईश्वर सर्वशक्तिमान् हैं, वे संकल्पसे ही सम्भवको असम्भव और असम्भवको सम्भव कर सकते हैं, इस स्थितिमें उनके लिये अवतार धारण किये बिना ही दुष्टोंका संहार, शिष्टोंका पालन और धर्म-संस्थापन करना सर्वथा सम्भव है, परन्तु तो भी सुना जाता है कि वे भक्तोंके प्रेमवश अवतार लेकर जगत‍्में एक महान् आदर्शकी स्थापना करते हैं। वे संसारमें न आवें तो जगत‍्के लोगोंको ऐसा महान् आदर्श कहाँसे मिले? लोकमें आदर्श स्थापन करनेके लिये ही वे अपने पार्षद और मुक्त भक्तोंको साथ लेकर धराधाममें अवतीर्ण होते हैं। उन्होंने स्वयं कहा है—

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
(गीता ३। २२ से २४ का पूर्वार्धतक)

हे अर्जुन! यद्यपि तीनों लोकोंमें न तो मुझे कुछ कर्तव्य है और न मुझे कोई वस्तु अप्राप्त ही है, (क्योंकि मैं ही सबका आत्मा, अधिष्ठान, सूत्रधार, संचालक और भर्ता हूँ) तथापि मैं कर्म करता हूँ, यदि मैं सावधानीसे कर्म न करूँ तो दूसरे लोग भी सब प्रकारसे मेरा ही अनुसरण करके आदर्श शुभ कर्मोंका करना त्याग दें (क्योंकि कर्मोंका स्वरूपसे सर्वथा त्याग तो होता नहीं, केवल शुभ कर्म ही त्यागे जाते हैं), अतएव मेरे कर्म करके आदर्श स्थापित न करनेसे लोक साधनमार्गसे भ्रष्ट हो जायँ।

इसके अतिरिक्त उनके अवतारके निगूढ़ रहस्यको वास्तवमें स्वयं वे ही जानते हैं या वे महात्मा पुरुष यत्किञ्चित् अनुमान कर सकते हैं जो भगवान‍्की प्रकृतिसे उनकी कृपाके द्वारा किसी अंशमें परिचित हो चुके हैं। परन्तु जो अपनी बुद्धिके बलपर तर्कयुक्तियोंकी सहायतासे तर्कातीत परमात्माकी प्रकृतिका निरूपण करना चाहते हैं, उन्हें तो औंधे मुँह गिरना ही पड़ता है। पर अवतारवादी तो यह कभी कहते भी नहीं कि बिना अवतारके दुष्ट-संहार, शिष्ट-पालन और धर्म-संस्थापन कार्य कभी नहीं होता। न गीतामें ही कहीं भगवान‍्ने ऐसा कहा है। भगवान् किसी दूसरेको भेजकर या दूसरेको शक्ति प्रदान करके भी ये काम करवा सकते हैं, इसीसे कला और अंशभेदसे अनेक अवतार माने जाते हैं। अधर्मके कितने परिमाणमें बढ़ जानेपर और भक्तोंके प्रेमकी धारा कहाँतक बह जानेपर भगवान् स्वयं अवतार लेते हैं, इस बातका निर्णय हमारी बुद्धि नहीं कर सकती; क्योंकि वह अपने बलसे आध्यात्मिक पथपर बहुत दूरतक जा ही नहीं सकती।

भगवान् दुष्टोंका विनाश करके भी उनका उद्धार ही करने आते हैं। महाभारत और श्रीमद्भागवतके इतिहाससे यह भलीभाँति सिद्ध है। पर इस कार्यके लिये अवतार धारण करनेकी यह आवश्यकता कब होती है, इस बातका पता भी उन्हींको है, जिनकी एक सत्ताके अधीन सब जीवोंके कर्मोंका यन्त्र है।

(६) उनके मनुष्यरूपमें अवतार लेनेकी कल्पना उनका अपमान नहीं है, अपितु उनकी शक्तिको सीमाबद्ध कर देना और यह मान लेना कि वे ऐसा नहीं कर सकते, यही उनका अपमान है। जो अनवकाशमें अवकाश और अवकाशमें अनवकाश कर सकते हैं, वे मनुष्यरूपमें अवतीर्ण नहीं हो सकते, ऐसा निर्णय कर उनकी शक्तिका सीमानिर्देश करना कदापि उचित नहीं है।

श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म भगवान् हैं

उपर्युक्त विवेचनसे गीताके अनुसार यह सिद्ध है कि ईश्वर अपनी इच्छासे प्रकृतिको अपने अधीन कर जब चाहें तभी लीलासे अवतार धारण कर सकते हैं। संसारमें भगवान‍्के अनेक अवतार हो चुके हैं, अनेक रूपोंमें प्रकट होकर मेरे उन लीलामय नाथने अनेक लीलाएँ की हैं, ‘बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि।’ कला और अंशावतारोंमें कई क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णुके होते हैं, कुछ भगवान् शिवके होते हैं, कुछ सच्चिदानन्दमयी योगशक्ति देवीके होते हैं, किसीमें कम अंश रहते हैं, किसीमें अधिक, अर्थात् किसीमें भगवान‍्की शक्ति-सत्ता न्यून प्रकट होती है, किसीमें अधिक। इसीलिये सूतजी महाराजने मुनियोंसे कहा है—

एते चांशकला: पुंस: कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।
(श्रीमद्भा० १। ३। २८)

मीन, कूर्मादि अवतार सब भगवान‍्के अंश हैं, कोई कला है, कोई आवेश है, परन्तु श्रीकृष्ण स्वयं भगवान् हैं!

वास्तवमें भगवान् श्रीकृष्ण सब प्रकारसे पूर्ण हैं। उनमें सभी पूर्व और आगामी अवतारोंका पूर्ण समावेश है। भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण बल, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण ज्ञान और समस्त वैराग्यकी जीवन्त मूर्ति हैं। प्रारम्भसे लेकर लीलावसानपर्यन्त उनके सम्पूर्ण कार्य ही अलौकिक-चमत्कारपूर्ण हैं। उनमें सभी शक्तियाँ प्रकट हैं। बाबू बंकिमचन्द्र चटर्जीने भगवान् श्रीकृष्णको अवतार माना है और लाला लाजपतराय आदि विद्वानोंने महान् योगेश्वर। परन्तु इन महानुभावोंने भगवान् श्रीकृष्णको जगत‍्के सामने भगवान‍्की जगह पूर्ण मानवके रूपमें रखना चाहा है। मानव कितना भी पूर्ण क्यों न हो, वह है मानव ही, पर भगवान् भगवान् ही हैं, वे अचिन्त्य और अतर्क्य शक्ति हैं। महामना बंकिम बाबूने अपने भगवान् श्रीकृष्णको सर्वगुणान्वित, सर्वपापसंस्पर्शशून्य, आदर्श चरित्र, पूर्ण मानवके रूपमें विश्वके सामने उपस्थित करनेके अभिप्रायसे उनके अलौकिक ऐश्वरिक, मानवातीत, मानव-कल्पनातीत, शास्त्रातीत और नित्य मधुर चरित्रोंको उपन्यास बतलाकर उड़ा देनेका प्रयास किया है, उन्होंने भगवान‍्के ऐश्वर्यभावके कुछ अंशको, जो उनके मनमें निर्दोष जँचा है, मानकर, शेष रस और ऐश्वर्यभावको प्राय: छोड़ दिया है। इसका कारण यही है कि वे भगवान् श्रीकृष्णको पूर्ण मानव आदर्शके नाते भगवान‍्का अवतार मानते थे, न कि भगवान‍्की हैसियतसे अलौकिक शक्तिके नाते। यह बात खेदके साथ स्वीकार करनी पड़ती है कि विद्या-बुद्धिके अत्यधिक अभिमानने भगवान‍्को तर्ककी कसौटीपर कसनेमें प्रवृत्त कराकर आज मनुष्य-हृदयको श्रद्धाशून्य, शुष्क, रसहीन बनाना आरम्भ कर दिया है। इसीलिये आज हम अपनेको भगवान् श्रीकृष्णके वचनोंका माननेवाला कहते हैं, परन्तु भगवान् श्रीकृष्णको भगवान् माननेमें और उनके शब्दोंका सीधा अर्थ करनेमें हमारी बुद्धि सकुचाती है और ऐसा करनेमें हमें आज अपनी तर्कशीलता और बुद्धिमत्तापर आघात लगता हुआ-सा प्रतीत होता है। भगवान‍्का सारा जीवन ही दिव्य लीलामय है, परन्तु उनकी लीलाओंको समझना आजके हम-सरीखे अश्रद्धालु मनुष्योंके लिये बहुत कठिन है—इसीसे उनकी चमत्कारपूर्ण लीलाओंपर मनुष्यको शंका होती है और इसीलिये आजकलके लोग उनके दिव्यरूपावतारसे पूतनावध, शकटासुर-अघासुरवध, अग्निपान, गोवर्धनधारण, दधिमाखनभक्षण, कालियदमन, चीरहरण, रासलीला, यशोदाको मुखमें विराट्‍‍रूप दिखलाने, सालभरतक बछड़े और बालकरूप बने रहने, पांचालीका चीर बढ़ाने, अर्जुनको विराट्स्वरूप दिखलाने और कौरवोंकी राजसभामें विलक्षण चमत्कार दिखलाने आदि लीलाओंपर सन्देह करते हैं। वे यह नहीं सोचते कि जिन परमात्माकी मायाने जगत‍्को मनुष्यकी बुद्धिसे अतीत नाना प्रकारके अद‍्भुत वैचित्र्यसे भर रखा है, उन मायापति भगवान‍्के लिये कुछ भी असम्भव नहीं है, बल्कि इन ईश्वरीय लीलाओंमें ही उनका ईश्वरत्व है, परन्तु यह लीला मनुष्यबुद्धिसे अतर्क्य है। इन लीलाओंका रहस्य समझ लेना साधारण बात नहीं है। जो भगवान‍्के दिव्य जन्म और कर्मके रहस्यको तत्त्वत: समझ लेता है, वह तो उनके चरणोंमें सदाके लिये स्थान ही पा जाता है। भगवान‍्ने कहा है—

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(गीता ४। ९)

‘मेरे दिव्य जन्म और दिव्य कर्मको जो तत्त्वसे जान लेता है, वह शरीर छोड़कर पुन: जन्म नहीं लेता, वह तो मुझको ही प्राप्त होता है।’ जिसने भगवान‍्के दिव्य अवतार और दिव्य लीलाकर्मोंका रहस्य जान लिया, उसने सब कुछ जान लिया। वह तो फिर भगवान‍्की लीलामें उनके हाथका एक यन्त्र बन जाता है। लोकमान्य लिखते हैं कि ‘भगवत्प्राप्ति होनेके लिये (इसके सिवा) दूसरा कोई साधन अपेक्षित नहीं है; भगवत् की यही सच्ची उपासना है।’ परन्तु तत्त्व जानना श्रद्धापूर्वक भगवद्भक्ति करनेसे ही सम्भव होता है। जिन महात्माओंने इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्णको यथार्थरूपसे जान लिया था, उन्हींमेंसे श्रीसूतजी महाराज थे, जो हजारों ऋषियोंके सामने यह घोषणा करते हैं कि ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ और भगवान् वेदव्यासजी तथा ज्ञानिप्रवर शुकदेवजी महाराज इसी पदको ग्रन्थित कर और गानकर इस सिद्धान्तका सानन्द समर्थन करते हैं।

भगवान् श्रीकृष्णको नारायण ऋषिका अवतार कहा गया है, नर-नारायण ऋषियोंने धर्मके औरस और दक्षकन्या मूर्तिके गर्भसे उत्पन्न होकर महान् तप किया था। कामदेव अपनी सारी सेनासमेत बड़ी चेष्टा करके भी इनके व्रतको भंग नहीं कर सका (भागवत २। ७। ८)। ये दोनों भगवान् श्रीविष्णुके अवतार थे। देवीभागवतमें इन दोनोंको हरिका अंश (हरेरंशौ) कहा है (दे० भा० ४। ५। १५) और भागवतमें कहा है कि भगवान‍्ने चौथी बार धर्मकी कलासे नर-नारायण ऋषिके रूपमें आविर्भूत होकर घोर तप किया था। भागवत और देवीभागवतमें इनकी कथाका विस्तार है। महाभारत और भागवतमें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको कई जगह नर-नारायणका अवतार बतलाया गया है। (वनपर्व ४०। १२; भीष्मपर्व ६६। ११; उद्योगपर्व ९६। ४६ आदि; श्रीमद्भागवत ११। ७। १८; १०। ८९। ३२-३३ आदि )

दूसरे प्रमाण मिलते हैं कि वे क्षीरसागरनिवासी भगवान् विष्णुके अवतार हैं। कारागारमें जब भगवान् प्रकट होते हैं तब शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी श्रीविष्णुरूपसे ही पहले प्रकट होते हैं तथा भागवतमें गोपियोंके प्रसंगमें तथा अन्य स्थलोंमें उन्हें ‘लक्ष्मीसेवितचरण’ कहा गया है, जिससे श्रीविष्णुका बोध होता है। भीष्मपर्वमें ब्रह्माजीके वाक्य हैं—हे देवतागणो! सारे जगत‍्का प्रभु मैं इनका ज्येष्ठ पुत्र हूँ अतएव—

वासुदेवोऽर्चनीयो व: सर्वलोकमहेश्वर:॥
तथा मनुष्योऽयमिति कदाचित् सुरसत्तमा:।
नावज्ञेयो महावीर्य: शङ्खचक्रगदाधर:॥
(महा० भीष्म० ६६। १३-१४)

‘सर्वलोकके महेश्वर इन वासुदेवकी पूजा करनी चाहिये। हे श्रेष्ठ देवताओ! साधारण मनुष्य समझकर उनकी कभी अवज्ञा न करना। कारण, वे शंख, चक्र, गदाधारी महावीर्य (विष्णु) भगवान् हैं।’ जय-विजयकी कथासे भी उनका विष्णु अवतार होना सिद्ध है। इस विषयके और भी अनेक प्रमाण हैं।

तीसरे इस बातके भी अनेक प्रमाण मिलते हैं, भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन थे। भगवान‍्ने गीता और अनुगीतामें स्वयं स्पष्ट शब्दोंमें अनेक बार ऐसा कहा है।

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्त: सर्वं प्रवर्तते॥
(गीता १०।८)
मत्त: परतरं नान्यत् किञ्चिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव॥
(गीता ७। ७)
..............................सर्वलोकमहेश्वरम्॥
(गीता ५। २९)
अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्॥
(गीता १०। ४२)
यो मामेवमसंमूढो जानाति पुरुषोत्तमम्।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत॥
(गीता १५। १९)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(गीता १४। २७)

गीतामें ऐसे श्लोक बहुत हैं, उदाहरणार्थ थोड़ेसे लिखे हैं। इनके सिवा महाभारतमें पितामह भीष्म, संजय, भगवान् व्यास, नारद, श्रीमद्भागवतमें नारद, ब्रह्मा, इन्द्र, गोपियाँ, ऋषिगण आदिके ऐसे अनेक वाक्य हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म सनातन परमात्मा थे। अग्रपूजाके समय भीष्मजी कहते हैं—

कृष्ण एव हि लोकानामुत्पत्तिरपि चाव्यय:।
कृष्णस्य हि कृते विश्वमिदं भूतं चराचरम्॥
एष प्रकृतिरव्यक्ता कर्ता चैव सनातन:।
परश्च सर्वभूतेभ्यस्तस्मात् पूज्यतमोऽच्युत:॥
(महा०सभा० ३८। २३-२४)

‘श्रीकृष्ण ही लोकोंके अविनाशी उत्पत्तिस्थान हैं, इस चराचर विश्वकी उत्पत्ति इन्हींसे हुई है। यही अव्यक्त प्रकृति और सनातन कर्ता हैं, यही अच्युत सर्वभूतोंसे श्रेष्ठतम और पूज्यतम हैं।’ जो ईश्वरोंके ईश्वर होते हैं, वही महेश्वर या परब्रह्म कहलाते हैं—

तमीश्वराणां परमं महेश्वरम्।
(श्वेताश्वतर उ०६। ७)

मनुष्यरूप असुरोंके अत्याचारों और पापोंके भारसे घबराकर पृथ्वी देवी गौका रूप धारणकर ब्रह्माजीके साथ जगन्नाथ भगवान् विष्णुके समीप क्षीरसागरमें जाती हैं। (भगवान् विष्णु व्यष्टि पृथ्वीके अधीश्वर हैं; पालनकर्ता हैं। इसीसे पृथ्वी उन्हींके पास गयी।) तब भगवान् कहते हैं, ‘मुझे पृथ्वीके दु:खोंका पता है, ईश्वरोंके ईश्वर कालशक्तिको साथ लेकर पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये पृथ्वीपर विचरण करेंगे। देवगण उनके आविर्भावसे पहले ही वहाँ जाकर यदुवंशमें जन्म ग्रहण करें।

वसुदेवगृहे साक्षाद्भगवान् पुरुष: पर:।
जनिष्यते तत्प्रियार्थं सम्भवन्तु सुरस्त्रिय:॥

‘साक्षात् परम पुरुष भगवान् वसुदेवके घरमें अवतीर्ण होंगे, अत: देवांगनागण उनकी सेवाके लिये वहाँ जाकर जन्म ग्रहण करें।’ फिर कहा कि ‘वासुदेवके कलास्वरूप सहस्रमुख अनन्तदेव श्रीहरिके प्रियसाधनके लिये पहले जाकर अवतीर्ण होंगे और भगवती विश्वमोहिनी माया भी प्रभुकी आज्ञासे उनके कार्यके लिये अवतार धारण करेंगी।’ इससे भी यह सिद्ध होता है, भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म थे। अब यह शंका होती है कि यदि वे पूर्ण ब्रह्मके अवतार थे तो नर-नारायण और श्रीविष्णुके अवतार कैसे हुए और भगवान् विष्णुके अवतार तथा नर-नारायण ऋषिके अवतार थे तो पूर्ण ब्रह्मके अवतार कैसे हैं? इसका उत्तर यह है कि भगवान् श्रीकृष्ण वास्तवमें पूर्ण ब्रह्म ही हैं। वे साक्षात् स्वयं भगवान् हैं, उनमें सारे भूत, भविष्य, वर्तमानके अवतारोंका समावेश है। वे कभी विष्णुरूपसे लीला करते हैं, कभी नर-नारायणरूपसे और कभी पूर्ण ब्रह्म सनातन ब्रह्मरूपसे। मतलब यह कि वे सब कुछ हैं, वे पूर्ण पुरुषोत्तम हैं, वे सनातन ब्रह्म हैं, वे गोलोकविहारी महेश्वर हैं, वे क्षीरसागरशायी परमात्मा हैं, वे वैकुण्ठनिवासी विष्णु हैं, वे सर्वव्यापी आत्मा हैं, वे बदरिकाश्रमसेवी नर-नारायण ऋषि हैं, वे प्रकृतिमें गर्भ स्थापन करनेवाले विश्वात्मा हैं और वे विश्वातीत भगवान् हैं। भूत, भविष्यत्, वर्तमानमें जो कुछ है, वे वह सब कुछ हैं और जो उनमें नहीं है, वह कभी कुछ भी कहीं नहीं था, न है और न होगा। बस, जो कुछ हैं सो वही हैं, इसके सिवा वे क्या हैं सो केवल वही जानते हैं, हमारा कर्तव्य तो उनकी चरणधूलिकी भक्ति प्राप्त करनेके लिये प्रयत्न करनामात्र है, इसके सिवा हमारा और किसी बातमें न तो अधिकार है और न इस परम साधनका परित्याग कर अन्य प्रपंचमें पड़नेसे लाभ ही है।

साधकोंका कर्तव्य

जो लोग विद्वान् हैं, बुद्धिमान् हैं, तर्कशील हैं, वे अपने इच्छानुसार भगवान् श्रीकृष्णके जीवनकी समालोचना करें। उन्हें महापुरुष मानें, योगेश्वर मानें, परम पुरुष मानें, पूर्ण मानव मानें, अपूर्ण मानें, राजनीतिक नेता मानें, कुटिल नीतिज्ञ मानें, संगीतविद्याविशारद मानें या कविकल्पित पात्र मानें, जो कुछ मनमें आवे सो मानें। साधकोंके लिये साँवरे मनमोहनके चरणकमल-चंचरीक दीन जनोंके लिये तो वे अन्धेकी लकड़ी हैं, कंगालके धन हैं, प्यासेके पानी हैं, भूखेकी रोटी हैं, निराश्रयके आश्रय हैं, निर्बलके बल हैं, प्राणोंके प्राण हैं, जीवनके जीवन हैं, देवोंके देव हैं, ईश्वरोंके ईश्वर हैं और ब्रह्मोंके ब्रह्म हैं, सर्वस्व वही हैं—बस,

मोहन बसि गयो मेरे मनमें।
लोकलाज कुलकानि छूटि गयी,
याकी नेह लगनमें॥
जित देखो तित वह ही दीखै,
घर बाहर आँगनमें।
अंग-अंग प्रति रोम-रोममें,
छाइ रह्यो तन-मनमें॥
कुण्डल झलक कपोलन सोहै,
बाजूबन्द भुजनमें।
कंकन कलित ललित बनमाला,
नूपुर-धुनि चरननमें॥
चपल नैन भ्रुकुटी वर बाँकी,
ठाढ़ो सघन लतनमें।
नारायन बिन मोल बिकी हौं,
याकी नेक हसनमें॥

अतएव साधकोंको बड़ी सावधानीसे अपने साधन-पथकी रक्षा करनी चाहिये। मार्गमें अनेक बाधाएँ हैं। विद्या, बुद्धि, तप, दान, यज्ञ आदिके अभिमानकी बड़ी-बड़ी घाटियाँ हैं, भोगोंकी अनेक मनहरण वाटिकाएँ हैं, पद-पदपर प्रलोभनकी सामग्रियाँ बिखरी हैं, कुतर्कका जाल तो सब ओर बिछा हुआ है, दम्भ-पाखण्डरूपी मार्गके ठग चारों ओर फैल रहे हैं, मान-बड़ाईके दुर्गम पर्वतोंको लाँघनेमें बड़ी वीरतासे काम लेना पड़ता है; परन्तु श्रद्धाका पाथेय, भक्तिका कवच और प्रेमका अंगरक्षक सरदार साथ होनेपर कोई भय नहीं है। उनको जानने, पहचानने, देखने और मिलनेके लिये इन्हींकी आवश्यकता है, कोरे सदाचारके साधनोंसे और बुद्धिवादसे काम नहीं चलता। भगवान‍्के ये वचन स्मरण रखने चाहिये—

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।
शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा॥
भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥

‘हे अर्जुन! हे परंतप! जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है इस प्रकार वेदाध्ययन, तप, दान और यज्ञसे मैं नहीं देखा जा सकता। केवल अनन्य भक्तिसे ही मेरा देखा जाना, तत्त्वसे समझा जाना और मुझमें प्रवेश होना सम्भव है।’

गीताका सदुपयोग और दुरुपयोग

भगवान् श्रीकृष्णके उपदेशामृत गीतासे हमें वही यथार्थ तत्त्व ग्रहण करना चाहिये, जिससे भगवत्प्राप्ति शीघ्रातिशीघ्र हो। वास्तवमें भगवद‍्गीताका यही उद्देश्य समझना चाहिये और इसी काममें इसका प्रयोग करना गीताके उपदेशोंका सदुपयोग करना है। भगवान् श्रीशंकराचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीवल्लभाचार्य, श्रीबलदेव आदि महान् आचार्योंसे लेकर आधुनिक कालके महान् आत्मा लोकमान्य तिलक महोदयतकने भिन्न-भिन्न उपायोंका प्रतिपादन करते हुए भगवत्प्राप्तिमें ही गीताका उपयोग करना बतलाया है। इन लोगोंमें भगवान् और भगवत्प्राप्तिके स्वरूपमें पार्थक्य रहा है; परन्तु भगवत्प्राप्तिरूप साध्यमें कोई अन्तर नहीं है। अवश्य ही आजकल गीताका प्रचार पहलेकी अपेक्षा अधिक है; परन्तु उससे जितना आध्यात्मिक लाभ होना चाहिये, उतना नहीं हो रहा है; इसका कारण यही है कि गीताका अध्ययन करनेके लिये जैसा अन्त:करण चाहिये, वैसा आजकलके हमलोगोंका नहीं है। नहीं तो गीताके इतने प्रचारकालमें देश-देशान्तरोंमें पवित्र भगवद्भावोंकी बाढ़ आ जानी चाहिये थी। गीताके महान् सदुपदेशोंके साथ हमारे आजके आचरणोंकी तुलना की जाती है तो मालूम होता है कि हमारा आजका गीताप्रचार केवल बाहरी शोभामात्र है। कई क्षेत्रोंमें तो गीता स्वार्थसाधन या स्वमतपोषणकी सामग्री बन गयी है, यही गीताका दुरुपयोग है। यहाँ इसके कुछ उदाहरण दिये जाते हैं—

(१) कुछ लोग, जिनकी इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं, नाना प्रकारसे पापाचरणोंमें प्रवृत्त हैं; चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि करते हैं; परन्तु अपनेको गीताके अनुसार चलनेवाला प्रसिद्ध करते हैं। वे पूछनेपर कह देते हैं कि ‘यह सब तो प्रारब्ध-कर्म हैं; क्योंकि गीतामें कहा है—

सदृशं चेष्टते स्वस्या: प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति॥
(३। ३३)

‘सभी जीव अपने पूर्वजन्मके कर्मानुसार बनी हुई प्रकृतिके वश होते हैं, ज्ञानीको भी अपनी अच्छी-बुरी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करनी पड़ती है इसमें कोई क्या कर सकता है? जब ज्ञानीको भी पाप करनेके लिये बाध्य होना पड़ता है तब हमारी तो बात ही क्या है?’ यों अर्थका अनर्थ कर अपने पापोंका समर्थन करनेवाले लोग इसीके अगले श्लोकपर और आगे चलकर ३७वेंसे ४३वें श्लोकतकके विवेचनपर ध्यान नहीं देते, जिनमें स्पष्ट कहा गया है कि पाप आसक्तिमूलक कामनासे होते हैं जिसपर विजय प्राप्त करना यानी पापोंसे बचना मनुष्यके हाथमें है और उसे उनसे बचना चाहिये। परन्तु वे इन बातोंकी ओर क्यों ध्यान देने लगे? उन्हें तो गीताके श्लोकोंसे अपना मतलब सिद्ध करना है। यह गीताका एक दुरुपयोग है।

(२) कुछ पाखण्डी और पापाचारी लोग—जो अपनेको ज्ञानी या अवतार बतलाया करते हैं, अपने पाखण्ड और पापके समर्थनमें गीताके ये श्लोक उपस्थित करते हैं कि—

नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित्।
पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपञ्श्वसन्॥
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्॥

‘अपने राम तो अपने स्वरूपमें ही मस्त हैं, कुछ करते-कराते नहीं; यह सुनना, स्पर्श करना, सूँघना, खाना, जाना, सोना, श्वास लेना, बोलना, त्यागना, ग्रहण करना, आँखें खोलना, बंद करना आदि कार्य तो इन्द्रियोंका अपने-अपने अर्थोंमें बर्तनामात्र है। इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयोंमें बर्तती हैं, अपने राम तो आकाशवत् निर्लेप हैं।’ कहाँ तो आत्मज्ञानीकी स्थिति और कहाँ उसके द्वारा पापीका पाप-समर्थन! यह गीताका दूसरा दुरुपयोग है।

(३) कुछ लोग जो भक्तिका स्वाँग धारण कर पाप बटोरना और इन्द्रियोंको अन्यायाचरणसे तृप्त करना चाहते हैं—यह श्लोक कहते हैं।

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

‘अपना तो भगवान‍्के जन्म या लीलास्थानमें उनकी शरणमें पड़े रहनामात्र कर्तव्य है। उन्होंने स्पष्ट ही आज्ञा दे रखी है कि सब धर्मों (सत्कर्मों) को छोड़कर मेरी शरण हो जाओ। पाप करते हो उनके लिये कोई परवा नहीं, पापोंसे मैं आप ही छुड़ा दूँगा। तुम तो निश्चिन्त होकर मेरे दरवाजेपर चाहे जैसे भी पड़े रहो। इसलिये अपने तो यहाँ पड़े हैं, पाप छूटना तो हमारे हाथकी बात नहीं और भगवान‍्के वचनानुसार छोड़नेकी जरूरत ही क्या है? दान-पुण्य, जप-तपका बखेड़ा जरूर छोड़ दिया है। भगवान् आप ही सँभालेगा।

यह अर्थका अनर्थ और गीताका महान् दुरुपयोग है।

(४) कुछ लोग जिनका हृदय राग-द्वेषसे भरा है। अन्त:करण विषमताकी आगसे जल रहा है, पर अभक्ष्य-भक्षण और व्यभिचार आदिके समर्थनके लिये सारे भेदोंको मिटाकर परस्पर प्रेम स्थापन करना अपना सिद्धान्त बतलाते हुए गीताका श्लोक कहते हैं—

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥
(५। १८)

‘जो पण्डित या ज्ञानी होते हैं, वे विद्या और विनयशील ब्राह्मण, चाण्डाल, गौ, हाथी, कुत्तेमें कोई भेद नहीं समझते, सबसे एक-सा व्यवहार करते हैं। भगवान‍्के कथनानुसार जब कुत्ते और ब्राह्मणमें भी भेद नहीं करना चाहिये तब मनुष्य-मनुष्यमें भेद कैसा?’ परन्तु यह इस श्लोकके अर्थका सर्वथा विपरीतार्थ है। भगवान‍्ने इस श्लोकमें व्यावहारिक भेदको विशेषरूपसे मानकर ही आत्मरूपमें सबमें समता देखनेकी बात कही है। इसमें ‘समान व्यवहार’ की बात कहीं नहीं है, बात है ‘समान दर्शन’ की। हमें आत्मरूपसे सबमें परमात्माको देखकर किसीसे भी घृणा नहीं करनी चाहिये, परन्तु सबके साथ एक-सा व्यवहार होना असम्भव है। इसीसे भगवान‍्ने कुत्ते, गौ और हाथीके दृष्टान्तसे पशुओंका और विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण तथा चाण्डालके दृष्टान्तसे मनुष्योंके व्यवहारका भेद सिद्ध किया है। राजा कुत्तेपर सवारी नहीं कर सकता। गौकी जगह कुतियाका दूध कोई काममें नहीं आता। परन्तु स्वार्थसे विपरीत अर्थ किया जाता है। यह गीताका दुरुपयोग है।

(५) कुछ लोग ‘किं पुनर्ब्राह्मणा: पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा’ का प्रमाण देकर केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय-जातिमें जन्म होनेके कारण ही अपनेको बड़ा और इतर वर्णोंको छोटा समझकर उनसे घृणा करते हैं, परन्तु वे यह नहीं सोचते कि भगवद्भक्तिमें सबका समान अधिकार है और भगवान‍्की प्राप्ति भी उसीको पहले होती है जो सच्चे मनसे भगवान‍्का अनन्य भक्त होता है। इसमें जाति-पाँतिकी कोई विशेषता नहीं है। श्रीमद्भागवतमें स्पष्ट शब्दोंमें कहा है—

विप्राद् द्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-
पादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम्।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ-
प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमान:॥
(७। ९। १०)

पद्मपुराणका वाक्य है—

हरेरभक्तो विप्रोऽपि विज्ञेय: श्वपचाधिक:।
हरेर्भक्त: श्वपाकोऽपि विज्ञेयो ब्राह्मणाधिक:॥

ऐसी स्थितिमें केवल ऊँची जातिमें पैदा होनेमात्रसे ही अपनेको ऊँचा मानकर गीताके श्लोकके सहारे दूसरोंसे घृणा करना-कराना गीताका दुरुपयोग करना है।

(६) कुछ लोग जो गेरुआ कपड़ा पहनकर आलस्य या प्रमादवश कोई भी अच्छा कार्य न करके कर्तव्यहीन होकर मानव-जीवन व्यर्थ खो देते हैं, पूछनेपर कहते हैं ‘हमारे लिये कोई कर्तव्य नहीं है। भगवान‍्ने गीतामें साफ कह दिया है—‘तस्य कार्यं न विद्यते।’ इससे हमारे लिये कोई कर्तव्य नहीं रह गया है, जबतक कोई कर्तव्य रहता है तबतक मनुष्य मुक्त नहीं माना जाता। कर्तव्योंका त्याग ही मुक्ति है। इस प्रकार जीवन्मुक्त त्यागी विरक्त महात्माके लिये प्रयुक्त गीताके शब्दोंका तामस कर्तव्यशून्यतामें प्रयोग करना अवश्य ही गीताका दुरुपयोग है।

(७) कुछ लोग जो आसक्ति और भोग-सुखोंकी कामनावश रात-दिन प्रापंचिक कार्योंमें लगे रहते हैं, कभी भूलकर भी भगवान‍्का भजन नहीं करते, परन्तु भगवदीय साधनके लिये गृहस्थ त्याग कर संन्यास ग्रहण करनेवाले संतोंकी निन्दा करते हुए कहते हैं—भगवान‍्ने गीतामें ‘कर्मयोगो विशिष्यते’ कहकर कर्म ही करनेकी आज्ञा दी है। ये संन्यासी सब ढोंगी हैं, हम तो दिन-रात कर्म करके भगवान‍्की आज्ञा पालन करते हैं।’ इस प्रकार आसक्तिवश पाप-पुण्यके विचारसे रहित सांसारिक कर्मोंका समर्थन करनेमें गीताका सहारा लेकर त्यागियोंकी निन्दा करना और अपने विषय-वासनायुक्त कर्मोंको उचित बतलाना गीताका दुरुपयोग है।

(८) कुछ लोग ‘एवं प्रवर्तितं चक्रम्’ श्लोकसे चरखा और ‘ऊर्ध्वमूलमध:शाखम्’ श्लोकसे शरीर-रचनाका अर्थ लगाकर मूल यथार्थ भावके सम्बन्धमें जनताकी बुद्धिमें भ्रम उत्पन्न करते हैं। यह बुद्धिकी विलक्षणता और समयानुकूल अच्छे कार्यके लिये समर्थन होनेपर भी अर्थका अनर्थ करनेके कारण गीताका दुरुपयोग ही है।

गीता परमधामकी कुंजी है

और भी अनेक प्रकारसे गीताका दुरुपयोग हो रहा है। यहाँ थोड़ा-सा दिग्दर्शनमात्र करा दिया गया है। सो भी साधकोंको सावधान करनेके लिये ही। भगवत्प्राप्तिके साधकोंके लिये उपर्युक्त अर्थ कदापि माननीय नहीं है। उन्हें तो भगवान् शंकराचार्य, श्रीरामानुजाचार्य, श्रीमध्वाचार्य, श्रीवल्लभाचार्य आदि आचार्य और लोकमान्य तिलक आदिके बतलाये हुए अर्थके अनुसार अपने अधिकार और रुचिके अनुकूल मार्ग चुनकर भगवत्प्राप्तिके लिये ही सतत प्रयत्न करना चाहिये। गीता वास्तवमें भगवान‍्के परम मन्दिरकी सिद्ध कुंजी है, इसका जो कोई उचित उपयोग करता है, वही अबाधितरूपसे उस दरबारमें प्रवेश करनेका अधिकारी हो जाता है; किसी देश, वर्ण या जाति-पाँतिके लिये वहाँ कोई रुकावट नहीं है—

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता ९। ३२)

‘साधकोंको एक बातसे और भी सावधान रहना चाहिये। आजकलके बुद्धिवादी लोगोंमें कुछ सज्जन श्रीकृष्णको ही नहीं मानते, उनके विचारमें महाभारत रूपक ग्रन्थ है और भागवत कपोल कल्पनामात्र। महाभारत काव्यके अन्तर्गत व्यासरचित गीता एक उत्तम लोकोपकारी रचना है।’ यह वास्तवमें गीताका अपमान है। भगवान् श्रीकृष्णको न मानकर गीताको मानना, उससे आध्यात्मिक लाभ उठानेकी आशा रखना, प्राणहीन शरीरसे लाभ उठानेकी इच्छाके सदृश दुराशामात्र है। इस प्रकारके विचारोंसे साधकोंको सावधान रहना चाहिये। यह मानना चाहिये कि भगवान् श्रीकृष्ण गीताके हृदय हैं और भगवान् श्रीकृष्णको प्राप्त करनेके उपाय बतलाना ही गीताका उद्देश्य है। इसी उद्देश्यसे प्रेरित होकर जो लोग गीताका अध्ययन करते हैं, उन्हींको गीतासे यथार्थ लाभ पहुँचता है।

कुछ लोग गीताके श्रीकृष्णको निपुण तत्त्ववेत्ता, महायोगेश्वर, निर्भय योद्धा और अतुलनीय राजनीति-विशारद मानते हैं, परन्तु भागवतके श्रीकृष्णको इसके विपरीत नचैया, भोगविलासपरायण, गाने-बजानेवाला और खिलाड़ी समझते हैं; इसीसे वे भागवतके श्रीकृष्णको नीची दृष्टिसे देखते हैं या उनको अस्वीकार करते हैं और गीताके या महाभारतके श्रीकृष्णको ऊँचा या आदर्श मानते हैं। वास्तवमें यह बात ठीक नहीं है। श्रीकृष्ण जो भागवतके हैं, वही महाभारत या गीताके हैं। एक ही भगवान‍्की भिन्न-भिन्न स्थलों और भिन्न-भिन्न परिस्थितियोंमें भिन्न-भिन्न लीलाएँ हैं। भागवतके श्रीकृष्णको भोगविलासपरायण और साधारण नचैया-गवैया समझना भारी भ्रम है। अवश्य ही भागवतकी लीलामें पवित्र और महान् दिव्य प्रेमकी लीला अधिक थी, परन्तु वहाँ भी ऐश्वर्य-लीलाकी कमी नहीं थी। असुर-वध, गोवर्धन-धारण, अग्नि-पान, वत्स-बालरूप-धारण आदि भगवान‍्की ईश्वरीय लीलाएँ ही तो हैं। नवनीत-भक्षण, सखासह-विहार, गोपी-प्रेम आदि तो गोलोककी दिव्य लीलाएँ हैं। इसीसे कुछ भक्त भी वृन्दावनविहारी मुरलीधर रसराज प्रेममय भगवान् श्रीकृष्णकी ही उपासना करते हैं, उनकी मधुर भावनामें—

कृष्णोऽन्यो यदुसम्भूतो य: पूर्ण: सोऽस्त्यत: पर:।
वृन्दावनं परित्यज्य स क्वचिन्नैव गच्छति॥

—‘यदुनन्दन श्रीकृष्ण दूसरे हैं और वृन्दावनविहारी पूर्ण श्रीकृष्ण दूसरे हैं। पूर्ण श्रीकृष्ण वृन्दावन छोड़कर कभी अन्यत्र गमन नहीं करते।’ बात ठीक है—‘जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी’ इसी प्रकार कुछ भक्त गीताके ‘तोत्त्रवेत्रैकपाणि’ योगेश्वर श्रीकृष्णके ही उपासक हैं। रुचिके अनुसार उपास्यदेवके स्वरूपभेदमें कोई आपत्ति नहीं, परन्तु जो लोग भागवत या महाभारतके श्रीकृष्णको वास्तवमें भिन्न-भिन्न मानते हैं या किसी एकको अस्वीकार करते हैं; उनकी बात कभी नहीं माननी चाहिये। महाभारतमें भागवतके और भागवतमें महाभारतके श्रीकृष्णके एक होनेके अनेक प्रमाण मिलते हैं। एक ही ग्रन्थकी एक बात मानना और दूसरीको मनके प्रतिकूल होनेके कारण न मानना वास्तवमें यथेच्छाचारके सिवा और कुछ भी नहीं है।

अतएव साधकोंको इन सारे बखेड़ोंसे अलग रहकर भगवान‍्को पहचानने और अपनेको ‘सर्वभावेन’ उनके चरणोंमें समर्पण कर शरणागत होकर उन्हें प्राप्त करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।

गीता और प्रेम-तत्त्व

श्रीमद्भगवद‍्गीताका प्रारम्भ और पर्यवसान भगवान‍्की शरणागतिमें ही है। यही गीताका प्रेम-तत्त्व है। गीताकी भगवत्-शरणागतिका ही दूसरा नाम प्रेम है। प्रेममय भगवान् अपने प्रियतम सखा अर्जुनको प्रेमके वश होकर वह मार्ग बतलाते हैं, जिसमें उसके लिये एक प्रेमके सिवा और कुछ करना बाकी रह ही नहीं जाता।

कुछ लोगोंका कथन है कि श्रीमद्भगवद‍्गीतामें प्रेमका विषय नहीं है। परन्तु विचारकर देखनेपर मालूम होता है कि ‘प्रेम’ शब्दकी बाहरी पोशाक न रहनेपर भी गीताके अंदर प्रेम ओत-प्रोत है। गीता भगवत्प्रेमरसका समुद्र है। प्रेम वास्तवमें बाहरकी चीज होती भी नहीं। वह तो हृदयका गुप्त धन है जो हृदयके लिये हृदयसे हृदयको ही मिलता है और हृदयसे ही किया जाता है। जो बाहर आता है वह तो प्रेमका बाहरी ढाँचा होता है। श्रीहनुमान‍्जी महाराज भगवान् श्रीरामका सन्देश श्रीसीताजीको इस प्रकार सुनाते हैं—

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

प्रेम हृदयकी वस्तु है, इसीलिये वह गोपनीय है। गीतामें भी प्रेम गुप्त है। वीरवर अर्जुन और भगवान् श्रीकृष्णका सख्यप्रेम विश्वविख्यात है। आहार-विहार, शय्या-क्रीडा, अन्त:पुर-दरबार, वन-प्रान्त-रणभूमि सभीमें दोनोंको हम एक साथ पाते हैं। जिस समय अग्निदेव अर्जुनके समीप खाण्डव-दाहके लिये अनुरोध करने आते हैं, उस समय भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन जलविहार करनेके बाद प्रमुदित मनसे एक ही आसनपर बैठे हुए थे। जब संजय भगवान् श्रीकृष्णके पास जाते हैं, तब उन्हें अर्जुनके साथ एक ही आसनपर अन्त:पुरमें द्रौपदी-सत्यभामासहित विराजित पाते हैं। अर्जुन ‘विहारशय्यासनभोजनेषु’ कहकर स्वयं इस बातको स्वीकार करते हैं।

अधिक क्या, खाण्डववनका दाह कर चुकनेपर जब इन्द्र प्रसन्न होकर अर्जुनको दिव्यास्त्र प्रदान करनेका वचन देते हैं, तब भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि ‘देवराज! मुझे भी एक चीज दो और वह यह कि अर्जुनके साथ मेरा प्रेम सदा बना रहे’—

‘वसुदेवोऽपि जग्राह प्रीतिं पार्थेन शाश्वतीम्।’

अर्जुनके लिये भगवान् प्रेमकी भीख माँगते हैं। यही कारण था कि भगवान् अर्जुनका रथ हाँकनेतकको तैयार हो गये। अर्जुनके प्रेमसे ही गीताशास्त्रकी अमृतधारा भगवान‍्के मुखसे बह निकली। अर्जुनरूपी चन्द्रको पाकर ही चन्द्रकान्तमणिरूप श्रीकृष्ण द्रवित होकर बह निकले, जो गीताके रूपमें आज त्रिभुवनको पावन कर रहे हैं। इतना होनेपर भी गीतामें प्रेम न मानना दुराग्रहमात्र है। प्रेमका स्वरूप है—‘प्रेमीके साथ अभिन्नता हो जाना, जो भगवान‍्में पूर्णरूपसे थी; इसीसे अर्जुनका प्रत्येक काम करनेके लिये भगवान् सदा तैयार थे। प्रेमका दूसरा स्वरूप है—प्रेमीके सामने बिना संकोच अपना हृदय खोलकर रख देना।’ वीरवर अर्जुन प्रेमके कारण ही नि:संकोच होकर भगवान‍्के सामने रो पड़े और स्पष्ट शब्दोंमें उन्होंने अपने हृदयकी बातें कह दीं। भगवान‍्की जगह दूसरा होता तो ऐसे शब्दोंमें, जिनमें वीरतापर धब्बा लग सकता था, अपने मनका भाव कभी नहीं प्रकट कर सकते। प्रेममें लल्लो-चप्पो नहीं होता, इसीसे भगवान‍्ने अर्जुनके पाण्डित्यपूर्ण परन्तु मोहजनित विवेचनके लिये उन्हें फटकार दिया और युद्धस्थलमें, दोनों ओरकी सेनाओंके युद्धारम्भकी तैयारीके समय वह अमर ज्ञान गा डाला जो लाखों-करोड़ों वर्ष तपस्या करनेपर भी सुननेको नहीं मिलता। प्रेमके कारण ही भगवान् श्रीकृष्णने अपने महत्त्वकी बातें नि:संकोचरूपसे अर्जुनके सामने कह डालीं। प्रेमके कारण ही उन्हें विभूतियोग बतलाकर अपना विश्वरूप दिखला दिया। नवम अध्यायके ‘राजविद्याराजगुह्य’ की प्रस्तावनाके अनुसार अन्तके श्लोकमें अपना महत्त्व बतला देने, दशम और एकादशमें विभूति और विश्वरूपका प्रत्यक्ष ज्ञान करा देने और पंद्रहवें अध्यायमें ‘मैं पुरुषोत्तम हूँ’ ऐसा स्पष्ट कह देनेपर भी जब अर्जुन भगवान‍्के मायावश भलीभाँति उन्हें नहीं समझे, तब प्रेमके कारण ही अपना परम गुह्य रहस्य जो नवम अध्यायके अन्तमें इशारेसे कहा था, भगवान् स्पष्ट शब्दोंमें सुना देते हैं। भगवान् कहते हैं ‘मेरे प्यारे! तू मेरा बड़ा प्यारा है, इसीसे भाई! मैं अपना हृदय खोलकर तेरे सामने रखता हूँ, बड़े संकोचकी बात है, हर एकके सामने नहीं कही जा सकती, सब प्रकारके गोपनीयोंमें भी परम गोपनीय (सर्वगुह्यतमम्) विषय है, ये मेरे अत्यन्त गुप्त रहस्यमय शब्द (मे परमं वच:) हैं, कई बार पहले कुछ संकेत कर चुका हूँ, अब फिर सुन (भूय: शृणु), बस, तेरे हितके लिये ही कहता हूँ (ते हितं वक्ष्यामि); क्योंकि इसीमें मेरा भी हित है। क्या कहूँ? अपने मुँह ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये, इससे आदर्श बिगड़ता है, लोकसंग्रह बिगड़ता है; परन्तु भाई! तू मेरा अत्यन्त प्रिय है (मे प्रिय: असि), तुझे क्या आवश्यकता है इतने झगड़े-बखेड़ेकी? तू तो केवल प्रेम कर। प्रेमके अन्तर्गत मन लगाना, भक्ति करना, पूजा और नमस्कार करना आप-से-आप आ जाता है, मैं भी यही कह रहा हूँ। अतएव भाई! तू भी मुझे अपना प्रेममय जीवनसखा मानकर मेरे ही मनवाला बन जा, मेरी ही भक्ति कर, मेरी ही पूजा कर, मुझे ही नमस्कार कर, मैं सत्य कहता हूँ, अरे भाई! शपथ खाता हूँ, ऐसा करनेसे तू और मैं एक ही हो जायँगे; (गीता १८। ६५) क्योंकि एकता ही प्रेमका फल है। प्रेमी अपने प्रेमास्पदके सिवा और कुछ भी नहीं जानता; किसीको नहीं पहचानता, उसका तो जीवन, प्राण, धर्म, कर्म, ईश्वर जो कुछ भी होता है सो सब प्रेमास्पद ही होता है, वह तो अपने-आपको उसीपर न्योछावर कर देता है, तू सारी चिन्ता छोड़ दे (मा शुच:), धर्म-कर्मकी कुछ भी परवा न कर (सर्वधर्मान् परित्यज्य), केवल एक मुझ प्रेमस्वरूपके प्रेमका ही आश्रय ले ले। (माम् एकं शरणं व्रज), प्रेमकी ज्वालामें तेरे सारे पाप-ताप भस्म हो जायँगे। तू मस्त हो जायगा।’ यह प्रेमकी तन-मन-लोक-परलोक भुलावनी मस्ती ही तो प्रेमका स्वरूप है—

यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवति, अमृतो भवति, तृप्तो भवति। यत्प्राप्य न किञ्चिद्वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति। यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति।

(नारदभक्तिसूत्र ४—६)

जिसे पाकर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमृतत्वको पा जाता है, सब तरहसे तृप्त हो जाता है, जिसे पाकर फिर वह न अप्राप्त वस्तुको चाहता है, न ‘गतासून् अगतासून्’ के लिये चिन्ता करता है, न मनके विपरीत घटना या सिद्धान्तसे द्वेष करता है, न मनोऽनुकूल विषयोंमें आसक्त होता है और न प्यारेकी सुख-सेवाके सिवा अन्य कार्यमें उसका उत्साह होता है। वह तो बस, प्रेममें सदा मतवाला बना रहता है, वह स्तब्ध और आत्माराम हो जाता है। इस सुखके सामने उसको ब्रह्मानन्द भी गोष्पदके समान तुच्छ प्रतीत होता है (सुखानि गोष्पदायन्ते ब्रह्मण्यपि)।

इस स्थितिमें उसका जीवन केवल प्रेमास्पदको सुख पहुँचानेके निमित्त उसकी रुचिके अनुसार कार्य करनेके लिये ही होता है। हजार मनके प्रतिकूल काम हो, प्रेमास्पदकी उसमें रुचि है, ऐसा जानते ही सारी प्रतिकूलता तत्काल सुखमय अनुकूलताके रूपमें परिणत हो जाती है। प्रेमास्पदकी रुचि ही उसके जीवनका स्वरूप बन जाता है। उसका जीवनव्रत ही होता है केवल ‘प्रेमास्पदके सुखसे सुखी रहना’ (तत्सुखसुखित्वम्) वह इसीलिये जीवन धारण करता है। मेरा अवतारधारण भी इन अपने प्रेमास्पदोंके लिये ही है, इसीलिये—

भूतेष्वन्तर्यामी ज्ञानमय: सच्चिदानन्द:।
प्रकृते: पर: परात्मा यदुकुलतिलक: स एवायम्॥

—तो ‘मैं सर्वभूतोंका अन्तर्यामी प्रकृतिसे परे ज्ञानमय सच्चिदानन्दघन ब्रह्म प्रेममय दिव्य देह धारण कर यदुकुलमें अवतीर्ण हुआ हूँ।’

भगवान‍्ने गीताके १८वें अध्यायके ६४वेंसे ६६वेंतक तीन श्लोकोंमें जो कुछ कहा, उसीका उपर्युक्त तात्पर्यार्थ है। प्रेमका यह मूर्तिमान् स्वरूप प्रकट तो कर दिया, परन्तु फिर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि ‘यह गुह्य रहस्य तपरहित, भक्तिरहित, सुननेकी इच्छा न रखनेवाले और मुझमें दोष देखनेवालेके सामने कभी न कहना।’ (गीता १८। ६७) इस कथनमें भी प्रेम भरा है, तभी तो अपना गुह्य रहस्य कहकर फिर उसकी गुह्यताका महत्त्व अपने ही मुखसे बढ़ाते हुए भगवान् अर्जुनके सामने संकोच छोड़कर ऐसा कह देते हैं। इस अधिकारी-निरूपणका एक अभिप्राय यह है कि इस परम तत्त्वको ग्रहण करनेवाले लोग संसारमें सदासे ही बहुत थोड़े होते हैं (मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चित्)। जिसका मन तपश्चर्यासे शुद्ध हो गया हो, जिसका अन्त:करण भक्तिरूपी सूर्यकिरणोंसे नित्य प्रकाशित हो, जिसको इस प्रेमतत्त्वके जाननेकी सच्चे मनसे तीव्र उत्कण्ठा हो एवं जो भगवान‍्की महिमामें भूलकर भी सन्देह नहीं करता हो, वही इसका अधिकारी है। भगवान‍्की मधुर बाललीलामें भाग्यवती प्रात:स्मरणीया गोपियाँ इसकी अधिकारिणी थीं। इस रणलीलामें अर्जुन अधिकारी हैं। अनधिकारियोंके कारण ही आज गोपी-माधवकी पवित्र आध्यात्मिक प्रेमलीलाका आदर्श दूषित हो गया और उसका अनधिकार अनुकरण कर मनुष्य कठिन पापपंकमें फँस गये हैं। गोपियोंका जीवन भी ‘तत्सुखसुखित्वम्’ के भावमें रँगा हुआ था और इस प्रेम-रहस्यका उद्घाटन होते ही अर्जुन भी इसी रंगमें रँगकर अपनी सारी प्रतिकूलताओंको भूल गये, भूल ही नहीं गये, सारी प्रतिकूलताएँ तुरंत अनुकूलताके रूपमें परिवर्तित हो गयीं और वह आनन्दसे कह उठे—

‘करिष्ये वचनं तव’

—‘तुम जो कुछ चाहोगे, जो कुछ कहोगे, बस मैं वही करूँगा; वही मेरे जीवनका व्रत होगा।’ इसीको अर्जुनने जीवनभर निबाहा। यही प्रेमतत्त्व है, यही शरणागति है। भगवान‍्की इच्छामें अपनी सारी इच्छाओंको मिला देना, भगवान‍्के भावोंमें अपने सारे भावोंको भुला देना, भगवान‍्के अस्तित्वमें अपने अस्तित्वको सर्वथा मिटा देना, यही ‘मामेकं शरणम्’ है, यही प्रेमतत्त्व है, यही गीताका रहस्य है। इसीसे गीताका पर्यवसान साकार भगवान‍्की शरणागतिमें समझा जाता है। इसी परमपावन परमानन्दमय लक्ष्यको सामने रखकर प्रेमपथपर अग्रसर होना गीताके साधककी साधना है। इसीसे कविके शब्दोंमें साधक पुकारकर कहता है—

एकै अभिलाख लाख लाख भाँति लेखियत,
देखियत दूसरो न देव चराचरमें।
जासों मनु राँचै, तासों तनु मनु राँचै, रुचि—
भरिकै उघरि जाँचै, साँचै करि करमें॥
पाँचनके आगे आँच लगे ते न लौटि जाय,
साँच देइ प्यारेकी सती लौं बैठे सरमें।
प्रेमसों कहत कोऊ, ठाकुर, न ऐंठों सुनि,
बैठो गड़ि गहरे, तो पैठो प्रेम-घरमें॥१॥
कोऊ कहौ कुलटा कुलीन अकुलीन कहौ,
कोऊ कहौ रंकिनि, कलंकिनि कुनारी हौं।
कैसो नरलोक परलोक बरलोकनमें,
लीन्ही मैं अलीक, लोक-लोकनिते न्यारी हौं
तन जाउ, मन जाउ, देव गुरु-जन जाउ,
प्रान किन जाउ, टेक टरत न टारी हौं।
वृन्दावन-वारी बनवारीकी मुकुटवारी,
पीतपटवारी वहि मूरति पै वारी हौं॥२॥
तौक पहिरावौ, पाँव बेड़ी लै भरावौ, गाढ़े—
बन्धन बँधावौ औ खिंचावौ काची खालसों।
विष लै पिलावौ, तापै मूठ भी चलावौ,
माँझधारमें डुबावौ बाँधि पत्थर ‘कमाल’ सों॥
बिच्छू लै बिछाऔ, तापै मोहि लै सुलावौ, फेरि
आग भी लगावौ बाँधि कापड़-दुसाल सों।
गिरिते गिरावौ, काले नागते डसावौ,! हा! हा!
प्रीति न छुड़ावौ गिरिधारी नंदलालसों॥ ३॥

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