गीता गंगा
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जीवकी तृप्ति कैसे हो?

जीव सदा ही अतृप्त है। साधारण कीट-पतंगसे लेकर बड़े-बड़े सम्राट्तक सभी किसी-न-किसी अभावका अनुभव कर सदा दु:खी रहते हैं। कोई कितनी भी सांसारिक सम्पत्तिका या कितने ही उच्च पदका अधिकारी क्यों न हो, अपनी स्थितिसे सन्तुष्ट नहीं है, उसके हृदयमें किसी वस्तुकी कमी सदा खटकती है—वह कुछ और चाहता है। बड़े-बड़े देवताओंकी भी यही दशा सुनी जाती है।

जहाँ अतृप्ति है, अभावकी वेदना है, वहीं चित्त चंचल और अशान्त है, जिसका चित्त अशान्त है, वही दु:खी है ‘अशान्तस्य कुत: सुखम्।’

यह अतृप्ति तबतक नहीं मिट सकती, जबतक कि जीव किसी ऐसी परम वस्तुको न प्राप्त कर ले, जिसकी सत्तासे समस्त अभावोंका सर्वथा अभाव हो जाता हो—जो पूर्ण हो। विवेकबुद्धि बतलाती है कि ऐसी परम वस्तु एक परमात्मा ही है, जो सदा एकरस रहता है, उसके सिवा अन्य सभी वस्तुएँ किसी-न-किसी अभावसे युक्त—परिणामविनाशी हैं और प्रतिक्षण विनाशकी ओर अग्रसर हो रही हैं। ऐसी विनाशशील अपूर्ण वस्तुओंसे जीवका पूर्णकाम होना कभी सम्भव नहीं। इसीलिये जीव नित्य अतृप्त है और वह संसारकी सभी वस्तुओंको ‘यह भी वह नहीं है’ ‘इसमें भी वह नहीं है’ यों ‘नेति-नेति’ कहता हुआ उनमें अपनी इच्छित वस्तु न पाकर स्वभावसे ही उस अभावरहित नित्य वस्तुकी ओर अग्रसर हो रहा है।

इतना होनेपर भी कभी-कभी भ्रमवश जीव संसारी पदार्थोंमें सुखकी कल्पना कर अपने लक्ष्यको भूल जाता है। ऐसे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं जो नचिकेता और प्रह्लादकी भाँति जगत‍्के समस्त प्रलोभनोंको पददलित कर पूर्णकी प्राप्तिके लिये बद्धपरिकर हो चुके हों। हजारोंमेंसे कोई एक इस प्रकार प्रयत्न करना चाहता है, वैसे हजारोंमें कोई एक प्रयत्न करता है और प्रयत्न करनेवाले लोगोंमें भी कोई विरला ही शेषतक अपने लक्ष्यपर स्थिर रह सकता है। अधिकांश लोग तो अपने मतको ही सर्वश्रेष्ठ मानकर दूसरोंकी निन्दा करने लगते हैं और दलबंदीमें पड़कर लक्ष्यभ्रष्ट हो अपने ईश्वरका आप ही अपमान कर बैठते हैं। अपने साधनपथको सर्वश्रेष्ठ समझना बुरा नहीं है? साधकके लिये तो यह आवश्यक भी है, परन्तु दूसरेको हीन समझना बहुत बुरा है। आज दुनियामें जो इतने अधिक मत-मतान्तर और उनमें परस्पर विवाद, द्वेष, द्रोह वर्तमान हैं, इसका प्रधान कारण यही है। नहीं तो, जब ईश्वर एक है, वह एक ही सृष्टिका रचयिता है, सम्पूर्ण जगत् उसीसे उत्पन्न है, वही एक सबका पालन करता है, फिर आपसमें लड़नेका क्या कारण? एक ही पिताकी सन्तान होकर एक-दूसरेको हीन बतलानेका क्या कारण? कारण यही कि हमने अपने अज्ञानसे उस एककी जगह अनेक ईश्वरोंकी सृष्टि कर अपने ईश्वरको छोटा बना लिया है।

हिंदुओंमें शैव, वैष्णव, शाक्त, गाणपत्य, सौर, वेदान्ती, बौद्ध, जैन, सिख आदि अनेक मत हैं। इनमें भी भिन्न-भिन्न आचार्योंके अनुसार भिन्न-भिन्न अनेक सम्प्रदाय हैं। हिंदुओंके सिवा मुसलमान, ईसाई, यहूदी, पारसी आदि अनेक मत हैं। प्रत्यक्ष या परोक्ष भावसे प्राय: सभी ईश्वरको मानते हैं। देश, काल, प्रकृति, रुचि और अधिकार आदिके भेदसे मतोंमें, उनके बाहरी व्यवहारोंमें तथा उनकी उपासना-पद्धतिमें भेद रहना आश्चर्यकी बात नहीं है। यहाँ हमें किसी मतसे विरोध नहीं है, सभी मत रहें, अपनी-अपनी प्रकृतिके अनुसार चलते रहें; परन्तु यह विवेक सबमें सर्वदा जाग्रत् रहना चाहिये कि हम सब भिन्न-भिन्न साधनोंसे उस एक ही परम साध्यकी ओर बढ़ रहे हैं, जिसको वैष्णव श्रीविष्णु या श्रीराम, श्रीकृष्ण कहते हैं, शैव शिव, शाक्त दुर्गा, गाणपत्य गणेश, सौर सूर्य, वेदान्ती ब्रह्म, मुसलमान अल्लाह और ईसाई अंग्रेजीमें गॉड कहते हैं। उस एक ही चरम लक्ष्य स्थानतक पहुँचनेके भिन्न-भिन्न अनेक मार्ग हैं, जो रास्तेकी सुगमता, दुर्गमता और अपनी-अपनी गतिके अनुसार आगे-पीछे एक ही जगह पहुँचा देते हैं।

ऐसा न मानकर अपने-अपने ईश्वरको अलग माननेसे एककी जगह ईश्वर अनेक हो जाते हैं जिससे प्रत्येक ईश्वरकी सीमा परिमित हो जाती है। मान लीजिये, एक साधक धनुर्बाणधारी भगवान् श्रीरामको ईश्वर मानता है, दूसरा वैष्णव बालरूप मुरलीमनोहर श्यामसुन्दरको ईश्वर मानता है, तीसरे मुसलमानके मतसे ईश्वरका रूप मुसलमानके सदृश दाढ़ी-वदनाधारी है, चौथे यूरोपीय सज्जन ईश्वरको हैट-कोट-बूटधारी समझते हैं। ये चारों ही ईश्वरको मानते हैं, उसकी भक्ति करते हैं और उसे सर्वश्रेष्ठ समझकर उपासना करते हैं। क्या ये चारों ही वास्तवमें एक ही ईश्वरकी भक्ति नहीं करते? जब ईश्वर एक है तो भक्ति उस एकहीकी होती है; परन्तु दूसरोंके ईश्वरको अपने ही ईश्वरका एक और रूप न माननेके कारण वह तत्त्वज्ञानशून्य पूजा सर्वव्यापी ईश्वरकी न होकर सीमाबद्ध अल्प-स्थलव्यापीकी होती है। दूसरोंके ईश्वरको अपने ही ईश्वरका स्वरूप न माननेसे अपना ईश्वर अपनी ही मान्यतातक परिमित रह जाता है; क्योंकि दूसरे तो हमारे ईश्वरको मानते नहीं। परिणाममें हमारी ही अल्पज्ञतासे हम अपने ईश्वरको छोटे-से घेरेमें बंदकर क्षुद्र बना देते हैं, जो एक तामसी कार्य ही होता है। धनुर्बाणधारी श्रीरामके सच्चे उपासकको अपने भावसे अपने इष्ट रूपकी उपासना करते हुए भी दूसरोंके द्वारा दूसरे रूपकी उपासना होते देखकर यह समझकर प्रसन्न होना चाहिये कि मेरे भगवान् श्रीरामकी कैसी अपार महिमा है कि जो भक्तकी भावनाके अनुसार कहीं श्यामसुन्दर गोपाल बन जाते हैं तो कहीं जटाजूटधारी शिव बन जाते हैं, कहीं आकाशवत् सर्वव्यापी निरवयव बन जाते हैं तो कहीं दाढ़ी या हैट-कोटधारी बन जाते हैं। इसी प्रकार अन्यान्य नाम-रूपोंके उपासकोंको भी मानना चाहिये। वास्तवमें बात भी यही है।

एक साध्वी पतिव्रता ब्राह्मणीके स्वामी बड़े विद्वान् और गुणी पुरुष थे। विद्वान्, शुद्ध और सदाचारी होनेके कारण नगरके अनेक श्रद्धालु लोगोंने उनसे दीक्षा ग्रहण की थी। उनकी नेकचलनी और न्याय-परायणतासे सन्तुष्ट होकर सरकारने उन्हें मजिस्ट्रेटके अधिकार दे दिये थे। वे बड़े अच्छे कथावाचक थे, प्रतिदिन रातको उनकी कथा होती थी, जिसमें हजारों नर-नारी सुनने आया करते थे। गरीब किसानों और दीन-दु:खियोंके साथ वे सच्ची सहानुभूति रखते थे, इससे हजारों गरीब उन्हें अपना रक्षक और पिता-सदृश समझने लगे थे। गाँव, घर, परिवार सबसे अच्छा बर्ताव होनेके कारण सभी अपने-अपने सम्बन्धके अनुसार उनको सम्बोधन कर उनका सम्मान करते थे। साध्वी स्त्री पतिकी एकान्तभावसे सदा सेवा किया करती थी और शिष्योंके द्वारा गुरुभावसे, सरकारी कर्मचारियोंके द्वारा उच्च अधिकारीभावसे, श्रोताओंके द्वारा पण्डितभावसे, गरीबोंके द्वारा रक्षकभावसे और घर-परिवारके लोगोंद्वारा सम्बन्धानुसार आत्मीय भावसे, यों भिन्न-भिन्न लोगोंद्वारा अपनी-अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न भावोंसे अपने ही प्रियतम पतिको पूजित होते देखकर वह बहुत प्रसन्न हुआ करती और पतिकी गुणावलीपर मुग्ध होकर उसमें अपना गौरव समझती। किसी भी भावसे पतिका सम्मान करनेवालेको वह अपने पतिका प्रेमी समझकर सबसे प्रेम किया करती। इसी प्रकार साधकको भी ईश्वरके सभी रूपोंको केवल अपने ही आराध्य इष्टदेवकी सच्ची प्रतिमूर्ति समझकर अपने इष्ट रूपकी अपनी भावनाके अनुसार ही उपासना करते हुए भी सबका सम्मान और सबसे प्रेम करना चाहिये।

जबतक यह समझ नहीं होती, तभीतक भ्रम है, झगड़ा है, द्वेष-द्रोह और वैर-विषाद है। इस ज्ञानकी उपलब्धि होते ही सारे झगड़े आप-से-आप निपट जाते हैं। सारे गहनोंका अधिष्ठान सोना एक है, केवल गहनोंके नाम, रूप और व्यवहारमें भेद है। बर्तनोंका अधिष्ठान मिट्टी एक है। नाम-रूपकी उपाधिसे व्यवहारमें भेद है। इसी प्रकार ईश्वर एक है, नाम-रूपके भेदसे भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार सभी एक तत्त्व है। वाष्प ही जलकी बूँद बनती है, फिर वह जल ही वाष्प बनकर निराकार आकाशमें रम जाता है।

जैसे एक ही व्यापक निराकार अग्नि वस्तुभेदसे भिन्न-भिन्न आकारोंमें व्यक्त होती है, उसी प्रकार एक ही अव्यक्तमूर्ति सच्चिदानन्दघन परमात्मासे समस्त जगत् परिपूर्ण होनेपर भी अपनी-अपनी भावनाके अनुसार वह सबको भिन्न-भिन्न रूपोंमें दीखता है। भगवान‍्का कोई भी रूप मिथ्या नहीं है। नाम-रूपसे अतीत परमात्मा सभी नाम-रूपोंमें नित्य सुप्रतिष्ठित है। सूत्रमें सूत्रकी मणियोंकी भाँति सबमें वही एक ओत-प्रोत है, उसके सिवा अन्य कुछ भी नहीं है। भक्त उसके जिस रूपमें श्रद्धा करता है, वह उसे अपने उसी रूपमें पूर्णता प्राप्त करानेके लिये—अपना पूर्ण, सर्वथा अभावरहित, निरावरण मुखकमल-दर्शन करानेके लिये उसी रूपमें उसकी श्रद्धा अचल कर देता है। भक्तके लाभके लिये ही ऐसा होता है।

खेदकी बात तो यही है कि हमलोग केवल बाहरी बातोंको ही तत्त्व समझकर उन्हींमें लगे रहते हैं, अंदर प्रवेश ही नहीं करना चाहते। इसीसे ईश्वरके नामपर जगत‍्में लड़ाइयाँ होती हैं। किसी एक सम्प्रदाय-विशेषके नाम-रूपको ही सब कुछ मानकर अन्य समस्त सम्प्रदायोंके साधनोंके नाम-रूपमें तुच्छ बुद्धिकर, सम्पूर्ण साधनोंके परम तत्त्व, प्राय: सभी सम्प्रदायोंके आदि आचार्योंके चरमलक्ष्य एक शुद्ध सच्चिदानन्दघन परमात्माको भुलाकर, हम ‘धनमानमदान्वित’ और ‘मोहजालसमावृत’ हो, अहंकार, बल, दर्प, काम-क्रोधादिका आश्रय लेकर सर्वभूतस्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करने लगते हैं, इसीलिये हम उस अभावरहित सच्चे सुखसे वंचित रहकर बारम्बार दु:ख-दावानलमें दग्ध होते हुए मृत्युका शिकार बनते रहते हैं। यदि हम इस तत्त्वको समझ लें कि ‘सबके अंदर एक ही ईश्वर है, सब उस एकसे ही उत्पन्न हैं और उस एककी ओर ही अविच्छिन्न गतिसे अग्रसर हो रहे हैं तो फिर किसीका किसीसे कोई विरोध न रहे और अपने साधनमें सब सुखी हो रहें।

एक ही ईश्वरकी संतान होकर एक-दूसरेको नष्ट-भ्रष्ट करनेकी चेष्टा हमारे अज्ञानको ही प्रकट करती है। भारतवर्षके अध्यात्मवादमें एकत्वका परम तत्त्व निहित है। ‘समस्त अनेकतामें एकताका अनुभव करना ही भारतीय धर्मका ध्येय है।’ भारतवासियोंको स्वयं अपने ध्येयकी ओर अग्रसर होकर जगत‍्के सामने क्रियारूपमें यह आदर्श रखना चाहिये, जिससे जगत् उस परम शान्ति और सुखके पथपर आरूढ़ हो, उस नित्य तृप्तिकर सुधाका आस्वादन कर सुखी हो सके!

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