गीतामें व्यक्तोपासना
श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्मा प्रभु श्रीकृष्णकी दिव्य वाणी है। जगत्में इसकी जोड़ीका कोई भी शास्त्र नहीं। सभी श्रेणीके लोग इसमेंसे अपने-अपने अधिकारानुसार भगवत्प्राप्तिके सुगम साधन प्राप्त कर सकते हैं। इसमें सभी मुख्य-मुख्य साधनोंका विशद वर्णन है, परन्तु कोई भी एक-दूसरेका विरोधी नहीं है। सभी परस्पर सहायक हैं। ऐसा सामंजस्यपूर्ण ग्रन्थ केवल गीता ही है। कर्म, भक्ति और ज्ञान—इन तीन प्रधान सिद्धान्तोंकी जैसी उदार, पूर्ण, निर्मल, उज्ज्वल सरल एवं अन्तर और बाह्य लक्षणोंसे युक्त हृदयस्पर्शी सुन्दर व्यावहारिक व्याख्या इस ग्रन्थमें मिलती है वैसी अन्यत्र कहीं नहीं। प्रत्येक मनुष्य अपनी रुचिके अनुसार किसी एक मार्गपर आरूढ़ होकर अनायास ही अपने चरम लक्ष्यतक पहुँच सकता है। श्रीमद्भगवद्गीताको हम ‘निष्काम कर्मयोगयुक्त भक्तिप्रधान ज्ञानपूर्ण अध्यात्मशास्त्र’ कह सकते हैं। यह सभी प्रकारके मार्गोंमें संरक्षक, सहायक, मार्गदर्शक, प्रकाशदाता और पवित्र पाथेयका प्रत्यक्ष व्यावहारिक काम दे सकता है। गीताके प्रत्येक साधनमें कुछ ऐसे दोषनाशक प्रयोग बतलाये गये हैं, जिनका उपयोग करनेसे दोष समूल नष्ट होकर साधन सर्वथा शुद्ध और उपादेय बन जाता है। इसीलिये गीताका कर्म, गीताका ज्ञान, गीताका ध्यान और गीताकी भक्ति सभी सर्वथा पापशून्य, दोषरहित, पवित्र और पूर्ण हैं। किसीमें भी तनिक पोलको गुंजाइश नहीं।
गीताके बारहवें अध्यायका नाम भक्तियोग है, इसमें कुल बीस श्लोक हैं। पहले श्लोकमें भक्तवर अर्जुनका प्रश्न है और शेष उन्नीस श्लोकोंमें भगवान् उसका उत्तर देते हैं। इनमें प्रथम ग्यारह श्लोकोंमें तो भगवान्के व्यक्त (साकार) और अव्यक्त (निराकार) स्वरूपके उपासकोंकी उत्तमताका निर्णय किया गया है एवं भगवत्प्राप्तिके कुछ उपाय बतलाये गये हैं। अगले आठ श्लोकोंमें परमात्माके परम प्रिय भक्तोंके स्वाभाविक लक्षणोंका वर्णन है।
भगवान्ने कृपापूर्वक अर्जुनको दिव्य चक्षु प्रदानकर अपना विराट्स्वरूप दिखलाया, उस विकराल कालस्वरूपको देखकर अर्जुनके घबड़ाकर प्रार्थना करनेपर अपने चतुर्भुजरूपके दर्शन कराये, तदनन्तर मनुष्य-देहधारी सौम्य रसिकशेखर श्यामसुन्दर श्रीकृष्णरूप दिखाकर उनके चित्तमें प्रादुर्भूत हुए। भय और अशान्तिका नाश कर उन्हें सुखी किया। इस प्रसंगमें भगवान्ने अपने विराट् और चतुर्भुजरूपकी महिमा गाते हुए इनके दर्शन प्राप्त करनेवाले अर्जुनके प्रेमकी प्रशंसा की और कहा कि ‘मेरे इन स्वरूपोंको प्रत्यक्ष नेत्रोंद्वारा देखना, इसके तत्त्वको समझना और इनमें प्रवेश करना केवल ‘अनन्यभक्ति’ से ही सम्भव है।’ इसके बाद अनन्यभक्तिका स्वरूप और उसका फल अपनी प्राप्ति बतलाकर भगवान्ने अपना वक्तव्य समाप्त किया। एकादश अध्याय यहीं पूरा हो गया। अर्जुन अबतक भगवान्के अव्यक्त और व्यक्त दोनों ही स्वरूपोंकी और दोनोंके ही उपासकोंकी प्रशंसा और दोनोंसे ही परमधामकी प्राप्ति होनेकी बात सुन चुके हैं। अब वे इस सम्बन्धमें एक स्थिर निश्चयात्मक सिद्धान्त-वाक्य सुनना चाहते हैं, अतएव उन्होंने विनम्र शब्दोंमें भगवान्से प्रार्थना करते हुए पूछा—
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमा:॥
(गीता १२। १)
‘हे नाथ! जो अनन्यभक्त आपके द्वारा कथित विधिके अनुसार निरन्तर मन लगाकर आप व्यक्त—साकाररूप मनमोहन श्यामसुन्दरकी उपासना करते हैं एवं जो अविनाशी सच्चिदानन्दघन अव्यक्त-निराकाररूपकी उपासना करते हैं, इन दोनोंमें अति उत्तम योगवेत्ता कौन हैं?’ प्रश्न स्पष्ट है—अर्जुन कहते हैं, आपने अपने व्यक्तरूपकी दुर्लभता बताकर केवल अनन्यभक्तिसे ही उस रूपके प्रत्यक्ष दर्शन, उसका तत्त्वज्ञान और उसमें एकत्व प्राप्त करना सम्भव बतलाया तथा फिर उस अनन्यताके लक्षण बतलाये। परन्तु इससे पहले आप कई बार अपने अव्यक्तोपासकोंकी भी प्रशंसा कर चुके हैं, अब आप निर्णयपूर्वक एक निश्चित मत बतलाइये कि इन दोनों प्रकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन हैं? भगवान्ने उत्तरमें कहा—
मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।
श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता:॥
(गीता १२।२)
‘हे अर्जुन! जो मुझ साकाररूप परमेश्वरमें मन लगाकर निश्चल परम श्रद्धासे युक्त हो निरन्तर मेरी ही उपासनामें लगे रहते हैं, ‘मेरे मतसे वे ही परम उत्तम योगी हैं।’ उत्तर भी स्पष्ट है—भगवान् कहते हैं—‘मेरे द्वारा बतलायी हुई विधिके अनुसार मुझमें निरन्तर चित्त एकाग्र करके जो परम श्रद्धासे मेरी उपासना करते हैं, मेरे मतमें वे ही श्रेष्ठ हैं।’
यहाँ प्रथम श्लोकके ‘त्वाम्’ और इस श्लोकके ‘माम्’ शब्द अव्यक्त-निराकारवाचक न होकर साकारवाचक ही हैं; क्योंकि अगले श्लोकोंमें अव्यक्तोपासनाका स्पष्ट वर्णन है, जो ‘तु’ शब्दसे इससे सर्वथा पृथक् कर दिया गया है। इससे यही सिद्ध होता है कि भगवान्के मतमें उनके साकाररूपके उपासक ही अति श्रेष्ठ योगी हैं एवं एकादश अध्यायके अन्तिम श्लोकके अनुसार उनको भगवत्प्राप्ति होना निश्चित है। परन्तु इससे कोई यह न समझे कि अव्यक्तोपासना निम्न-श्रेणीकी है या उन्हें भगवत्प्राप्ति नहीं होती। इसी भ्रमकी सम्भावनाको सर्वथा मिटा देनेके लिये भगवान् स्वयमेव कहते हैं—
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२। ३-४)
‘समस्त इन्द्रियोंको वशमें करके, सर्वत्र समबुद्धिसम्पन्न हो, जीवमात्रके हितमें रत हुए, जो पुरुष अचिन्त्य (मन-बुद्धिसे परे), सर्वत्रग (सर्वव्यापी), अनिर्देश्य (अकथनीय), कूटस्थ (नित्य एकरस), ध्रुव (नित्य), अचल, अव्यक्त (निराकार), अक्षर ब्रह्मस्वरूपकी निरन्तर उपासना करते हैं, वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।’
इस कथनसे यह निश्चय हो गया कि दोनों ही उपासनाओंका फल एक है, तो फिर अव्यक्तोपासकसे व्यक्तोपासकको उत्तम क्यों बतलाया? क्या बिना ही कारण भगवान्ने ऐसी बात कह दी? क्या मन्दबुद्धि मुमुक्षुओंको उनकी सगुणोपासनाकी प्रवृत्तिकी सिद्धिके लिये उन्हें युक्ततम बतला दिया या उन्हें उत्साही बनाये रखनेके लिये व्यक्तोपासनाकी रोचक स्तुति कर दी अथवा अर्जुनको साकारका मन्द अधिकारी समझकर उसीके लिये व्यक्तोपासनाको श्रेष्ठ करार दे दिया? भगवान्का क्या अभिप्राय था यह तो भगवान् ही जानें परन्तु मेरा मन तो यही कहता है कि भगवान्ने जहाँपर जो कुछ कहा है सो सभी यथार्थ है, उनके शब्दोंमें रोचक-भयानककी कल्पना करना कदापि उचित नहीं, भगवान्ने न तो किसीकी अयथार्थ स्तुति की है और न अयथार्थ किसीको कोसा ही है। यहाँ भगवान्ने जो साकारोपासककी श्रेष्ठता बतलायी है, उसका कारण भी भगवान्ने अगले तीन श्लोकोंमें स्पष्ट कर दिया है—
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम्।
अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते॥
(गीता १२। ५)
‘जिनका मन तो अव्यक्तकी ओर आसक्त है; परन्तु जिनके हृदयमें देहाभिमान बना हुआ है ऐसे लोगोंके लिये अव्यक्त ब्रह्मकी उपासनामें चित्त टिकाना विशेष क्लेशसाध्य है, वास्तवमें निराकारकी गति दु:खपूर्वक ही प्राप्त होती है।’
भगवान्के साकार—व्यक्तस्वरूपमें एक आधार रहता है, जिसका सहारा लेकर ही कोई साधन-मार्गपर आरूढ़ हो सकता है, परन्तु निराकारका साधक तो बिना केवटकी नावकी भाँति निराधार अपने ही बलपर चलता है। अपार संसार-सागरमें विषय-वासनाकी भीषण तरंगोंसे तरीको बचाना, भोगोंके प्रचण्ड तूफानसे नावकी रक्षा करना और बिना किसी मददगारके लक्ष्यपर स्थिर रहते हुए आप ही डाँड़ चलाते जाना बड़ा ही कठिन कार्य है। परन्तु इसके विपरीत भगवान् कहते हैं—
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य मत्परा:।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते॥
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२। ६-७)
—‘जो लोग मेरे (भगवान् के) परायण होकर, मुझको ही अपनी परम गति, परम आश्रय, परम शक्ति और परम लक्ष्य मानते हुए सम्पूर्ण कर्म मुझमें अर्पण करके मुझ साकार ईश्वरकी अनन्ययोगसे निरन्तर उपासना करते हैं, उन मुझमें चित्त लगानेवाले भक्तोंको मृत्युशील संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र सुखपूर्वक मैं पार कर देता हूँ।’ उनको न तो अनन्त अम्बुधिकी क्षुब्ध उत्ताल तरंगोंका भय है और न भीषण झंझावातके आघातसे नौकाके ध्वंस होने या डूबनेका ही डर है। वे तो बस, मेरी कृपासे आच्छादित सुन्दर सुसज्जित दृढ़ ‘बजरेमें’ बैठकर केवल सर्वात्मभावसे मेरी ओर निर्निमेष दृष्टिसे ताकते रहें, मेरी लीलाएँ देख-देखकर प्रफुल्लित होते रहें, मेरी वंशीध्वनि सुन-सुनकर आनन्दमें डूबते रहें, उनकी नावका खेवनहार केवट बनकर मैं उन्हें ‘नचिरात्’ इसी जन्ममें अपने हाथों डाँड़ चलाकर संसार-सागरके उस पार परम धाममें पहुँचा दूँगा।
जो भाग्यवान् भक्त भगवान्के इन वचनोंपर विश्वास कर समस्त शक्तियोंके आधार, सम्पूर्ण ज्ञानके भण्डार, अखिल ऐश्वर्यके आकर, सौन्दर्य, प्रभुत्व, बल और प्रेमके अनन्त निधि उस परमात्माको अपनी जीवन-नौकाका खेवनहार बना लेता है, जो अपनी बाँह उसे पकड़ा देता है, उससे अनायास ही पार उतरनेमें कोई खटका कैसे रह सकता है? उसको न तो नावके टकराने, टूटने और डूबनेका भय है, न चलानेका कष्ट है और न पार पहुँचनेमें तनिक-सा सन्देह ही है।
पार तो अव्यक्तोपासक भी पहुँचता है, परन्तु उसका मार्ग कठिन है। इस प्रकार दोनोंका फल एक ही होनेके कारण सुगमताकी वजहसे यदि भगवान्ने अव्यक्तोपासककी अपेक्षा व्यक्तोपासकको श्रेष्ठ या योगवित्तम बतलाया तो उनका ऐसा कहना सर्वथा उचित ही है, परन्तु बात इतनी ही नहीं है। सरलता-कठिनता तो उपासनाकी है, इससे उपासकमें उत्तम-मध्यमका भेद क्यों होने लगा? फिर व्यक्तोपासक केवल उत्तम ही नहीं, ‘योगवित्तम’ है, योग जाननेवालोंमें श्रेष्ठ है। उपासनाकी सुगमताके कारण आरामकी इच्छासे कठिन मार्गको त्यागकर सरलका ग्रहण करनेवाला श्रेष्ठ योगवेत्ता कैसे हो गया? अवश्य ही इसमें कोई रहस्य छिपा हुआ होना चाहिये और वह यह है—
अव्यक्तोपासक उपासनाके फलस्वरूप अन्तमें भगवान्को प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं, परन्तु व्यक्तोपासकके तो त्रिभुवनमोहन साकार-रूपधारी भगवान् आरम्भसे ही साथ रहते हैं। अव्यक्तोपासक अपनी ‘अहं ब्रह्मास्मि’ की ज्ञाननौकापर सवार होकर यदि मार्गके अहंकार, मान, लोकैषणा आदि विघ्नोंसे बचकर आगे बढ़ पाता है तो अन्तमें संसार-सागरके पार पहुँच जाता है। परन्तु व्यक्तोपासक तो पहलेसे ही भगवान्की कृपारूपी नौकापर सवार होता है और भगवान् स्वयं उसे खेकर पार करते हैं। नौकापर सवार होते ही उसे केवट कृष्णका साथ मिल जाता है। पार पहुँचनेके बाद तो (अव्यक्तोपासक और व्यक्तोपासक) दोनोंके आनन्दकी स्थिति समान है ही; परन्तु व्यक्तोपासक तो मार्गमें भी पल-पलमें परम कारुणिक मोहनकी माधुरी मूरतिके देवदुर्लभ दर्शनकर पुलकित होता है, उसे उनकी मधुर वाणी, विश्वविमोहिनी वंशीकी ध्वनि सुननेको एवं उनकी सुन्दर और शक्तिमयी क्रियाएँ देखनेको मिलती हैं। वह निश्चिन्त बैठा हुआ उनके दिव्य स्वरूप और उनकी लीलाका मजा लूटता है। इसके सिवा एक महत्त्वकी बात और होती है। भगवान् किस मार्गसे क्योंकर नौका चलाते हैं, वह इस बातको भी ध्यानपूर्वक देखता है, जिससे वह भी परम धामके इस सुगम मार्गको और भव-तारण-कलाको सीख जाता है। ऐसे तारण-कलामें निपुण विश्वासपात्र भक्तको यदि भगवान् कृपापूर्वक अपने परम धामका अधिकारी स्वीकार कर और जगत्के लोगोंको तारनेका अधिकार देकर अपने कार्यमें सहायक बनने या अपनी लोक-कल्याणकारिणी लीलामें सम्मिलित रखनेके लिये नौका देकर वापस संसारमें भेज देते हैं तो वह मुक्त हुआ भी भगवान्की ही भाँति जगत्के यथार्थ हितका कार्य करता है और एक चतुर विश्वासपात्र सेवककी भाँति भगवान्के लीला-कार्यमें भी साथ रहता है। ऐसी ही स्थितिके महापुरुष कारक बनकर जगत्में आविर्भूत हुआ करते हैं। अव्यक्तोपासक परम धाममें पहुँचकर मुक्त हो वहीं रह जाते हैं, वे परमात्मामें घुल-मिलकर एक हो जाते हैं, वे वहाँसे वापस लौट ही नहीं सकते। इससे न तो उन्हें परम धाम जानेके मार्गमें साकार भगवान्का संग, उनके दर्शन, उनके साथ वार्तालाप और उनकी लीला देखनेका आनन्द मिलता है और न वे परम धामके पट्टेदार होकर सगुण भगवान्की लीलामें सम्मिलित हो उन्हींकी भाँति निपुण नाविक बनकर वापस ही आते हैं। ‘यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह’ के अनुसार उनके बुद्धि आदि करण जो उनको दिव्य धाममें छोड़कर वहाँसे वापस लौटते हैं, वे भी साधकोंके सामने अव्यक्तोपासना-पथके उन्हीं नाना प्रकारके क्लेशोंके दृश्य रखकर परम धामकी प्राप्तिको ऐसी कष्टसाध्य और दु:खलब्ध बता देते हैं कि लोग उसे सुनकर ही काँप जाते हैं। उनका वैसे दृश्य सामने रखना ठीक ही है; क्योंकि उन्होंने अव्यक्तोपासनाके कण्टकाकीर्ण मार्गमें वही देखे हैं। उन्हें प्रेममय श्यामसुन्दरके सलोने मुखड़ेका तो कभी दर्शन हुआ ही नहीं, उन्हें वह सौन्दर्य-सुधा कभी नसीब ही नहीं हुई, तब वे उस दिव्य रसका स्वाद लोगोंको कैसे चखाते? इसके विपरीत व्यक्तोपासक अपनी मुक्तिको भगवान्के खजानेमें धरोहरके रूपमें रखकर उनकी मंगलमयी आज्ञासे पुन: संसारमें आते हैं और भगवत्प्रेमके परम आनन्द-रस-समुद्रमें निमग्न हुए देहाभिमानी होनेपर भी भगवान्के मंगलमय मनोहर साकाररूपमें एकान्तभावसे मनको एकाग्र करके उन्हींके लिये सर्व कर्म करनेवाले असंख्य लोगोंको दृढ़ और सुखपूर्ण नौकाओंपर चढ़ा-चढ़ाकर संसारसे पार उतार देते हैं। यहाँ कोई यह कहे कि ‘जैसे निराकारोपासक साकारके दर्शन और उनकी लीलाके आनन्दसे वंचित रहते हैं, वैसे ही साकारके उपासक ब्रह्मानन्दसे वंचित रहते होंगे। उन्हें परमात्माका तत्त्वज्ञान नहीं होता होगा।’ परन्तु यह बात नहीं है। निरे निराकारोपासक अपने बलसे जिस तत्त्वज्ञानको प्राप्त करते हैं, भगवान्के प्रेमी साकारोपासकोंको वही तत्त्वज्ञान भगवत्कृपासे मिल जाता है। भक्तराज ध्रुवजीका इतिहास प्रसिद्ध है। ध्रुव व्यक्तोपासक थे, ‘पद्म पलाश-लोचन’ नारायणको आँखोंसे देखना चाहते थे। उनके प्रेमके प्रभावसे परमात्मा श्रीनारायण प्रकट हुए और अपना दिव्य शंख कपोलोंसे स्पर्श कराकर उन्हें उसी क्षण परम तत्त्वज्ञ बना दिया। इससे सिद्ध है कि व्यक्तोपासकको अव्यक्तोपासकोंका ध्येय तत्त्वज्ञान तो भगवत्कृपासे मिल ही जाता है, वे भगवान्की सगुण लीलाओंका आनन्द विशेष पाते हैं और उसे त्रितापतप्त लोगोंमें बाँटकर उनका उद्धार करते हैं। व्यक्तोपासक अव्यक्त-तत्त्वज्ञानके साथ ही व्यक्ततत्त्वको भी जानते हैं, व्यक्तोपासनाका मार्ग जानते हैं, उसके आनन्दको उपलब्ध करते हैं और लोगोंको दे सकते हैं। वे दोनों प्रकारके तत्त्व जानते, उनका आनन्द लेते और लोगोंको बतला सकते हैं, इसलिये भगवान्के मतमें वे ‘योगवित्तम’ हैं, योगियोंमें उत्तम हैं।
वास्तवमें बात भी यही है। प्रेमके बिना रहस्यकी गुह्य बातें नहीं जानी जा सकतीं। किसी राजाके एक तो दीवान है और दूसरा राजाका परम विश्वासपात्र व्यक्तिगत प्रेमी सेवक है। दीवानको राज्यव्यवस्थाके सभी अधिकार प्राप्त हैं। वह राज्यसम्बन्धी सभी कार्योंकी देख-रेख और सुव्यवस्था करता है, इतना होनेपर भी राजाके मनकी गुप्त बातोंको नहीं जानता और न वह राजाके साथ अन्त:पुर आदि सभी स्थानोंमें अबाधरूपसे जा ही सकता है, ‘विहार-शय्यासन-भोजनादि’ में एकान्त देशमें उसको राजाके साथ रहनेका कोई अधिकार नहीं है, यद्यपि राज्यसम्बन्धी सारे काम उसीकी सलाहसे होते हैं। इधर वह राजाका व्यक्तिगत प्रेमी मित्र यद्यपि राज्यसम्बन्धी कार्यमें प्रकाश्यरूपसे कुछ भी दखल नहीं रखता, परन्तु राजाके इच्छानुसार प्रत्येक कार्यमें वह राजाको प्राइवेटमें अपनी सम्मति देता है और राजा भी उसीकी सम्मतिके अनुसार कार्य करता है। राजा अपने मनकी गोपनीय-से-गोपनीय भी सारी बातें उसके सामने नि:शंकभावसे कह देता है। राजाका यह निश्चय रहता है कि ‘यह मेरा प्रेमी सखा दीवानसे किसी हालतमें कम नहीं है। दीवानीका पद तो यह चाहे तो इसको अभी दिया जा सकता है, जब मैं ही इसका हूँ, तब दीवानीका पद कौन बड़ी बात है?’ परन्तु उस मन्त्रीके पदको न तो वह प्रेमी चाहता है और न राजा उसे देनेमें ही सुभीता समझता है; क्योंकि दीवानीका पद दे देनेपर मर्यादाके अनुसार वह राज्यकार्यके सिवा राजाके निजी कार्योंमें साथ नहीं रह सकता, जिनमें उसकी परम आवश्यकता है, क्योंकि वह मन्त्रित्वपदका त्यागी प्रेमी सेवक राजाका अत्यन्त प्रियपात्र है, उसका सखा है और इष्ट है।
यहाँ राजाके स्थानमें परमात्मा, दीवानके स्थानमें अव्यक्तोपासक ज्ञानी और प्रेमी सखाके स्थानमें व्यक्तोपासक प्यारा भक्त है। अव्यक्तोपासक पूर्ण अधिकारी है, परन्तु वह राजा (परमात्मा)- का अन्तरंग सखा नहीं, उसकी निजी लीलाओंसे न तो परिचित है और न उसके आनन्दमें सम्मिलित है। वह राज्यका सेवक है, राजाका नहीं। परन्तु वह प्यारा भक्त तो राजाका निजी सेवक है, राजाका विश्वासपात्र होनेके नाते राज्यका सेवक तो हो ही गया। इसीलिये व्यक्तोपासक मुक्ति न लेकर भगवच्चरणोंकी नित्य सेवा माँगा करते हैं, भगवान्की लीलामें शामिल रहनेमें ही उन्हें आनन्द मिलता है। वास्तवमें वे धन्य हैं जिनके लिये निराकार ईश्वर साकार बनकर प्रकट होते हैं; क्योंकि वे निराकार-साकार दोनों स्वरूपोंके तत्त्वोंको जानते हैं, इसीसे निराकाररूपसे अपने रामको सबमें रमा हुआ जानकर भी, अव्यक्तरूपसे अपने श्रीकृष्णको सबमें व्याप्त समझकर भी धनुर्धारी मर्यादापुरुषोत्तम दाशरथी श्रीरामरूपमें और चित्तको आकर्षण करनेवाले मुरलीमनोहर श्रीकृष्णरूपमें उनकी उपासना करते हैं और उनकी लीला देख-देखकर परम आनन्दमें मग्न रहते हैं। गोसाईंजी महाराजने इसीलिये कहा है—‘निर्गुन रूप सुलभ अति सगुन जान नहिं कोइ।’ अतएव जो ‘सगुण’ सहित निर्गुणको जानते हैं वे ही भगवान्के मतमें ‘योगवित्तम’ हैं।
अब यह देखना है कि गीताके व्यक्तभगवान्का क्या स्वरूप है, उनके उपासककी कैसी स्थिति और कैसे आचरण हैं और इस उपासनाकी प्रधान पद्धति क्या है? क्रमसे तीनोंपर विचार कीजिये—
गीतोक्त साकार उपास्यदेव एकदेशीय या सीमाबद्ध भगवान् नहीं हैं। वे निराकार भी हैं और साकार भी हैं। जो साकारोपासक अपने भगवान्की सीमा बाँधते हैं वे अपने ही भगवान्को छोटा बनाते हैं। गीताके साकार भगवान् किसी एक मूर्ति, नाम या धामविशेषमें ही सीमित नहीं हैं। वे सत्, चेतन, आनन्दघन, विज्ञानानन्दस्वरूप, पूर्ण सनातन, अनादि, अनन्त, अज, अव्यय, शान्त, सर्वव्यापी होते हुए ही सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी सृष्टिकर्ता, परम दयालु, परम सुहृद्, परम उदार, परम प्रेमी, परम मनोहर, परम रसिक, परमप्रभु और परम शूरशिरोमणि हैं। वे जन्म लेते हुए दीखनेपर भी अजन्मा हैं, वे साकार-व्यक्तरूपमें रहनेपर भी निराकार हैं और निराकार होकर भी साकार हैं। वे एक या एक ही साथ अनेक स्थानोंमें व्यक्तरूपसे अवतीर्ण होकर भी अपने अव्यक्तरूपसे, अपनी अनन्त सत्तासे सर्वत्र, सर्वदा और सर्वथा स्थित हैं। मन्दिरमें, मन्दिरकी मूर्तिमें, उसकी दीवारमें, पूजामें, पूजाकी सामग्रीमें और पुजारीमें, बाहर-भीतर सभी जगह वे विद्यमान हैं। वे सगुण-साकाररूपसे भक्तोंके साथ लीला करते हैं और निर्गुण-निराकाररूपसे बर्फमें जलकी भाँति सर्वत्र व्याप्त हैं ‘मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।’ उन परम दयालु प्रभुको हम किसी भी रूप और किसी भी नामसे देख और पुकार सकते हैं। इस रहस्यको समझते हुए हम ब्रह्म, परमात्मा, आनन्द, विष्णु, ब्रह्मा, शिव, राम, कृष्ण, शक्ति, सूर्य, गणेश, अरिहन्त, बुद्ध, अल्लाह, गॉड, जिहोवा आदि किसी भी नाम-रूपसे उनकी उपासना कर सकते हैं। उपासनाके फलस्वरूप जब उनकी कृपासे उनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान होगा तब सारे संशय आप ही मिट जायँगे। इस रहस्यसे वंचित होनेके कारण ही मनुष्य मोहवश भगवान्की सीमा-निर्देश करने लगता है। भगवान् स्वयं कहते हैं—
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
(गीता ४। ६)
अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय:।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्॥
(गीता ७। २४)
अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
(गीता ९। ११)
‘मैं अव्ययात्मा, अजन्मा और सर्वभूतप्राणियोंका ईश्वर रहता हुआ ही अपनी प्रकृतिको अधीन करके (प्रकृतिके अधीन होकर नहीं) योगमायासे—लीलासे साकाररूपमें प्रकट होता हूँ।’ ‘अज, अविनाशी रहता हुआ ही मैं अपनी लीलासे प्रकट होता हूँ। मेरे इस परमोत्तम अविनाशी परम रहस्यमय भावको—तत्त्वको न जाननेके कारण ही बुद्धिहीन मनुष्य मुझ मन-इन्द्रियोंसे परे सच्चिदानन्द परमात्माको साधारण मनुष्यकी भाँति व्यक्तभावको प्राप्त हुआ मानते हैं।’ ‘ऐसे परमभावसे अपरिचित मूढ़ लोग मुझ ‘मनुष्य-रूपधारी’ सर्वभूतमहेश्वर परमात्माको यथार्थत: नहीं पहचानते।’
इससे यह सिद्ध हुआ कि गीताके सगुण-साकार-व्यक्त भगवान्, निराकार-अव्यक्त, अज और अविनाशी रहते हुए ही साकार मनुष्यादि-रूपमें प्रकट हो लोकोद्धारके लिये विविध लीलाएँ किया करते हैं। संक्षेपमें यही गीतोक्त व्यक्त उपास्य भगवान्का स्वरूप है।
अब व्यक्तोपासककी स्थिति देखिये। गीताका साकारोपासक भक्त अव्यवस्थितचित्त, मूर्ख, अभिमानी, दूसरेका अनिष्ट करनेवाला, धूर्त, शोकग्रस्त, आलसी, दीर्घसूत्री, अकर्मण्य, हर्ष-शोकादिसे अभिभूत, अशुद्ध आचरण करनेवाला, हिंसक स्वभाववाला, लोभी, कर्मफलका इच्छुक और विषयासक्त नहीं होता, पापके लिये तो उसके अंदर तनिक भी गुंजाइश नहीं रहती। यह अपनी अहंता-ममता अपने प्रियतम परमात्माके अर्पण कर निर्भय, निश्चिन्त, सिद्धि-असिद्धिमें सम, निर्विकार, विषयविरागी, अनहंवादी, सदा प्रसन्न, सेवापरायण, धीरज और उत्साहका पुतला, कर्तव्यनिष्ठ और अनासक्त होता है। भगवान्ने यहाँ साकारोपासनाका फल और उपासककी महत्ता प्रकट करते हुए संक्षेपमें उसके ये लक्षण बताये हैं—‘वह केवल भगवान्के लिये ही सब कर्म करनेवाला, भगवान्को ही परम गति समझकर उन्हींके परायण रहनेवाला, भगवान्का ही अनन्य और परम भक्त, सम्पूर्ण सांसारिक विषयोंमें आसक्तिरहित, सब भूत-प्राणियोंमें वैरभावसे रहित, मनको परमात्मामें एकाग्र करके नित्य भगवान्के भजन-ध्यानमें रत, परम श्रद्धासम्पन्न, सर्वकर्मोंका भगवान्में भलीभाँति उत्सर्ग करनेवाला और अनन्यभावसे तैलधारावत् परमात्माके ध्यानमें रहकर भजन-चिन्तन करनेवाला होता है (गीता ११। ५५; १२। २,६,७)। गीतोक्त व्यक्तोपासककी संक्षेपमें यही स्थिति है। भगवान्ने इसी अध्यायके अन्तके आठ श्लोकोंमें व्यक्तोपासक सिद्ध भक्तके लक्षण विस्तारसे बतलाये हैं।
अब रही उपासनाकी पद्धति। सो व्यक्तोपासना भक्तिप्रधान होती है। अव्यक्त और व्यक्तकी उपासनामें प्रधान भेद दो हैं—उपास्यके स्वरूपका और उपासकके भावका। अव्यक्तोपासनामें उपास्य निराकार है और व्यक्तोपासनामें साकार। अव्यक्तोपासनाका साधक अपनेको ब्रह्मसे अभिन्न समझकर ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहता है तो व्यक्तोपासनाका साधक भगवान्को ही सर्वरूपोंमें अभिव्यक्त हुआ समझकर ‘वासुदेव: सर्वमिति’ कहता है। उसकी पूजामें कोई आधार नहीं है और इसकी पूजामें भगवान्के साकार मनमोहन विग्रहका आधार है। वह सब कुछ स्वप्नवत् मायिक मानता है तो यह सब कुछ भगवान्की आनन्दमयी लीला समझता है। वह अपने बलपर अग्रसर होता है तो यह भगवान्की कृपाके बलपर चलता है। उसमें ज्ञानकी प्रधानता है तो इसमें प्रेमकी। अवश्य ही परस्पर प्रेम और ज्ञान दोनोंमें ही रहते हैं। अव्यक्तोपासक समझता है कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ, गुण ही गुणोंमें वर्त रहे हैं, वास्तवमें कुछ है ही नहीं। व्यक्तोपासक समझता है कि मुझे अपने हाथकी कठपुतली बनाकर भगवान् ही सब कुछ करा रहे हैं, कर्ता, भोक्ता सब वे ही हैं, मेरे द्वारा जो कुछ होता है सब उनकी प्रेरणासे और उन्हींकी शक्तिसे होता है, मेरा अस्तित्व ही उनकी इच्छापर अवलम्बित है। यों समझकर वह अपना परम कर्तव्य केवल भगवान्का नित्य चिन्तन करना ही मानता है। भगवान् क्या कराते हैं या करायेंगे—इस बातकी वह चिन्ता नहीं करता, वह तो अपने मन-बुद्धि उन्हें सौंपकर निश्चिन्त हो रहता है। भगवान्के इन वचनोंके अनुसार ही उसके आचरण होते हैं—
तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्॥
(गीता ८। ७)
इस उपासनामें दम्भ, दर्प, काम, क्रोध, लोभ, अभिमान, असत्य और मोहको तनिक-सा भी स्थान नहीं है, उपासक इन दुर्गुणोंसे रहित होकर सारे चराचरमें सर्वत्र अपने उपास्यदेवको देखता हुआ उनके नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, कीर्तन, मनन और ध्यानमें निरत रहता है। भजन-साधनको परम मुख्य माननेपर भी वह कर्तव्यकर्मोंसे कभी मुख नहीं मोड़ता; वरं न्यायसे प्राप्त सभी योग्य कर्मोंको निर्भयतापूर्वक धैर्य-बुद्धिसे भगवान्के निमित्त करता है। उसके मनमें एक ही सकाम भाव रहता है, वह यह कि अपने प्यारे भगवान्की इच्छाके विपरीत कोई भी कार्य मुझसे कभी न बनना चाहिये। उसका यह भाव भी रहता है कि मैं परमात्माका ही प्यारा सेवक हूँ और परमात्मा ही मेरे एकमात्र सेव्य हैं, वे मुझपर दया करके मेरी सेवा स्वीकार कर मुझे कृतार्थ करनेके लिये ही अपने अव्यक्त अनन्तस्वरूपमें स्थित रहते हुए ही साकार-व्यक्तरूपमें मेरे सामने प्रकट हो रहे हैं। इसलिये वह निरन्तर श्रद्धापूर्वक भगवान्का स्मरण करता हुआ ही समस्त कर्म करता है। भगवान्ने छठे अध्यायके अन्तमें ऐसे ही भजनपरायण योगीको सर्वश्रेष्ठ योगी माना है।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।
श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मत:॥
(गीता ६। ४७)
‘समस्त योगियोंमें भी जो श्रद्धालु योगी मुझमें लगाये हुए अन्तरात्मासे निरन्तर मुझे भजता है वही मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ है। इस श्लोकमें आये हुए ‘श्रद्धावान्’ और ‘मद्गतेनान्तरात्मना’ के भाव ही द्वादश अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘श्रद्धया परयोपेता:’ और ‘मय्यावेश्य मन:’ में व्यक्त हुए हैं। ‘युक्ततमा:’ शब्द तो दोनोंमें एक ही है। व्यक्तोपासनामें भजनका अभ्यास, भगवान्के साकार-निराकारतत्त्वका ज्ञान, उपास्य इष्टका ध्यान और उसीके लिये सर्वकर्मोंका आचरण और उसीमें सर्वकर्मफलका संन्यास रहता है। व्यक्तोपासक अपने उपास्यकी सेवाको छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहता। इसीसे अभ्यास, ज्ञान और ध्यानसे युक्त रहकर सर्वकर्मफलका—मोक्षका परमात्माके लिये त्याग करते ही उसे परम शान्ति, परमात्माके परम पदका अधिकार मिल जाता है। यही भाव १२ वें श्लोकमें व्यक्त किया गया है।
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्धॺानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्॥
‘रहस्यज्ञानरहित अभ्याससे परोक्ष ज्ञान श्रेष्ठ है, उससे परमात्माका ध्यान श्रेष्ठ है और जिस सर्वकर्मफलत्यागमें अभ्यास, ज्ञान और ध्यान तीनों रहते हैं वह सर्वश्रेष्ठ है, उस त्यागके अनन्तर ही परम शान्ति मिल जाती है।’
इसके बीच ८ से ११ तकके चार श्लोकोंमें—ध्यान, अभ्यास, भगवदर्थ कर्म और भगवत्प्राप्तिरूप योगका आश्रय लेकर कर्मफल-त्याग—ये चार साधन बतलाये गये हैं; जो जिसका अधिकारी हो वह उसीको ग्रहण करे। इनमें छोटा-बड़ा समझनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। हाँ, जिसमें चारों हों वह सर्वोत्तम है, वही परम भक्त है। ऐसे भक्तको जब परम सिद्धि मिल जाती है तब उसमें जिन सब लक्षणोंका प्रादुर्भाव होता है, उन्हींका वर्णन अध्यायकी समाप्तितकके अगले आठ श्लोकोंमें है। वे लक्षण सिद्ध भक्तमें स्वाभाविक होते हैं और साधकके लिये आदर्श हैं। यही गीतोक्त व्यक्तोपासनाका रहस्य है।
इससे यह सिद्धान्त नहीं निकालना चाहिये कि अव्यक्तोपासनाका दर्जा नीचा है या उसकी उपासनामें आचरणोंकी कोई खास भिन्नता है। अव्यक्तोपासनाका अधिकार बहुत ही ऊँचा है। विरक्त, धीर, वीर और सर्वथा संयमी पुरुषपुंगव ही इस कण्टकाकीर्ण मार्गपर पैर रख सकते हैं। उपासनामें भी दो-एक बातोंको छोड़कर प्राय: सादृश्यता ही है। व्यक्तोपासकके लिये ‘सर्वभूतेषु निर्वैर:’ की और ‘मैत्र: करुण:’ की शर्त है तो अव्यक्तोपासकके लिये ‘सर्वभूतहिते रता:’ की है। उसके लिये भगवान्में मनको एकाग्र करना आवश्यक है तो इसके लिये भी समस्त ‘इन्द्रियग्राम’ को भलीभाँति वशमें करना जरूरी है। वह अपने उपास्यमें ‘परम श्रद्धावान्’ है तो यह भी सर्वत्र ब्रह्मदर्शनमें ‘समबुद्धि’ है।
वास्तवमें भगवान्का क्या स्वरूप है और उनकी दिव्यवाणी श्रीगीताके श्लोकोंका क्या मर्म है, इस बातको यथार्थत: भगवान् ही जानते हैं अथवा जो महात्मा भगवत्कृपाका अनुभव कर चुके हैं वे कुछ जान सकते हैं। मुझ-सरीखा विषयरत प्राणी इन विषयोंमें क्या जाने? मैंने यहाँपर जो कुछ लिखा है सो असलमें पूज्य महात्मा पुरुषोंका जूठन-प्रसाद ही है। जिन प्राचीन या अर्वाचीन महात्माओंका मत इस मतसे भिन्न है, वे सभी मेरे लिये तो उसी भावसे पूज्य और आदरणीय हैं। मैंने उनकी वाणीका अनादर करनेके अभिप्रायसे एक अक्षर भी नहीं लिखा है। अवश्य ही मुझे यह मत प्यारा लगता है, सम्भव है इसमें मेरी रुचि और इस ओरकी आसक्ति ही खास कारण हो। मैं तो सब संतोंका दासानुदास और उनकी चरणरजका भिखारी हूँ!