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उन्नतिका स्वरूप

वर्तमान जगत‍्में कोने-कोनेसे उन्नतिकी आवाज आ रही है। चारों ओर उन्नतिकी चर्चा है। सभी क्षेत्रोंमें लोग उन्नति करना चाहते हैं। कहा जाता है कि इस बीसवीं शताब्दीके उन्नतिके युगमें जो देश, जाति, सम्प्रदाय, समाज या व्यक्ति उन्नतिकी दौड़में पीछे रह जायगा, वह नितान्त ही पुरुषार्थहीन समझा जायगा। इसीलिये आज सभी मुट्ठी बाँधकर उन्नतिके मैदानमें मानो बाजी रखकर दौड़ लगा रहे हैं और उन्नति-उन्नतिकी पुकार मचा रहे हैं।

लोगोंके कथनानुसार उन्नति हो भी रही है, जगह-जगह उन्नति या उत्थानके विविध उदाहरण भी उपस्थित किये जाते हैं। ‘यूरोप जंगली था, आज सुसभ्य और परम उन्नत है, उसकी धाक सारे संसारपर जमी हुई है। जापान कुछ समय पूर्व अवनतिके गर्तमें गड़ रहा था, आज धन-जन-सम्मानसे परिपूर्ण है। अमेरिकाकी उन्नतिका तो कहना ही क्या है! संसारके सभी राष्ट्र आज धनके लिये उसीकी ओर सतृष्ण दृष्टिसे ताक रहे हैं। टर्कीने मस्जिदोंकी नीलामी इस्तहार निकालकर, अरबी-लिपिका बहिष्कार कर, औरतोंके चेहरोंसे बुर्का हटाकर और खलीफाके पदको पददलित कर बड़ी भारी उन्नति कर ली है। अफगानिस्तान तो उन्नतिके लिये अपना बलिदान ही दे रहा था।’ भारत भी उन्नतिमें किसीसे पीछे क्यों रहेगा? मिल-महल, टेलीफोन-रेडियो, मोटर-विमान, कॉलेज-बोर्डिंग, होटल-उपहारगृह, प्रेस-पत्र और नाटक सिनेमा आदि सभी उन्नत सभ्य-समाजके सामान मौजूद हैं। सब तरहकी आजादी पानेके लिये सर्वत्र ‘क्रान्ति’ शुरू हो ही गयी है। सभा-समाज और वक्ता-उपदेशक अपना-अपना काम कर रहे हैं। पूरी उन्नति अभी नहीं हुई तो क्या हुआ, कार्यक्रम जारी रहा तो वह दिन भी दूर नहीं समझना चाहिये। बस, दौड़ते रहो, बढ़ते रहो, खबरदार! कोई पिछड़ न जाय। सारांश यह कि आज अखिल विश्वका आकाश उन्नतिके घने मेघोंसे आच्छादित है।

मनमें कई बार प्रश्न उठता है, क्या यही यथार्थ उन्नति है? क्या धन-जन, शारीरिक शक्ति, अस्त्रबल, मान-प्रतिष्ठा, पद-गौरव, रेल-विमान, मोटर आदि भोग-सामग्रियोंके प्राप्त कर लेनेसे ही हम उन्नत हो जाते हैं? क्या जागतिक मोहमयी विद्याका अनुशीलन कर यथेच्छाचरण करनेसे ही हमारी उन्नति हो जाती है? देखा जाता है, विषयसंग्रहके साधनोंमें और उनके संग्रह हो जानेपर भोगोंमें राग-द्वेष बढ़ जाते हैं,हृदय अभिमानसे भर जाता है। काम, क्रोध, लोभ, दम्भ और मदका विस्तार हो जाता है। मन, इन्द्रियाँ काबूसे बाहर हो जाती हैं। चौबीसों घंटे उन्मत्तकी भाँति धन, पुत्र, स्त्री, मान, यशादिके भोगनेमें और उनके संग्रह करनेकी चिन्तामें चित्त संलग्न रहता है। क्या यही उन्नतिके चिह्न हैं? क्या आत्मिक उन्नतिको भुलाकर केवल धन, मान, मदके संग्रहमें लगे रहनेसे उन्नतिके नामपर हमारा मन मोहसे अभिभूत नहीं हो जाता और क्या वह अवनतिके समुद्रमें हमें डुबो नहीं देता? एक बार विचार कीजिये, शान्त चित्तसे सोचिये।

एक मनुष्यने बहुत-सी मिलें बनायीं, जिनसे बहुत धन कमाया, आज वह अरबोंकी सम्पत्तिका स्वामी है। उसके भोग-सुखोंके साधनका पार नहीं है। परंतु उसके इतने धनी होनेमें लाखों गरीब तबाह हो गये। हिंसा, असत्य और धोखेबाजीके साधनोंसे उसका हृदय मलिन हो गया, दया जाती रही! आज भी उसका मन मलिन है, उसमें राग-द्वेष भरा है, वह दूसरोंकी उन्नति देखकर जलता और अवनतिसे खिल उठता है। सत्य, शौच, सन्तोष और परमात्माकी उसे कुछ भी परवा नहीं है। धनके मदसे मतवाला होकर वह आठों पहर भोग-विलास, मान-सम्भ्रम या नाम पैदा करनेमें रत है। दूसरी ओर एक मनुष्यने परोपकारमें या प्रारब्धवश व्यापारके नुकसानमें अपना सारा धन खो दिया या वह जन्मसे ही दरिद्री है। आज उसे पेट भरनेके लिये अन्न और सर्दी-गरमीसे बचनेके लिये पूरा कपड़ा नहीं मिलता, परन्तु इस संकटमें भी उसने सद्विचार और सत्संगसे अपने हृदयको शुद्ध कर रखा है। उसमें दयालुता, सरलता, सहानुभूति और शान्ति आदि गुणोंका प्रादुर्भाव हो गया है, वह सदा दूसरोंका भला चाहता है और यथासाध्य करता भी है, समयपर परमात्माको यादकर दु:खमें भी उसकी दयाका अनुभव करता हुआ प्रसन्नचित्त रहता है। बतलाइये, इन दोनोंमें किसकी यथार्थ उन्नति हुई और हो रही है?

एक मनुष्य बड़ा ईश्वरभक्त या देशभक्त कहलाता है, स्थान-स्थानमें उपदेश देता फिरता है, आचार्य या नेताकी हैसियतसे सर्वत्र पूजा जाता है, जगह-जगह मान या मानपत्र प्राप्त करता है, हजारों-लाखों नर-नारी उसके दर्शन करने और भाषण सुननेको लालायित रहते हैं, पर यह सब कुछ वह राग-द्वेषसे प्रेरित होकर मान प्राप्त करने या धन कमानेके लिये कर रहा है। अपनी भड़कीली वक्तृताओंसे अल्पबुद्धि और अनुभवरहित लोगोंको उत्तेजित और पथभ्रष्ट कर उनको इस लोक और परलोकमें दु:खी बना देता है। दूसरी ओर एक सीधा-सादा ईश्वरभक्त व्यक्ति है, जिसको कोई पूछता-जानता भी नहीं, जो चुपचाप अपने भगवान‍्के सामने रोता है। जो अपने सामर्थ्यके अनुसार चुपचाप शरीर, मन, वाणीसे, रोटीके एक सूखे टुकड़ेसे, चुल्लूभर पानीसे, बीमारीकी हालतमें सेवासे, सद‍्व्यवहारसे और सच्चे सन्मार्गकी शिक्षासे जनताकी सेवा करता है या एकान्तमें बैठकर, जनताकी आँखोंसे ओझल होकर चुपचाप भगवद्भजन ही करता है। बतलाइये, इन दोनोंमें कौन उन्नत है?

एक तंदुरुस्त आदमी रोज अखाड़ेमें जाकर कुश्ती लड़ता है। बात-की-बातमें चाहे जिसे पछाड़ देता है, इसीलिये बल-संग्रह करता है कि वह राग-द्वेषवश जिनको अपना शत्रु समझता है, उन्हें पछाड़ सके। अपने शरीर-बलके अभिमानसे किसीको कुछ समझता ही नहीं, शक्तिके बलपर दूसरोंके मनमें भय उत्पन्न करने और भोग-भोगनेमें ही लगा रहता है। दूसरी ओर एक कोढ़ी मनुष्य है, शरीर अत्यन्त अशक्त हो रहा है, लोग उससे घृणा करते हैं, परन्तु उसका अन्त:करण प्रेमसे पूर्ण है, वह सदा-सर्वदा सबका हित चाहता है, किसीसे द्वेष नहीं करता, जो कुछ मिलता है, उसे ही खाकर एक कोनेमें पड़ा ईश्वरका स्मरण करता है। बतलाइये, इन दोनोंमें आप किसको उन्नतिके पथपर आरूढ़ समझते हैं?

एक बड़े उच्च वर्णका मनुष्य है, रोज घंटों नहाता है, शरीरको खूब मल-मलकर धोता है, तिलक और दिखावटी पूजामें घंटों बिता देता है, किसीको कभी स्पर्श नहीं करता, बड़ा नामी धर्मात्मा कहलाता है, परन्तु अपने वर्ण या जातिके अभिमानवश राग-द्वेषसे प्रेरित होकर दूसरे अपने-ही-जैसे मनुष्योंसे घृणा करता है, उन्हें बुरा-भला कहता है, सबको अपनेसे नीचा समझता है। परम पिता परमात्माकी दूसरी सन्तानसे द्रोह कर परमात्माकी आज्ञाका उल्लंघन करता है और जिसके मनमें ढोंग समाया हुआ है। दूसरी ओर एक नीच वर्णका मनुष्य है, परन्तु उसका हृदय भगवद्भक्तिसे भरा है, वह बड़े प्रेमसे रामनाम लेता है। अपना सब कुछ भगवान‍्का समझता है, कभी किसीकी बुराई नहीं करता और अपनेको सबसे नीचा समझकर सबकी सेवा करना ही अपना धर्म समझता है। बतलाइये, इनमें कौन यथार्थ उन्नति कर रहा है?

एक मनुष्य जिसे कोई बड़ा अधिकार प्राप्त है, सैकड़ों मनुष्य जिससे सलामी भरते हैं, हजारों जिससे काँपते हैं और ‘जी हुजूर’ ‘जी सरकार’ के नामसे सम्बोधन करते हैं; पर जो राग-द्वेषवश अपने अधिकारका दुरुपयोग करता है, स्वार्थवश अन्याय करता है, न्यायान्यायका विचार त्यागकर मनमानी करता है और पद-गौरवमें पागल होकर हर किसीका अपमान कर बैठता है। दूसरी ओर एक मनुष्य जिसको कोई अधिकार प्राप्त नहीं है, जो बात-बातमें दुत्कारा जाता है पर जिसका मन स्वच्छ सलिलकी भाँति निर्मल है, जिसके हृदयमें हिंसा-द्वेषको स्थान नहीं है, जो ईश्वरकी भक्ति करता है और उससे सबका भला मनाता है। बतलाइये, इनमें कौन-सा उन्नतिका पथिक है?

एक मनुष्य दिन-रात मनमाने धर्मके प्रचार-कार्यमें लगा है। प्रसिद्ध व्याख्यानदाता है, राग-द्वेषवश जगह-जगह विधर्मियोंकी निन्दा कर, उनके ईश्वरको अपूर्ण और नीच बतलाकर लोगोंके मनमें घृणा उत्पन्न करता है। अपने धर्मके दोषोंको छिपाकर दूसरोंके थोड़े दोषोंको भी विस्तारसे वर्णन करता है। दूसरी ओर एक मनुष्य चुपचाप धर्मपालन करता है, कहीं भी उसकी प्रसिद्धि नहीं है, परन्तु जो अपने जीवनको धर्ममय बनाकर किसीकी भी व्यर्थ निन्दा-स्तुतिमें समय न लगाकर अपने आदर्श जीवनसे दूसरोंपर अनायास प्रभाव डालता है, पर वह प्रभाव डालनेकी कामनासे धर्म-पालन नहीं करता, केवल कर्तव्यवश ही करता है। बतलाइये, इनमें किसकी उन्नति हो रही है?

एक सज्जनने बहुत विद्याध्ययन किया, शास्त्रोंकी खूब आलोचना की, धड़ाधड़ परीक्षाएँ पास कीं, नामके साथ उपाधियोंके बहुत-से अक्षर जुड़ गये, शास्त्रार्थमें बड़े-बड़े प्रसिद्ध पण्डितोंको परास्त किया, व्याख्यानोंसे आकाश गुँजा दिया, परन्तु विद्याका और विद्वान् होनेपर प्रतिष्ठाका अभिमान बढ़ गया, अनेक प्रकारके तर्कजालोंमें फँसकर उसका मन श्रद्धा और विश्वाससे हीन हो गया। परमात्माकी कोई परवा नहीं, तर्क और पाण्डित्यसे परमात्माकी सिद्धि-असिद्धि करने लगा। शास्त्र उसके मनोविनोदकी सामग्री बन गये। ईश्वरकी दिल्लगियाँ उड़ाने लगा और पूरा यथेच्छाचारी बन गया। दूसरी ओर एक अशिक्षित ग्रामीण है, उसने एक भी परीक्षा पास नहीं की है, उसके नामसे भी लोग अपरिचित हैं, अच्छी तरह बोलना भी नहीं जानता, परन्तु जिसका सरल हृदय विश्वास और श्रद्धासे भरा है, जो नम्रतासे सबका सत्कार करता है, प्रेमपूर्वक परमात्माका नाम-स्मरण करता है, ईश्वरको जगत‍्का नियन्ता समझकर पाप करनेमें डरता है और परम सहृद् तथा परम पिता समझकर प्रेम तथा भक्ति करता है, परम दयालु स्वामी समझकर अपनेको उसका दासानुदास समझता है। प्रेममें कभी हँसता है, कभी रोता है और आनन्दसे चुपचाप अपना शान्त जीवन बिताता है। बतलाइये, इन दोनोंमें किसकी उन्नति हो रही है?

जो लोग अपनी राग-द्वेषयुक्त क्षुद्र अनिश्चयात्मिका बुद्धिकी कसौटीपर ईश्वरके स्वरूपको कसना चाहते हैं, उन्हें ईश्वरमें कभी विश्वास नहीं हो सकता। जो बुद्धि राग-द्वेषसे दूषित है, काम-क्रोधका आगार बनी हुई है, शरीरको ही आत्मा समझती है, उस बुद्धिसे ईश्वरके दिव्य कर्मोंकी जाँच-पड़ताल करना, उसी बुद्धिके निर्णयके अनुसार ईश्वरको चलानेकी कामना करना और उसी निर्णयसे ईश्वरका ईश्वरत्व या अनीश्वरत्व सिद्ध करने जाना कितना बड़ा अज्ञान है? यह स्मरण रखना चाहिये कि सरल विश्वास और श्रद्धा बिना ईश्वरीय ज्ञान कभी नहीं हो सकता।

कुछ समय पूर्व डॉ० जान माट नामक एक अमेरिकन सज्जन मैसूरमें होनेवाले ‘विश्व-छात्र-फेडरेशन’ के सभापति बनकर अमेरिकासे भारत आये थे। उन्होंने महात्मा गाँधीजीसे विभिन्न विषयोंपर बातें कीं। बातचीतके प्रसंगमें ही महात्माजीने कहा कि ‘मैं युवकोंसे ईश्वरप्रार्थना करनेको कहूँगा।’ इसपर डॉ० माटने पूछा—

‘यदि इससे उनको लाभ नहीं पहुँचा अर्थात् उनकी प्रार्थना नहीं सुनी गयी तो?’

म०—तब वह उनकी प्रार्थना ही नहीं कही जायगी। वह तो उनकी मौखिक प्रार्थना हुई, प्रार्थना तो वह है जिसका असर हो।

डॉ०—हमारे युवकोंके साथ यही तो कठिनाई है, विज्ञान और दर्शनशास्त्रकी शिक्षाओंने उनकी इन सारी धारणाओंको नष्ट कर दिया है।

म०—यह तो इसी कारण है कि वे विश्वासको बुद्धिकी चेष्टा समझते हैं, आत्माका अनुभव नहीं। बुद्धि हमलोगोंको जीवनक्षेत्रमें कुछ दूरतक ले जा सकती है, परन्तु अन्तमें वह मौकेपर धोखा दे देती है। विश्वाससे कारणोंकी उत्पत्ति होती है। जिस समय हमें चारों ओर अन्धकार-ही-अन्धकार दिखायी पड़ता है एवं हमारी बुद्धि बेकाम हो जाती है, उस समय विश्वास ही हमारी रक्षाको आता है। यही वह विश्वास है, जिसकी हमारे नवयुवकोंमें आवश्यकता है और यह तभी प्राप्त होता है जब कि बुद्धिके गर्वको बिलकुल चूरकर ईश्वरकी इच्छाओंपर अपनेको पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय।

पूज्य महात्माजीका यह कथन अक्षरश: सत्य और सदा स्मरण रखनेयोग्य है। मौके-बेमौके बुद्धिके बेकाम हो जानेपर ईश्वरीय विश्वास ही रक्षक होता है। ईश्वरीय विश्वासके बलसे रक्षित पुरुष ही ऐसी बात कह सकता है। परन्तु आजके इस उन्नतिशील जगत‍्की स्थिति क्या है? जो लोग आज अपनेको उन्नत या उन्नति-पथारूढ़ समझते हैं, उनके हृदयमें यथार्थमें क्या बात है? अपने-अपने हृदयोंको टटोलकर देखिये। खेद है कि ईश्वरको मानना तो दूर रहा, आजके उन्नत मानवोंका हृदय तो मोहसे इतना अभिभूत हो गया है कि अपनी उन्नति-अवनतिके यथार्थ स्वरूपको समझनेकी भी शक्ति प्राय: जाती रही है। बुद्धि सूक्ष्म होते-होते इतनी सूक्ष्म हो गयी कि अब कहीं उसका पता ही नहीं लगता। इसीसे राग-द्वेषके विषैले भावोंसे प्रेरित होकर आजका मनुष्य-समाज परस्पर ध्वंसात्मक चेष्टा और क्रिया कर रहा है तथा उसीमें अपनी उन्नति मान रहा है।

जिस यूरोपकी उन्नतिपर हम मोहित हैं, उसकी उन्नतिके परिणाममें एक तो धन-जन और शान्ति-सुखका ध्वंसकारी महायुद्ध हो गया और दूसरेकी अंदर-ही-अंदर तैयारी हो रही है। पता नहीं, यह अंदरका भयानक विस्फोटक कब फूट उठे। विज्ञानमें उन्नत जगत‍्का वैज्ञानिक आविष्कार गरीबोंका सर्वस्व नाश करने और अल्पकालमें ही बहुसंख्यक मनुष्योंकी हत्या करनेका प्रधान साधन बन रहा है। पेट्रियोटिज्म और देशप्रेम पर-देशदलनका नामान्तरमात्र रह गया है। राष्ट्रसेवा पर-राष्ट्रके अहितचिन्तन और संहारके रूपमें बदल गयी है, उन्नतिके मिथ्या मोह-पाशमें आबद्ध मनुष्य आज रक्तपिपासु हिंसक पशुकी भाँति एक-दूसरेको खा डालनेके लिये कमर कसे तैयार है! एक पाश्चात्य सज्जनने बड़े मार्मिक शब्दोंमें आजकी उन्नत सभ्यताका दिग्दर्शन कराया है। वह कहते हैं—

“To be dignified is the glory of civilizaition, to suppress natural laughter, and smile instead, is grand; to “Put the best side out” and to conceal the natural; to pretend to be greater or better than we are; to think more of our looks, walk, manners, clothing and the wealth. We have robbed the poor of—this is civilization.

To turn away from one poorly clad, not deigning an answer to a civil question; to look coldly in the eye of a stranger, without speaking when accosted because you have not been introduced, this is dignity, this is fashionable; * * * to murder each other without enmity—this is to be civilized.

The earth is drenched with human gore and her fair fields are rich with the bone dust of humanity. The glory of one nation is the destruction of another.”

‘‘आभिजात्य प्रदर्शन सभ्यताकी गरिमा है, स्वाभाविक हास्यको दबाकर केवल मुसकरा देना गौरवकी बात है; अपने स्वाभाविक स्वरूपको छिपाकर व्यक्तित्वके सर्वोत्तम पक्षको प्रस्तुत करना; हम जैसे हैं, उससे अपनेको श्रेष्ठ प्रदर्शित करना; अपने रूप, चाल-ढाल, तौर-तरीकों और अपने धनको जिसे हमने गरीबोंसे छीना है, अच्छा समझना—यही सभ्यता है।

किसी गरीब अधनंगे व्यक्तिकी ओरसे मुँह फिरा लेना और नम्रतापूर्वक पूछे गये उसके प्रश्नका उत्तर न देना; यदि कोई अपरिचित व्यक्ति कुछ पूछ बैठे तो चूँकि कायदेसे उसका परिचय नहीं कराया जा सका है, इसलिये बिना बोले उसकी आँखोंमें उदासीन भावसे देखना—यही आभिजात्य है, यही चलन (फैशन) है; बिना किसी शत्रुताके एक-दूसरेकी हत्या कर देना—यही सभ्यता है।

आज पृथ्वी मनुष्यके रक्तसे सन गयी है और उसके सुन्दर खेत मानवके अस्थिचूर्णसे भर उठे हैं। एक राष्ट्रकी समृद्धिके लिये दूसरे राष्ट्रका विनाश आवश्यक है।’’

जिस उन्नतिका यह स्वरूप है, वह क्या यथार्थ उन्नति है? एक ही देशमें रहनेवाले मुसलमान हिन्दुओंको और हिन्दू मुसलमानोंको फुसला-धमकाकर अपने धर्म (?) में शामिल करने और एक-दूसरेको नाश करनेकी चेष्टामें लगे हुए हैं। क्या यही उन्नतिका मार्ग है?

राग-द्वेषके विषवृक्षको सींचते रहकर छोटे-छोटे समूहोंको ही अपना स्वरूप मानना तथा एक-दूसरेको अपना प्रतिद्वन्द्वी और शत्रु समझकर सदाके लिये लड़ाई ठान लेना और मान-मर्यादा, धन-जनादिके संग्रहमें ही अल्पकालस्थायी अमूल्य मानव-जीवनको खो देना वास्तवमें उन्नति नहीं है!

आत्माका उत्थान ही उन्नति है और आत्माका पतन ही अवनति है। जिस साधन या क्रियासे आत्माकी उन्नति होती है, वही कार्य या साधन उन्नतिका उपाय है और जिनसे आत्माका पतन हो, वही अवनतिके कारण हैं। दैवी सम्पत्तिके सुरभित पुष्प जब हृदयमें खिल उठते हैं, तभी मनुष्यकी यथार्थ उन्नति होती है, तभी उसके अन्तस्तलसे उठी हुई वह सुन्दर सुगन्ध बाहर भी चारों ओर फैलकर सबको सुखी बनाती है। इसके विपरीत जब आसुरी सम्पत्तिके कूड़े-कचरे और मलसे हृदय भर जाता है, तभी मनुष्यकी अवनति समझी जाती है। ऐसे मनुष्यके हृदयमें पापोंकी सड़न पैदा होकर चारों ओर फैल जाती है और फिर वही बाहर निकलकर संक्रामक व्याधिकी भाँति सबको आक्रान्त कर दु:खी कर डालती है!

भौतिक पदार्थोंकी प्राप्ति-अप्राप्तिसे आत्माकी अवनति-उन्नतिका कोई खास-सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध तो अंदरके भावोंसे है। एक मनुष्य झूठ बोलकर धन कमाता है और दूसरा असत्यका आश्रय लेकर धन कमानेकी अपेक्षा दरिद्र रहना ही उत्तम समझता है। एक मनुष्य दम्भ रचकर मान-बड़ाई प्राप्त करता है और दूसरा सरलतासे अपमान सहता हुआ अपना जीवन बिताता है। इनमें पहले दोनों उन्नतिके मोहमें आत्माका पतन करते हैं और दूसरे आत्माकी यथार्थ उन्नति करते हैं। संसारके भोग्य पदार्थोंके लिये अन्त:करणके सद‍्गुणोंको नष्ट कर उनके स्थानमें दुर्गुणोंको भर लेना ‘घर फूँक तमाशा देखने’ से भी बढ़कर मूर्खता है। जिस घरमें मनुष्य सुखपूर्वक निवास करता है, सर्दी-गरमीसे बचता है, उसी घरको यदि वह थोड़ी-सी देरके मनोरंजनके लिये मूर्खतावश जलाकर भस्म कर दे और सदाके लिये निराश्रय हो जाय तो उससे बड़ा मूढ़ और कौन होगा; परन्तु जो लोग केवल थोड़े-से जीवन-कालमें साथ रहनेवाले भौतिक पदार्थोंके संग्रहके लिये हृदयके परम आश्रयरूप दैवी गुणोंको वहाँसे निकाल देते हैं, उनकी मूर्खताके सामने तो उपर्युक्त मूढ़ भी बुद्धिमान् ही समझा जाता है। जो मनुष्य अपने जलते हुए घरकी अग्निके प्रकाशमें काम करनेकी इच्छासे घर जलाता है, उससे वह मनुष्य कहीं अधिक मूर्ख है, जो भोगोंको बटोरनेके लिये अपने सद‍्गुणोंको त्यागकर सुखी होना चाहता है। प्रथम तो भोगोंका प्राप्त होना भी निश्चित नहीं, सारी उम्र जी-तोड़ परिश्रम और सच्चे मनसे छल छोड़कर प्रयत्न करनेपर भी बहुतोंको वे नहीं मिलते। मिल भी जाते हैं तो उनका किसी भी क्षणमें नाश हो सकता है। पहले नाश न भी हुए तो मरनेके समय तो अवश्य ही वे छूट जाते हैं। ऐसे पदार्थोंकी प्राप्तिके लिये दुर्लभ मनुष्य-जीवनके सत्य, अहिंसा, दया, प्रेम, आस्तिकता, शौच, सन्तोष, सदाचार और ब्रह्मचर्य आदि रत्नोंको लुटा देना बड़ा ही मारक मोह है। यदि यह कहा जाय कि ‘हमारी तो और कोई इच्छा नहीं है, हमें तो भौतिक पदार्थोंका संग्रह करके केवल लोकोपकार करना है’ तो यह कोई बुरी बात नहीं है। भौतिक पदार्थोंकी प्राप्ति करके या दिन-रात उन्हींकी प्राप्तिके साधनोंमें संलग्न रहकर यदि कोई पापोंसे बचा रह सके, अपने सद‍्गुणोंको बचाये रख सके और ईश्वरके लिये हृदयमें सदाके लिये स्थान सुरक्षित रख सके तो बहुत ही अच्छी बात है। परन्तु ऐसा होना है बहुत कठिन! भोग और भगवान‍्का एक मनमें एक साथ रहना तो असम्भव ही है। हाँ, यदि सारे भोग ईश्वरार्थ समर्पित कर दिये जायँ और भोगोंका संग्रह भी उसीके लिये होता रहे तो दूसरी बात है। यही निष्काम कर्मयोग है। परन्तु यह बात कहनेमें जितनी सहज है, समझने और कार्यरूपमें परिणत करनेमें वस्तुत: उतनी ही कठिन है!

आज कितने ऐसे हैं जो इस भावसे संसारमें कार्य करते हैं? कितने ऐसे हैं जो यथार्थ आभ्यन्तरिक उन्नतिका खयाल कर रहे हैं? संसारके सुखोंकी इच्छा आभ्यन्तरिक उन्नतिकी भावनाको दबा देती है। कामनासे ज्ञान हरा जाता है। मोहसे बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। इसीसे मनुष्य उन भोग्य पदार्थोंकी प्राप्तिमें ही अपनी उन्नति समझ रहे हैं, जिनका सम्बन्ध केवल इस शरीरतक ही है—और उन्हींकी प्राप्तिके लिये अपना तन-मन लगा रहे हैं। इसीलिये आज हम सब एक ही परम पिता ईश्वरकी सन्तान होनेपर भी अभिमानवश एक-दूसरेको भिन्न समझ रहे हैं। इसीसे हमने अपने प्रेमकी सीमा इतनी संकुचत कर ली है कि आज जरा-जरा-से स्वार्थके लिये एक-दूसरेका नाश करनेमें नहीं सकुचाते तथा मोहवश इसीको धर्मके नामसे पुकारते हैं और इसीको उन्नति मानते हैं। भगवान‍्ने गीताके सोलहवें अध्यायमें आत्माका पतन करनेवाली आसुरी सम्पदाके लक्षणोंका विस्तारसे वर्णन किया है—

आसुरी सम्पत्तिवाले मनुष्य जगत‍्को आश्रयहीन, असत्य, ईश्वरहीन स्त्री-पुरुषके संयोगसे ही उत्पन्न और भोगोंके लिये ही बना हुआ बतलाते हैं। इस प्रकारके दृष्टिकोणको लेकर वे दुष्ट-स्वभावके, मन्दबुद्धि, पराया अहित करनेवाले, क्रूरकर्मी मनुष्य जगत‍्का नाश करनेके लिये उत्पन्न होते हैं। ढोंग, मान और घमंडसे भरे हुए वे लोग कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंका आश्रय लेकर मोहसे मिथ्या सिद्धान्तोंको ग्रहणकर संसारमें भ्रष्टाचरण करने लगते हैं। विषय-भोगोंमें लगे हुए वे लोग बस, इतना ही आनन्द मानकर मृत्युकालपर्यन्त अनन्त प्रकारके विषयोंकी चिन्तामें लगे रहते हैं। सैकड़ों प्रकारकी आशाकी फाँसियोंमें बँधे हुए, काम-क्रोधसे ही जीवनका उद्देश्य सिद्ध होना समझनेवाले वे लोग विषय-भोगोंकी प्राप्तिके लिये नाना प्रकारसे अन्यायपूर्वक धनसंग्रह करनेकी चेष्टामें लगे रहते हैं। आज यह पैदा किया, कल उस मनोरथकी सिद्धि होगी। इतना धन तो मेरे पास हो गया, इतना और हो जायगा। एकको तो आज मार ही डाला, शेष शत्रुओंको भी मारे बिना नहीं छोड़ूँगा। मैं ही तो ईश्वर हूँ, मैं ही धन-ऐश्वर्यके भोगका अधिकारी हूँ। सारी सिद्धियाँ, शक्तियाँ और सुख मुझमें ही तो हैं। मैं बड़ा धनवान् हूँ, मेरा बड़ा परिवार है, मेरी समता करनेवाला दूसरा कौन है? मैं धन कमाकर नामके लिये दान करूँगा, यज्ञ करूँगा और मौज उड़ाऊँगा (गीता १६। ८—१५)।

इस तरह अपने-आपको ही सबसे श्रेष्ठ समझनेवाले ऐसे अभिमानी मनुष्य धन और मानके मदसे मत्त होकर दम्भसे मनमाने तौरपर नाममात्रके लिये यज्ञ करते हैं। अहंकार, शरीर-बल, मानसिक दर्प, कामना, क्रोध आदि दुर्गुणोंके परायण होकर वे परनिन्दा करनेवाले दुष्टलोग अपने और पराये सभी शरीरोंमें स्थित भगवान‍्से द्वेष करते हैं (गीता १६। १७-१८)।

छातीपर हाथ रखकर कहिये। इस बीसवीं शताब्दीके उन्नत मानव-समाजके हमलोगोंके हृदयमें उपर्युक्त आसुरी सम्पदाके कौन-से धनकी कमी है? जहाँ भोगोंकी लालसा होगी, वहाँ इस धनकी कमी रहेगी भी नहीं। इसीलिये महात्माओंने भोगोंकी निन्दा कर त्यागकी महिमा गायी है। इसीलिये भारतके त्यागी महर्षियोंने हिन्दुओंके चार आश्रमोंमें तीन प्रधान आश्रमों (ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास)-को त्यागपूर्ण बनाया है।

इस त्यागकी भावनाको तिलांजलि देकर भोगोंमें ही उन्नतिकी इतिश्री समझनेवाले आसुरी सम्पत्तिके मनुष्योंका पतन हो जाता है, वे अनेक प्रकारसे भ्रमित-चित्त हो मायाजालमें फँसकर विषय-भोगोंमें ही आसक्त हो रहते हैं, जिसके परिणाममें उन्हें अति अपवित्र नरकोंमें गिरना पड़ता है (गीता १६। १६)। भगवान् कहते हैं कि सबके हृदयमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करनेवाले उन पापी क्रूर नराधमोंको मैं बारम्बार आसुरी-योनियोंमें पटकता हूँ, वे जन्म-जन्ममें आसुरी-योनियोंको प्राप्त होकर फिर उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं, परन्तु मुझको नहीं पा सकते। ‘मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्’ (गीता १६। १९-२०)।

अतएव हमलोगोंको चाहिये कि भौतिक उन्नतिके यथार्थ आसुरी-स्वरूपको भलीभाँति पहचानकर इसके मोहसे शीघ्र अपनेको मुक्त कर लें और यथार्थ उन्नतिके प्रयत्नमें लगें। संसारमें वह मनुष्य धन्य है जिसके धन, जन, परिवार, कुटुम्ब, मान-प्रतिष्ठा, पद-गौरव आदि कुछ भी नहीं है, जो सब तरहसे दीन, हीन, घृणित और उपेक्षित है; परन्तु जिसका अन्त:करण दैवी सम्पदाके दिव्य गुणोंसे विभूषित है, जिसका मन परमात्माके प्रेममें संलग्न है और जिसकी आत्मा परमात्माके मिलनेको छटपटा रही है, ऐसी आत्मा एक ग्रामीण, राजनीतिशून्य, मूर्ख, चाण्डाल, जंगली या कोढ़ी मनुष्यमें भी रह सकती है, अतएव किसीके भी नाम-रूपको देखकर घृणा न करो, पता नहीं उसके अंदर तुमसे और तुम्हारी ऊँची-से-ऊँची कल्पनासे भी बहुत ऊँची आत्मा हो!

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