होली और उसपर हमारा कर्तव्य
इसमें कोई सन्देह नहीं कि होली हिंदुओंका बहुत पुराना त्यौहार है; परन्तु इसके प्रचलित होनेका प्रधान कारण और काल कौन-सा है इसका एकमतसे अबतक कोई निर्णय नहीं हो सका है। इसके बारेमें कई तरहकी बातें सुननेमें आती हैं, सम्भव है, सभीका कुछ-कुछ अंश मिलकर यह त्यौहार बना हो। पर आजकल जिस रूपमें यह मनाया जाता है उससे तो धर्म, देश और मनुष्यजातिको बड़ा ही नुकसान पहुँच रहा है। इस समय क्या होता है और हमें क्या करना चाहिये, यह बतलानेके पहले, होली क्या है? इसपर कुछ विचार किया जाता है। संस्कृतमें ‘होलका’ अधपके अन्नको कहते हैं। वैद्यकके अनुसार ‘होला’ स्वल्प वात है और मेद, कफ तथा थकावटको मिटाता है। होलीपर जो अधपके चने या गन्ने लाठीमें बाँधकर जलती हुई होलीकी लपटमें सेंककर खाये जाते हैं, उन्हें ‘होला’ कहते हैं। कहीं-कहीं अधपके नये जौकी बालें भी इसी प्रकार सेंकी जाती हैं। सम्भव है वसन्त-ऋतुमें शरीरके किसी प्राकृतिक विकारको दूर करनेके लिये होलीके अवसरपर होला चबानेकी चाल चली हो और उसीके सम्बन्धमें इसका नाम ‘होलिका’, ‘होलाका’ या ‘होली’ पड़ गया हो।
होलीका एक नाम है ‘वासन्ती नवशस्येष्टि।’ इसका अर्थ ‘वसन्तमें पैदा होनेवाले नये धानका यज्ञ’ होता है, यह यज्ञ फाल्गुन शुक्ल १५ को किया जाता है। इसका प्रचार भी शायद इसीलिये हुआ हो कि ऋतु-परिवर्तनके प्राकृतिक विकार यज्ञके धूएँसे नष्ट होकर गाँव-गाँव और नगर-नगरमें एक साथ ही वायुकी शुद्धि हो जाय। यज्ञसे बहुत-से लाभ होते हैं। पर यज्ञधूमसे वायुकी शुद्धि होना तो प्राय: सभीको मान्य है अथवा नया धान किसी देवताको अर्पण किये बिना नहीं खाना चाहिये, इस शास्त्रोक्त हेतुको प्रत्यक्ष दिखलानेके लिये सारी जातिने एक दिन ऐसा रखा हो जिस दिन देवताओंके लिये देशभरमें नये धानसे यज्ञ किया जाय। आजकल भी होलीके दिन जिस जगह काठ-कंडे इकट्ठे करके उसमें आग लगायी जाती है, उस जगहको पहले साफ करते और पूजते हैं और सभी ग्रामवासी उसमें कुछ-न-कुछ होमते हैं, यह शायद उसी ‘नवशस्येष्टि’ का बिगड़ा हुआ रूप हो। सामुदायिक यज्ञ होनेसे अब भी सभी लोग उसके लिये पहले से होमनेकी सामग्री घर-घरमें बनाने और आसानी से वहाँतक ले जानेके लिये उसकी मालाएँ गूँथकर रखते हैं।
इसके अतिरिक्त इस त्यौहारके साथ ऐतिहासिक, पारमार्थिक और राष्ट्रीय तत्त्वोंका भी सम्बन्ध मालूम होता है। कहा जाता है कि भक्तराज प्रह्लादकी अग्निपरीक्षा इसी दिन हुई थी। प्रह्लादके पिता दैत्यराज हिरण्यकशिपुने अपनी बहिन ‘होलका’ से (जिसको भगवद्भक्तके न सतानेतक अग्निमें न जलनेका वरदान मिला हुआ था।) प्रह्लादको जला देनेके लिये कहा, होलका राक्षसी उसे गोदमें लेकर बैठ गयी, चारों तरफ आग लगा दी गयी। प्रह्लाद भगवान्के अनन्य भक्त थे, वे भगवान्का नाम रटने लगे। भगवत्कृपासे प्रह्लादके लिये अग्नि शीतल हो गयी और वरदानकी शर्तके अनुसार ‘होलका’ उसमें जल मरी। भक्तराज प्रह्लाद इस कठिन परीक्षामें उत्तीर्ण हुए और आकर पितासे कहने लगे—
राम नामके जापक जन हैं
तीनों लोकोंमें निर्भय।*
मिटते सारे ताप नामकी
औषधसे पक्का निश्चय॥
नहीं मानते हो तो मेरे
तनकी ओर निहारो तात।
पानी पानी हुई आग है
जला नहीं किंचित् भी गात॥
* रामनाम जपतां कुतो भयं
सर्वतापशमनैकभेषजम्।
पश्य तात मम गात्रसन्निधौ
पावकोऽपि सलिलायतेऽधुना॥
इन्हीं भक्तराज और इनकी विशुद्ध भक्तिका स्मारकरूप यह होलीका त्यौहार है। आज भी ‘होलिका-दहन’ के समय प्राय: सब मिलकर एक स्वरमें ‘भक्तवर प्रह्लादकी जय’ बोलते हैं। हिरण्यकशिपुके राजत्वकालमें अत्याचारिणी होलकाका दहन हुआ और भक्ति तथा भगवन्नामके अटल प्रतापसे दृढ़व्रत भक्त प्रह्लादकी रक्षा हुई और उन्हें भगवान्के प्रत्यक्ष दर्शन हुए।
इसके सिवा इस दिन सभी वर्णके लोग भेद छोड़कर परस्पर मिलते-जुलते हैं। शायद किसी जमानेमें इसी विचारसे यह त्यौहार बना हो कि सालभरके विधि-निषेधमय जीवनको अलग-अलग अपने-अपने कामोंमें बिताकर इस एक दिन सब भाई परस्पर गले लगकर प्रेम बढ़ावें। कभी भूलसे या किसी कारणसे किसीका मनोमालिन्य हो गया हो तो उसे इस आनन्दके त्यौहारमें सब एक साथ मिल-जुलकर हटा दें। असलमें एक ऐसा राष्ट्रीय उत्सव होना भी चाहिये कि जिसमें सभी लोग छोटे-बड़े और राजा-रंकका भेद भूले बिना किसी भी रुकावटके शामिल होकर परस्पर प्रेमालिंगन कर सकें। यही होलीका ऐतिहासिक, पारमार्थिक और राष्ट्रीय तत्त्व मालूम होता है।
जो कुछ भी हो, इन सारी बातोंपर विचार करनेसे यही अनुमान होता है कि यह त्यौहार असलमें मनुष्यजातिकी भलाईके लिये ही चलाया गया था, परन्तु आजकल इसका रूप बहुत ही बिगड़ गया है। इस समय अधिकांश लोग इसको जिस रूपमें मनाते हैं उससे तो सिवा पाप बढ़ने और अधोगति होनेके और कोई अच्छा फल होता नहीं दीखता। आजकल क्या होता है?
कई दिनों पहलेसे स्त्रियाँ गंदे गीत गाने लगती हैं, पुरुष बेशरम होकर गंदे अश्लील कबीर, धमाल, रसिया और फाग गाते हैं। स्त्रियोंको देखकर बुरे-बुरे इशारे करते और आवाजें लगाते हैं। डफ बजाकर बुरी तरहसे नाचते और बड़ी गंदी-गंदी चेष्टाएँ करते हैं। भाँग, गाँजा, सुल्फा और माँजू आदि पीते तथा खाते हैं। कहीं-कहीं शराब और वेश्याओंतककी धूम मचती है। भाभी, चाची, साली, सालेकी स्त्री, मित्रकी स्त्री, पड़ोसिन और पत्नी आदिके साथ निर्लज्जतासे फाग खेलते और गंदे-गंदे शब्दोंकी बौछार करते हैं। राख, मिट्टी और कीचड़ उछाले जाते हैं, मुँहपर स्याही, कारिख या नीला रंग पोत दिया जाता है। कपड़ोंपर और दीवारोंपर गंदे शब्द लिख दिये जाते हैं, टोपियाँ और पगड़ियाँ उछाल दी जाती हैं, कहीं-कहींपर जूतोंके हार बनाकर पहने और पहनाये जाते हैं, लोगोंके घरोंपर जाकर गंदी आवाजें लगायी जाती हैं। फल क्या होता है। गंदी और अश्लील बोलचाल और गंदे व्यवहारसे ब्रह्मचर्यका नाश होकर स्त्री-पुरुष व्यभिचारके दोषसे दोषी बनते हैं। शास्त्रमें कहा है—
स्मरणं कीर्तनं केलि: प्रेक्षणं गुह्यभाषणम्।
संकल्पोऽध्यवसायश्च क्रियानिष्पत्तिरेव च॥
एतन्मैथुनमष्टांगं प्रवदन्ति मनीषिण:।
विपरीतं ब्रह्मचर्यमनुष्ठेयं मुमुक्षुभि:॥
(१) किसी भी स्त्रीको किसी अवस्थामें भी याद करना, (२) उसके रूप-गुणोंका वर्णन करना, स्त्रीसम्बन्धी चर्चा करना या गीत गाना, (३) स्त्रियोंके साथ तास, चौपड़, फाग आदि खेलना, (४) स्त्रियोंको देखना, (५) स्त्रीसे एकान्तमें बातें करना, (६) स्त्रीको पानेके लिये मनमें संकल्प करना, (७) पानेके लिये प्रयत्न करना और (८) सहवास करना—ये आठ प्रकारके मैथुन विद्वानोंने बतलाये हैं, कल्याण चाहनेवालेको इन आठोंसे बचना चाहिये। इसके सिवा ऐसे आचरणोंसे निर्लज्जता बढ़ती है, जबान बिगड़ जाती है, मनपर बुरे संस्कार जम जाते हैं, क्रोध बढ़ता है, परस्परमें लोग लड़ पड़ते हैं, असभ्यता और पाशविकता भी बढ़ती है। अतएव सभी स्त्री पुरुषोंको चाहिये कि वे इन गंदे कामोंको बिलकुल ही न करें। इनसे लौकिक और पारमार्थिक दोनों तरहके नुकसान होते हैं। फिर क्या करना चाहिये। फागुन सुदी ११ से चैत बदी १ तक नीचे लिखे काम करने चाहिये।
(१) फागुन सुदी ११ को या और किसी दिन भगवान्की सवारी निकालनी चाहिये, जिनमें सुन्दर-सुन्दर भजन और नाम-कीर्तन हो।
(२) सत्संगका खूब प्रचार किया जाय। स्थान-स्थानमें इसका आयोजन हो। सत्संगमें ब्रह्मचर्य, अक्रोध, क्षमा, प्रमादके त्याग, नाम-माहात्म्य और भक्तिकी विशेष चर्चा हो।
(३) भक्ति और भक्तकी महिमाके तथा सदाचारके गीत गाये जायँ।
(४) फागुन सुदी १५ को हवन किया जाय।
(५) श्रीमद्भागवत और श्रीविष्णुपुराण आदिसे प्रह्लादकी कथा सुनी और सुनायी जाय।*
* प्रह्लादकी सुन्दर जीवनी पढ़िये।
(६) साधकगण एकान्तमें भजन-ध्यान करें।
(७) श्रीश्रीचैतन्यदेवकी जन्मतिथिका उत्सव मनाया जाय। महाप्रभुका जन्म होलीके दिन ही हुआ था। इसी उपलक्ष्यमें मुहल्ले-मुहल्ले घूम-घूमकर नामकीर्तन किया जाय। घर-घरमें हरिनाम सुनाया जाय।
(८) धुरेण्डीके दिन ताल, मृदंग और झाँझ आदिके साथ बड़े जोरसे नगरकीर्तन निकाला जाय जिसमें सब जाति और सभी वर्णोंके लोग बड़े प्रेमसे शामिल हों।