ईश्वर-विरोधी हलचल
कुछ समय पूर्व सोवियतरूसके मास्को नगरमें ‘ईश्वर-विरोधी सम्मेलन’ का एक अधिवेशन हुआ था, जिसमें रूसके भिन्न-भिन्न प्रान्तोंके अनुमान सात सौ व्यक्ति प्रतिनिधिके रूपमें और अन्य देशोंके अनेक स्त्री-पुरुष दर्शकके रूपमें सम्मिलित हुए थे। पता नहीं, उसमें कौन-कौन-से प्रस्ताव स्वीकृत हुए, परन्तु सम्मेलनके नामसे ही प्रस्तावोंके स्वरूपका अनुमान किया जा सकता है। सम्भव है जीवोंके दुर्भाग्यवश वर्तमान संसारकी पतित सभ्यता और मरणोन्मुखी शिक्षा-दीक्षाके इस प्रभावसे इस प्रकार आन्दोलनका जगत्में और भी विस्तार हो, परन्तु यह निश्चित बात है कि इससे बढ़कर बुरा आन्दोलन और महापातक दूसरा नहीं हो सकता। जो भाई सुख-शान्तिकी भ्रमपूर्ण दुराशासे इस प्रकारके घृणित आन्दोलनसे प्रेम या सहानुभूति रखते हैं, वे बड़ी भारी भूल कर रहे हैं। धर्मका बाह्य रूप कुछ भी क्यों न रहे, उसमें यथावश्यक कितने ही सुधारोंकी गुंजाइश क्यों न समझी जाय, परन्तु ईश्वरकी सत्ताका विरोधकर धर्मके मूल तत्त्वपर कुठाराघात करना पिशाचावेशित प्रमत्त पुरुषोंकी पातकमयी क्रियाके सिवा और कुछ भी नहीं है। जिस साम्य और विश्वसुखके परिणामपर पहुँचनेके लिये ईश्वरका विरोध किया जा रहा है, वह साम्य और विश्वसुख माया-मरीचिकाकी भाँति एक भ्रमपूर्ण अध्यासमात्र होगा और परिणाममें भीषण अशान्ति, दु:ख और उपद्रवके दारुणार्णवमें डूब जाना पड़ेगा।
जबतक सारे विश्वमें परमात्माकी अखण्ड सत्ताका अनुभव नहीं होता, तबतक प्रकृत साम्य और तज्जनित आत्यन्तिक सुखकी कभी सम्भावना नहीं है। ईश्वर-विरोधी विचार परमात्माकी सत्ताका खण्डन करते हैं, दुर्बल मनुष्य-प्राणीकी यह अविवेकपूर्ण अहंमन्यता उसके समस्त सुखोंके नाशका कारण होगी। साम्यके नामपर विषमय विषमताका विस्तार हो जायगा।
इससे पूर्व भी जगत्में ईश्वरकी सत्तामें अविश्वास करनेवाले मनुष्य पैदा होते रहे हैं, उन लोगोंने भी मोहवश उस समयकी स्थितिके अनुसार अपने विचारोंका प्रचार किया है। श्रीमद्भगवद्गीताके आसुरी सम्पदाके प्रकरणमें इसी तरहके लोगोंकी ओर संकेत कर उनकी भावी दुर्गतिका वर्णन किया गया है। यह निश्चित है कि ईश्वरकी सत्ताको न माननेवाला समाज आरम्भमें सदाचारकी भित्तिपर प्रतिष्ठित होनेपर भी आगे चलकर भयानक असदाचारी हो जाता है। भगवान्का भय और भगवान्का भरोसा ही मनुष्यको पापसे बचानेका एकमात्र सर्वोत्तम साधन है, ये दोनों बातें भगवान्की सत्ता स्वीकार किये बिना हो नहीं सकतीं। जहाँ ये दोनों नहीं होतीं, वहीं मनुष्य उच्छृंखल और निराधार हो जाता है। फिर वह सुखस्वप्नकी कल्पना कर उसके साधनस्वरूप नाना प्रकारके मनमाने आचरण करता है और बात-बातमें भय तथा वेदनासे बचनेके लिये दुष्कर्मोंका आश्रय लेना चाहता है। इससे आगे चलकर अभ्यास-क्रमसे वह महान् दुराचारी, क्रूर और नराधम बन जाता है। ऐसे ही मायामुग्ध मूढ़ मनुष्योंके लिये भगवान् श्रीकृष्णने यह घोषणा की है—
न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥
ऐसे मनुष्य दम्भ, मान और मदसे युक्त होकर कभी पूरी न होनेवाली कामनाओंके शिकार बन नाना प्रकारके भ्रष्ट आचरणोंमें पड़कर स्वयं कष्ट भोगते हैं और दूसरोंके कष्टका कारण बनते हैं। अनेक प्रकारकी चिन्ताओं और सैकड़ों आशाओंकी कठिन फाँसियोंमें जकड़े हुए ये लोग काम-क्रोधको ही उद्देश्य-सिद्धिका प्रधान साधन समझकर अन्यायपूर्वक अर्थसंचयकी चेष्टामें लगे रहते हैं। ‘कामोपभोग’ ही इनके जीवनका उद्देश्य होता है और इसीके लिये ये पशु और पिशाचवत् जीवन बिताते हुए ही एक दिन मर जाते हैं! ईश्वरकी सत्ताके विरोधियोंका यह परिणाम अवश्यम्भावी है।
स्थूलभोगवादकी शिक्षा, भोगोंमें महत्त्व-बुद्धि, ऐहिक उन्नतिका माहात्म्य और उससे सुखी होनेकी आशा, भोगियोंके भोगोंको देखकर मनमें उत्पन्न हुई कामना, ईर्ष्या, जलन और प्रतिहिंसा, गरीबोंके प्रति शासक और धनवानोंका दारुण विषम व्यवहार, शास्त्रोंकी अवहेलना, रेल, तार, समाचारपत्रोंका अधिक प्रचार और ईश्वरको माननेका दम भरनेवाले लोगोंके अक्षम्य दम्भ-दुराचारका विस्तार आदि अनेक कारणोंसे ‘ईश्वर-विरोधी’ वायुमण्डल तैयार हुआ है और इस समयके लक्षण इसकी वृद्धिके अनुकूल हैं, जो बढ़नेपर विश्वव्यापी महान् अशान्ति और क्लेशका निश्चित कारण होगा।
अनेक कारणोंसे छिन्न-भिन्न और कलुषित हुए भारतके आकाशमें भी इस दूषित वायुका प्रवेश हो गया है। एक दिन जिस देशमें आबालवृद्ध-वनिता परमात्माकी सत्ताके अटल विश्वासी थे, ईश्वरकी सत्ताका प्रत्यक्ष दर्शन जिस देशमें सबसे पहले हुआ था, उसी पवित्र देशमें आज जगह-जगह ईश्वरकी दिल्लगियाँ उड़ायी जाती हैं और वह अपनेको शिक्षित, संस्कृत और प्रगतिके पथपर आरूढ़ माननेवाले लोगोंके मनोविनोदका कारण होता है। ईश्वरकी अनावश्यकता और ईश्वरकी सत्ताके विरोधमें लेख और व्याख्यान होते हैं। ईश्वर दया करके इन भूले हुए भाइयोंको सद्बुद्धि प्रदान करे!
अब मुझे सर्वसाधारणकी सेवामें, जो ईश्वरकी सत्ताको स्वीकार करते हैं, नम्रतापूर्वक कुछ निवेदन करना है। नारदभक्तिसूत्रमें कहा है—‘ईश्वरको न माननेवाले नास्तिकका कभी स्मरण भी नहीं करना चाहिये।’ क्योंकि उससे मनुष्यकी दुर्बल और सन्देहयुक्त बुद्धिमें भ्रम होनेकी विशेष सम्भावना है। इसीसे संतोंने कहा है—‘हरि हर निंदा सुनै जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥’ परमात्माकी निंदा करना और सुनना बड़ा भारी पातक है। इसलिये यथासाध्य इन दोनों ही कार्योंसे बचना चाहिये। ऐसा साहित्य, ऐसा संग, ऐसा दृश्य यथासाध्य कभी नहीं पढ़ना, सुनना, करना और देखना चाहिये, जिसमें ईश्वरके विरोधकी तनिक-सी भी बात हो।
लोग कहेंगे—‘यों डरनेसे कबतक बचे रहेंगे? जिस तरहके वायुमण्डलमें रहेंगे वैसा ही तो असर होगा, इसलिये इस तरहका कोई उपाय होना चाहिये जो ऐसे वायुमण्डलका हमपर कोई असर ही न हो।’ बात बहुत ठीक है। हमें अपनेको ऐसे ही दिव्य कवचसे संरक्षित होना पड़ेगा जो किसी भी वातावरणमें, कैसे भी भयानक आघातमें सर्वथा सर्वदा सुरक्षित रह सके। परन्तु सब आदमी ऐसे नहीं बन सकते। इसके लिये कुछ साधना करनी पड़ेगी। भगवान्की शरणागति ही यह दुर्भेद्य कवच है, जिसके प्राप्त करनेमें साधनाकी अपेक्षा है। जो लोग इस कवचको प्राप्त करना चाहें, उन्हें अपनेको विशुद्ध बनाकर साधनामें लग जाना चाहिये। जो पुरुष इस प्रकारकी साधनामें संलग्न हैं, उन्हें ढूँढ़कर उनसे मिलना और साधनाकी परम गोपनीय बातोंको यथाधिकार जानकर तदनुकूल आचरण करना चाहिये। पर सर्वसाधारणके लिये, जो बहुत बड़ी-बड़ी समताकी बातें सुनकर भ्रममें पड़ जाते हैं, यह उपाय लागू नहीं हो सकता, उन लोगोंको तो धधकती हुई अग्नि समझकर ‘ईश्वरविरोधी’ हलचलसे बचना चाहिये।
आवश्यकतासे अधिक बुद्धिवादके इस जमानेमें—शुष्क तर्कजालके मोहमय विस्तारमें यह खूब सम्भव है कि इस तरहकी बातें मूर्खताकी, अंध श्रद्धाकी और गिरानेवाली समझी जायँ, परन्तु मेरी समझमें ईश्वरमें विश्वासी बने रहकर मूर्ख, अंध श्रद्धालु और भ्रमित हुई लोकदृष्टिमें गिरा हुआ समझा जाना उससे बहुत अच्छा है, जो बड़ा विद्वान्, तार्किक और आगे बढ़ा हुआ कहलानेपर भी ईश्वरकी सत्ताका अविश्वासी होकर यथेच्छाचार करता है। ईश्वरको माननेवाला मूर्ख तर सकता है; परन्तु ईश्वरका विरोधी तार्किक कोई भी सहारा न पाकर मँझधारमें डूब जाता है।
यह कहा जा सकता है कि जो लोग अपनेको ईश्वरका माननेवाला बताते हैं, वे क्या वास्तवमें ईश्वरको मानते हैं? यदि वे ईश्वरको मानते हैं तो सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी ईश्वरके सब जगह सामने रहनेपर भी छिपकर पाप क्यों करते हैं, अपने मनोंमें पापोंको स्थान क्यों देते हैं? और यदि वे ऐसा करते हैं तो फिर उनका ईश्वरको मानना क्या निरा ढोंग नहीं है? यदि उनका यह ढोंग है तो फिर मन और मुखको एक करके सत्यके आधारपर मनकी बात स्पष्ट कहनेवाले क्या अपराध करते हैं? इसका उत्तर यह है कि ईश्वरको सर्वव्यापी माननेवालोंका छिपकर पाप करना या मनमें भी पापको स्थान देना अवश्य ही अस्वाभाविक एवं ईश्वरकी मान्यतामें कलंक है और दु:ख है कि ऐसी बातें आजकल बहुत ज्यादा हो गयी हैं, परन्तु सच पूछा जाय तो यह उन लोगोंका अज्ञान है, न कि ईश्वरमें अविश्वास। अज्ञानपूर्वक विपरीत काम करनेवाला ढोंगी नहीं होता, अविवेकी मूर्ख या पथभ्रष्ट होता है। (अवश्य ही ऐसे कुछ ढोंगी भी मिल जायँगे, जो सभी क्षेत्रोंमें मिलते हैं।) पथभ्रष्ट मनुष्य मार्गपर आ सकता है, परन्तु जो उस पथको पथ और उस लक्ष्यको लक्ष्य ही नहीं मानता, उसका उस लक्ष्यके लिये उस पथपर आना और चलना बहुत ही कठिन है। इसी प्रकार ईश्वरकी सत्ताको मानकर भी अज्ञानवश पापोंमें प्रवृत्त होनेवाले जो अज्ञानी या पथभ्रष्ट हैं, वे किसी समय अपनी भूल समझकर पथपर आ सकते हैं, परन्तु जिसने यह निश्चय कर लिया कि ईश्वर है ही नहीं, उसके लिये क्या उपाय है? इससे कोई यह न समझे कि मैं पापका समर्थन करता हूँ। पापका समर्थन तो किसी अंशमें नहीं किया जाना चाहिये, परन्तु पाप क्यों होता है, किस परिस्थितिमें होता है, इसे विचारकर उसकी तारतम्यता अवश्य देखनी चाहिये। प्राय: सभी लोग भोगोंमें आसक्त हैं। आसक्तिवश पाप होते हैं, परन्तु ईश्वरकी सत्ताको माननेवाले अधिकांश लोग बहुत बार पाप करते समय न्यायकारी ईश्वरसे डरकर पापसे हट जाते हैं। बहुत-से लोगोंको तो पापका विचार आते ही मनमें डर हो जाता है कि न मालूम ईश्वर इस अपराधका मुझे क्या दण्ड देंगे। कुछ लोग जो आसक्तिवश पाप कर बैठते हैं वे ईश्वरके भयसे उसके बाद पश्चात्ताप करते हैं, ईश्वरसे क्षमा माँगते हैं और भविष्यमें पाप न करनेका संकल्प करते हैं। कुछ लोग पापमें प्रवृत्त होनेपर दूसरोंके द्वारा ईश्वरकी आज्ञाका स्मरण दिलाते ही पापोंसे बच जाते हैं। परन्तु जो ईश्वरकी सत्ताको न मानकर परलोकके भयसे मुक्त हो गया है उसका पापोंसे बचना बहुत कठिन होता है, वह तो बेधड़क अनाचार-अत्याचार करता है और किसी तरह भी छल-बल-कौशलसे अपने जीवनको कल्पित सुखोंमें—जो अशान्ति और प्रमादसे पूर्ण तथा परिणाममें महान् कष्टकर होते हैं—बिता देता है।
ईश्वरको माननेवालेके द्वारा आसक्तिके कारण कभी-कभी पाप बन जानेपर भी वह उनसे छूटनेके लिये ईश्वरसे प्रार्थना करता है, ईश्वरके बलपर अपनेको पवित्र करना चाहता है। ईश्वरके आधार और भरोसेपर वह महान्-से-महान् संकटके समय भी पापका आश्रय नहीं लेना चाहता, वह समझता है कि ईश्वर संकटमें मेरी सहायता करेंगे, मुझे तो उनका प्रिय कार्य करना चाहिये, फिर उनकी कृपासे मेरे सारे संकट आप ही दूर हो जायँगे। यह समझकर वह ईश्वरकी दयाके भरोसे पापोंमें प्रवृत्त नहीं होता, परन्तु ईश्वरको न माननेवालेको तो संकटसे बचनेके लिये छल और हिंसा आदि पापोंके सिवा और कोई सहारा नहीं सूझता। वह जानता है कि यहाँ किसी तरहसे दु:खसे बच जाना ही बुद्धिमानी और बहादुरी है, आगे तो कुछ है ही नहीं।
ईश्वरकी सत्ता न माननेसे इस प्रकार पापोंकी वृद्धि होकर संसार क्रमश: केवल पापका क्रीडा-क्षेत्र बन जा सकता है। अतएव ईश्वर-विरोधी प्रत्येक लेख, ग्रन्थ, व्याख्यान, गल्प, बातें, दृश्य आदिसे सावधानीके साथ सदा बचना चाहिये।
दो-चार शब्द उन भूले हुए भाइयोंसे कहना आवश्यक है, जो ईश्वरके नामपर वास्तवमें किसी दुरभिसन्धिसे, दम्भसे या स्वार्थ-साधनके लिये पापका आचरण करते हैं, वे स्वयं डूबते हैं और दूसरोंको डुबाते हैं। मन्दिरोंमें बैठकर परधन और परस्त्रीकी ओर बुरी नजरसे देखना, हाथमें और गलेमें माला धारण करके मनमाने पाप करना, बात-बातमें ईश्वरका नाम लेकर ईश्वरकी आज्ञाओंका बुरी तरहसे उल्लंघन करना, ईश्वरके नामपर धन बटोरकर उसे अपने शरीरकी सजावट और भोग-विलासमें व्यय करना वास्तवमें ईश्वरको धोखा देनेका काम है, जो स्वयं बड़ा भारी धोखा खानेका कारण होता है! ईश्वर सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी हैं, घट-घटकी जानते हैं, कोई भी घटना चाहे वह कितनी ही गुप्त क्यों न हो, उनसे छिपी नहीं है। ऐसी अवस्थामें उनके नामपर पाप करना बहुत बड़ा अपराध है। शीघ्र ही सावधान हो जाना चाहिये। सच पूछिये तो ईश्वरविरोधी वातावरणके बननेमें इस तरहके आचरण भी एक मुख्य कारण हैं।
मित्रो! यह निश्चय समझिये—परम सत्य समझिये कि ईश्वर है, अवश्य है, कण-कणमें व्याप्त है, चराचरमें भरा हुआ है, वही सृष्टिको उत्पन्न करता है, उसीमें सबका निवास है और उसीमें सृष्टि लय हो जाती है। वह करुणामय है, न्यायकारी है, दयालु है, प्रेमका समुद्र है, सर्वशक्तिमान् है, विश्वात्मा है। उसकी सत्तामें विश्वास कीजिये, उसकी शक्तिका भरोसा रखिये और उसीकी अहैतुकी दयालुताका आश्रय ग्रहण कीजिये।