गीता गंगा
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क्या ईश्वरके घर न्याय नहीं है?

एक भाई पूछते हैं कि ‘जो लोग प्रत्यक्षमें पाप करते हैं, गरीबोंको सताते हैं, छल-कपटसे दूसरोंका धन हरण करते हैं, व्यभिचार करते हैं, वे तो धन, पुत्र, मान आदिसे बड़े सुखी देखे जाते हैं और जो बेचारे धर्मके मार्गपर रहते हुए भगवान‍्का भजन करते हैं वे बड़े दु:खी रहते हैं। ऐसा क्यों होता है, क्या ईश्वरके घरमें न्याय नहीं है?’

इन भाई साहेबको सबसे पहले यह बात सदाके लिये मनमें दृढ़तासे धारण कर लेनी चाहिये कि ‘ईश्वरके घरमें कभी अन्याय नहीं होता। वहाँ तो सदा ही न्याय है, केवल न्याय ही नहीं, दया भी पूर्ण है। ईश्वर न्यायकारी होनेके साथ ही परम दयालु भी है, उसकी प्रत्येक क्रियामें दया भरी है, हमें प्रमादवश वह दया दिखलायी नहीं पड़ती।’ इस विषयपर आगे चलकर कुछ लिखा जायगा।

यह बात भी सर्वथा निश्चित नहीं है कि प्रत्यक्ष पाप करनेवाले, गरीबोंको सतानेवाले, छल-कपटसे दूसरोंका धन हरण करनेवाले और व्यभिचार करनेवाले सभी लोग धन, पुत्र, मान आदिसे सुखी हैं और धर्मके मार्गपर चलने तथा भजन करनेवाले सभी बड़े दु:खी हैं। हमने इसके विरुद्ध कई उदाहरण प्रत्यक्ष देखे हैं। हाँ, यह अवश्य है कि जिन लोगोंके पास भोग-सामग्रीका अभाव होता है, जिनपर सांसारिक संकट अधिक आते हैं, वे प्राय: भगवान‍्का भजन अधिक करते हैं; क्योंकि दु:खमें ही परमात्माकी स्मृति हुआ करती है। जब मनुष्य सब तरफसे निराश और निराश्रय हो जाता है, तभी वह एकान्तचित्तसे भगवान‍्को पुकारता है, इसीसे कुन्तीने भगवान‍्से दु:खका वरदान माँगा था। इसके विपरीत धन, पुत्र, मान, बड़ाईसे छके हुए लोग ईश्वरस्मरण बहुत ही कम करते हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिये कि वे सुखी हैं। मतलब यह है कि जैसे शराबखोर जबतक नशेमें पागल रहता है तबतक वह अपनी असली स्थितिको भूला रहता है। वैसे ही ये लोग भी कुछ कालके लिये विषयमदसे उन्मत्त होकर भूले रहते हैं, इसीसे भर्तृहरिने पुकारकर कहा था कि ‘मोहमयी प्रमाद-मदिराको पीकर जगत् उन्मत्त हो रहा है।’

थोड़ी देरके लिये यह मान भी लिया जाय कि पाप करनेवालोंके धन, सन्तान आदिकी वृद्धि होकर वे सुखी होते हैं एवं सत्कार्य करनेवाले दु:खी रहते हैं तो इसका मतलब यह नहीं है कि उन दोनोंके इसी जन्मके कर्मोंका ही यह फल उन्हें मिल रहा है। अनन्त जन्मोंके संचित कर्मोंमेंसे जिन कर्मोंके द्वारा यह शरीर प्राप्त हुआ है, वे कर्म प्रारब्धरूपसे इस समय उन्हें फल भुगता रहे हैं। जिस प्रारब्ध-कर्मका फल इस समय मनुष्य भुगत रहा है, दूसरा वर्तमान कर्म उससे बहुत प्रबल हुए बिना फलदानोन्मुख प्रारब्धको रोक नहीं सकता। अच्छे-बुरे जो कुछ भी कर्म मनुष्य अभी कर रहा है वे सब उसके संचित बन रहे हैं। हाँ, यदि कोई ऐसा प्रबल कर्म बन जाय तो हाथोंहाथ प्रारब्ध बनकर फलदानोन्मुख प्रारब्धको रोककर पहले अपना फल भुगता दे, तो दूसरी बात है—जैसे किसीके प्रारब्धमें पुत्र नहीं है, उसने विधिवत् सांगोपांग पुत्रेष्टि-यज्ञ किया, उस यज्ञरूप कर्मका प्रारब्ध अभी बन गया और उसके पुत्र हो गया। इसी प्रकार अच्छे-बुरे कर्म जो अति बलवान् होते हैं, वे प्रारब्ध बनकर अपना फल पहले भुगता देते हैं। परंतु ऐसे प्रसंग बहुत कम होते हैं और जो होते हैं उनका भी हमें पूरा पता नहीं लगता; क्योंकि हमारे प्रारब्ध और वर्तमान सभी कर्मोंके बलाबलका पूरा निर्णय हमारी स्थूल बुद्धि नहीं कर सकती।

एक शहरके किसी स्कूलमें एक मुहल्लेके दो लड़के एक क्लासमें साथ पढ़ते थे, दोनोंमें मित्रता थी। स्कूलकी मित्रता प्राय: निष्कपट हुआ करती है। स्कूलसे निकलकर भिन्न-भिन्न मार्गोंका अवलम्बन करने तथा स्थितिमें छोटे-बड़े होनेपर मित्रता रहना, न रहना दूसरी बात है। अच्छे लोग तो श्रीकृष्ण-सुदामाकी तरह हैसियतमें बड़ा भारी अन्तर पड़ जानेपर भी लड़कपनकी मित्रता निबाहा करते हैं; परंतु ऐसे लोग बिरले ही होते हैं। अधिकांश तो राजा द्रुपदकी भाँति धन या उच्चपद मिलनेपर लड़कपनके प्यारे मित्रका उसकी गरीब हैसियत होनेके कारण प्राय: तिरस्कार ही किया करते हैं। धन या पदके मदसे अंधे हुए उन लोगोंको एक गरीब कंगालको मित्र मानने या कहने-कहलानेमें बड़ी लज्जा मालूम होती है। आजकल तो कुछ पढ़े-लिखे सभ्य बाबू और धनवान् पुत्रोंके लिये अपने सीधे-सादे गरीब ग्रामीण पिताको भी अपने पाँच मित्रोंमें पितारूपसे परिचय देना संकोचका विषय हो गया है! अस्तु।

दोनों मित्र पढ़कर स्कूलसे निकले, एक सदाचारी धर्मपरायण भक्त ब्राह्मणका लड़का था, दूसरा एक घूसखोर और दुराचारी धनी राजपूतका! घरकी संगतिका असर बालकोंपर सबसे ज्यादा हुआ करता है। ब्राह्मणका बालक स्कूलसे निकलकर पिताकी भाँति पाठ-पूजा तथा भक्तिभावमें लग गया और राजपूतका लड़का दुराचारमें प्रवृत्त हो गया! अच्छे-बुरे गुण सभीमें होते हैं, किसीमें ज्यादा, किसीमें कम। राजपूत-बालक धनी और दुराचारी होनेपर भी गरीब ब्राह्मण-बालकसे मित्रताका सम्बन्ध कभी नहीं भूला। दोनों मित्र समय-समयपर मिलते, एकान्तमें एक-दूसरेके सुख-दु:खकी बातें कहते-सुनते। जो जिस काममें रहता है उसमें उसे स्वाभाविक ही सुखकी प्रतीति होने लगती है। इसीसे वे दोनों अपने-अपने मार्गमें आनन्दकी अधिकता बतलाकर परस्पर अपनी-अपनी तरफ खींचनेकी चेष्टा करते, परन्तु दोनोंका एक मत कभी नहीं होता। प्रेममें कमी न होनेपर भी मतभेदके कारण दोनोंका मिलना-जुलना स्वाभाविक ही कम हुआ करता। ब्राह्मणकुमार भक्त-मण्डलीमें रहना अधिक पसंद करता तो राजपूतको शौकीन-मण्डलीमें ज्यादा आनन्द मिलता!

ब्राह्मण बेचारा भीख माँगकर बड़े कष्टसे घरका काम चलाता, उधर राजपूतके यहाँ रोज गुलछर्रे उड़ते। कई बार वह राजपूत अपने मित्र ब्राह्मणसे कहता भी कि ‘तू हमारी मण्डलीमें क्यों नहीं आ जाता?’ कई बार वह धन भी देना चाहता, पर सन्तोषी ब्राह्मण अन्यायोपार्जित धनको अन्त:करण अपवित्र हो जानेके भयसे कभी लेता नहीं। तब वह कहता, ‘भाई! तेरे भाग्यमें ही दु:ख लिखा है तब मैं क्या करूँ?’ ब्राह्मणको अपनी निर्धनतापर असन्तोष नहीं था, वह अपनी स्थितिमें सन्तुष्ट था, परन्तु इधर उस राजपूतको पिताकी ओरसे काफी धन मिलनेपर भी रात-दिन हाय-हाय ही लगी रहती थी; क्योंकि हर तरहसे बाबूगिरीमें उड़ानेके लिये तथा खुशामदी गुण्डोंकी जेब भरनेके लिये उसको धनकी सदा जरूरत बनी ही रहती थी।

निर्जला एकादशीका दिन था। ब्राह्मणने एकादशीका निर्जल उपवास किया, रातको जागरणके लिये वह मन्दिरमें गया। रातभर जागकर उसने हरि-नाम-कीर्तन किया। प्रात:काल मन्दिरसे निकलकर वह नंगे पाँव घर लौट रहा था, रास्तेमें एक काँचका टुकड़ा पड़ा था, अचानक पैरमें गड़ गया, खूनकी धारा बह निकली। गर्मीका मौसम, छत्तीस घंटेका भूखा-प्यासा, रातभरकी नींद, तिसपर यह वेदना! ब्राह्मण घबरा-सा गया!

नगरमें एक नयी वेश्या हालमें ही आयी थी, रातको उसका गाना था, शौकीन बाबुओंका जमघट वहींपर था, बिजलीके पंखे चल रहे थे, शराब-कबाबकी कोई कमी नहीं थी। जागे जितनी देर सुरीले सुरोंका आनन्द लूटा और जब मनमें आया तब सो गये तो नींदका सुख; बाबुओंने बड़े सुखसे रात बितायी। कहना नहीं होगा कि ब्राह्मणका मित्र भी वहाँ जरूर पहुँचा था। प्रात:काल वेश्याके यहाँसे निकलकर सब अपने-अपने घर जाने लगे। सभी नशेमें चूर झूम रहे थे। एककी पाकेटसे ‘मनीबैग’ गिर गया, उसमें पाँच हजारके नोट थे। उसको नशेमें क्या पता था कि मेरा मनीबैग कहीं गिर गया है। राजपूतकुमार पीछेसे आ रहा था, उसने भाग्यवश कुछ शराब कम चढ़ायी थी, इससे वह कुछ होशमें था। चलते-चलते मनीबैगपर उसकी नजर पड़ी; उठाकर देखा तो पूरे पाँच हजारके पाँच नोट; वह आनन्दके मारे उछल पड़ा! सोचा, पिताजीने इधर कुछ हाथ सिकोड़ लिया था, चलो कई दिनोंके लिये मौज-शौकका सामान सहज ही मिल गया! बैग जेबमें रखकर वह चलता बना।

जिस रास्तेसे वह जा रहा था, उसी रास्तेमें उस ब्राह्मणके पैरमें काँच लगा था, वह बेचारा खून पोंछकर जलकी पट्टी बाँध रहा था। मित्रको देखकर उसे कुछ हिम्मत हुई, पूछनेपर उसने सारी कथा सुना दी। रातपूतने कहा—‘भाई! तुम तो किसीकी बात मानते नहीं। दिन-रात पाठ-पूजा और राम-नामके व्यर्थके बखेड़ेमें लगे रहकर जीवन बरबाद कर रहे हो! भला, क्या होता है राम-नाम बड़बड़ाने और मंदिरोंमें जानेसे? खानेको पूरा अन्न मिलता नहीं, कमाई करना तुम जानते नहीं, बात-बातमें तुम्हें पापका डर लगता है, बाल-बच्चे दु:खी हो रहे हैं, तुम्हारी तो हड्डियाँ ही चमक रही हैं, तिसपर कहते हो धर्म और राम-नाम संसार-सागरसे तार देगा। मरनेपर वैकुण्ठ मिलेगा! कोई देखकर आया है कि मरनेपर आगे क्या होता है? भाई! आगे-पीछे कुछ नहीं होता, व्यर्थ शरीरको कष्ट मत दो, खाओ-पीओ, मौज करो, जबतक जीओ सुखसे जीओ, इन्द्रियोंसे आराम भोगो। मर जानेपर तो सिवा खाकके और कुछ होता नहीं। मुझे देखो, कितनी मौजमें हूँ! रात-दिन चैनकी वंशी बजती है। रातको गया था परी गुलशनका गाना सुनने, बड़े आनन्दसे रात कटी, सुबह वहाँसे निकला तो पूरे पाँच हजारके नोट मिले।’ यह कहकर उसने मनीबैगमेंसे नोट निकालकर दिखलाये और फिर बोला—‘छोड़ो इन बखेड़ोंको, मेरे साथ चलो और आरामसे रहो।

ब्राह्मण घबराया हुआ था, विपत्तिके समय सहानुभूतिभरे हृदयसे जो बातें कही जाती हैं उनका असर विपद‍्ग्रस्त मनुष्यपर अवश्य होता है, अतएव ब्राह्मणके हृदयपर भी मित्रकी बातोंका कुछ असर हुआ, थोड़े समयके लिये उसे अपने धर्ममार्गपर सन्देह हो गया, वह सोचने लगा—‘ठीक ही तो है, मैं जिन कामोंको महापातक समझता हूँ उन्हींमें यह दिन-रात रत रहता है, तब भी इसे कितना सुख है और मैं दिन-रात भजन-पूजनमें रहता हूँ, भला, कल तो मेरे चौबीसों घंटे केवल भजनमें ही बीते थे, जिसपर मुझे तो यह संकट मिला और इसे पाँच हजार रुपये मिल गये!’ इन विचारोंके पैदा होते ही अभ्यस्त शुभ संस्कारोंने जोर दिया, मन-ही-मन ब्राह्मण पहले विचारोंका खण्डन करने लगा। उसने सोचा ‘यह तो सर्वथा पाप है, क्या हुआ जो इसे रुपये मिल गये, पराया धन लेना क्या अच्छी बात है? जिस बेचारेके रुपये खोये हैं उसको इस समय कितना क्लेश हो रहा होगा? मुझे ऐसा सुख नहीं चाहिये।’ इस तरह मनमें अनेक संकल्प-विकल्प हुए। अन्तमें ब्राह्मणको उस महात्माकी बात याद आयी जो उस समय नगरमें आये हुए थे, बड़े सिद्ध योगी थे; भूत-भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालकी बातें जानते थे। राजा-प्रजा सबपर उनका प्रभाव फैला हुआ था। वे कई लोगोंको कई प्रकारके चमत्कार दिखला चुके थे। ब्राह्मणने सोचा, इसका निर्णय भी उन्हींसे कराना चाहिये। उसने अपने मित्रसे यह प्रस्ताव किया। राजपूतने कहा—‘भाई! निर्णय तो कुछ कराना है नहीं; प्रत्यक्ष ही प्रमाण है। परन्तु तुम कहते हो तो चलो उन्हींके पास।’ राजाकी श्रद्धा होनेकी वजहसे राजपूतके इस पुत्रके मनमें भी उस महात्मापर कुछ श्रद्धा थी। दोनों वहाँ पहुँचे, हाथ जोड़ प्रणाम किया और अपनी सारी कहानी उन्हें सुना दी।

तदनन्तर योगीने ध्यानसे सब बातें जानकर कहा कि जिसको रुपये मिले हैं, वह बड़ा पापी है और जिसके पैरमें चोट लगी है, वह बड़ा पुण्यात्मा है! क्योंकि प्रारब्धके अनुसार पहलेको आज सम्राट्का पद मिलना चाहिये था और दूसरेको सूली होनी चाहिये थी; परन्तु पहलेके प्रबल पापने सम्राट्का पद केवल पाँच हजार रुपयोंमें बदल दिया और ये पाँच हजार भी, इसके अमुक साथीने जो पहले इसीके घरसे चुरा लिये थे, हैं; नहीं तो पराया धन ले लेनेका भारी पाप इसे और होता तथापि इसने ‘पर-धन’ जानकर भी मन चलाया, इसका पाप तो इसे अवश्य होगा। परन्तु दूसरेके प्रबल पुण्यसे सूली टलकर केवल काँचमात्रकी चोटमें ही फल भुगत गया।’ इतना कहकर महात्माने योगबलसे दोनोंको उनके पूर्वकृत कर्मोंका दृश्य दिखलाया, जिससे उन लोगोंको स्पष्ट विदित हो गया कि ब्राह्मणके पूर्वकृत अच्छे नहीं थे जिससे वह दरिद्र था तथा आज उसे सूली होनी चाहिये थी। रातपूतके कर्म अच्छे थे जिससे वह धनी था और आज उसे सम्राट्का पद मिलनेवाला था। यह दृश्य देखकर ब्राह्मण और रातपूत दोनों मित्रोंको बड़ा दु:ख हुआ। राजपूतको तो अपने वर्तमान कर्मोंके लिये बड़ा भारी पश्चात्ताप था और ब्राह्मण अपने मित्रके दु:खसे दु:खी था।

महात्मा कहने लगे—‘ब्राह्मण! तू अच्छे संगसे बड़े ही सन्मार्गमें चल रहा है। पूर्वके कर्म बुरे भी हों पर यदि मनुष्य इस जन्ममें अच्छे कर्मोंमें लगा रहे तो पूर्वके कर्म उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते। कर्म करनेकी स्फुरणा संचितसे होती है। सबसे पहले स्फुरणा प्राय: उस संचितकी होती है जो अत्यन्त नवीन होता है। जैसे, एक व्यापारीने किसी बड़े गोदाममें बहुत-सा माल भर रखा है और नित्य नया माल भरता चला जा रहा है, अब यदि उसे उसमेंसे माल निकालना होता है तो सबसे पहले वही माल निकालता है जो सबसे पीछे रखा गया है; क्योंकि वही पहलेके मालसे आगे रखा हुआ है। मनुष्यने पिछले जन्मोंमें जो कुछ कर्म किये हैं वे सब संचित हैं और अब जो कुछ कर्म कर्तृत्वभावसे कर रहा है वह सब भी संचित बन रहे हैं। स्फुरणा संचित होती है इसलिये सबसे पहले वैसी ही स्फुरणा होगी जैसा नया संचित होगा। नये संचितके अनुसार स्फुरणा होनेमें सन्देह हो तो दो-चार दिन लगातार किसी काममें लगकर देखिये, मनमें उसी विषयकी स्मृति रहती है या नहीं! रोज नाटकमें जाइये, नाटकोंकी बातें स्मरण आयेंगी। साधुओंके पास जाइये, उनका स्मरण होगा। यह स्मृति ही स्फुरणा है जो नये संचितसे होती है। नये संचितका आधार है कर्म। अतएव वर्तमान कर्म अच्छा होगा तो उसका संचित भी अच्छा होगा। संचित अच्छा होगा तो स्फुरणा भी अच्छी होगी। कर्म होनेमें स्फुरणा प्रधान है। स्फुरणा अच्छी होगी तो पुन: कर्म अच्छा होगा। अच्छे कर्मसे पुन: अच्छा संचित और अच्छे संचितसे पुन: अच्छी स्फुरणा, फिर उससे पुन: अच्छा कर्म होगा। इस प्रकार लगातार शुभ कर्म बनते रहेंगे, जिससे अन्त:करण शुद्ध होकर कभी भगवत्कृपासे तत्त्वज्ञानकी उपलब्धि हो जायगी तो समस्त संचित जलकर भस्म हो जायँगे। इसलिये सबको वर्तमानमें अच्छा कर्म करना चाहिये। दुष्ट संचितवश मनमें बुरी स्फुरणा भी हो तो मनुष्यको उसे सत्संगसे—विचारसे दबाकर अच्छे ही कर्ममें लगे रहना चाहिये।

‘मनुष्य अधिक समयतक जिस विषयका स्मरण करता है क्रमश: उसीमें उसकी समीचीन बुद्धि होकर राग हो जाता है। जिसमें राग होता है उसीकी कामना होती है। जैसी कामना होती है वैसी ही चेष्टा होती है। वह चेष्टा ही कर्म है। फिर लगातार जैसे कर्म होते हैं, वैसी ही स्मृति होती है। यह ताँता चला ही जाता है। इस विषयमें किसी प्रमाणकी आवश्यकता नहीं, यह तो प्रतिदिनका सबका प्रत्यक्ष अनुभव है।

‘हे ब्राह्मण! तेरे पूर्वसंचित अच्छे न होनेपर भी तू इस जीवनके सत्संगसे अच्छे कर्म करने लगा, जिससे तेरे हृदयकी पूर्वजन्मार्जित कर्मजन्य बुरी स्फुरणाएँ दब गयीं। इस राजपूतके पूर्वसंचित शुभ होनेपर भी इसने कुसंगसे बुरे कर्म करने आरम्भ कर दिये, जिनसे लगातार बुरी स्फुरणाएँ हुईं और उनसे फिर लगातार बुरे कर्म होते गये। अच्छी स्फुरणाओंको प्रकट होनेका अवसर ही नहीं मिला। तेरे सत्कर्म बढ़ते रहे और इसके दुष्कर्म। फल यह हुआ कि फलदानोन्मुख प्रारब्धकर्ममें रुकावट पड़ गयी। रुकावट ही नहीं पड़ी, तेरी सूलीकी वेदना काँचकी चोटमें और इसका सम्राट्पद पाँच हजार रुपयोंके लाभमें बदल गया।’

ब्राह्मणने कहा—‘स्वामिन्! मैंने यह सुन रखा है कि कर्मोंको भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं मिलता ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।’ संचितका नाश तो सम्भव है परन्तु प्रारब्धका नाश नहीं होता। वह तो छूटे हुए तीरकी भाँति भोगना ही पड़ता है। फिर क्या कारण है कि हमलोगोंके प्रारब्धकर्मके फलमें इतना परिवर्तन हो गया?

संत बोले—‘तेरा कहना ठीक है, प्रारब्धका फल भोगे बिना नाश नहीं होता, परन्तु पहले यह समझो कि प्रारब्ध क्या वस्तु है? अपने पूर्वकृत कर्मोंके फलस्वरूपमें ही तो प्रारब्ध बना है, परन्तु अबसे एक क्षण पहले तुम जो कर्म कर चुके वह क्या पूर्वकृत नहीं है? भाई! कुछ कर्म ऐसे प्रबल होते हैं जो तुरंत संचित बनकर प्रारब्धके रूपमें परिणत हो अपना फल दे डालते हैं। ऐसा न होता तो ‘पुत्रेष्टि’-यज्ञमें पुत्रहीन-प्रारब्धवाले व्यक्तिको पुत्रकी प्राप्ति कैसे होती? यज्ञरूप क्रियमाणसे संचित होकर तुरंत प्रारब्ध बन जाता है और वह पुत्र न होनेके प्रारब्धको पलट देता है। या यों कहो कि वह भी एक दूसरा प्रारब्ध ही बन जाता है। दूसरे, प्रायश्चित्तादिसे जो कर्मोंकी निवृत्ति लिखी है, उसमें भी तो रहस्य है। प्रायश्चित्त वास्तवमें कर्मोंका भोग ही तो है। किसीके ऋणको कोई रुपये देकर चुका दे या उसकी चाकरी करके भर दे, दोनों ही मार्गोंसे मनुष्य ऋणमुक्त हो सकता है। इसी प्रकार नवीन प्रारब्धका निर्माण या परिवर्तन होता है।

‘अवश्य ही ऐसे हाथोंहाथ प्रारब्ध बननेवाले प्रबल क्रियमाण कर्म बहुत थोड़े होते हैं। तुम दोनोंके हो गये, इससे तुमलोगोंके भाग्यने भी पलटा खाया। हरिभक्ति और हरिनामसे बड़े-से-बड़े पापोंका प्रायश्चित्त अनायास ही हो जाता है। अतएव हे ब्राह्मणकुमार! इस कुसंगमें पड़े हुए अपने मित्र राजपूतको अपने साथ ले जाओ और दोनों हरिसेवारूपी सत्कर्ममें लगे रहो।’ तदनन्तर संत राजपूतको सम्बोधन कर कहने लगे—‘हे राजपूत! तेरा भी बड़ा सौभाग्य है जो तुझे ऐसा सदाचारी मित्र मिला है, अब इसके साथ रह। कुसंगतिका त्याग कर दे और भगवान‍्का भजन कर। तुमलोगोंका मंगल होगा।’ साधु इतना कहकर चुप हो गये। दोनों मित्र दण्डवत्-प्रणाम करके घर लौट आये और भगवद्भजनमें लग गये।

इस दृष्टान्तसे यह सिद्ध हो गया कि ईश्वरके घर अन्याय नहीं है। अपनी-अपनी करनीका फल यथार्थरूपसे ही सबको मिलता है। जिन पापकर्म करनेवालोंकी सांसारिक उन्नति देखनेमें आती है उनके लिये यह समझना चाहिये कि या तो उनका शुभ प्रारब्ध इस समय फल भुगता रहा है, वर्तमान पापकर्मोंका फल उन्हें आगे चलकर मिलेगा; या उनकी जो उन्नति देखी जाती है उससे बहुत ही अधिक होनेवाली थी जो वर्तमानके प्रबल पापकर्मोंके फलसे नष्ट हो गयी। यह कभी नहीं समझना चाहिये कि पाप करनेसे उन्नति होती है। लाखों-करोड़ों रुपयेकी आमद-रफ्त होनेपर भी शेषमें बचता उतना ही है जितना प्रारब्धवश बचनेको होता है। रात-दिनका कठिन परिश्रम, परिश्रमजन्य बीमारियाँ और लोभवश किये हुए पापोंका संचित और बुरे संचितसे होनेवाली कुवासनारूपी हृदयकी बीमारियाँ आदि अवश्य बढ़ जाती हैं जो उसे चिरकालके लिये दु:ख देनेवाली होती हैं।

अतएव पापकर्मोंसे सर्वदा बचे रहकर श्रीभगवान‍्का भजन-स्मरण करना चाहिये। भगवान् न्यायकारी होनेके साथ ही दयालु भी हैं, यह बात सदा स्मरण रखनी चाहिये। जो उनकी ओर एक कदम आगे बढ़ता है, भगवान् उसकी ओर पाँच कदम आगे बढ़ते हैं। वे जीवोंको सतत अपनी ओर खींच रहे हैं। उनकी कृपाका प्रवाह निरन्तर बह रहा है, जो उसमें डुबकी लगा लेता है, वही कृतार्थ हो जाता है।

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