सच्ची साधना
हम बहुत ऊँची-ऊँची बातें करते हैं; ब्रह्मज्ञानका निरूपण करते हैं, बात-बातमें संसारके मिथ्या होनेकी सूचना देते हैं, लोगोंको उनके दोष दिखाकर बुरा कहते और भाँति-भाँतिके उपदेश देते हैं, परन्तु अपनी ओर बहुत कम देखते हैं। ऊँची-ऊँची बातें बनाते और ब्रह्मज्ञानका निरूपण करते समय भी हमारे हृदयके किसी कोनेमें सम्मान या कीर्तिकी कामना छिपी रहती है, जरा गहरे जाकर देखनेसे हम उसे तत्काल पकड़ सकते हैं। सच बात तो यह है कि जहाँ हमारा मन होता है, हम वहीं होते हैं और हमारी यथार्थ स्थितिका अंदाजा भी उसीसे लग जाता है। यदि हमारे मनमें बार-बार काम, क्रोध, लोभकी वृत्तियाँ जाग्रत् होती हैं और ऊपरसे हम सत्संगकी बातें कर रहे हैं तो समझना चाहिये कि अभीतक हम असली सत्संगी नहीं बन सके हैं। असली सत्संगी तब होंगे, जब हमारा हृदय ‘सत्’ रूप परमात्माके स्वरूपसे भर जायगा। काम, क्रोध और लोभकी वृत्तियाँ कभी धर्मानुकूल आवश्यक समझी जाकर जगानेपर भी नहीं जगेंगी। विषयोंके समीप रहनेपर भी विषयोंपर भोग-दृष्टिसे मन नहीं जायगा। खेदकी बात तो यह है कि आजकल हम सभी गुरु और उपदेशक बनना चाहते हैं, श्रद्धालु शिष्य बनकर साधनमें प्रवृत्त नहीं होना चाहते, अपने भीतर रहे हुए मलकी कुछ भी परवा न कर दूसरेका मल धोना चाहते हैं, परिणाम यह होता है कि हृदयमें मल और भी बढ़ जाता है, जिससे चित्त अशान्त होकर नाना प्रकारके अन्यान्य दोषोंको भी जन्म दे देता है। अनेक प्रकारके मत-मतान्तर, अभिमान, राग-द्वेष, क्रोध, हिंसा आदिके उत्पन्न होनेमें इससे बड़ी सहायता मिलती है। अतएव उचित यह है कि हम अपनी ओर देखें, अपने हृदयके मलको धोयें, नम्रताके साथ दूसरोंसे कुछ सीखना चाहें और जो कुछ अच्छी बात मालूम हो, उसमें मन लगाकर चुपचाप उसका सेवन करें। एक आदमी यथार्थमें धनी हो और संसार उसे धनी न समझता हो तो उसकी कोई भी हानि नहीं होती, संसारके न माननेसे उसका धन कहीं चला नहीं जाता, परन्तु जो धन न होनेपर भी धनी कहलाता या कहलाना चाहता है, उसकी बुरी दशा होती है, वह स्वयं भी अनेक दु:ख भोगता है और जगत्को भी धोखा देता है। इसी प्रकार सत्पुरुष कहलानेकी इच्छा नहीं रखकर सत्पुरुष बननेकी इच्छा रखनी चाहिये और उसके लिये श्रद्धाके साथ चुपचाप सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये। जबतक अपना ध्येय न मिल जाय, तबतक दूसरी ओर ताकनेकी भी फुरसत नहीं मिलनी चाहिये, यही सच्ची साधना है।