॥ श्रीहरि:॥
निवेदन
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५।२९)
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं ‘जो मुझको समस्त प्राणियोंका सुहृद् (स्वार्थरहित अहैतुक प्रेमी) जान लेता है वह शान्तिको—मोक्षको प्राप्त हो जाता है।’ भगवान् जीवोंके परम सुहृद् हैं, स्वभावसे ही सबका हित करते हैं, इस बातको वास्तवमें हमलोग जानते नहीं। कहते हैं, सुनते हैं, पढ़ते हैं, कभी-कभी बुद्धिमें भी यह बात आती है; परन्तु मनने वस्तुत: इस तत्त्वको जाना और माना नहीं। यदि दु:खोंकी ज्वालासे जलता हुआ जीव परम सुखराशि सच्चिदानन्दघन परमात्माको अपना सुहृद् जान ले तो फिर वह अपने दु:खोंकी निवृत्तिके लिये जगत्के अन्यान्य उपायोंका अवलम्बन ही क्यों करे? एक मनुष्यको किसी वस्तुका अभाव है और उसे उस अभावको मिटानेकी बड़ी आवश्यकता है तथा वह उसे मिटानेके लिये व्याकुल है; ऐसी स्थितिमें उसे यदि किसी ऐसे पुरुषका पता लग जाय जिसके पास उसके अभावको दूर करनेवाली वस्तु हो, जो उसको हृदयसे चाहता भी हो और साथ ही उसके अभावको भी उतना ही जानता और अनुभव करता हो, जितना कि वह अभाववाला पुरुष करता है, तो फिर उसका अभाव दूर होनेमें देर क्यों होनी चाहिये? उस पुरुषके पास जाते ही उसका अभाव मिट जायगा। यही स्थिति जीवकी और भगवान्की है। जीव भगवान्का सनातन अभिन्न अंश होनेपर भी आनन्द और शान्तिके अभावसे दु:खी है, इसीलिये वह अनादिकालसे आनन्द और शान्तिकी खोजमें ही भटक रहा है, परन्तु आनन्द और शान्तिके यथार्थ स्वरूप और उनके निवासस्थानको न जाननेके कारण बार-बार उसे निरानन्द और अशान्तिकी आगमें ही जलना पड़ता है एवं जबतक उसे आनन्द और शान्तिकी प्राप्ति न होगी, तबतक उसकी यही दशा रहेगी। भगवान् आनन्द और शान्तिके अपार सागर हैं, वे जीवके परम प्रेमी हैं; क्योंकि वह उन्हींका अंश है तथा वे उसके अभावजन्य दु:खको भी जानते हैं, इसीलिये वे बारम्बार जीवको सावधान करते, प्रबोध देते और सन्मार्गपर लानेका प्रयत्न करते हैं। सब जीवोंके प्रति समान प्रेम होनेपर भी, उनका यह नियम है कि जो उन्हें भजता है, उनकी शरण होता है, वे उसीकी जिम्मेवारी अपने ऊपर लेते हैं; इसीलिये वे कहते हैं—
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय:।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्॥
(गीता ९।२९)
मैं समस्त प्राणियोंमें समान भावसे व्याप्त हूँ। मेरा न कोई अप्रिय है और न प्रिय, परन्तु जो लोग मुझे भक्तिपूर्वक भजते हैं, वे (अपनेको) मुझमें (देखते) हैं और मैं (उन्हें) उनमें (दीखता) हूँ। भगवान्की कितनी अपार दयालुता है कि जो वे भूले हुए दु:खग्रस्त जीवोंको अपने मुँहसे अपना नियम और प्रभाव बतलाकर अपने शरणमें बुलाते हैं। जिस समय मनुष्य उनके आवाहनको यथार्थमें सुन लेता है, उसी दिन उसी क्षण वह अभिसारिकाकी भाँति छूट निकलता है, फिर वह संसारके धन-जन-परिवारकी तनिक भी परवा नहीं करता। वह ऐसे परम धन, परम प्रियतम, समस्त सुख-शान्तिके सनातन और पूर्ण भण्डारकी ओर दौड़ता है कि उसे फिर पीछे फिरकर देखनेकी आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती। वह तो जल्दी-से-जल्दी उस परम प्रियतमको पानेके लिये तन-मन और लोक-परलोककी बाजी लगाकर सारी विघ्न-बाधाओंको लाँघता हुआ हवाके वेगसे चलता है, फिर कोई भी बाधा उसे रोक नहीं सकती। सारी प्रतिकूलताएँ उसके अनुकूल बन जाती हैं—वह भगवत्-मार्गका पथिक कभी न थकता है, न विराम लेता है, न घबड़ाता है, न निराश होता है; ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता है त्यों-ही-त्यों नये-नये उत्साह और प्रकाशको प्राप्त होता हुआ दूर-से-दूर स्थानको भी नजदीक-से-नजदीक समझकर चला ही जाता है। वास्तवमें उसे भगवान्की दयासे सुविधाएँ प्राप्त होती हैं और वह उनका प्रत्यक्ष अनुभव भी करता है। भगवान्ने कहा है—
मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
(गीता १८। ५८)
मुझमें मन लगा देनेपर तू मेरी कृपासे समस्त बाधाओंके समुद्रोंसे अनायास ही तर जायगा। हमलोग जो पद-पदपर बाधा-विघ्नों और कराल क्लेशोंका सामना करते हैं, इसका कारण यही है कि हम भगवान्को परम समर्थ सुहृद् समझकर उनमें मन नहीं लगाते, उनके शरण नहीं होते। पूर्णरूपसे मन सौंप देने या शरणागत हो जानेवालोंके लिये तो भगवान्की आश्वासन-वाणी है—
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(गीता १२।७)
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
(गीता १८।६६)
हे अर्जुन! मुझमें चित्तको प्रविष्ट करा देनेवाले उन भक्तोंको मृत्युरूप संसार-सागरसे बहुत ही शीघ्र मैं पार कर देता हूँ। (इसलिये) सब धर्मोंको छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जा, मैं (स्वयं ही) तुझे सारे पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता न कर।
यह सारी बातें होते हुए भी हम उनकी शरण नहीं होते, इसका प्रधान कारण यही है कि हमें उनकी सर्वज्ञता, दयालुता, सर्वशक्तिमत्तापर विश्वास नहीं है, हम वस्तुत: उन्हें अपना परम सुहृद् नहीं जानते—इसी विश्वासकी कमीसे हम उन्हें न भजकर अन्य उपायोंसे सुख-शान्तिकी प्राप्ति चाहते हैं और इसीलिये बारम्बार एक दु:खके राज्यसे दूसरे महान् दु:खके राज्यमें प्रवेश करते हुए दु:खमय बन रहे हैं।
इस छोटी-सी पुस्तिकामें भगवान्के महत्त्वको प्रकट करने तथा उनके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है, इसीको बतलानेका किंचित् प्रयत्न किया गया है। यदि इसे पढ़कर किसी एक भी भाई-बहिनके हृदयमें भगवान्के प्रेम और उनके प्रति अपने कर्तव्यकी स्फूर्ति हुई तो मैं अपना बड़ा सौभाग्य समझूँगा।
विनीत
लेखक