तृष्णा
तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा:।
बुढ़ापा आ गया, इन्द्रियोंकी शक्ति जाती रही, सब तरहसे दूसरोंके मुँहकी ओर ताकना पड़ता है, परन्तु तृष्णा नहीं मिटी। कुछ और जी लूँ, बच्चोंके लिये कुछ और कर जाऊँ, दवा लेकर जरा ताजा होऊँ तो संसारका कुछ सुख और भोग लूँ। मरना तो है ही, परन्तु मेरे हाथसे लड़केका विवाह हो जाय तो अच्छी बात है, दुकानका काम बच्चे ठीकसे सँभाल लें, इतना-सा उन्हें और ज्ञान हो जाय, बहुत-से वृद्ध पुरुष ऐसी बातें करते देखे जाते हैं। मेरे एक परिचित वृद्ध सज्जन जो लगभग करोड़पति माने जाते हैं और जिनके जवान पौत्रकी भी सन्तान मौजूद है, एक बार बहुत बीमार पड़े। बचनेकी आशा नहीं थी। बड़ी दौड़-धूप की गयी, भाग्यवश उस समय उनके प्राण बच गये। मैं उनसे मिलने गया, मैंने शरीरका हाल पूछकर उनसे कहा कि ‘अब आपको संसारकी चिन्ता छोड़कर भगवद्भजनमें मन लगाना चाहिये। इस बीमारीमें आपकी मरनेकी नौबत आ गयी थी, भगवत्कृपासे आप बच गये हैं, अब तो जितने दिन आपका शरीर रहे, आपको केवल भगवान्का भजन ही करना चाहिये।’ उन्होंने कहा—‘आपका कहना तो ठीक ही है, परन्तु लड़का इतना होशियार नहीं है, पाँच साल मैं और जिंदा रहूँ तो घरको कुछ ठीक कर जाऊँ, लड़का भी कुछ और समझने लगे। मरना तो है ही। क्या करूँ? भजन तो होता नहीं।’ मैंने फिर कहा—‘अब आपको घर क्या ठीक करना है? परमात्माकी कृपासे आपके घरमें काफी धन है। आपके लड़के भी बुड्ढे हो चले हैं। मान लीजिये, अभी आप मर जाते तो पीछेसे घरको ठीक कौन करता?’ उन्होंने सरलतासे कहा—‘यह तो मैं भी जानता हूँ, परन्तु तृष्णा नहीं छूटती।’
इस सच्ची घटनासे पता लगता है कि तृष्णा किस तरहसे मनुष्यको घेरे रहती है। ज्यों-ज्यों कामनाकी पूर्ति होती है त्यों-ही-त्यों तृष्णाकी जलन बढ़ती चली जाती है।
निस्स्वो वष्टि शतं शती दशशतं
लक्षं सहस्राधिपो
लक्षेश: क्षितिपालतां क्षितिपति-
श्चक्रेश्वरत्वं पुन:।
चक्रेश: पुनिरिन्द्रतां सुुरपति-
र्ब्रह्मास्पदं वाञ्छति
ब्रह्मा विष्णुपदं पुन: पुनरहो
आशावधिं को गत:॥
‘जिसके पास कुछ भी नहीं होता वह चाहता है कि मेरे सौ रुपये हो जायँ, सौ होनेपर हजारके लिये इच्छा होती है, हजारसे लाख, लाखसे राजाका पद, राजासे इन्द्रका पद, इन्द्र होनेपर ब्रह्माका पद पानेकी इच्छा होती है और ब्रह्मा होनेपर विष्णुपदकी कामना होती है। इस तरह तृष्णा उत्तरोत्तर बढ़ती ही रहती है, इसकी कोई सीमा नहीं बाँधी जा सकती।’
मेरे एक मित्र मुझसे कहा करते हैं कि जब हम निर्धन थे तब यह इच्छा होती थी कि बीस हजार रुपये हमारे पास हो जायँगे तो हम केवल भगवान्का भजन ही करेंगे, परन्तु इस समय हमारे पास लाखों रुपये हैं, वृद्धावस्था हो चली है, परन्तु धनकी तृष्णा किसी-न-किसी रूपमें बनी ही रहती है। यही तो तृष्णाका स्वरूप है।
जगत्के सुखभोगोंकी तृष्णाने ही लोगोंको भगवान्से विमुख कर रखा है। यह पिशाचिनी किसी भी कालमें भगवच्चिन्तनके लिये मनका पिण्ड नहीं छोड़ती। सदा-सर्वदा सिरपर सवार ही रहती है। रेलमें, मोटरमें, गाड़ीमें, जहाजमें, मन्दिरमें, मस्जिदमें, दुकानमें, घरमें, बाजारमें, वनमें, सभामें और समारोहमें सभी जगह यह साथ रहती है। इसीसे मनुष्य दु:खोंसे छुटकारा नहीं पा सकता। भगवान् श्रीराम कहते हैं—
सर्वसंसारदु:खानां तृष्णैका दीर्घदु:खदा।
अन्त:पुरस्थमपि या योजयत्यतिसंकटे॥
‘संसारमें जितने दु:ख हैं उन सबमें तृष्णा ही सबसे अधिक दु:खदायिनी है। जो कभी घरसे बाहर भी नहीं निकलता, तृष्णा उसे भी बड़े संकटमें डाल देती है।’
भीषयत्यपि धीरं मामन्धयत्यपि सेक्षणम्।
खेदयत्यपि सानन्दं तृष्णा कृष्णेव शर्वरी॥
‘तृष्णा महती अन्धकारमयी कालरात्रिकी तरह धीर पुरुषको भी डरा देती है, चक्षुयुक्तको भी अंधा बना देती है और शान्तको भी खेदयुक्त कर देती है।’
विषय-तृष्णामें मतवाले मनुष्योंकी असफलताका दिग्दर्शन कराते हुए महाराज भर्तृहरि पुकारते हैं—
उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं
ध्माता गिरेर्धातवो
निस्तीर्ण: सरिताम्पतिर्नृपतयो
यत्नेन सन्तोषिता:।
मन्त्राराधनतत्परेण मनसा
नीता श्मशाने निशा
प्राप्त: काणवराटकोऽपि न मया
तृष्णेऽधुना मुंच माम्॥
धनकी तृष्णाने क्या-क्या काम नहीं कराये।
खोदत डोल्यो भूमि, गड़ीहु न पाई सम्पति।
धौंकत रह्यो पखान, कनकके लोभ लगी मति॥
गयो सिन्धुके पास, तहाँ मुक्ताहु न पायो।
कौड़ी कर नहिं लगी, नृपनको शीश नवायो॥
साधे प्रयोग श्मशानमें, भूत प्रेत वैताल सजि।
कितहूँ भयो न वांछित कछू अब तो तृष्णा मोहि तजि॥
‘गड़े धनके लिये जमीनका तला खोद डाला; रसायनके लिये धातुएँ फूँकीं; मोतियोंके लिये समुद्रकी थाह ली; राजाओंको सन्तुष्ट रखनेमें बड़ा यत्न किया; मन्त्रसिद्धिके लिये रातों श्मशान जगाया और एकाग्र होकर बैठा हुआ जप करता रहा, पर खेद है कि कहींपर भी एक फूटी कौड़ी हाथ न लगी। इसलिये हे तृष्णे! अब तो तू मेरा पिण्ड छोड़। फिर कहते हैं—
भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषमं
प्राप्तं न किंचित्फलं
त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं
सेवा कृतानिष्फला।
भुक्तं मानविवर्जितं परगृहे-
ष्वाशंकया काकवत्
तृष्णे दुर्मति पापकर्मनिरते
नाद्यापि सन्तुष्यसि॥
भटक्यो देश-विदेश, तहाँ कछु फलहु न पायो।
निज कुलको अभिमान छोड़ सेवा चित लायो॥
सही गारि अरु खीझ हाथ झारत घर आयो।
दूर करतहूँ दौरि, स्वान जिमि परघर खायो॥
इहि भाँति नचायो मोहि तैं, बहकायो दै लोभतल।
अबहूँ न तोहि सन्तोष कहु, तृष्णा! तू पापिनि प्रबल॥
तृष्णासे ही इतनी लांछना, निर्लज्जता और इतना अपमान, दु:ख सहन करना पड़ता है।
एक दु:खके बाद नया दु:ख आनेमें तृष्णा ही प्रधान कारण होती है। मनुष्य किसी भी अवस्थामें सन्तोष नहीं करता, इसीलिये बारम्बार उसकी स्थिति बदलती रहती है। तृष्णाके मारे भटकते-भटकते सारी उम्र बीत जाती है; अन्तमें वह जैसे-का-तैसा रह जाता है; पीछे हाथ मल-मलकर पछतानेसे भी कोई लाभ नहीं होता।
यदि भाग्यवश धन प्राप्त भी हो जाता है तब भी वह तृष्णा उसका कुछ विशेष सदुपयोग नहीं होने देती, सारी उम्र बातोंमें ही बीत जाती है।
अतएव बुद्धिमान् मनुष्योंको भोगोंकी तृष्णासे मुँह मोड़कर परमात्माके लिये तृषित होना चाहिये। भोगोंसे कभी तृप्ति नहीं होती ‘बुझै न काम-अगिनि तुलसी बहु बिषय-भोग अरु घी ते।’ अग्निमें घी डालते जाइये, वह और भी धधकेगी। यही दशा कामनाकी है। उसे बुझाना हो तो सन्तोषरूपी शीतल जल डालिये। धन तो वही असली है जिससे मनुष्यको सुख मिलता है। ऐसा धन सन्तोष है ‘सन्तोष: परमं धनम्।’ ऐसे अनेक करोड़पति देखे जाते हैं जो तृष्णाके फेरमें पड़े हुए असन्तोष और अतृप्तिकी तीव्र आगसे जल रहे हैं। उनके अन्त:करणमें क्षणभरके लिये भी शान्ति पैदा नहीं होती। इसीलिये तो वे महान् दु:खी रहते हैं—
अशान्तस्य कुत: सुखम्
न्यायसे धन कमाने और उसका सदुपयोग करनेकी मनाही नहीं है, परन्तु धनकी तृष्णासे मतवाले होनेकी आवश्यकता नहीं। इसीलिये शास्त्रोंमें इसके लिये एक मर्यादा बतायी है; क्योंकि धनमें बड़ी मादकता होती है, धनमद सबसे बड़ा मद होता है। यह मद मनुष्यपर जब चढ़ जाता है तब उसे अंधा बना देता है। फिर वह अपने सामने जगत्में किसीको भी बुद्धिमान् नहीं समझता। वे पुरुष धन्य हैं जो धन होते हुए भी मदहीन और विनम्र हैं, परन्तु ऐसे पुरुष संसारमें विरले ही होते हैं, धनकी स्वाभाविक मादकता आये बिना प्राय: रहती नहीं। अतएव साधक पुरुषोंको चाहिये कि वे आजीविकाके लिये उतना ही कार्य करें जिससे उनका गृहस्थ बड़ी सादगीके साथ साधारणरूपसे ठीक चलता रहे। धन बटोरकर भोग भोगने या पुण्य कमानेकी इच्छा रखकर धनके लिये तृष्णा न करें इससे परमार्थके साधनमें बड़ा विघ्न होता है।
धन कमाना बुरी बात नहीं है। धनकी तृष्णा ही बुरी है। जगत्के किसी भी भोग्यपदार्थकी तृष्णा मनुष्यको बन्धनमें डाल देती है। तृष्णा हो तो एक प्यारे मनमोहनके मुखकमल-दर्शनकी हो, जिससे त्रिविध तापोंका सदाके लिये नाश हो जाता है; परन्तु वह तृष्णा उन्हीं भाग्यवानोंको नसीब होती है जो भोगोंकी तृष्णाको विषवत् त्याग देते हैं। जो जगत्के केवल देखनेमें रमणीय पदार्थोंके असली जहरीले रूपको पहचानकर उनसे मुँह मोड़ लेते हैं, उन्हींके अन्त:करणमें भगवच्चरण-दर्शनकी तीव्र पिपासा उत्पन्न होती है। फिर वे पागल हो उठते हैं उस रूपमाधुरीका दर्शन करनेके लिये। उन्हें दूसरी बात सुहाती नहीं। जगत्के विषयी लोग कोई उन्हें पागल समझते हैं, कोई मूर्ख समझते हैं, कोई निकम्मा समझते हैं, कोई अशक्त समझते हैं और कोई अविवेकी समझते हैं; परन्तु वे अपनी उसी धुनमें इतने मस्त रहते हैं कि निन्दकोंकी ओर ताकनेकी भी उनको फुरसत नहीं मिलती। प्यासके मारे जिसके प्राण छटपटाते हों, वह जलको छोड़कर दूसरी ओर कैसे ताकेगा? उसे जबतक जल नहीं मिल जायगा तबतक जगत्की गप्पें कैसे सुहावेंगी? वह तो दौड़ेगा वहींपर जहाँ उसे जल दीखेगा। वह क्यों परवा करेगा लोगोंकी जबानकी? जिसके मनमें जो आवे सो कहे, उसे तो अपने कामसे काम। जो जगत्की ओर ताकते हैं, उनकी बात सुनते और उन्हें जवाब देनेके लिये ठहरते हैं उन्हें पूरी प्यास नहीं होती, वे प्यासकी अधिकतासे छटपटाने नहीं लगते। इसीलिये उन्हें सुनना, ठहरना और जवाब देना सूझता है। जिसके तृष्णा बढ़ जाती है वह तो उन्मत्त हो जाता है।
लगी है प्यास जोरोंसे ढूँढ़ता हूँ सरोवर को।
सुहाता है नहीं कोई मुझे अब दूसरा कुछ भी॥
जब इतनी तृष्णा बढ़ती है तब भगवान्का आसन डोल जाता है, उन्हें आना पड़ता है वैकुण्ठ छोड़कर, उस रूपके प्यासे मतवाले भक्तको अतुल सौन्दर्य सुधा पिलाकर सदाके लिये तृप्त और सन्तुष्ट कर देनेके लिये! भगवान्के इस मनोहर मिलनसे संसारकी समस्त ज्वालाएँ शान्त हो जाती हैं, उसकी जन-मनहर अनोखी वाणी सुनते ही अविद्याकी बेड़ियाँ पटापट टूट जाती हैं, कर्मोंका बन्धन खुल पड़ता है। अमावस्याकी घोर निशा शरद्-पूर्णिमाके अमृतभरे प्रकाशके रूपमें परिणत हो जाती है। धन, मान, कुल, विद्या और वर्णका सारा अभिमान उस प्रियतमके प्रेमकी बाढ़में बह जाता है—मायाका लेन-देन चुक जाता है। उसके लिये दरवाजा खुल जाता है उस सर्वत्र अबाधित परमात्माके परम धामका। उसके कोई भी अपना-पराया नहीं रह जाता, सर्वत्र ही मोहनकी मधुर मुरलीका सुरीला स्वर सुनायी पड़ने लगता है और दीखने लगता है सर्वत्र केवल उस एकका अपार विस्तार। ऐसी स्थितिमें वह उसीमें अनुरक्त, उसीमें तृप्त और उसीमें सन्तुष्ट हो रहता है। उसके लिये फिर कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रह जाता—
तस्य कार्यं न विद्यते।