सद्गुणवती कैकेयी
रामायणमें महारानी कैकेयीका चरित्र सबसे अधिक बदनाम है। जिसने सारे विश्वके परम प्रिय प्राणाराम रामको बिना अपराध वनमें भिजवानेका अपराध किया, उसका पापिनी, कलंकिनी, राक्षसी, कुलविनाशिनी कहलाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं। समस्त सद्गुणोंके आधार, जगदाधार राम जिसकी आँखोंके काँटे हो गये, उसपर गालियोंकी बौछार न हो तो किसपर हो? इसीसे लाखों वर्ष बीत जानेपर भी आज जगत्के नर-नारी कैकेयीका नाम सुनते ही नाक-भौं सिकोड़ लेते हैं और मौका पानेपर उसे दो-चार ऊँचे-नीचे शब्द सुनानेसे बाज नहीं आते। परन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिये कि कैकेयी सर्वथा दुर्गुणोंकी ही खान थी, उसमें कोई सद्गुण था ही नहीं। सच्ची बात तो यह है कि यदि श्रीराम वनवासमें कैकेयीके कारण होनेका प्रसंग निकाल लिया जाय तो शायद कैकेयीका चरित्र रामायणके प्राय: सभी स्त्रीचरित्रोंसे बढ़कर समझा जाय। कैकेयीके राम-वनवासके कारण होनेमें भी एक बड़ा भारी रहस्य छिपा हुआ है, जिसका उद्घाटन होनेपर यह सिद्ध हो जाता है कि श्रीरामके अनन्य और अनुकूल भक्तोंमें कैकेयीजीका स्थान सर्वोच्च है। इस विषयपर आगे चलकर यथामति विचार प्रकट किये जायँगे। पहले कैकेयीके अन्य गुणोंकी ओर दृष्टि डालिये।
कैकेयी महाराज केकयकी पुत्री और दशरथजीकी छोटी रानी थी। यह केवल अप्रतिम सुन्दरी ही नहीं थी, प्रथम श्रेणीकी पतिव्रता और वीरांगना भी थी। बुद्धिमत्ता, सरलता, निर्भयता, दयालुता आदि सद्गुणोंका कैकेयीके जीवनमें पूर्ण विकास था। इसने अपने प्रेम और सेवाभावसे महाराजके हृदयपर इतना अधिकार कर लिया था कि महाराज तीनों पटरानियोंमें कैकेयीको ही सबसे अधिक मानते थे। कैकेयी पति-सेवाके लिये सभी कुछ कर सकती थी। एक समय महाराज दशरथ देवताओंकी सहायताके लिये शम्बरासुर नामक राक्षससे युद्ध करने गये। उस समय कैकेयीजी भी पतिके साथ रणांगणमें गयी थीं, आराम या भोग भोगनेके लिये नहीं, सेवा और शूरतासे पतिदेवको सुख पहुँचानेके लिये। कैकेयीका पातिव्रत और वीरत्व इसीसे प्रकट है कि उसने एक समय महाराज दशरथके सारथिके मर जानेपर स्वयं बड़ी ही कुशलतासे सारथिका कार्य करके महाराजको संकटसे बचाया था। उसी युद्धमें दूसरी बार एक घटना यह हुई कि महाराज घोर युद्ध कर रहे थे, इतनेमें उनके रथके पहियेकी धुरी निकलकर गिर पड़ी। राजाको इस बातका पता नहीं लगा। कैकेयीने इस घटनाको देख लिया और पतिकी विजय कामनासे महाराजसे बिना कुछ कहे-सुने तुरन्त धुरीकी जगह अपना हाथ डाल दिया और बड़ी धीरतासे बैठी रही। उस समय वेदनाके मारे कैकेयीकी आँखोंके कोये काले पड़ गये, परंतु उसने अपना हाथ नहीं हटाया। इस विकट समयमें यदि कैकेयीने बुद्धिमत्ता और सहनशीलतासे काम न लिया होता तो महाराजके प्राण बचने कठिन थे।
शत्रुओंका संहार करनेके बाद जब महाराजको इस घटनाका पता लगा तो उनके आश्चर्यका पार नहीं रहा। उनका हृदय कृतज्ञता तथा आनन्दसे भर गया। ऐसी वीरता और त्यागपूर्ण क्रिया करनेपर भी कैकेयीके मनमें कोई अभिमान नहीं, वह पतिपर कोई एहसान नहीं करती। महाराज वरदान देना चाहते हैं तो वह कह देती है कि मुझे तो आपके प्रेमके सिवा अन्य कुछ भी नहीं चाहिये। जब महाराज किसी तरह नहीं मानते और दो वर देनेके लिये हठ करने लगते हैं तब दैवी प्रेरणावश ‘आवश्यक होनेपर माँग लूँगी’ कहकर अपना पिण्ड छुड़ा लेती है। उसका यह अपूर्व त्याग सर्वथा सराहनीय है।
भरत-शत्रुघ्न ननिहाल चले गये हैं। पीछेसे महाराजने चैत्रमासमें श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारी की, किसी भी कारणसे हो, उस समय महाराज दशरथने इस महान् उत्सवमें भरत और शत्रुघ्नको बुलानेकी भी आवश्यकता नहीं समझी, न केकयराजको ही निमन्त्रण दिया गया। कहा जाता है कि कैकेयीके विवाहके समय महाराज दशरथने इसीके द्वारा उत्पन्न होनेवाले पुत्रको राज्यका अधिकारी मान लिया था। परन्तु रघुवंशकी प्रथा और श्रीरामके प्रति अधिक अनुराग होनेके कारण चुपचाप रामको युवराजपद प्रदान करनेकी तैयारी कर ली गयी। यही कारण था कि रानी कैकेयीके महलोंमें भी इस उत्सवके समाचार पहलेसे नहीं पहुँचे थे। रानी कैकेयी अपना स्वत्व जानती थी, उसे पता था कि भरतको मेरे पुत्रके नाते राज्याधिकार मिलना चाहिये, परन्तु कैकेयी इस बातकी कुछ भी परवा न कर रामराज्याभिषेककी बात सुनते ही प्रसन्न हो गयी। देवप्रेरित कुबड़ी मन्थराने आकर जब उसे यह समाचार सुनाया तब वह आनन्दमें डूब गयी। वह मन्थराको पुरस्कारमें एक दिव्य उत्तम गहना देकर ‘दिव्यमाभरणं तस्यै कुब्जायै प्रददौ शुभम्’ कहती है—
इदं तु मन्थरे मह्यमाख्यातं परमं प्रियम्।
एतन्मे प्रियमाख्यातं किं वा भूय: करोमि ते॥
रामे वा भरते वाहं विशेषं नोपलक्षये।
तस्मात्तुष्टास्मि यद्राजा रामं राज्येऽभिषेक्ष्यति॥
न मे परं किंचिदितो वरं पुन:
प्रियं प्रियार्हे सुवचं वचोऽमृतम्।
तथा ह्यवोचस्त्वमत: प्रियोत्तरं
वरं परं ते प्रददामि तं वृणु॥
(वा०रा०२।७।३४—३६)
‘मन्थरे! तूने मुझको यह बड़ा ही प्रिय संवाद सुनाया है, इसके बदलेमें मैं तेरा और क्या उपकार करूँ? (यद्यपि भरतको राज्य देनेकी बात हुई थी; परन्तु) राम और भरतमें मैं कोई भेद नहीं देखती, मैं इस बातसे बहुत प्रसन्न हूँ कि महाराज कल रामका राज्याभिषेक करेंगे। हे प्रियवादिनी! रामके राज्याभिषेकका संवाद सुननेसे बढ़कर मुझे अन्य कुछ भी प्रिय नहीं है। ऐसा अमृतके समान सुखप्रद वचन सब नहीं सुना सकते। तूने यह वचन सुनाया है, इसके लिये तू जो चाहे सो पुरस्कार माँग ले, मैं तुझे देती हूँ।’
इसपर मन्थरा गहनेको फेंककर कैकेयीको बहुत कुछ उलटा-सीधा समझाती है, परन्तु फिर भी कैकेयी तो श्रीरामके गुणोंकी प्रशंसा करती हुई यही कहती है कि श्रीरामचन्द्र धर्मज्ञ, गुणवान्, संयतेन्द्रिय, सत्यव्रती और पवित्र हैं, वह राजाके ज्येष्ठ पुत्र हैं, अतएव (हमारी कुलप्रथाके अनुसार) उन्हें युवराज-पदका अधिकार है। दीर्घायु राम अपने भाइयों और सेवकोंको पिताकी तरह पालन करेंगे। मन्थरे! तू ऐसे रामचन्द्रके अभिषेककी बातसुनकर क्यों दु:खी हो रही है? यह तो अभ्युदयका समय है, ऐसे समयमें तू जल क्यों रही है? इस भावी कल्याणमें तू क्यों दु:ख कर रही है?
यथा वै भरतो मान्यस्तथा भूयोऽपि राघव:।
कौसल्यातोऽतिरिक्तं च मम शुश्रूषते बहु॥
राज्यं यदि हि रामस्य भरतस्यापि तत्तदा।
मन्यते हि यथात्मानं यथा भ्रातृृंस्तु राघव:॥
(वा०रा०२।८।१८-१९)
‘मुझे भरत जितना प्यारा है, राम उससे कहीं अधिक प्यारे हैं; क्योंकि राम मेरी सेवा कौसल्यासे भी अधिक करते हैं, रामको यदि राज्य मिलता है तो वह भरतको ही मिलता है, ऐसा समझना चाहिये; क्योंकि राम सब भाइयोंको अपने ही समान समझते हैं।’
इसपर जब मन्थरा महाराज दशरथकी निन्दा कर कैकेयीको फिर उभाड़ने लगी, तब तो कैकेयीने उसको बड़ी बुरी तरह फटकार दिया—
ईदृशी यदि रामे च बुद्धिस्तव समागता।
जिह्वायाश्छेदनं चैव कर्तव्यं तव पापिनि॥
पुनि अस कबहुँ कहसि घरफोरी।
तब धरि जीभ कढ़ावउँ तोरी॥
इस प्रसंगसे पता लगता है कि कैकेयी श्रीरामको कितना अधिक प्यार करती थी और उसे रामके राज्याभिषेकमें कितना बड़ा सुख था! इसके बाद मन्थराके पुन: कहा-सुनी करनेपर कैकेयीके द्वारा जो कुछ कार्य हुआ, उसे यहाँ लिखनेकी आवश्यकता नहीं। उसी कुकार्यके लिये तो कैकेयी आजतक पापिनी और अनर्थकी मूलकारणरूपा कहलाती है। परन्तु विचार करनेकी बात है कि रामको इतना चाहनेवाली, कुलप्रथा और कुलकी रक्षाका हमेशा फिक्र रखनेवाली, परम सुशीला कैकेयीने राज्यलोभसे ऐसा अनर्थ क्यों किया? जो थोड़ी देर पहले रामको भरतसे अधिक प्रिय बतलाकर उनके राज्याभिषेकके सुसंवादपर दिव्याभरण पुरस्कार देती थी और राम तथा दशरथकी निन्दा करनेपर, भरतको राज्य देनेकी प्रतिज्ञा जाननेपर भी मन्थराको ‘घरफोरी’ कहकर उसकी जीभ निकलवाना चाहती थी, वही जरा-सी देरमें इतनी कैसे बदल जाती है कि वह रामको चौदह सालके लिये वनके दु:ख सहन करनेको भेज देती है और भरतके शील-स्वभावको जानती हुई भी उसके लिये राज्यका वरदान चाहती है?
इसमें रहस्य है। वह रहस्य यह है कि कैकेयीका जन्म भगवान् श्रीरामकी लीलामें प्रधान कार्य करनेके लिये ही हुआ था। कैकेयी भगवान् श्रीरामको परब्रह्म परमात्मा समझती थी और श्रीरामके लीलाकार्यमें सहायक बननेके लिये उसने श्रीरामकी रुचिके अनुसार यह जहरकी घूँट पीयी थी। यदि कैकेयी श्रीरामको वन भिजवानेमें कारण न होती तो श्रीरामका लीलाकार्य सम्पन्न ही न होता। न सीताका हरण होता और न राक्षसराज रावण अपनी सेनासहित मरता। रामने अवतार धारण किया था ‘दुष्कृतोंका विनाश करके साधुओंका परित्राण करनेके लिये।’ दुष्टोंके विनाशके लिये हेतुकी आवश्यकता थी। बिना अपराध मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम किसीपर आक्रमण करने क्यों जाते? आजकलके राज्यलोभी लोगोंकी भाँति वे जबरदस्ती परस्वापहरण करना तो चाहते ही नहीं थे। मर्यादाकी रक्षा करके ही सारा काम करना था। रावणको मारनेका कार्य भी दयाको लिये हुए था, मारकर ही उसका उद्धार करना था। दुष्ट कार्य करनेवालोंका वध करके ही साधु और दुष्टोंका—दोनोंका परित्राण करना था। साधुओंका दुष्टोंसे बचाकर सदुपदेशसे और दुष्टोंका कालमूर्ति होकर मृत्युरूपसे—एक ही वारसे दो शिकार करने थे। पर इस कार्यके लिये भी कारण चाहिये, वह कारण था—सीताहरण। इसके सिवा अनेक शाप-वरदानोंको भी सच्चा करना था, पहलेके हेतुओंकी मर्यादा रखनी थी, परन्तु वन गये बिना सीताहरण होता कैसे? राज्याभिषेक हो जाता तो वन जानेका कोई कारण नहीं रह जाता। महाराज दशरथकी मृत्युका समय समीप आ पहुँचा था। उसके लिये भी किसी निमित्तकी रचना करनी थी। अतएव इस निमित्तके लिये देवी कैकेयीका चुनाव किया गया और महाराज दशरथकी मृत्यु एवं रावणका वध—इन दोनों कार्योंके लिये कैकेयीके द्वारा राम-वनवासकी व्यवस्था करायी गयी!
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥
‘भगवान् सबके हृदयमें स्थित हुए समस्त भूतोंको मायासे यन्त्रारूढकी तरह घुमाते हैं।’ इसी गीतावाक्यके अनुसार सबके नियन्ता भगवान् श्रीरामकी ही प्रेरणासे देवताओंके द्वारा प्रेरित होकर जब सरस्वती देवी कैकेयीकी बुद्धि फेर गयी१ और जब उसका पूरा असर हो गया, (भावी बस प्रतीति उर आई) तब भगवदिच्छानुसार बरतनेवाली कैकेयी भगवान्की मायावश ऐसा कार्य कर बैठी,२ जो अत्यन्त क्रूर होनेपर भी भगवान्की लीलाकी सम्पूर्णताके लिये अत्यन्त आवश्यक था।
१-देवताओंने सरस्वतीको यह कहकर भेजा था कि—
मन्थरां प्रविशस्वादौ कैकेयीं च तत: परम्॥
ततो विघ्ने समुत्पन्ने पुनरेहि दिवं शुभे।
(अ०रा०२।२।४५-४६)
‘पहले मन्थरामें प्रवेश करके फिर कैकेयीकी बुद्धिमें प्रवेश करना और रामके अभिषेकमें विघ्न करके वापस लौट आना।’
२-कैकेयीके ऐसा करनेका एक कारण यह भी बतलाया जाता है कि कैकेयी जब लड़कपनमें अपने पिताके घर थी, तब वहाँ एक दिन एक कुरूप ब्राह्मणको आया देखकर कैकेयीने उसकी ‘दिल्लगी’ उड़ायी थी और निन्दा की थी। इससे क्रुद्ध होकर उस तपस्वी ब्राह्मणने कैकेयीको यह शाप दिया था कि ‘तू अपने रूपके अभिमानसे अंधी होकर मेरे कुरूप वदनकी निन्दा करती है, इसलिये तू भी कुरूपा स्त्रीकी बातोंमें आकर ऐसा कर्म कर बैठेगी जिससे जगत्में तेरी बड़ी भारी नीच निन्दा होगी!’
अब प्रश्न यह है कि ‘जब कैकेयी भगवान्की परम भक्त थी, प्रभुकी इस आभ्यन्तरिक गुह्य लीलाके अतिरिक्त प्रकाश्यमें भी श्रीरामसे अत्यन्त प्यार करती थी, राज्यमें और परिवारमें उसकी बड़ी सुख्याति थी, सारा कुटुम्ब कैकेयीसे खुश था, फिर भगवान्ने उसीके द्वारा यह भीषण कार्य कराकर उसे कुटुम्बियों और अवधवासियोंके द्वारा तिरस्कृत, पुत्रद्वारा अपमानित और इतिहासमें सदाके लिये लोकनिन्दित क्यों बनाया? जब भगवान् ही सबके प्रेरक हैं, तो साध्वी सरला कैकेयीके मनमें सरस्वतीके द्वारा ऐसी प्रेरणा ही क्यों करवायी, जिससे उसका जीवन सदाके लिये दु:खी और नाम सदाके लिये बदनाम हो गया?’ इसीमें तो रहस्य है। भगवान् श्रीराम साक्षात् सच्चिदानन्द परमात्मा थे, कैकेयी उनकी परम अनुरागिणी सेविका थी। जो सबसे गुह्य और कठिन कार्य होता है उसको सबके सामने न तो प्रकाशित ही किया जा सकता है और न हर कोई उसे करनेमें ही समर्थ होता है। वह कार्य तो किसी अत्यन्त कठोरकर्मी घनिष्ठ और परम प्रेमीके द्वारा ही करवाया जाता है। खास करके जिस कार्यमें कर्ताकी बदनामी हो, ऐसे कार्यके लिये तो उसीको चुना जाता है, जो अत्यन्त ही अन्तरंग हो। रामका लोकापवाद मिटानेके लिये श्रीसीताजी वनवास स्वीकार करती हुई सन्देशा कहलाती हैं—‘मैं जानती हूँ कि मेरी शुद्धतामें आपको सन्देह नहीं है, केवल आप लोकापवादके भयसे मुझे त्याग रहे हैं। तथापि मेरे तो आप ही परमगति हैं। आपका लोकापवाद दूर हो, मुझे अपने शरीरके लिये कुछ भी शोक नहीं है।’ सीताजी यहाँ ‘रामकाज’ के लिये कष्ट सहती हैं; परन्तु उनकी बदनामी नहीं होती, प्रशंसा होती है। उनके पातिव्रतकी आजतक पूजा होती है; परन्तु कैकेयीका कार्य इससे अत्यन्त महान् है। उसे तो ‘रामकाज’ के लिये रामविरोधी मशहूर होना पड़ेगा। ‘यावच्चन्द्रदिवाकरौ’ गालियाँ सहनी पड़ेंगी। पापिनी, कलंकिनी, कुलघातिनीकी उपाधियाँ ग्रहण करनी पड़ेंगी, वैधव्यका दु:ख स्वीकारकर पुत्र और नगरनिवासियोंद्वारा तिरस्कृत होना पड़ेगा। तथापि ‘रामकाज’ जरूर करना पड़ेगा। यही रामकी इच्छा है और इस ‘रामकाज’ के लिये रामने कैकेयीको ही प्रधान पात्र चुना है। इसीसे यह कलंकका चिर टीका उसीके सिर पोता गया है। यह इसीलिये कि वह परब्रह्म श्रीरामकी परम अन्तरंग प्रेमपात्री है, वह श्रीरामकी लीलामें सहायिका है, उसे बदनामी-खुशनामीसे कोई काम नहीं, उसे तो सब कुछ सहकर भी ‘रामकाज’ करना है। रामरूपी सूत्रधार जो कुछ भी पार्ट दें, उनके नाटककी सांगताके लिये उनके आज्ञानुसार इसे तो वही खेल खेलना है, चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो। कैकेयी अपना पार्ट बड़ा अच्छा खेलती है। ‘राम’ अपने काजके लिये सीता और लक्ष्मणको लेकर खुशी-खुशी वनके लिये विदा होते हैं। कैकेयी इस समय पार्ट खेल रही थी, इसलिये उसको उस सूत्रधारसे—नाटकके स्वामीसे—जिसके इंगितसे जगन्नाटकका प्रत्येक परदा पड़ रहा है और उसमें प्रत्येक क्रिया सुचारुरूपसे हो रही है—एकान्तमें मिलनेका अवसर नहीं मिलता। इसीलिये वह भरतके साथ वन जाती है और वहाँ श्रीरामसे—नाटकके स्वामीसे एकान्तमें मिलकर अपने पार्टके लिये पूछती है और साधारण स्त्रीकी भाँति लीलासे ही लीलामयसे उनको दु:ख पहुँचानेके लिये क्षमा चाहती है, परन्तु लीलामय भेद खोलकर साफ कह देते हैं कि ‘यह तो मेरा ही कार्य था, मेरी ही इच्छासे, मेरी मायासे हुआ था, तुम तो निमित्तमात्र थी, सुखसे भजन करो और मुक्त हो जाओ।’ वहाँका प्रसंग इस प्रकार है—जब भरत श्रीरामको लौटा ले जानेका बहुत आग्रह करते हैं, किसी प्रकार नहीं मानते, तब भगवान् श्रीरामका रहस्य जाननेवाले मुनि वसिष्ठ श्रीरामके संकेतसे भरतको अलग ले जाकर एकान्तमें समझाते हैं—‘पुत्र! आज मैं तुझे एक गुप्त रहस्य सुना रहा हूँ। श्रीराम साक्षात् नारायण हैं, पूर्वकालमें ब्रह्माजीने इनसे रावण-वधके लिये प्रार्थना की थी, इसीसे इन्होंने दशरथके यहाँ पुत्ररूपसे अवतार लिया है। श्रीसीताजी साक्षात् योगमाया हैं। श्रीलक्ष्मण शेषके अवतार हैं, जो सदा श्रीरामके साथ उनकी सेवामें लगे रहते हैं। श्रीरामको रावणका वध करना है, इससे वे जरूर वनमें रहेंगे। तेरी माताका कोई दोष नहीं है—
कैकेय्या वरदानादि यद्यन्निष्ठुरभाषणम्॥
सर्वं देवकृतं नोचेदेवं सा भाषयेत्कथम्।
तस्मात्त्यजाग्रहं तात रामस्य विनिवर्तने॥
(अ०रा०२।९।४५-४६)
‘कैकेयीने जो वरदान माँगे और निष्ठुर वचन कहे थे, सो सब देवका कार्य था (‘रामकाज’ था); नहीं तो भला, कैकेयी कभी ऐसा कह सकती? अतएव तुम रामको अयोध्या लौटा ले चलनेका आग्रह छोड़ दो।’
रास्तेमें भरद्वाज मुनिने भी संकेतसे कहा था—
न दोषेणावगन्तव्या कैकेयी भरत त्वया।
रामप्रव्राजनं ह्येतत्सुखोदर्कं भविष्यति॥
देवानां दानवानां च ऋषीणां भावितात्मनाम्।
हितमेव भविष्यद्धि रामप्रव्राजनादिह॥
(वा० रा० २। ९२। ३०-३१)
‘हे भरत! तू माता कैकेयीपर दोषारोपण मत कर। रामका वनवास समस्त देव, दानव और ऋषियोंके परम हित और परम सुखका कारण होगा।’ अब श्रीवसिष्ठजीसे स्पष्ट परिचय प्राप्तकर भरत समझ जाते हैं और श्रीरामकी चरण-पादुका सादर लेकर अयोध्या लौटनेकी तैयारी करते हैं।
इधर कैकेयीजी एकान्तमें श्रीरामके समीप जाकर आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहाती हुई व्याकुल हृदयसे—
प्रांजलि: प्राह हे राम तव राज्यविघातनम्॥
कृतं मया दुष्टधिया मायामोहितचेतसा।
क्षमस्व मम दौरात्म्यं क्षमासारा हि साधव:॥
त्वं साक्षाद्विष्णुरव्यक्त: परमात्मा सनातन:।
मायामानुषरूपेण मोहयस्यखिलं जगत्।
त्वयैव प्रेरितो लोक: कुरुते साध्वसाधु वा॥
त्वदधीनमिदं विश्वमस्वतन्त्रं करोति किम्।
यथा कृत्रिमनर्तक्यो नृत्यन्ति कुहकेच्छया॥
त्वदधीना तथा माया नर्तकी बहुरूपिणी।
त्वयैव प्रेरिताहं च देवकार्यं करिष्यता॥
पाहि विश्वेश्वरानन्त जगन्नाथ नमोऽस्तु ते।
छिन्धि स्नेहमयं पाशं पुत्रवित्तादिगोचरम्॥
त्वज्ज्ञानानलखड्गेन त्वामहं शरणं गता।
(अ०रा०२।९।५५—५९,६१-६२)
—हाथ जोड़कर बोली—‘हे श्रीराम! तुम्हारे राज्याभिषेकमें मैंने विघ्न किया था। उस समय मेरी बुद्धि देवताओंने बिगाड़ दी थी और मेरा चित्त तुम्हारी मायासे मोहित हो गया था। अतएव मेरी इस दुष्टताको तुम क्षमा करो; क्योंकि साधु क्षमाशील हुआ करते हैं। फिर तुम तो साक्षात् विष्णु हो। इन्द्रियोंसे अव्यक्त सनातन परमात्मा हो, मायासे मनुष्यरूपधारी होकर समस्त विश्वको मोहित कर रहे हो। तुम्हींसे प्रेरित होकर लोग साधु-असाधु कर्म करते हैं। यह सारा विश्व तुम्हारे अधीन है, अस्वतन्त्र है, अपनी इच्छासे कुछ भी नहीं कर सकता। जैसे कठपुतलियाँ नचानेवालेके इच्छानुसार ही नाचती हैं, वैसे ही यह बहुरूपधारिणी नर्तकी माया तुम्हारे ही अधीन है। तुम्हें देवताओंका कार्य करना था, अतएव तुमने ही ऐसा करनेके लिये मुझे प्रेरणा की। हे विश्वेश्वर! हे अनन्त! हे जगन्नाथ! मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ। तुम अपनी तत्त्वज्ञानरूपी निर्मल तीक्ष्ण धार-तलवारसे मेरी पुत्र-वित्तादि विषयोंमें स्नेहरूपी फाँसीको काट दो। मैं तुम्हारे शरण हूँ।’
कैकेयीके स्पष्ट और सरल वचन सुनकर भगवान्ने हँसते हुए कहा—
यदाह मां महाभागे नानृतं सत्यमेव तत्।
मयैव प्रेरिता वाणी तव वक्त्राद्विनिर्गता॥
देवकार्यार्थसिद्धॺर्थमत्र दोष: कुतस्तव।
गच्छ त्वं हृदि मां नित्यं भावयन्ती दिवानिशम्॥
सर्वत्र विगतस्नेहा मद्भक्त्या मोक्ष्यसेऽचिरात्।
अहं सर्वत्र समदृग् द्वेष्यो वा प्रिय एव वा॥
नास्ति मे कल्पकस्येव भजतोऽनुभजाम्यहम्।
मन्मायामोहितधियो मामम्ब मनुजाकृतिम्॥
सुखदु:खाद्यनुगतं जानन्ति न तु तत्त्वत:।
दिष्ट्या मद्गोचरं ज्ञानमुत्पन्नं ते भवापहम्॥
स्मरन्ती तिष्ठ भवने लिप्यसे न च कर्मभि:।
(अ०रा०२।९।६३—६८)
‘हे महाभागे! तुम जो कुछ कहती हो सो सत्य है, इसमें किंचित् भी मिथ्या नहीं। देवताओंका कार्य सिद्ध करनेके लिये मेरी ही प्रेरणासे उस समय तुम्हारे मुखसे वैसे वचन निकले थे। इसमें तुम्हारा कुछ भी दोष नहीं। (तुमने तो मेरा ही काम किया है।) अब तुम जाओ और हृदयमें सदा मेरा ध्यान करती रहो। तुम्हारा स्नेहपाश सब ओरसे छूट जायगा और मेरी इस भक्तिके कारण तुम शीघ्र ही मुक्त हो जाओगी। मैं सर्वत्र समदृष्टि हूँ। मेरे न तो कोई द्वेष्य है और न प्रिय। मुझे जो भजता है, मैं भी उसको भजता हूँ। परन्तु हे माता! जिनकी बुद्धि मेरी मायासे मोहित है, वे मुझको तत्त्वसे न जानकर सुख-दु:खोंका भोक्ता साधारण मनुष्य मानते हैं। यह बड़े सौभाग्यका विषय है कि तुम्हारे हृदयमें मेरा यह भवनाशक तत्त्वज्ञान हो गया है। अपने घरमें रहकर मेरा स्मरण करती रहो। तुम कभी कर्मोंसे लिप्त नहीं होओगी।’
भगवान्के इन वचनोंसे कैकेयीकी स्थितिका पता लगता है। भगवान्के कथनका सार यही है कि तुम ‘महाभाग्यवती’ हो, लोग चाहे तुम्हें अभागिनी मानते रहें, तुम निर्दोष हो, लोग चाहे तुम्हें दोषी समझें। तुम्हारे द्वारा तो यह कार्य मैंने ही करवाया था। जिन लोगोंकी बुद्धि मायामोहित है, वही मुझको मामूली आदमी समझते हैं, तुम्हारे हृदयमें तो मेरा तत्त्वज्ञान है, तुम धन्य हो!
भगवान् श्रीरामके इन वचनोंको सुनकर कैकेयी आनन्द और आश्चर्यपूर्ण हृदयसे सैकड़ों बार साष्टांग प्रणाम और प्रदक्षिणा करके सानन्द भरतके साथ अयोध्या लौट गयी।
उपर्युक्त स्पष्ट वर्णनसे यह भलीभाँति सिद्ध हो जाता है कि कैकेयीने जान-बूझकर स्वार्थबुद्धिसे कोई अनर्थ नहीं किया था। उसने जो कुछ किया सो श्रीरामकी प्रेरणासे ‘रामकाज’ के लिये! इस विवेचनसे यह प्रमाणित हो जाता है कि कैकेयी बहुत ही उच्च कोटिकी महिला थी। वह सरल, स्वार्थहीन, प्रेममय, स्नेहवात्सल्ययुक्त, धर्मपरायणा, बुद्धिमती, आदर्श पतिव्रता, निर्भय, वीरांगना होनेके साथ ही भगवान् श्रीरामकी अनन्यभक्त थी। उसकी जो कुछ बदनामी हुई और हो रही है, सो सब श्रीरामकी अन्तरंग प्रीतिके निदर्शनरूप ही है। जिस देवीने जगत्के आधार, प्रेमके समुद्र, अनन्य रामभक्त भरतको जन्म दिया, वह देवी कदापि तिरस्कारके योग्य नहीं हो सकती, ऐसी प्रात:स्मरणीया देवीके चरणोंमें बारम्बार अनन्त प्रणाम है।