श्रद्धाकी कमीका कारण
एक सज्जनका पत्र मिला है, पत्र गोपनीय है, इससे उसे अविकल प्रकाशित न कर उसके एक अंशका सार यहाँ छापा जाता है और पत्र-लेखकके साथ ही अन्यान्य पाठक-पाठिकाओंके लाभके लिये पत्रका उत्तर भी प्रकाशित कर दिया जाता है। आप लिखते हैं—
मेरे एक सम्बन्धीको परोपकारका कार्य करते एक फौजदारी मुकद्दमेमें फँसना पड़ा। निरपराधको बचाना कर्तव्य समझकर मैं ‘अच्छे-अच्छे वाक्सिद्ध संतों’ के पास गया और उनसे मैंने अपने सम्बन्धीके छूटनेका वचन पाया। कई तरहके सम्पुटयुक्त पाठ, अनुष्ठान और अनेक यन्त्र-मन्त्र-हवन आदि करवाये। बनारसके ‘राम-नाम-बैंक’ से सवा लाख श्रीराम-नाम कर्ज लेकर उनको मेरे सम्बन्धीसे लिखवाया। स्वयं कई बार रो-रोकर ईश्वरसे प्रार्थना करता रहा। इतना सब करनेपर भी मेरे सम्बन्धीको एक साल सख्त कैदकी सजा हो ही गयी। अन्तमें अपील करनेपर छ: महीनेकी सजा बहाल रही। जिन संतोंका वचन कभी मिथ्या नहीं हुआ था, वह मिथ्या हो गया। मेरी प्रार्थना असफल हुई, मेरी श्रद्धाको बड़ा धक्का लगा और धनका नाश तो हुआ ही। अब तो यही ठीक जान पड़ता हैकि भव-भय-नाशके लिये ही श्रीराम-नामका आधार लेना चाहिये और शुभ कर्म करने चाहिये, जिससे दु:खमें न पड़ना पड़े। भगवान् कोई अपराध क्षमा नहीं करता, उसके नाममें पापका पहाड़ भस्म करनेकी शक्ति बतलायी जाती है, उसके साथ इतना और जोड़ देना चाहिये कि ‘भावीको भगवान्का नाम भी नहीं मिटा सकता।’ अब मुझे ईश्वरका भय तो पैदा हो गया है, मगर आशा नहीं रही और जब आशा नहीं रही, तब प्रीति कहाँ? इसलिये आप ऐसी बात बताइये जिससे ईश्वर, संत और सद्ग्रन्थोंमें मेरी श्रद्धा बढ़ जाय।’ यही पत्रके एक भागका सारांश है, दूसरे भागमें साधन-सम्बन्धी बातें हैं, उनको यहाँ लिखनेकी कोई आवश्यकता नहीं।
ये भाई श्रद्धालु होनेके साथ ही बहुत सरल हृदयके जान पड़ते हैं। इस घटनासे पूर्व इनकी विशेष श्रद्धा जिस सरलताको लिये हुए थी, अब श्रद्धाके कम होनेमें भी इनकी वही सरलता कारण है। जरा गहरे जाकर विवेकपूर्वक सोचनेसे ‘ईश्वर, संत और सद्ग्रन्थोंमें’ श्रद्धा कम होनेका तनिक-सा भी कारण नहीं दीखता। मिथ्या आडम्बरों और बनावटी चमत्कारोंमें श्रद्धा रखनेसे मनुष्यको असफलताके कारण समय-समयपर यथार्थ सच्चे सिद्धान्तोंमें भी भ्रमवश अश्रद्धा हो जाया करती है। कुछ-कुछ इस प्रसंगमें भी ऐसा ही हुआ जान पड़ता है। मिथ्या आडम्बरोंमें अश्रद्धा होना तो उत्तम और आवश्यक ही है। अपनी ‘वाक्सिद्धिका ढिंढोरा पीटनेवाले संत’ नामधारी व्यक्तियोंमें, ‘जन्तर, मन्तर, टोना, जादू’ बतलाने और करनेवालोंमें एवं अपनी सिद्धियों तथा चमत्कारोंके बलसे सारे संकटोंसे छुड़ानेका ठेका लेनेवालोंमें अधिकांश लोग पाखण्डी होते हैं और भोले-भाले विपत्तिग्रस्त मनुष्योंको चिकनी-चुपड़ी बातोंसे मिथ्या विश्वास दिलाकर अपना उल्लू सिद्ध किया करते हैं। कहीं काकतालीय-न्यायसे किसी कारणवश कार्य सिद्ध हो गया तब तो पूछना ही क्या है, फिर तो ‘वाक्सिद्धि’ की अवस्थासे ऊँचे उठकर ये तत्काल ईश्वरके अवतार ही बन बैठते हैं एवं लोगोंको ठग-ठगकर मनमानी मौज करते हैं। काम सिद्ध नहीं हुआ तो भी इनका कुछ नहीं बिगड़ता। धनका और धर्ममें श्रद्धाका नाश होता है तो पूछनेवालेका होता है, बाबाजी तो सिद्ध-के-सिद्ध ही रहे; एक नहीं तो दूसरा ग्राहक सही। ऐसे ही पाखण्डियोंकी कपटभरी करतूतोंसे सीधे-सादे भले स्त्री-पुरुष ईश्वर और धर्ममें अविश्वासी हो जाते हैं। हिन्दू-धर्मके सारे शरीरमें धर्मके नामपर पाखण्डका प्रचार करनेवाला यह एक घुन लग गया है, जो उसे खाये डालता है। भारतमें शायद ही ऐसा कोई स्थान होगा, जहाँ इन पाखण्डियोंकी सृष्टि न हो गयी हो। ऐसे लोगोंसे सदा बचनेकी कोशिश करनी चाहिये। जो धन लेकर उसके बदलेमें अपनी सिद्धि, चमत्कार और ‘जन्तर-मन्तर’ से दु:ख छुड़ानेकी डींग हाँकता हो, उससे सदा सावधान ही रहना उचित है।
यह बात सदा स्मरण रखनेकी है कि सत्यको प्राप्त, सत्यपर आरूढ़, सत्यभाषी और सत्यके हिमायती ईश्वरके परम प्यारे सिद्ध भक्त स्वाभाविक ही प्राणिमात्रका भला चाहते हैं; परन्तु सिद्ध कहलानेके लिये वे किसीको आशीर्वाद नहीं देते और कहीं उनके मुखसे कभी ऐसा कुछ निकल जाता है तो सत्यके प्रतापसे वह कभी व्यर्थ नहीं होता। हाँ, कुछ ऐसे दयालु, परदु:ख-दु:खी सरल प्रकृतिके उपासक या साधक संत भी होते हैं जो किसीको दु:खमें देखकर उसे धीरज बँधानेके लिये आशीर्वाद दे दिया करते हैं या निश्चयात्मक शब्दोंमें कह दिया करते हैं कि ‘तुम्हारा काम सिद्ध हो जायगा, चिन्ता न करो।’ ऐसे साधकोंकी वाणी सफल होती है तो उनके तपका नाश होता है, तपके अभावमें सफल होनेमें भी संदेह रहता है। ऐसी स्थितिमें इस प्रकारके साधकोंके लिये आशीर्वाद या वरदान देनेमें सावधानी रखनी चाहिये; क्योंकि वाणी सफल होनेसे तपका नाश होगा और तपके नाशसे सफलता नहीं होगी; जिससे लोगोंमें ईश्वर और धर्मके प्रति अविश्वास उत्पन्न होगा। सफल होनेसे पूजा-प्रतिष्ठा बढ़ जायगी और प्रतिष्ठाका लोभ हो जानेपर पतन निश्चित है, इधर तंग करनेवालोंके बढ़ जानेसे बराबर आशीर्वाद देते-देते जीवन असत्यमय हो जायगा और सारे साधन छूट जायँगे। मुझे मालूम नहीं कि पत्र-लेखक भाई इनमेंसे किस ढंगके ‘वाक्सिद्ध’ संतोंके पास गये थे, परन्तु इतना अवश्य मानना पड़ता है कि वे जिनके पास गये थे, वे लोग वाक्सिद्ध नहीं थे, होते तो उनके वचन झूठे ही क्यों पड़ते?
मैं इस बातको मानता हूँ कि शास्त्रोक्त अनुष्ठानादि प्रायश्चित्तोंसे पापका नाश अवश्य होता है। यह सच है कि कर्मफलका नाश भोगे बिना नहीं होता, परन्तु प्रायश्चित्त भी एक प्रकारका भोग ही है। अवश्य ही, प्रायश्चित्त-कर्म होना चाहिये श्रद्धाके साथ और मन्त्र तथा विधिसे सर्वथा पूर्ण। जिस कर्ममें श्रद्धा नहीं होती, उसका तो कोई फल ही नहीं होता। भगवान् कहते हैं—
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह॥
(गीता १७। २८)
‘हे अर्जुन! श्रद्धा बिना किया हुआ हवन, दिया हुआ दान, तपा हुआ तप और कोई-सा भी किया हुआ कर्म असत् कहलाता है, उससे इस लोक या परलोकमें कोई भी लाभ नहीं होता।’
विधिहीनता या विधिके विपरीत करनेपर तो कर्मवैगुण्य हो जानेसे कर्मका सफल होना सम्भव ही नहीं, प्रत्युत विपरीत फलतक हो जाता है। एक मनुष्यकी स्त्री बीमार थी। उसने स्त्रीकी रक्षाके लिये देवीजीका अनुष्ठान कराया। पाठ करनेवाले पण्डितजी कुछ भाँग खाया करते थे। नशेमें वे ‘भार्यां रक्षतु भैरवी’ ‘हे भैरवी! भार्याकी रक्षा करो’ की जगह ‘भार्यां भक्षतु भैरवी’ ‘हे भैरवी! भार्याको खा डालो’ पढ़ने लगे। फल यह हुआ कि पाठ करानेवालेकी पत्नी मर गयी। आर्षग्रन्थोंमें भी उच्चारण-दोष और विधिहीनतासे विपरीत फल होनेके अनेक प्रमाण मिलते हैं। इसके सिवा यह भी नहीं कहा जा सकता कि हमारे वर्तमान अनुष्ठानका फल पापके नाश करनेमें कितना समर्थ है? क्योंकि यह कोई निश्चित बात नहीं है कि मनुष्यको इस समय जो कष्ट प्राप्त हो रहा है वह उसके कौन-से पूर्वकृत कर्मका फल है। पाप-पुण्यके संचितसे प्रारब्ध बनता है और उसीके अनुसार दु:ख-सुखका भोग करना पड़ता है, परन्तु त्रिकालज्ञ योगीके अतिरिक्त शायद कोई भी ऐसा पुरुष नहीं, जो इस बातका निर्भ्रान्त निर्णय कर सके कि कौन-सा फलभोग किस कर्मका फल है? हम वर्तमानमें किसी फलभोगके नाश करनेके लिये जो प्रायश्चित्तरूप कर्म करते हैं, सम्भव है कि वह हमें इस समय फल देनेवाले प्रारब्धके नाश करनेलायक न हो, इससे प्रारब्धका फल तो हमें अभी भोगना ही पड़े और यह प्रायश्चित्त-कर्म नवीन कर्मके रूपमें संचितमें जमा हो जाय, जिसका फल हमें भविष्यमें कभी प्राप्त हो। मान लीजिये कि एक मनुष्य पुत्र या धनकी प्राप्तिके लिये अथवा किसी आनेवाली या आयी हुई विपत्तिके विनाशके लिये किसी यज्ञका विधिवत् अनुष्ठान करता है और तदनन्तर ही उसको पुत्र या धनकी प्राप्ति हो जाती है अथवा विपत्ति दूर हो जाती है। इस पुत्र-धनकी प्राप्ति या विपत्तिनाशरूपी फलमें उसका इस समय किया हुआ अनुष्ठान कारण है या पूर्वजन्ममें किया हुआ कोई अन्य कर्म कारण है, इस बातका निर्णय करना बहुत ही कठिन है। सम्भव है, पुत्र-धनकी प्राप्ति या विपत्तिका नाश किसी पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मके फलरूपमें हो गया हो और वर्तमान कर्मका फल आगे मिले। इसी प्रकार यह भी सम्भव है कि मनुष्यके इस समयका अनुष्ठान गलती रह जानेसे पूरा ही न हुआ हो, जिसके कारण उसका कुछ भी फल न मिले अथवा विधिकी विपरीततासे यह कर्म किसी बुरे फलका कारण बन गया हो जिससे मनुष्यकी विपत्ति और भी बढ़ जाय या भविष्यमें उसे दु:खभोग करना पड़े। इसके सिवा यह भी सम्भव है कि इस अनुष्ठानका फल तो जरूर हुआ हो; परन्तु वर्तमानमें फल देनेवाला प्रारब्ध विकट होनेके कारण इस अनुष्ठानसे उसका पूरा प्रायश्चित्त न हो पाया हो, जिससे जितने अंशमें फलभोग शेष रहा हो, उतना भोग करना ही पड़े, जैसे फाँसीके बदलेमें काँटा गड़कर रह जाय अथवा दस सालकी कैदके बदलेमें दस ही महीनेकी हो जाय। इसलिये शास्त्रोक्त अनुष्ठानोंमें अविश्वास कदापि नहीं करना चाहिये! अच्छे पुरुषोंद्वारा विधिसंगत सांगोपांग अनुष्ठान होगा तो उसका फल अवश्य ही शुभ होगा। अनुष्ठान करनेवाले लोग अवश्य ही विधिके ज्ञाता, संयमी, नि:स्वार्थी और यजमानके पूरे हितैषी होने चाहिये।
अब रही श्रीराम-नामके द्वारा होनेवाले फलकी बात। सो मेरे विश्वासके अनुसार तो प्रेमपूर्वक श्रीराम-नामका जप-कीर्तन करनेसे स्वयं श्रीभगवान् वशमें हो जाते हैं, तब सांसारिक फल-सिद्धिकी तो बात ही कौन-सी है? परन्तु श्रीराम-नामका प्रयोग सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके लिये करना उसका अपमान करना है। उगते हुए सूर्यकी लालिमाके द्वारा अमावास्याके घोर अन्धकारके नाश होनेके समान ही जिस श्रीराम-नामके आभासमात्रसे ही दु:खोंके समूह समूल नष्ट हो जाते हैं, उस श्रीराम-नामको संसारके कार्योंमें लगाना वनराज सिंहको मामूली कुत्तेपर छोड़नेके समान ही निन्दनीय है। भगवत्प्रेम और भगवन्नाम भगवत्प्राप्तिके लिये हैं, न कि तुच्छ सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके लिये। इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रद्धापूर्वक भगवन्नाम-जप करनेसे सांसारिक कार्योंमें अवश्य सिद्धि प्राप्त होती है। इस बातका मुझे अपने जीवनमें उस समय कई बार प्रत्यक्ष अद्भुत अनुभव हो चुका है, जिस समय कि मैं श्रीराम-नामके महत्त्वको न समझकर उसका सांसारिक कार्योंकी सिद्धिके लिये प्रयोग करता था; परन्तु यह भी श्रीराम-नामका श्रद्धापूर्वक जप करनेसे ही होता है। मेरी समझसे तो यदि उक्त सज्जन कहींसे भी कर्ज न लेकर श्रीराम-नाममें भरोसा करके स्वयं प्रेमपूर्वक जप करते तो कदाचित् भगवत्कृपाके किसी अकथनीय कारणसे उनका यह संकट न भी टलता तो उन्हें सच्ची शान्ति तो अवश्य ही मिल जाती और श्रीराम-नाममें उनकी श्रद्धा निश्चय बढ़ती।
रही प्रार्थनाकी बात, सो प्रार्थनासे तो सब कुछ होता है। प्रार्थनासे कष्ट-सहनकी शक्ति तो बढ़ती ही है, साथ ही यदि आर्तभावकी सच्ची प्रार्थना हो तो उससे दु:ख भी टल जाते हैं। टल क्या जाते हैं, उनका समूल नाश हो जाता है। दु:खके नामसे पुकारी जानेवाली सांसारिक घटनाओंका स्वरूपसे भी नाश हो सकता है, परन्तु भगवत्कृपासे अज्ञान मिट जानेपर किसी भी सुख-दु:खसंज्ञक घटनाकी स्वरूपसे प्राप्ति या विनाशके लिये आकांक्षा ही नहीं रह जाती। ऐसा पुरुष लोकदृष्टिमें ही सुख-दु:खको प्राप्त होता है, वास्तवमें तो वह सुख-दु:खसे सर्वथा मुक्त है, घटना जो कुछ भी हो। भगवान् कहते हैं—
यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं तत:।
यस्मिन्स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते॥
(गीता ६। २२)
परमात्माकी प्राप्तिरूपी परमलाभको पाकर वह उससे अधिक कोई भी दूसरा लाभ नहीं मानता और इस प्रकारकी अनिर्वचनीय अवस्थामें स्थित पुरुष बड़े-से-बड़े दु:खसे भी विचलित नहीं होता। जैसे सूर्योदयके पश्चात् बिजलीकी रोशनी अनावश्यक, शोभाहीन और फीकी पड़ जाती है, फिर दस-बीस बत्तियोंके अधिक जल जाने या सबके एक साथ ही बुझ जानेपर जैसे किसीको कोई सुख-दु:ख नहीं होता, इसी प्रकारकी स्थिति परमात्माको प्राप्त करनेके उद्देश्यसे की गयी प्रभुविरहकी सच्ची आर्तप्रार्थनाके फलरूपमें हो जाती है। इस दशाको प्राप्त पुरुष ही परमात्माका प्यारा भक्त है। (भगवान्ने स्वयं श्रीमुखसे कहा है—)
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्य: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १७)
‘जो न कभी (सांसारिक प्रिय वस्तुको प्राप्तकर) हर्षित होता है, न (उसके नाश होनेसे) द्वेष करता है, न (नाश होनेपर) शोक करता है, न (उसको पुन: पानेके लिये) इच्छा करता है और जो सभी शुभाशुभ कर्मोंके फलका त्यागी है, वह भक्तिमान् पुरुष मुझको प्रिय है।’ अँधेरेमें ही रोशनीके मिलनेपर हर्ष, उसके बुझनेमें द्वेष, बुझ जानेपर चिन्ता और उसे फिरसे जलानेकी इच्छा होती है; यह शुभाशुभ अन्धकारकी अवस्थामें ही है। सूर्यके प्रखर प्रकाशमें इनमेंसे कोई-सी बात नहीं रह जाती। इसी प्रकार अज्ञानरूपी अन्धकारमें ही सांसारिक विषयोंकी प्राप्तिको शुभ और अशुभ समझा जाता है और उन्हींका नाम सुख-दु:ख है। ज्ञानके प्रकाशमें तो इन सारे मायिक प्रपंचोंकी सत्ता एक अखण्ड परमात्मसत्ताके रूपमें बदल जाती है, फिर उनके होने, न होनेमें कोई सुख-दु:ख रह ही कैसे सकता है? सुख-दु:ख वास्तवमें मनकी कल्पनामात्र हैं, वे किसी वस्तु या घटनामें नहीं हैं। तपस्वी साधु कष्ट सहकर तप करनेमें और परोपकारी पुरुष परार्थ प्राणत्याग करनेमें सुख मानते हैं। आज भी हम देखते हैं कि अनेक लोग अपने ध्येयके लिये जेल जानेमें सुख समझते हैं। मानसिक सन्तोष और सुखके कारण किसी-किसीकी फाँसीकी सजा सुननेके बाद भी वजन बढ़ जाता है। जब सांसारिक भावनाओंसे इस प्रकारकी कठिन दु:खसंज्ञक स्थितिमें सुखका बोध हो सकता है, तब परमात्माकी सच्ची प्रार्थनासे उपलब्ध परमात्माके अभेद प्रेमकी स्थितिमें सभी विषयोंका परम सुखरूप बन जाना कौन आश्चर्यकी बात है।
यह कभी नहीं मानना चाहिये कि ‘भगवान् कोई अपराध क्षमा नहीं करता।’ भगवान्का सृष्टिसंचालन-सूत्र ही उनकी दया और क्षमासे भरा है। भगवान् कितने दयालु और क्षमाशील हैं हमारा हृदय तो इस बातकी कल्पना ही नहीं कर सकता। जगत् अबतक दया और क्षमाकी जिस सीमातक पहुँचा है वह तो परमात्माकी दया और क्षमाके एक साधारण अणुके समान भी नहीं है। भगवान्का प्रत्येक विधान दया और क्षमासे पूर्ण है। अवश्य ही कहीं-कहीं हम अल्पज्ञ जीव भगवान्की दया और क्षमाका असली स्वरूप न समझकर मनचाहा आत्मविनाशी कार्य सफल न होनेके कारण उसकी अनन्त दयालुता और क्षमाशीलतापर सन्देह करने लगते हैं। क्या कहा जाय? जिस भाग्यवान्को भगवान्की अनन्त दया और क्षमाकी तनिक-सी भी झाँकी देखनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है, वह तो सदाके लिये उनके हाथों बिक गया है। गद्गदकण्ठसे अस्फुट स्वरोंसे, अश्रुविगलित नेत्रोंसे उनके गुण गाता हुआ वह जिस परमानन्दका आस्वादन करता है, उसे वही जानता है।
इसी प्रकार ‘भगवान्का नाम भावीको नहीं मिटा सकता’ यह बात भी ठीक नहीं। जब भगवन्नामके आश्रयसे सारी भावियोंके आधार संसारका अस्तित्व ही परमात्माके रूपमें पलट सकता है तब तुच्छ भावी मिटनेकी कौन-सी बात है? अवश्य ही यह विषय अनुभवसाध्य है। तर्क और प्रमाणोंसे न तो इसकी सिद्धि की जा सकती है और न करना उचित ही है।
आप भव-भय-नाशके लिये श्रीराम-नामका आश्रय लिया चाहते हैं और दु:खोंकी निवृत्तिके लिये शुभ कर्म करना चाहते हैं सो बहुत ही अच्छी बात है। भव-भय नाशके लिये श्रीराम-नामका आश्रय लेना सर्वथा उचित ही है, परन्तु शुभ कर्मोंका अनुष्ठान भी भगवदर्थ ही करना चाहिये। फिर दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति तो आप ही हो जायगी। आपके मनमें ‘ईश्वरका भय पैदा हो गया है’ यह भी अच्छी बात है, ईश्वरके भयसे मनुष्य पापोंसे बचता है। परन्तु मेरा तो निवेदन है कि आप उस सर्वभयहारी भगवान्के शरण होकर श्रद्धा और प्रेमसे अपनेको सर्वस्वसहित उसके चरणोंपर न्योछावर कर दीजिये। यही मनुष्य-जीवनका सर्वोच्च साधन है। यही ईश्वर, संत और सद्ग्रन्थोंकी आज्ञा है।
अपने सम्बन्धी महोदयको समझाइये कि ईश्वर परम दयालु, न्यायकारी और क्षमाशील है। उसके नामका आश्रय लेनेसे सब दु:खोंका नाश हो सकता है। आपको न तो किसी शुभ कार्यके करनेसे ही जेल जाना पड़ा है और न जेलकी निवृत्तिके लिये किये गये यथार्थ शुभ कार्य ही व्यर्थ गये हैं। जेल होनेमें आपको यदि कष्ट हुआ है तो वह आपके किसी पूर्वजन्मकृत अशुभ कर्मका फल है। यदि आपका वर्तमान कर्म शुभ था तो वह तो केवल जेलकष्टका प्रारब्ध भुगतानेमें निमित्तभर बन गया है, उसका शुभ फल आपको आगे मिलेगा। इसी प्रकार इस कष्टनिवारणार्थ आपने जो अनुष्ठानादि कर्म किये हैं यदि वे पाखण्ड-दम्भयुक्त नहीं हैं और पाखण्डियोंद्वारा नहीं हुए हैं तो उनका फल अवश्य शुभ हुआ है या अवश्य होगा—इसमें तनिक भी सन्देह न करें। परम दयालु, परम न्यायकारी परमेश्वरके राज्यमें उत्तम कर्मका उत्तम फल न होना या उसका निष्फल होकर नष्ट हो जाना अथवा उससे बुरा फल होना कदापि सम्भव नहीं!