तुम्हारा स्वराज्य
स्वराज्य, स्वदेश, स्वजाति आदि शब्द इस समय बहुत ज्यादा प्रचलित हैं। ऐसा कोई समाचार-पत्र नहीं, जिसके अंकोंमें इन शब्दोंको स्थान न मिलता हो और वास्तवमें ये शब्द हमारे लिये हैं भी बहुत आवश्यक। स्वजाति और स्वदेशका प्रेम न होनेके कारण ही हम स्वराज्यसे वंचित हैं—इसमें कोई सन्देह नहीं। इसलिये प्रत्येक मनुष्यका यह परम कर्तव्य है कि स्वराज्यकी प्राप्तिके लिये स्वदेश और स्वजातिकी सेवामें तन-मन-धन सब कुछ अर्पण कर दे; क्योंकि स्वराज्य हमारा अनादिसिद्ध अधिकार है। जो भाई स्वदेश, स्वजातिकी सेवामें लगे हुए हैं, वे सर्वथा स्तुत्य और धन्यवादके पात्र हैं, परन्तु समझना चाहिये कि इन शब्दोंका यथार्थ अर्थ क्या है और वास्तवमें इनका हमसे क्या सम्बन्ध है? किसी कार्यविशेषसे या बलात् मनुष्यको जब किसी अन्य देशमें रहना पड़ता है, तब उसे वह स्वदेश मानकर वहाँ नहीं रहता। आज भारतके जो विद्यार्थी शिक्षालाभके लिये यूरोपमें रहते हैं या सरकारके अनुचित प्रतिबन्धके कारण जिनको विदेशोंमें रहनेके लिये बाध्य होना पड़ रहा है, वे स्वदेश भारतको ही समझते हैं; वे जहाँ रहते हैं वहाँ उन्हें कोई कष्ट न होनेपर भी उनको उस देशकी अपेक्षा भारत विशेष प्रिय लगता है, वे वहाँ रहते हुए भी भारतका स्मरण करते, भारतकी भलाई चाहते—यथासाध्य भलाई करते और भारतवासियोंसे मिलनेमें प्रसन्न होते हैं। कारण यही है कि वे अपने स्वदेशको भूले नहीं हैं, परन्तु उनमेंसे जो परदेशके भोगविलासोंमें अपना मन रमाकर देशको भूल गये हैं, परदेशको ही स्वदेश मानने लगे हैं, उन्होंने अपने धर्म और अपनी सभ्यतासे गिरकर अपने-आपको सर्वथा विदेशी बना लिया है, ऐसे लोगोंके कारण देशप्रेमी भारतवासी दु:खी रहते हैं। वे चाहते हैं कि हमारे ये भूले हुए भाई—जो ऊपरी चमक-दमकके चकमेमें फँसकर विदेशको स्वदेश और विजातीयको स्वजातीय समझने लगे हैं—किसी तरहसे अपने स्वरूपका स्मरणकर, अपने देश और जातिके गुणोंको जानकर पुन: स्वदेशी बन जायँ तो बड़ा अच्छा हो। स्वदेशी बन जानेका यह अर्थ नहीं कि इस समय वे विदेशी या विजातीय हैं, उन्होंने अपनेको भूल जानेके कारण भ्रमसे विदेशी या विजातीय मानकर विदेशी धर्मको धारण कर लिया है। यदि वे घर लौट आवें तो उनके लिये घरका दरवाजा सदा ही खुला है और रहना चाहिये, इसीसे जाति और देशहितैषी सज्जन भ्रमसे विधर्मी बने हुए भाइयोंको पुन: स्वधर्ममें दीक्षित करना चाहते हैं।
परंतु यदि एक ही देशके रहनेवाले दो गाँवोंके लोग या एक ही गाँवमें रहनेवाले दो मुहल्लोंके सजातीय भाई अपनेको अलग-अलग मान लें; गाँव और मुहल्लोंके भेदसे परस्पर पर भाव कर लें; अपने गाँवको या मुहल्लेको ही देश और दूसरे भाइयोंके निवासस्थान गाँव और मुहल्लेको परदेश मान लें तो बड़ी गड़बड़ी मच जाती है। देश और जातिके शरीरका सारा संगठन विशृंखल हो जाता है। उसके सब अवयवोंमें दुर्बलता आ जाती है, जिसका परिणाम सिवा मृत्युके और कुछ नहीं होता। सच पूछिये तो इन क्षुद्र भावोंके कारण ही आज भारत पर-पददलित और परतन्त्र है। यदि भारतवासी अपने-अपने प्रान्त, छोटे राज्य, गाँव या मुहल्लोंको ही देश न मानकर सबकी समष्टिको स्वदेश मानते तो भारतका इतिहास और इसका मानचित्र आज दूसरे ही प्रकारका होता। अब भी इस देशके सभी निवासी अपनी-अपनी डफली अलग बजाना छोड़कर एक सूत्रमें बँध जायँ और प्रान्तीयता तथा जातिगत झगड़ोंको छोड़कर एक राष्ट्रीयता स्वीकार कर लें तो भारतको स्वराज्यकी प्राप्ति होनेमें विलम्ब नहीं हो सकता। पर क्या भारत ही हमारा देश है, भारतवासियोंकी जाति ही हमारी स्वजाति है और भारतको मिलनेवाला राजनैतिक अधिकार ही हमारा स्वराज्य है?
आध्यात्मिकताका आदिगुरु, परमार्थ-सन्देशका नित्यवाहक, परमात्मतत्त्वका विवेचक, परमात्माके साकार अवतारोंकी लीलाभूमि, जगत्के धर्माचार्य और पैगम्बरोंकी जन्मभूमि, मुक्तिपथके पथिकोंको पाथेय वितरण करनेवाला भारत इस प्रश्नका क्या उत्तर देता है?
इहलौकिक उन्नतिको ही जीवनका चरम लक्ष्य माननेवाले स्थूलवाद-प्रधान जगत्का तो भूमिखण्डके किसी एक क्षुद्र खण्डको देश मानना, जिस कल्पित जातिमें स्थूल शरीर जन्मा हो उसीमें जन्म लेनेवालोंको स्वजाति बतलाना और उस देश या जातिको अपनी मनमानी करनेके अधिकारको ही स्वराज्य मानना सम्भव है। परन्तु भारतवासी—अखिल ब्रह्माण्डको ब्रह्मके एक अंशमें स्थित और ब्रह्माण्डमें ब्रह्मको नित्य स्थित या चराचर ब्रह्माण्डको ब्रह्मका ही विवर्त माननेवाले भारतवासी यदि अपने असली ब्रह्मस्वरूपको भूलकर मायाकल्पित आपातरमणीय मायिक सुन्दरतायुक्त स्थलविशेषको ही अपना स्वदेश मान लें तो क्या यह ब्रह्मकी राष्ट्रीयताका विघातक नहीं है? मायासे बने हुए जगत्को अपना देश मानकर उसीमें मोहित रहना क्या विदेशको स्वदेश मान लेना नहीं है?
अपनी सच्चिदानन्दरूप नित्य अखण्ड स्वाभाविक सत्ताको भूलकर मायिक सत्ताको ही अपनी सत्ता मान लेना क्या सजातीयताको छोड़कर विजातीय बन जाना नहीं है? अपने ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ स्वरूपको विस्मृत कर अपने मूल स्वभाव—धर्मको छोड़कर जगत्के मायिक धर्मको अपना धर्म मान लेना क्या विधर्मी बन जाना नहीं है?
विचार करो तुम कौन हो? तुम अमर हो, तुम सुखरूप हो, तुम नित्य हो, तुम सर्वव्यापी हो, तुम अखण्ड हो, तुम पूर्ण हो, तुम अजर हो, तुम सबमें व्याप्त हो, तुम मायासे अतीत हो, तुम्हारी ही सत्तासे जगत्का अस्तित्व है, तुम्हारे ही सौन्दर्यसे जगत् सुन्दर है, तुम्हारी ही महिमासे विश्व महिमान्वित है, तुम्हारे ही प्रकाशसे जगत् प्रकाशित है, तीनों लोक तुम्हारे ही अंदर तुम्हारी मायासे प्रतिभासित हैं, अरे! अपने इस गौरवका स्मरण करो, स्वरूपका अनुसंधान करो, उसे प्राप्त करो, फिर देखोगे, जगत् भरमें तुम्हीं भरे हो, सभी देश, सभी जाति तुम्हारे ही अन्दर कल्पित हैं, तुम्हारे ही अखण्ड राज्यमें सबका निवास है। तुम्हारा स्वराज्य नित्य प्रतिष्ठित है।
इस असली स्वरूपको भूलकर छोटे मत बनो, अपनी विशाल सत्ताको क्षुद्र सीमासे मर्यादित न करो, अपने सत्, चित्, आनन्दस्वरूप स्वधर्मसे च्युत मत होओ, मायाके विजातीय आवरणसे अपनेको कभी आच्छादित न होने दो। तुम्हारा स्वदेश, तुम्हारी स्वजाति और तुम्हारा स्वराज्य तो तुम स्वयं हो और तुम्हारी ही सत्ता सम्पूर्ण दिशाओंमें विकीर्ण हो रही है, जगत्के सारे देश, सारी जातियाँ और सारे राज्य कल्पनाकी समस्त सामग्रियाँ तुम्हारे ही अन्दर प्रतिष्ठित हैं। फिर अपने विशाल समष्टिसे निकलकर क्षुद्र व्यष्टिके अहंकारसे राग-द्वेषके वशीभूत क्यों होते हो?
तुम अमृत हो—सत्य हो, ज्ञानस्वरूप हो, अनन्त हो, ब्रह्म हो, सच्चिदानन्दघन हो। अपनी ओर देखो और तृप्त हो रहो। तुम हो ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्।’