Hindu text bookगीता गंगा
होम > नैवेद्य > वशीकरण

वशीकरण

द्रौपदी-सत्यभामा-संवाद

भगवान् श्रीकृष्णकी पटरानी सत्यभामा एक समय वनमें पाण्डवोंके यहाँ अपने पतिके साथ सखी द्रौपदीसे मिलने गयीं। बहुत दिनों बाद परस्पर मिलन हुआ था। इससे दोनोंको बड़ी खुशी हुई। दोनों एक जगह बैठकर आनन्दसे अपने-अपने घरोंकी बातें करने लगीं। वनमें भी द्रौपदीको बड़ी प्रसन्न और पाँचों पतियोंद्वारा सम्मानित देखकर सत्यभामाको आश्चर्य हुआ। सत्यभामाने सोचा कि भिन्न-भिन्न प्रकृतिके पाँच पति होनेपर भी द्रौपदी सबको समानभावसे खुश किस तरह रखती है। द्रौपदीने कोई वशीकरण तो नहीं सीख रखा है। यह सोचकर उसने द्रौपदीसे कहा—‘सखी! तुम लोकपालोंके समान दृढ़ शरीर महावीर पाण्डवोंके साथ कैसे बर्तती हो? वे तुमपर किसी दिन भी क्रोध नहीं करते, तुम्हारे कहनेके अनुसार ही चलते हैं और तुम्हारे मुँहकी ओर ताका करते हैं, तुम्हारे सिवा और किसीका स्मरण भी नहीं करते। इसका वास्तविक कारण क्या है? क्या किसी व्रत, उपवास, तप, स्नान, औषध और कामशास्त्रमें कही हुई वशीकरण-विद्यासे अथवा तुम्हारी स्थिर जवानी या किसी प्रकारका जप, होम और अंजन आदि ओषधियोंसे ऐसा हो गया है? हे पांचाली! तुम मुझे ऐसा कोई सौभाग्य और यश देनेवाला प्रयोग बताओ—

‘जिससे मैं रख सकूँ श्यामको अपने वशमें।’

—जिससे मैं अपने आराध्यदेव प्राणप्रिय श्रीकृष्णको निरन्तर वशमें रख सकूँ।

यशस्विनी सत्यभामाकी बात सुनकर परम पतिव्रता द्रौपदी बोली—‘हे सत्यभामा! तुमने मुझे (जप, तप, मन्त्र, औषध, वशीकरण-विद्या, जवानी और अंजनादिसे पतिको वशमें करनेकी) दुराचारिणी स्त्रियोंके बर्तावकी बातें कैसे पूछीं? तुम स्वयं बुद्धिमती हो, महाराज श्रीकृष्णकी प्यारी पटरानी हो, तुम्हें ऐसी बातें पूछना उचित नहीं। मैं तुम्हारी बातोंका क्या उत्तर दूँ?

देखो, यदि कभी पति इस बातको जान लेता है कि स्त्री मुझपर मन्त्र-तन्त्र आदि चलाती है तो वह साँपवाले घरके समान उससे सदा बचता और उद्विग्न रहता है। जिसके मनमें उद्वेग होता है उसको कभी शान्ति नहीं मिलती और अशान्तको कभी सुख नहीं मिलता। हे कल्याणी! मन्त्र आदिसे पति कभी वशमें नहीं होता। शत्रुलोग ही उपायद्वारा शत्रुके नाशके लिये विष आदि दिया करते हैं। वे ही ऐसे चूर्ण दे देते हैं जिनके जीभपर रखते ही या शरीरपर लगाते ही प्राण चले जाते हैं।

कितनी ही पापिनी स्त्रियोंने पतियोंको वशमें करनेके लोभसे दवाइयाँ देकर किसीको जलोदरका रोगी, किसीको कोढ़ी, किसीको बूढ़ा, किसीको नपुंसक, किसीको जड, किसीको अंधा और किसीको बहरा बना दिया है। इस प्रकार पापियोंकी बात माननेवाली पापाचारिणी स्त्रियाँ अपने पतियोंको वश करनेमें दु:खित कर डालती हैं। स्त्रियोंको किसी प्रकारसे किसी दिन भी पतियोंका अनहित करना उचित नहीं है।

हे यशस्विनी! मैं महात्मा पाण्डवोंसे जैसा बर्ताव करती हूँ सो सब कहती हूँ। ध्यान देकर सुनो। मैं अहंकार, काम और क्रोधको त्यागकर नित्य बहुत सावधानीसे पाँचों पाण्डवों और उनकी दूसरी-दूसरी स्त्रियोंकी (मेरी सौतोंकी) सेवा करती हूँ। मैं मनको रोककर अभिमान-शून्य रहती हुई पतियोंके मनके अनुसार चलकर उन्हें प्रसन्न करती हूँ। मैं कभी बुरे वचन नहीं बोलती। देखने, चलने, बैठने और खड़ी होनेमें सदा सावधान रहती हूँ, कभी असभ्यता नहीं करती और सूर्यके समान तेजस्वी तथा चन्द्रमाके समान महारथी शत्रुनाशकारी पाण्डवोंके इशारोंको समझकर निरन्तर उनकी सेवा करती हूँ। देवता, मनुष्य, गन्धर्व, खूब सज-धजसे रहनेवाले युवा पुरुष, बड़े धनी और रूपवान् चाहे जैसा भी कोई क्यों न हो, मेरा मन किसी भी पर-पुरुषकी ओर नहीं जाता। मेरे पति जबतक स्नान, भोजन करके बैठ नहीं जाते, तबतक मैं न कभी भोजन करती हूँ और न बैठती ही हूँ। मेरे पति क्षेत्र, वन अथवा नगरमेंसे जब घर पधारते हैं, तब मैं खड़ी होकर उनका स्वागत-सम्मान करती हूँ और आसन तथा जल देकर उनका आदर करती हूँ।

मैं रोज घरके सब बर्तनोंको माँजती हूँ, सब घर भलीभाँति झाड़ू-बुहारकर साफ रखती हूँ, मधुर अन्न बनाती हूँ, ठीक समयपर सबको जिमाती हूँ, सावधानीसे घरमें सदा आगे-पीछे अन्न जमा कर रखती हूँ। बुरी स्त्रियोंके पास कभी नहीं बैठती। बोलनेमें किसीका तिरस्कार नहीं करती। किसीको झिड़ककर कड़ुए शब्द नहीं कहती। नित्य आलस्य छोड़कर पतियोंके अनुकूल रहती हूँ। मैं दिल्लगीके वक्तको छोड़कर कभी हँसती नहीं। दरवाजेपर खड़ी नहीं रहती। खुली जगह, कूड़ा फेंकनेकी जगह और बगीचोंमें जाकर अधिक कालतक नहीं ठहरती। ज्यादा हँसना और ज्यादा क्रोध करना छोड़कर मैं सदा सच बोलती हुई पतियोंकी सेवा किया करती हूँ। मुझे पतियोंको छोड़कर अकेली रहना नहीं सुहाता। जब मेरे पति कुटुम्बके किसी कामसे बाहर जाते हैं तो मैं चन्दन-पुष्पतकको त्यागकर ब्रह्मचर्यव्रत पालती हूँ।

मेरे पति जिस पदार्थको नहीं खाते, नहीं पीते और नहीं सेवन करते, उन सब पदार्थोंको मैं भी त्याग देती हूँ, उनके उपदेशके अनुसार ही चलती हूँ और उनकी इच्छानुकूल ही गहने-कपड़े पहनकर सावधानीसे उनका प्रिय और हित करनेमें लगी रहती हूँ। मेरी भली सासने कुटुम्बके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इस विषयमें मुझको जिस धर्मका उपदेश दिया था, उसको तथा भिक्षा, बलिवैश्व, श्राद्ध, पर्वके समय बननेवाले स्थालीपाक, मान्य पुरुषोंकी पूजा और सत्कार आदि जो धर्म मेरे जाननेमें आये हैं, उन सबको मैं रात-दिन सावधानीके साथ पालती हूँ और एकाग्रचित्तसे सदा विनय और नियमोंका पालन करती हुई अपने कोमल-चित्त, सरलस्वभाव, सत्यवादी, धर्मपालक पतियोंकी सेवा करनेमें उसी प्रकार सावधान रहती हूँ जैसे क्रोधयुक्त साँपोंसे मनुष्य सावधान रहते हैं। हे कल्याणी! मेरे मतसे पतिके आश्रित रहना ही स्त्रियोंका सनातनधर्म है। पति ही स्त्रीका देवता और उसकी एकमात्र गति है। अतएव पतिका अप्रिय करना बहुत ही अनुचित है। मैं पतियोंसे पहले न कभी सोती हूँ, न भोजन करती हूँ और न उनकी इच्छाके विरुद्ध गहना-कपड़ा ही पहनती हूँ। कभी भूलकर भी अपनी सासकी निन्दा नहीं करती। सदा नियमानुसार चलती हूँ। हे सौभाग्यवती! मैं सदा प्रमादको छोड़कर चतुरतासे काममें लगी रहती और बड़ोंकी सच्चे मनसे सेवा किया करती हूँ। इसी कारण मेरे पति मेरे वशमें हो गये हैं।

हे सत्यभामा! वीरमाता, सत्य बोलनेवाली मेरी श्रेष्ठ सास कुन्तीदेवीको मैं खुद रोज अन्न, जल और वस्त्र देकर उनकी सेवा करती हूँ। मैं गहने, कपड़े और भोजनादिके सम्बन्धमें कभी सासके विरुद्ध नहीं चलती। इन सब बातोंमें उनकी सलाह लिया करती हूँ और उस पृथ्वीके समान माननीय अपनी सास पृथादेवीसे मैं कभी ऐंठकर नहीं बोलती।

मेरे पति महाराज युधिष्ठिरके महलमें पहले प्रतिदिन हजारों ब्राह्मण और हजारों स्नातक सोनेके पात्रोंमें भोजन किया करते और रहते। हजारों दासियाँ उनकी सेवामें रहतीं। दूसरे दस हजार आजन्म ब्रह्मचारियोंको सोनेके थालोंमें उत्तम-उत्तम भोजन परोसे जाते थे। वैश्वदेव होनेके अनन्तर मैं उन सब ब्राह्मणोंका नित्य अन्न, जल और वस्त्रोंसे यथायोग्य सत्कार करती थी।

महात्मा युधिष्ठिरके एक लाख नृत्य-गीतविशारदा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृता दासियाँ थीं। उन सब दासियोंके नाम, रूप और प्रत्येक कामके करने-न-करनेका मुझे सब पता रहता था और मैं ही उनके खाने-पीने और कपड़े-लत्तेकी व्यवस्था किया करती थी। महान् बुद्धिमान् महाराज युधिष्ठिरकी वे सब दासियाँ दिन-रात सोनेके थाल लिये अतिथियोंको भोजन करानेके काममें लगी रहती थीं। जब महाराज नगरमें रहते थे तब एक लाख हाथी और एक लाख घोड़े उनके साथ चलते थे, यह सब विषय धर्मराज युधिष्ठिरके राज्य करनेके समय था। मैं सबकी गिनती और व्यवस्था करती थी और सबकी बातें सुनती थी। महलोंके और बाहरके नौकर, गौ और भेड़ोंके चरानेवाले ग्वाले क्या काम करते हैं, क्या नहीं करते हैं, इसका ध्यान रखती थी। पाण्डवोंकी कितनी आमदनी और कितना खर्च है तथा कितनी बचत होती है, इसका सारा हिसाब मुझे मालूम था। हे कल्याणी! हे यशस्विनी सत्यभामा! जब भरतकुलमें श्रेष्ठ पाण्डव घर-परिवारका सारा भार मुझपर छोड़कर उपासनामें लगे रहते थे तब मैं सब तरहके आरामको छोड़कर रात-दिन दुष्ट-मनकी स्त्रियोंके न उठा सकने लायक कठिन कार्यके सारे भारको उठाये रखती। जिस समय मेरे पति उपासनादि कार्यमें तत्पर रहते उस समय वरुणदेवताके खजाने महासागरके समान असंख्य धनके खजानोंकी देखभाल मैं अकेली ही करती। इस प्रकार भूख-प्यास भुलाकर लगातार काममें लगी रहनेके कारण मुझे रात-दिनकी सुधि भी न रहती थी। मैं सबके सोनेके बाद सोती और सबके उठनेके पहले जाग उठती थी और निरन्तर सत्य व्यवहारमें लगी रहती। यही मेरा वशीकरण है। हे सत्यभामा! पतिको वशमें करनेका सबसे अच्छा महान् वशीकरण-मन्त्र मैं जानती हूँ। दुराचारिणी स्त्रियोंके दुराचारोंको मैं न तो ग्रहण ही करती हूँ और न कभी उसकी मेरे इच्छा ही होती है।’

द्रौपदीके द्वारा श्रेष्ठ धर्मकी बातें सुनकर सत्यभामा बोली—‘हे द्रौपदी, मैंने तुमसे इस तरहकी बातें पूछकर जो अपराध किया है, उसे क्षमा करो। सखियोंमें परस्पर हँसीमें स्वाभाविक ही ऐसी बातें निकल जाती हैं।’

द्रौपदी फिर कहने लगी—‘हे सखि! पतिका चित्त खींचनेका एक कभी खाली न जानेवाला उपाय बतलाती हूँ। इस उपायको काममें लानेसे तुम्हारे स्वामीका चित्त सब तरफसे हटकर केवल तुम्हारेमें ही लग जायगा। हे सत्यभामा! स्त्रियोंके लिये पति ही परम देवता है, पतिके समान और कोई भी देवता नहीं है। जिसके प्रसन्न होनेसे स्त्रियोंके सब मनोरथ सफल होते हैं और जिसके नाराज होनेसे सब सुख नष्ट हो जाते हैं। पतिको प्रसन्न करके ही स्त्री पुत्र, नाना प्रकारके सुख-भोग, उत्तम शय्या, सुन्दर आसन, वस्त्र, पुष्प, गन्ध, माला, स्वर्ग, पुण्यलोक और महान् कीर्तिको प्राप्त करती हैं। सुख सहजमें नहीं मिलता, पतिव्रता स्त्री पहले दु:ख झेलती है तब उसे सुख मिलता है। अतएव तुम भी प्रतिदिन सच्चे प्रेमसे सुन्दर वस्त्राभूषण, भोजन, गन्ध, पुष्प आदि प्रदान कर श्रीकृष्णकी आराधना करो। जब वे यह समझ जायँगे कि मैं सत्यभामाके लिये परम प्रिय हूँ, तब वे तुम्हारे वशमें हो जायँगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अतएव तुम मेरे कथनानुसार उनकी सेवा करो!

तुम्हारे स्वामी घरके दरवाजेपर आवें और उनका शब्द तुम्हें सुनायी पड़े तो तुम तुरन्त सावधान होकर घरमें खड़ी रहो और ज्यों ही वे घरमें प्रवेश करें त्यों ही पाद्य, आसन यानी पैर धोनेके लिये जल और बैठनेके लिये आसन देकर उनकी सेवा करो। हे सत्यभामा! तुम्हारे पति जब किसी कामके लिये दासीको आज्ञा दें तो तुम दासीको रोककर तुरन्त दौड़कर उस कामको अपने-आप कर दो। तुम्हारा ऐसा सद‍्व्यवहार देखकर श्रीकृष्ण समझेंगे कि सत्यभामा सचमुच सब प्रकारसे मेरी सेवा करती है। तुम्हारे पति तुमसे जो कुछ कहें वह गुप्त रखने लायक न हो तो भी तुम किसीसे मत कहो, क्योंकि यदि तुमसे सुनकर तुम्हारी सौत कभी उनसे वह बात कह देगी तो वह तुमसे नाराज हो जायँगे।

जो लोग तुम्हारे स्वामीके प्रेमी हैं, हितैषी हैं और सदा अनुराग रखते हैं उनको विविध प्रकारसे भोजन कराना चाहिये और जो तुम्हारे पतिके शत्रु हों, विपक्षी हों, बुराई करनेवाले हों और कपटी हों उनसे सदा बची रहो। परपुरुषोंके सामने मद और प्रमादको छोड़कर सावधान और मौन रहना चाहिये और एकान्तमें अपने कुमार साम्ब और प्रद्युम्नके साथ भी कभी न बैठना चाहिये। सत्कुलमें उत्पन्न होनेवाली पुण्यवती पतिव्रता सती स्त्रियोंके साथ मित्रता करना, परन्तु क्रूर स्वभाववाली, दूसरोंका अपमान करनेवाली, बहुत खानेवाली, चटोरी, चोरी करनेवाली, दुष्ट स्वभाववाली और चंचल चित्तवाली स्त्रियोंके साथ मित्रता (बहनेपा) कभी न करनी चाहिये।

एतद्यशस्यं भगदैवतं च स्वर्ग्यं तथा शत्रुनिबर्हणं च।
महार्हमाल्याभरणांगरागा भर्तारमाराधय पुण्यगन्धा॥
(महाभारत, वनपर्व अ० २३४)

‘तुम बहुमूल्य उत्तम माला और गहनोंको धारण करके सदा स्वामीकी सेवामें लगी रहो। इस प्रकारके उत्तम आचरणोंमें लगी रहनेसे तुम्हारे शत्रुओंका नाश होगा, परम सौभाग्यकी वृद्धि होगी, स्वर्गकी प्राप्ति होगी और संसार तुम्हारे पुण्य यशकी सुगन्धसे भर जायगा।’

(महाभारतसे)

अगला लेख  > होली और उसपर हमारा कर्तव्य