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दमयन्तीका स्वयंवर और विवाह

धर्मराज! निषध देशमें वीरसेनके पुत्र नल नामके एक राजा हो चुके हैं। वे बड़े गुणवान् , परम सुन्दर, सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सबके प्रिय, वेदज्ञ एवं ब्राह्मणभक्त थे। उनकी सेना बहुत बड़ी थी। वे स्वयं अस्त्रविद्यामें बहुत निपुण थे। वे वीर, योद्धा, उदार और प्रबल पराक्रमी भी थे। उन्हें जूआ खेलनेका भी कुछ-कुछ शौक था। उन्हीं दिनों विदर्भ देशमें भीम नामके एक राजा राज्य करते थे। वे भी नलके समान ही सर्वगुणसम्पन्न और पराक्रमी थे। उन्होंने दमन ऋषिको प्रसन्न करके उनके वरदानसे चार संतानें प्राप्त की थीं—तीन पुत्र और एक कन्या। पुत्रोंके नाम थे—दम, दान्त और दमन। पुत्रीका नाम था—दमयन्ती। दमयन्ती लक्ष्मीके समान रूपवती थी। उसके नेत्र विशाल थे। देवताओं और यक्षोंमें भी वैसी सुन्दरी कन्या कहीं देखनेमें नहीं आती थी। उन दिनों कितने ही लोग विदर्भसे निषध देशमें आते और राजा नलके सामने दमयन्तीके रूप और गुणका बखान करते। निषध देशसे विदर्भमें जानेवाले भी दमयन्तीके सामने राजा नलके रूप, गुण और पवित्र चरित्रका वर्णन करते। इससे दोनोंके हृदयमें पारस्परिक अनुराग अंकुरित हो गया।

एक दिन राजा नलने अपने महलके उद्यानमें कुछ हंसोंको देखा। उन्होंने एक हंसको पकड़ लिया। हंसने कहा—‘आप मुझे छोड़ दीजिये तो हमलोग दमयन्तीके पास जाकर आपके गुणोंका ऐसा वर्णन करेंगे कि वह आपको अवश्य-अवश्य वर लेगी।’ नलने हंसको छोड़ दिया। वे सब उड़कर विदर्भ देशमें गये। दमयन्ती अपने पास हंसोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुई और हंसोंको पकड़नेके लिये उनकी ओर दौड़ने लगी। दमयन्ती जिस हंसको पकड़नेके लिये दौड़ती, वही बोल उठता कि ‘अरी दमयन्ती! निषध देशमें एक नल नामका राजा है। वह अश्विनीकुमारके समान सुन्दर है। मनुष्योंमें उसके समान सुन्दर और कोई नहीं है। वह मानो मूर्तिमान् कामदेव है। यदि तुम उसकी पत्नी हो जाओ तो तुम्हारा जन्म और रूप दोनों सफल हो जायँ। हमलोगोंने देवता, गन्धर्व, मनुष्य, सर्प और राक्षसोंको घूम-घूमकर देखा है। नलके समान सुन्दर पुरुष कहीं देखनेमें नहीं आया। जैसे तुम स्त्रियोंमें रत्न हो, वैसे ही नल पुरुषोंमें भूषण है। तुम दोनोंकी जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।’ दमयन्तीने कहा—‘हंस! तुम नलसे भी ऐसी ही बात कहना।’ हंसने निषध देशमें लौटकर नलसे दमयन्तीका संदेश कह दिया।

दमयन्ती हंसके मुँहसे राजा नलकी कीर्ति सुनकर उनसे प्रेम करने लगी। उसकी आसक्ति इतनी बढ़ गयी कि वह रात-दिन उनका ही ध्यान करती रहती। शरीर धूमिल और दुबला हो गया। वह दीन-सी दीखने लगी। सखियोंने दमयन्तीके हृदयका भाव ताड़कर विदर्भराजसे निवेदन किया कि ‘आपकी पुत्री अस्वस्थ हो गयी है।’ राजा भीमने अपनी पुत्रीके सम्बन्धमें बड़ा विचार किया। अन्तमें वह इस निर्णयपर पहुँचा कि मेरी पुत्री विवाहयोग्य हो गयी है, इसलिये इसका स्वयंवर कर देना चाहिये। उन्होंने सब राजाओंको स्वयंवरका निमन्त्रण-पत्र भेज दिया और सूचित कर दिया कि राजाओंको दमयन्तीके स्वयंवरमें पधारकर लाभ उठाना चाहिये और मेरा मनोरथ पूर्ण करना चाहिये। देश-देशके नरपति हाथी, घोड़े और रथोंकी ध्वनिसे पृथ्वीको मुखरित करते हुए सज-धजकर विदर्भ देशमें पहुँचने लगे। भीमने सबके स्वागत-सत्कारकी समुचित व्यवस्था की।

देवर्षि नारद और पर्वतके द्वारा देवताओंको भी दमयन्तीके स्वयंवरका समाचार मिल गया। इन्द्र आदि सभी लोकपाल भी अपनी मण्डली और वाहनोंसहित विदर्भ देशके लिये रवाना हुए। राजा नलका चित्त पहलेसे ही दमयन्तीपर आसक्त हो चुका था। उन्होंने भी दमयन्तीके स्वयंवरमें सम्मिलित होनेके लिये विदर्भ देशकी यात्रा की। देवताओंने स्वर्गसे उतरते समय देख लिया कि कामदेवके समान सुन्दर नल दमयन्तीके स्वयंवरके लिये जा रहे हैं। नलकी सूर्यके समान कान्ति और लोकोत्तर रूप-सम्पत्तिसे देवता भी चकित हो गये। उन्होंने पहचान लिया कि ये नल हैं। उन्होंने अपने विमानोंको आकाशमें खड़ा कर दिया और नीचे उतरकर नलसे कहा—‘राजेन्द्र नल! आप बड़े सत्यव्रती हैं। आप हमलोगोंकी सहायता करनेके लिये दूत बन जाइये।’ नलने प्रतिज्ञा कर ली और कहा कि ‘करूँगा।’ फिर पूछा कि ‘आपलोग कौन हैं और मुझे दूत बनाकर कौन-सा काम लेना चाहते हैं?’ इन्द्रने कहा—‘हमलोग देवता हैं। मैं इन्द्र हूँ और ये अग्नि, वरुण और यम हैं। हमलोग दमयन्तीके लिये यहाँ आये हैं। आप हमारे दूत बनकर दमयन्तीके पास जाइये और कहिये कि इन्द्र, वरुण, अग्नि और यमदेवता तुम्हारे पास आकर तुमसे विवाह करना चाहते हैं। इनमेंसे तुम चाहे जिस देवताको पतिके रूपमें स्वीकार कर लो।’ नलने दोनों हाथ जोड़कर कहा कि ‘देवराज! वहाँ आपलोगोंके और मेरे जानेका एक ही प्रयोजन है। इसलिये आप मुझे दूत बनाकर वहाँ भेजें, यह उचित नहीं है। जिसकी किसी स्त्रीको पत्नीके रूपमें पानेकी इच्छा हो चुकी हो, वह भला, उसको कैसे छोड़ सकता है और उसके पास जाकर ऐसी बात कह ही कैसे सकता है? आपलोग कृपया इस विषयमें मुझे क्षमा कीजिये।’* देवताओंने कहा—‘नल! तुम पहले हमलोगोंसे प्रतिज्ञा कर चुके हो कि मैं तुम्हारा काम करूँगा। अब प्रतिज्ञा मत तोड़ो। अविलम्ब वहाँ चले जाओ।’ नलने कहा—‘राजमहलमें निरन्तर कड़ा पहरा रहता है, मैं कैसे जा सकूँगा?’ इन्द्रने कहा—‘जाओ, तुम वहाँ जा सकोगे।’ इन्द्रकी आज्ञासे नलने राजमहलमें बेरोक-टोक प्रवेश करके दमयन्तीको देखा। दमयन्ती और सखियाँ भी उसे देखकर अवाक् रह गयीं। वे इस अनुपम सुन्दर पुरुषको देखकर मुग्ध हो गयीं और लज्जित होकर कुछ बोल न सकीं।

* कथं तु जातसङ्कल्प: स्त्रियमुत्सृजते पुमान्।
परार्थमीदृशं वक्तुं तत् क्षमन्तु महेश्वरा:॥
(महा० वन० ५५। ८)

दमयन्तीने अपनेको सँभालकर राजा नलसे कहा—‘वीर! तुम देखनेमें बड़े सुन्दर और निर्दोष जान पड़ते हो। पहले अपना परिचय बताओ। तुम यहाँ किस उद्देश्यसे आये हो और यहाँ आते समय द्वारपालोंने तुम्हें देखा क्यों नहीं? उनसे तनिक भी चूक हो जानेपर मेरे पिता उन्हें बड़ा कड़ा दण्ड देते हैं।’ नलने कहा—कल्याणी! मैं नल हूँ। लोकपालोंका दूत बनकर तुम्हारे पास आया हूँ। सुन्दरी! इन्द्र, अग्नि, वरुण और यम—ये चारों देवता तुम्हारे साथ विवाह करना चाहते हैं। तुम इनमेंसे किसी एक देवताको अपने पतिके रूपमें वरण कर लो। यही संदेश लेकर मैं तुम्हारे पास आया हूँ। उन देवताओंके प्रभावसे ही जब मैं तुम्हारे महलमें प्रवेश करने लगा, तब मुझे कोई देख नहीं सका। मैंने देवताओंका संदेश कह दिया। अब तुम्हारी जो इच्छा हो, करो।’ दमयन्तीने बड़ी श्रद्धाके साथ देवताओंको प्रणाम करके मन्द-मन्द मुसकराकर नलसे कहा—‘नरेन्द्र! आप मुझे प्रेम-दृष्टिसे देखिये और आज्ञा कीजिये कि मैं यथाशक्ति आपकी क्या सेवा करूँ। मेरे स्वामी! मैंने अपना सर्वस्व और अपने-आपको भी आपके चरणोंमें सौंप दिया है। आप मुझपर विश्वासपूर्ण प्रेम कीजिये। जिस दिनसे मैंने हंसोंकी बात सुनी, उसी दिनसे मैं आपके लिये व्याकुल हूँ। आपके लिये ही मैंने राजाओंकी भीड़ इकट्ठी की है। यदि आप मुझ दासीकी प्रार्थना अस्वीकार कर देंगे तो मैं विष खाकर, आगमें जलकर, पानीमें डूबकर या फाँसी लगाकर आपके लिये मर जाऊँगी।’

राजा नलने कहा—‘जब बड़े-बड़े लोकपाल तुम्हारे प्रणय-सम्बन्धके प्रार्थी हैं, तब तुम मुझ मनुष्यको क्यों चाह रही हो? उन ऐश्वर्यशाली देवताओंके चरण-रेणुके समान भी तो मैं नहीं हूँ। तुम अपना मन उन्हींमें लगाओ। देवताओंका अप्रिय करनेसे मनुष्यकी मृत्यु हो जाती है। तुम मेरी रक्षा करो और उनको वरण कर लो।’ नलकी बात सुनकर दमयन्ती घबरा गयी। उसके दोनों नेत्रोंमें आँसू छलक आये। वह कहने लगी—‘मैं सब देवताओंको प्रणाम करके आपको ही पतिरूपमें वरण कर रही हूँ। यह मैं सत्य शपथ खा रही हूँ*।’ उस समय दमयन्तीका शरीर काँप रहा था, हाथ जुड़े हुए थे।

* देवेभ्योऽहं नमस्कृत्य सर्वेभ्य: पृथिवीपते।
वृणे त्वामेव भर्तारं सत्यमेतद् ब्रवीमि ते॥
(महा० वन० ५६। १४)

राजा नलने कहा—‘अच्छा, तब तुम ऐसा ही करो। परंतु यह तो बतलाओ कि मैं यहाँ उनका दूत बनकर संदेश पहुँचानेके लिये आया हूँ। यदि इस समय मैं अपना स्वार्थ बनाने लगूँ तो कितनी बुरी बात है। मैं अपना स्वार्थ तो तभी बना सकता हूँ, यदि वह धर्मके विरुद्ध न हो। तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिये।’ दमयन्तीने गद्गद-कण्ठसे कहा—‘नरेश्वर! इसके लिये एक निर्दोष उपाय है। उसके अनुसार काम करनेपर आपको कोई दोष नहीं लगेगा। वह उपाय यह है कि आप लोकपालोंके साथ स्वयंवर-मण्डपमें आवें। मैं उनके सामने ही आपको वरण कर लूँगी। तब आपको दोष नहीं लगेगा।’ अब राजा नल देवताओंके पास आये। देवताओंके पूछनेपर उन्होंने कहा—‘‘मैं आपलोगोंकी आज्ञासे दमयन्तीके महलमें गया। बाहर बूढ़े द्वारपाल पहरा दे रहे थे, परंतु उन्होंने आपलोगोंके प्रभावसे मुझे देखा नहीं। केवल दमयन्ती और उसकी सखियोंने मुझे देखा। वे आश्चर्यमें पड़ गयीं। मैंने दमयन्तीके सामने आपलोगोंका वर्णन किया, परंतु वह तो आपलोगोंको न चाहकर मुझे ही वरण करनेपर तुली हुई है। उसने कहा है कि ‘सब देवता आपके साथ स्वयंवरमें आवें। मैं उनके सामने ही आपको वरण कर लूँगी। इसमें आपको दोष नहीं लगेगा*।’ मैंने आपलोगोंके सामने सब बातें कह दीं। अन्तिम प्रमाण आपलोग ही हैं।’’

* तेषामहं संनिधौ त्वां वरयिष्यामि नैषध।
एवं तव महाबाहो दोषो न भवितेति ह॥
(महा० वन० ५६। ३०)

राजा भीमने शुभ मुहूर्तमें स्वयंवरका समय रखा और लोगोंको बुलवा भेजा। सब राजा अपने-अपने निवासस्थानसे आ-आकर स्वयंवर-मण्डपमें यथास्थान बैठने लगे। पूरी सभा राजाओंसे भर गयी। जब सब लोग अपने-अपने आसनपर बैठ गये, तब सुन्दरी दमयन्ती अपनी अंगकान्तिसे राजाओंके मन और नेत्रोंको अपनी ओर आकर्षित करती हुई रंगमण्डपमें आयी। राजाओंका परिचय दिया जाने लगा। दमयन्ती एक-एकको देखकर आगे बढ़ने लगी। आगे एक ही स्थानपर नलके समान आकार और वेषभूषाके पाँच राजा इकट्ठे ही बैठे हुए थे। दमयन्तीको संदेह हो गया, वह राजा नलको नहीं पहचान सकी। वह जिसकी ओर देखती, वही नल जान पड़ता। इसलिये विचार करने लगी कि ‘मैं देवताओंको कैसे पहचानूँ और ये राजा नल हैं—यह कैसे जानूँ?’ उसे बड़ा दु:ख हुआ। अन्तमें दमयन्तीने यही निश्चय किया कि देवताओंकी शरणमें जाना ही उचित है। हाथ जोड़कर प्रणामपूर्वक स्तुति करने लगी—‘देवताओ! हंसोंके मुँहसे नलका वर्णन सुनकर मैंने उन्हें पतिरूपसे वरण कर लिया है। मैं मनसे और वाणीसे नलके अतिरिक्त और किसीको नहीं चाहती। देवताओंने निषधेश्वर नलको ही मेरा पति बना दिया है तथा मैंने नलकी आराधनाके लिये ही यह व्रत प्रारम्भ किया है। मेरी इस सत्य शपथके बलपर देवतालोग मुझे उन्हें ही दिखला दें।१ ऐश्वर्यशाली लोकपालो! आपलोग अपना रूप प्रकट कर दें, जिससे मैं पुण्यश्लोक नरपति नलको पहचान लूँ।’ देवताओंने दमयन्तीका यह आर्त-विलाप सुना। उसके दृढ़ निश्चय, सच्चे प्रेम, आत्मशुद्धि, बुद्धि, भक्ति और नलपरायणताको देखकर उन्होंने उसे ऐसी शक्ति दे दी, जिससे वह देवता और मनुष्यका भेद समझ सके। दमयन्तीने देखा कि देवताओंके शरीरपर पसीना नहीं है। पलकें गिरती नहीं हैं। उनके गलेमें पड़ी पुष्पमाला कुम्हलायी नहीं है। शरीरपर मैल नहीं है। वे सिंहासनपर स्थित हैं, पर उनके पैर धरतीको नहीं छूते और उनकी परछाई नहीं पड़ती।२ इधर नलके शरीरकी छाया पड़ रही है। माला कुम्हला गयी है। शरीरपर कुछ धूल और पसीना भी है। पलकें बराबर गिर रही हैं और धरती छूकर स्थित हैं। दमयन्तीने इन लक्षणोंसे देवताओं और पुण्यश्लोक नलको पहचान लिया। फिर धर्मके अनुसार नलको वरण कर लिया। दमयन्तीने कुछ सकुचाकर घूँघट काढ़ लिया और नलके गलेमें वरमाला डाल दी। देवता और महर्षि साधु-साधु कहने लगे। राजाओंमें हाहाकार मच गया।

१. वाचा च मनसा चैव नमस्कारं प्रयुज्य सा।
देवेभ्य: प्राञ्जलिर्भूत्वा वेपमानेदमब्रवीत्।
हंसानां वचनं श्रुत्वा यथा मे नैषधो वृत:।
पतित्वे तेन सत्येन देवास्तं प्रदिशन्तु मे॥
मनसा वचसा चैव यथा नाभिचराम्यहम्।
तेन सत्येन विबुधास्तमेव प्रदिशन्तु मे॥
(महा० वन० ५७। १६—१८)
२. सापश्यद् विबुधान् सर्वानस्वेदान् स्तब्धलोचनान्।
हृषितस्रग्रजोहीनान् स्थितानस्पृशत: क्षितिम्॥
(महा० वन० ५७। २४)

राजा नलने आनन्दातिरेकसे दमयन्तीका अभिनन्दन किया। उन्होंने कहा—‘कल्याणी! तुमने देवताओंके सामने रहनेपर भी उन्हें वरण न करके मुझे वरण किया है, इसलिये तुम मुझको प्रेमपरायण पति समझना। मैं तुम्हारी बात मानूँगा। जबतक मेरे शरीरमें प्राण रहेंगे, तबतक मैं तुमसे प्रेम करूँगा—यह मैं तुमसे शपथपूर्वक सत्य कहता हूँ।’ दोनोंने प्रेमसे एक-दूसरेका अभिनन्दन करके इन्द्रादि देवताओंकी शरण ग्रहण की। देवता भी बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने नलको आठ वर दिये। इन्द्रने कहा—‘नल! तुम्हें यज्ञमें मेरा दर्शन होगा और उत्तम गति मिलेगी।’ अग्निने कहा—‘जहाँ तुम मेरा स्मरण करोगे, वहीं मैं प्रकट हो जाऊँगा और मेरे ही समान प्रकाशमय लोक तुम्हें प्राप्त होंगे।’ यमराजने कहा—‘तुम्हारी बनायी हुई रसोई बहुत मीठी होगी और तुम अपने धर्ममें दृढ़ रहोगे।’ वरुणने कहा—‘जहाँ तुम चाहोगे, वहीं जल प्रकट हो जायगा। तुम्हारी माला उत्तम गन्धसे परिपूर्ण रहेगी।’ इस प्रकार दो-दो वर देकर सब देवता अपने-अपने लोकोंमें चले गये। निमन्त्रित राजालोग भी विदा हो गये। भीमने प्रसन्न होकर दमयन्तीका नलके साथ विधिपूर्वक विवाह कर दिया। राजा नल कुछ दिनोंतक विदर्भ देशकी राजधानी कुण्डिनपुरमें रहे। तदनन्तर भीमकी अनुमति प्राप्त करके वे अपनी पत्नी दमयन्तीके साथ अपनी राजधानीमें लौट आये। राजा नल अपनी राजधानीमें धर्मके अनुसार प्रजाका पालन करने लगे। सचमुच उनके द्वारा ‘राजा’ नाम सार्थक हो गया। उन्होंने अश्वमेध आदि बहुत-से यज्ञ किये। समय आनेपर दमयन्तीके गर्भसे इन्द्रसेन नामके पुत्र और इन्द्रसेना नामकी कन्याका भी जन्म हुआ।

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