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कलियुगका दुर्भाव, जुएमें नलका हारना और नगरसे निर्वासन

महर्षि बृहदश्व कहते हैं—युधिष्ठिर! जिस समय दमयन्तीके स्वयंवरसे लौटकर इन्द्रादि लोकपाल अपने-अपने लोकोंमें जा रहे थे, उस समय उनकी मार्गमें ही कलियुग और द्वापरसे भेंट हो गयी। इन्द्रने पूछा—‘क्यों कलियुग! कहाँ जा रहे हो?’ कलियुगने कहा—‘मैं दमयन्तीके स्वयंवरमें उससे विवाह करनेके लिये जा रहा हूँ।’ इन्द्रने हँसकर कहा—‘अजी, वह स्वयंवर तो कभीका पूरा हो गया। दमयन्तीने राजा नलको वरण कर लिया, हमलोग ताकते ही रह गये।’ कलियुगने क्रोधमें भरकर कहा— ‘ओह, तब तो बड़ा अनर्थ हुआ। उसने देवताओंकी उपेक्षा करके मनुष्यको अपनाया, इसलिये उसको दण्ड देना चाहिये।’ देवताओंने कहा—‘दमयन्तीने हमारी आज्ञा प्राप्त करके नलको वरण किया है। वास्तवमें नल सर्वगुणसम्पन्न और उसके योग्य हैं। वे समस्त धर्मोंके मर्मज्ञ और सदाचारी हैं। उन्होंने इतिहास-पुराणोंके सहित वेदोंका अध्ययन किया है। वे धर्मानुसार यज्ञमें देवताओंको तृप्त करते हैं, कभी किसीको सताते नहीं, सत्यनिष्ठ और दृढनिश्चयी हैं। उनकी चतुरता, धैर्य, ज्ञान, तपस्या, पवित्रता, दम और शम लोकपालोंके समान हैं। उनको शाप देना तो नरककी धधकती आगमें गिरना है।’ यह कहकर देवतालोग चले गये१।

अब कलियुगने द्वापरसे कहा—‘भाई! मैं अपने क्रोधको शान्त नहीं कर सकता। इसलिये मैं नलके शरीरमें निवास करूँगा। मैं उसे राज्यच्युत कर दूँगा। तब वह दमयन्तीके साथ नहीं रह सकेगा। इसलिये तुम भी जुएके पासोंमें प्रवेश करके मेरी सहायता करना।’ द्वापरने उसकी बात स्वीकार कर ली। द्वापर और कलियुग दोनों ही नलकी राजधानीमें आ बसे। बारह वर्षतक वे इस बातकी प्रतीक्षामें रहे कि नलमें कोई दोष दीख जाय। एक दिन राजा नल संध्याके समय लघुशंकासे निवृत्त होकर पैर धोये बिना ही आचमन करके संध्या-वन्दन करने बैठ गये। यह अपवित्र अवस्था देखकर कलियुग उनके शरीरमें प्रवेश कर गया।२

१-एवंगुणं नलं यो वै कामयेच्छपितुं कले।
कृच्छ्र स नरके मज्जेदगाधे विपुले ह्रदे।
एवमुक्त्वा कलिं देवा द्वापरं च दिवं ययु:॥
(महा० वन० ५८। १२)
२-स नित्यमन्तरप्रेप्सुर्निषधेष्ववसच्चिरम्।
अथास्य द्वादशे वर्षे ददर्श कलिरन्तरम्॥
कृत्वा मूत्रमुपस्पृश्य संध्यामन्वास्त नैषध:।
अकृत्वा पादयो: शौचं तत्रैनं कलिराविशत् ॥
(महा० वन० ५९। २, ३)

साथ ही दूसरा रूप धारण करके वह पुष्करके पास गया और बोला—‘तुम नलके साथ जूआ खेलो और मेरी सहायतासे जुएमें राजा नलको जीतकर निषध देशका राज्य प्राप्त कर लो।’ पुष्कर उसकी बात स्वीकार करके नलके पास गया। द्वापर भी पासोंका रूप धारण करके उनके साथ हो लिया। जब पुष्करने राजा नलसे बार-बार जूआ खेलनेका आग्रह कया, तब राजा नल दमयन्तीके सामने अपने भाईकी बार-बारकी ललकारको सह न सके। उन्होंने उसी समय पासे खेलनेका निश्चय कर लिया। उस समय नलके शरीरमें कलियुग घुसा हुआ था; इसलिये राजा नल दावँमें सोना, चाँदी, रथ, वाहन आदि जो कुछ लगाते, वह हार जाते। प्रजा और मन्त्रियोंने बड़ी व्याकुलताके साथ राजा नलसे मिलकर जुएको रोकना चाहा और आकर फाटकके सामने खड़े हो गये। उनका अभिप्राय जानकर द्वारपाल रानी दमयन्तीके पास गया और बोला कि ‘आप महाराजसे निवेदन कर दीजिये—आप धर्म और अर्थके तत्त्वज्ञ हैं। आपकी सारी प्रजा आपका दु:ख सह्य न होनेके कारण कार्यवश दरवाजेपर आकर खड़ी है।’ दमयन्ती स्वयं दु:खके मारे दुर्बल और अचेत हुई जा रही थी। उसने आँखोंमें आँसू भरकर गद्गद-कण्ठसे महाराजके सामने निवेदन किया— ‘स्वामिन्! नगरकी राजभक्त प्रजा और मन्त्रिमण्डलके लोग आपसे मिलने आये हैं और डॺोढ़ीपर खड़े हैं। आप उनसे मिल लीजिये।’ परंतु नल कलियुगका आवेश होनेके कारण कुछ भी नहीं बोले। मन्त्रिमण्डल और प्रजाके लोग शोकग्रस्त होकर लौट गये। पुष्कर और नलमें कई महीनोंतक जूआ होता रहा तथा राजा नल बराबर हारते गये। राजा नल जुएमें जो पासे फेंकते, वे बराबर ही उनके प्रतिकूल पड़ते। सारा धन हाथसे निकल गया। जब दमयन्तीको इस बातका पता चला, तब उसने बृहत्सेना नामकी धायके द्वारा राजा नलके सारथि वार्ष्णेयको बुलवाया और उससे कहा—‘सारथि! तुम राजाके प्रेमपात्र हो। अब यह बात तुमसे छिपी नहीं है कि महाराज बड़े संकटमें पड़ गये हैं। इसलिये तुम घोड़ोंको रथमें जोड़ लो और मेरे दोनों बच्चोंको रथमें बैठाकर कुण्डिननगरमें ले जाओ। तुम रथ और घोड़ोंको भी वहीं छोड़ देना। तुम्हारी इच्छा हो तो वहीं रहना। नहीं तो कहीं दूसरी जगह चले जाना।’ सारथिने दमयन्तीके कथनानुसार मन्त्रियोंसे सलाह करके बच्चोंको कुण्डिनपुरमें पहुँचा दिया, रथ और घोड़े भी वहीं छोड़ दिये तथा स्वयं वहाँसे पैदल ही चलकर अयोध्या जा पहुँचा और वहीं राजा ऋतुपर्णके पास सारथिका काम करने लगा।

वार्ष्णेय सारथिके चले जानेके बाद पुष्करने पासोंके खेलमें राजा नलका राज्य और धन ले लिया। उसने नलको सम्बोधन करके हँसते हुए कहा—‘और जूआ खेलोगे? परंतु तुम्हारे पास दाँवपर लगानेके लिये तो कुछ है ही नहीं। यदि तुम दमयन्तीको दाँवपर लगानेके योग्य समझो तो फिर खेल हो। नलका हृदय फटने लगा। वे पुष्करसे कुछ भी नहीं बोले। उन्होंने अपने शरीरसे सब वस्त्राभूषण उतार दिये और केवल एक वस्त्र पहने नगरसे बाहर निकले। दमयन्तीने भी केवल एक साड़ी पहनकर अपने पतिका अनुगमन किया। नलके मित्र और सम्बन्धियोंको बड़ा शोक हुआ। नल और दमयन्ती दोनों नगरके बाहर तीन राततक रहे। पुष्करने नगरमें ढिंढोरा पिटवा दिया कि जो मनुष्य नलके प्रति सहानुभूति प्रकट करेगा, उसको फाँसीकी सजा दी जायगी। भयके मारे नगरके लोग अपने राजा नलका सत्कारतक न कर सके। राजा नल तीन दिन-राततक अपने नगरके पास केवल पानी पीकर रहे। चौथे दिन उन्हें बड़ी भूख लगी। फिर दोनों फल-मूल खाकर वहाँसे आगे बढ़े।

एक दिन राजा नलने देखा कि बहुत-से पक्षी उनके पास ही बैठे हैं। उनके पंख सोनेके समान दमक रहे हैं। नलने सोचा कि इनकी पाँखसे कुछ धन मिलेगा। ऐसा सोचकर उन्हें पकड़नेके लिये नलने उनपर अपना पहननेका वस्त्र डाल दिया। पक्षी उनका वस्त्र लेकर उड़ गये। अब नल नंगे होकर बड़ी दीनताके साथ मुँह नीचे किये खड़े हो गये। पक्षियोंने कहा—‘दुर्बुद्धे! तू नगरसे एक वस्त्र पहनकर निकला था। उसे देखकर हमें बड़ा दु:ख हुआ था। ले, अब हम तेरे शरीरपरका वस्त्र लिये जा रहे हैं। हम पक्षी नहीं, जुएके पासे हैं।’ नलने दमयन्तीसे पासोंकी बात कह दी।

इसके बाद नलने कहा—‘प्रिये! तुम देख रही हो, यहाँ बहुत-से मार्ग हैं। एक अवन्तीकी ओर जाता है, दूसरा ऋक्षवान् पर्वतपर होकर दक्षिण देशको। सामने विन्ध्याचल पर्वत है। यह पयोष्णी नदी समुद्रमें मिलती है। ये महर्षियोंके आश्रम हैं। सामनेका रास्ता विदर्भ देशको जाता है। यह कोसल देशका मार्ग है।’ इस प्रकार राजा नल दु:ख और शोकसे भरकर बड़ी सावधानीके साथ दमयन्तीको भिन्न-भिन्न मार्ग और आश्रम बतलाने लगे। दमयन्तीकी आँखें आँसूसे भर गयीं। वह गद्गद-स्वरसे कहने लगी—‘स्वामिन्! आप क्या सोच रहे हैं? मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं और मेरा हृदय उद्विग्न हो रहा है। आपका राज्य गया, धन गया, आपके शरीरपर वस्त्र नहीं रहा, आप थके-माँदे तथा भूखे-प्यासे हैं; क्या मैं आपको इस निर्जन वनमें छोड़कर अकेली कहीं जा सकती हूँ? मैं आपके साथ रहकर आपके दु:ख दूर करूँगी। दु:खके अवसरोंपर पत्नी पुरुषके लिये औषध है। वह धैर्य देकर पतिके दु:खको कम करती है। यह बात वैद्य भी स्वीकार करते हैं। नलने कहा—‘प्रिये! तुम्हारा कहना ठीक है। पत्नी मित्र है, पत्नी औषध है। परंतु मैं तो तुम्हारा त्याग करना नहीं चाहता। तुम ऐसा संदेह क्यों कर रही हो?’ दमयन्ती बोली—‘आप मुझे छोड़ना नहीं चाहते, परंतु विदर्भ देशका मार्ग क्यों बतला रहे हैं? मुझे निश्चय है कि आप मेरा त्याग नहीं कर सकते। फिर भी इस समय आपका मन उलटा हो गया है, इसलिये ऐसी शंका करती हूँ। आपके मार्ग बतानेसे मेरा मन दुखता है। यदि आप मुझे मेरे पिता या किसी सम्बन्धीके घर भेजना चाहते हों तो ठीक है, हम दोनों साथ-साथ चलें। मेरे पिता आपका सत्कार करेंगे। आप वहीं सुखसे रहियेगा।’ नलने कहा—‘प्रिये! तुम्हारे पिता राजा हैं और मैं भी कभी राजा था। इस समय मैं संकटमें पड़कर उनके पास नहीं जाऊँगा।’ राजा नल दमयन्तीको समझाने लगे। तदनन्तर दोनों एक ही वस्त्रसे शरीर ढककर वनमें इधर-उधर घूमते रहे। भूख-प्याससे व्याकुल होकर दोनों एक धर्मशालामें आये और ठहर गये।

नलका दमयन्तीको त्यागना, मयन्तीको संकटोंसे बचते हुए दिव्य ऋषियोंके दर्शन और राजा सुबाहुके महलमें निवास

बृहदश्वजी कहते हैं—युधिष्ठिर! उस समय राजा नलके शरीरपर वस्त्र नहीं था और तो क्या, धरतीपर बिछानेके लिये एक चटाई भी नहीं थी। शरीर धूलसे लथपथ हो रहा था। भूख-प्यासकी पीड़ा अलग ही थी। राजा नल जमीनपर ही सो गये। दमयन्तीके जीवनमें भी कभी ऐसी परिस्थिति नहीं आयी थी। वह सुकुमारी भी वहीं सो गयी। दमयन्तीके सो जानेपर राजा नलकी नींद टूटी। सच्ची बात तो यह थी कि वे दु:ख और शोककी अधिकताके कारण सुखकी नींद सो भी नहीं सकते थे। आँखके खुलनेपर उनके सामने राज्यके छिन जाने, सगे-सम्बन्धियोंके छूटने और पक्षियोंके वस्त्र लेकर उड़ जानेके दृश्य एक-एक करके आने लगे। वे सोचने लगे कि ‘दमयन्ती मुझपर बड़ा प्रेम करती है। प्रेमके कारण ही वह इतना दु:ख भी भोग रही है। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊँगा तो यह अपने पिताके घर चली जायगी। मेरे साथ तो इसे दु:ख-ही-दु:ख भोगना पड़ेगा। यदि मैं इसे छोड़कर चला जाऊँ तो सम्भव है कि इसे सुख भी मिल जाय।’ अन्तमें राजा नलने यही निश्चय किया कि ‘दमयन्तीको छोड़कर चले जानेमें ही भला है। दमयन्ती सच्ची पतिव्रता है। कोई भी इसके सतीत्वको भंग नहीं कर सकता।’* इस प्रकार त्यागनेका निश्चय करके और सतीत्वकी ओरसे निश्चिन्त होकर राजा नलने यह विचार किया कि ‘मैं नंगा हूँ और दमयन्तीके शरीरपर भी केवल एक ही वस्त्र है। फिर भी इसके वस्त्रोंमेंसे आधा फाड़ लेना ही श्रेयस्कर है। परंतु फाड़ूँ कैसे? शायद यह जग जाय?’ वे धर्मशालामें इधर-उधर घूमने लगे। उनकी दृष्टि एक बिना म्यानकी तलवारपर पड़ गयी। राजा नलने उसे उठा लिया और धीरेसे दमयन्तीका आधा वस्त्र फाड़कर अपना शरीर ढक लिया। दमयन्ती नींदमें थी। राजा नल उसे छोड़कर निकल पड़े। थोड़ी देर बाद जब उनका हृदय शान्त हुआ, तब वे फिर धर्मशालामें लौट आये और दमयन्तीको देखकर रोने लगे। वे सोचने लगे कि ‘अबतक मेरी प्राणप्रिया अन्त:पुरके परदेमें रहती थी, इसे कोई छू भी नहीं सकता था। आज यह अनाथके समान आधा वस्त्र पहने धूलमें सो रही है। यह मेरे बिना दु:खी होकर वनमें कैसे फिरेगी? प्रिये! तू धर्मात्मा है; इसलिये आदित्य, वसु, रुद्र, अश्विनीकुमार और पवनदेवता तेरी रक्षा करें।’ उस समय राजा नलका हृदय दु:खके मारे टुकड़े-टुकड़े हुआ जा रहा था, वे झूलेकी तरह बार-बार धर्मशालासे बाहर निकलते और फिर लौट आते। शरीरमें कलियुगका प्रवेश होनेके कारण बुद्धि नष्ट हो गयी थी, इसलिये अन्तत: वे अपनी प्राणप्रिया पत्नीको वनमें अकेली छोड़कर वहाँसे चले गये।

* न चैषा तेजसा शक्या कैश्चिद् धर्षयितुं पथि।
यशस्विनी महाभागा मद्भक्तेयं पतिव्रता॥
(महा० वन० ६२। १४)

जब दमयन्तीकी नींद टूटी, तब उसने देखा कि राजा नल वहाँ नहीं हैं। वह आशंकासे भरकर पुकारने लगी कि ‘महाराज! स्वामिन्! मेरे सर्वस्व! आप कहाँ हैं? मैं अकेली डर रही हूँ, आप कहाँ गये? बस, अब अधिक हँसी न कीजिये। मेरे कठोर स्वामी! मुझे क्यों डरा रहे हैं? शीघ्र दर्शन दीजिये। मैं आपको देख रही हूँ। लो, यह देख लिया। लताओंकी आड़में छिपकर चुप क्यों हो रहे हैं? मैं दु:खमें पड़कर इतना विलाप कर रही हूँ और आप मेरे पास आकर धैर्य भी नहीं देते? स्वामिन्! मुझे अपना या और किसीका शोक नहीं है। मुझे केवल इतनी ही चिन्ता है कि आप इस घोर जंगलमें अकेले कैसे रहेंगे? हा नाथ! निर्मल चित्तवाले आपकी जिस पुरुषने यह दशा की है, वह आपसे भी अधिक दुर्दशाको प्राप्त होकर निरन्तर दु:खी जीवन बितावे१।’ दमयन्ती इस प्रकार विलाप करती हुई इधर-उधर दौड़ने लगी। वह उन्मत्त-सी होकर इधर-उधर घूमती हुई एक अजगरके पास जा पहुँची, शोकग्रस्त होनेके कारण उसे इस बातका पता भी नहीं चला। अजगर दमयन्तीको निगलने लगा। उस समय भी दमयन्तीके चित्तमें अपनी नहीं, राजा नलकी ही चिन्ता थी कि वे अकेले कैसे रहेंगे। वह पुकारने लगी—‘स्वामिन्! मुझे अनाथकी भाँति यह अजगर निगल रहा है, आप मुझे छुड़ानेके लिये क्यों नहीं दौड़ आते?’ दमयन्तीकी आवाज एक व्याधके कानमें पड़ी। वह उधर ही घूम रहा था। वह वहाँ दौड़कर आया और यह देखकर कि दमयन्तीको अजगर निगल रहा है, अपने तेज शस्त्रसे अजगरका मुँह चीर डाला। उसने दमयन्तीको छुड़ाकर नहलाया, आश्वासन देकर भोजन कराया। दमयन्ती कुछ-कुछ शान्त हुई। व्याधने पूछा—‘सुन्दरी! तुम कौन हो? किस कष्टमें पड़कर किस उद्देश्यसे यहाँ आयी हो?’ दमयन्तीने व्याधसे अपनी कष्ट-कहानी कही। दमयन्तीकी सुन्दरता, बोल-चाल और मनोहरता देखकर व्याध काममोहित हो गया। वह मीठी-मीठी बातें करके दमयन्तीको अपने वशमें करनेकी चेष्टा करने लगा। दमयन्ती दुरात्मा व्याधके मनका भाव जानकर क्रोधके आवेशसे प्रज्वलित हो गयी। दमयन्तीने व्याधके बलात्कारकी चेष्टाको बहुत रोकना चाहा; परंतु जब वह किसी भी प्रकार न माना, तब उसने शाप दे दिया—‘यदि मैंने निषधनरेश राजा नलको छोड़कर और किसी पुरुषका मनसे भी चिन्तन नहीं किया हो तो यह पापी क्षुद्र व्याध मरकर जमीनपर गिर पड़े।’२ दमयन्तीके मुँहसे ऐसी बात निकलते ही व्याधके प्राण-पखेरू उड़ गये, वह जले हुए ठूँठकी तरह पृथ्वीपर गिर पड़ा।

१. न शोचाम्यहमात्मानं न चान्यदपि किंचन।
कथं नु भवितास्येक इति त्वां नृप शोचिमि॥
यस्याभिशापाद् दु:खार्तो दु:खं विन्दति नैषध:।
तस्य भूतस्य नो दु:खाद् दु:खमप्यधिकं भवेत्॥
अपापचेतसं पापो य एवं कृतवान् नलम्।
तस्माद् दु:खतरं प्राप्य जीवत्वसुखजीविकाम्॥
(महा० वन० ६३। ११, १६-१७)
२. यद्यहं नैषधादन्यं मनसापि न चिन्तये।
तथायं पततां क्षुद्रो परासुर्मृगजीवन:॥
(महा० वन० ६३। ३८)

व्याधके मर जानेपर दमयन्ती राजा नलको ढूँढ़ती हुई एक निर्जन और भयंकर वनमें जा पहुँची। बहुत-से पर्वत, नदी, नद, जंगल, हिंसक पशु , पिशाच आदिको देखती हुई और विरहके उन्मादमें उनसे राजा नलका पता पूछती हुई वह उत्तरकी ओर बढ़ने लगी। तीन दिन, तीन रात बीत जानेके बाद दमयन्तीने देखा कि सामने ही एक बड़ा सुन्दर तपोवन है। उस आश्रममें वसिष्ठ, भृगु और अत्रिके समान मितभोजी, संयमी, पवित्र, जितेन्द्रिय और तपस्वी ऋषि निवास कर रहे हैं। वे वृक्षोंकी छाल अथवा मृगछाला धारण किये हुए थे। दमयन्तीको कुछ धैर्य मिला, उसने आश्रममें जाकर बड़ी नम्रताके साथ तपस्वी ऋषियोंको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। ऋषियोंने ‘स्वागत है’ कहकर दमयन्तीका सत्कार किया और बोले—‘बैठ जाओ। हम तुम्हारा क्या काम करें?’ दमयन्तीने भद्र महिलाके समान पूछा—‘आपकी तपस्या, अग्नि, धर्म और पशु-पक्षी तो सकुशल हैं न? आपके धर्माचरणमें तो कोई विघ्न नहीं पड़ता।’ ऋषियोंने कहा—‘कल्याणी! हम तो सब प्रकारसे सकुशल हैं। तुम कौन हो, किस उद्देश्यसे यहाँ आयी हो? हमें बड़ा आश्चर्य हो रहा है। क्या तुम वन, पर्वत, नदीकी अधिष्ठातृदेवता हो?’ दमयन्तीने कहा—‘महात्माओ! मैं कोई देवी-देवता नहीं, एक मनुष्य-स्त्री हूँ। मैं विदर्भनरेश राजा भीमकी पुत्री हूँ। बुद्धिमान्, यशस्वी एवं वीर-विजयी निषधनरेश महाराज नल मेरे पति हैं। कपटद्यूतके विशेषज्ञ एवं दुरात्मा पुरुषोंने मेरे धर्मात्मा पतिको जूआ खेलनेके लिये उत्साहित करके उनका राज्य और धन ले लिया है। मैं उन्हींकी पत्नी दमयन्ती हूँ। संयोगवश वे मुझसे बिछुड़ गये हैं। मैं उन्हीं रणबाँकुरे, शस्त्रविद्याकुशल एवं महात्मा पतिदेवको ढूँढ़नेके लिये वन-वन भटक रही हूँ। मैं यदि उन्हें शीघ्र ही नहीं देख पाऊँगी तो जीवित नहीं रह सकूँगी। उनके बिना मेरा जीवन निष्फल है। वियोगके दु:खको मैं कबतक सह सकूँगी।’ तपस्वियोंने कहा—‘कल्याणी! हम अपनी तप:शुद्ध दृष्टिसे देख रहे हैं कि तुम्हें आगे बहुत सुख मिलेगा और थोड़े ही दिनोंमें राजा नलका दर्शन होगा।* धर्मात्मा निषध-नरेश थोड़े ही दिनोंमें समस्त दु:खोंसे छूटकर सम्पत्तिशाली निषध देशपर राज्य करेंगे। उनके शत्रु भयभीत होंगे, मित्र सुखी होंगे और कुटुम्बी उन्हें अपने बीचमें पाकर आनन्दित होंगे।’ इस प्रकार कहकर वे सब तपस्वी अपने आश्रमके साथ अन्तर्धान हो गये। यह आश्चर्यकी घटना देखकर दमयन्ती विस्मित हो गयी। वह सोचने लगी कि ‘अहो! मैंने यह स्वप्न देखा है क्या? यह कैसी घटना हो गयी। वे तपस्वी, आश्रम, पवित्रसलिला नदी, फल-फूलोंसे लदे हरे-भरे वृक्ष कहाँ गये?’ दमयन्ती फिर उदास हो गयी, उसका मुख मुरझा गया।

* उदर्कस्तव कल्याणि कल्याणो भविता शुभे।
वयं पश्याम तपसा क्षिप्रं द्रक्ष्यसि नैषधम्॥
(महा० वन० ६४। ९२)

वहाँसे चलकर विलाप करती हुई दमयन्ती एक अशोक वृक्षके पास पहुँची। उसकी आँखोंसे झर-झर आँसू झर रहे थे। उसने अशोक-वृक्षसे गद्गद-स्वरमें कहा—‘शोकरहित अशोक! तू मेरा शोक मिटा दे। क्या कहीं तूने राजा नलको शोकरहित देखा है? अशोक! तू अपने शोकनाशक नामको सार्थक कर।’ दमयन्तीने अशोककी प्रदक्षिणा की और वह आगे बढ़ी। भयंकर वनमें अनेकों वृक्ष, गुफा, पर्वतोंके शिखर और नदियोंके आस-पास अपने पतिदेवको ढूँढ़ती हुई दमयन्ती बहुत दूर निकल गयी। वहाँ उसने देखा कि बहुत-से हाथी, घोड़ों और रथोंके साथ व्यापारियोंका एक झुंड आगे बढ़ रहा है। व्यापारियोंके प्रधानसे बातचीत करके और यह जानकर कि ये व्यापारी राजा सुबाहुके राज्य चेदिदेशमें जा रहे हैं, दमयन्ती उनके साथ हो गयी। उसके मनमें अपने पतिके दर्शनकी लालसा बढ़ती ही जा रही थी। कई दिनोंतक चलनेके बाद वे व्यापारी एक भयंकर वनमें पहुँचे। वहाँ एक बड़ा ही सुन्दर सरोवर था। लंबी यात्राके कारण सब लोग थक गये थे। इसलिये उन लोगोंने वहीं पड़ाव डाल दिया। दैव व्यापारियोंके प्रतिकूल था। रातके समय जंगली हाथी व्यापारियोंके हाथियोंपर टूट पड़े और उनकी भगदड़में सब-के-सब व्यापारी नष्ट-भ्रष्ट हो गये। कोलाहल सुनकर दमयन्तीकी नींद टूटी। वह इस महासंहारका दृश्य देखकर बावली-सी हो गयी। उसने कभी ऐसी घटना नहीं देखी थी। वह डरकर वहाँसे भाग निकली और जहाँ कुछ बचे हुए मनुष्य खड़े थे, वहाँ जा पहुँची। तदनन्तर दमयन्ती उन वेदपाठी और संयमी ब्राह्मणोंके साथ, जो उस महासंहारसे बच गये थे, शरीरपर आधा वस्त्र धारण किये चलने लगी और सायंकालके समय चेदिनरेश राजा सुबाहुकी राजधानीमें जा पहुँची।

जिस समय दमयन्ती राजधानीके राज-पथपर चल रही थी, नागरिकोंने यही समझा कि यह कोई बावली स्त्री है। छोटे-छोटे बच्चे उसके पीछे लग गये। दमयन्ती राजमहलके पास जा पहुँची। उस समय राजमाता राजमहलकी खिड़कीमें बैठी हुई थीं। उन्होंने बच्चोंसे घिरी दमयन्तीको देखकर धायसे कहा कि ‘अरी! देख तो, यह स्त्री बड़ी दुखिया मालूम पड़ती है। अपने लिये कोई आश्रय ढूँढ़ रही है। बच्चे इसे दु:ख दे रहे हैं। तू जा, इसे मेरे पास ले आ। यह सुन्दरी तो इतनी है, मानो मेरे महलको भी दमका देगी।’ धायने आज्ञापालन किया। दमयन्ती राजमहलमें आ गयी। राजमाताने दमयन्तीका सुन्दर शरीर देखकर पूछा—‘देखनेमें तो तुम दुखिया जान पड़ती हो, तो भी तुम्हारा शरीर इतना तेजस्वी कैसे है? बताओ, तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो, असहाय अवस्थामें भी किसीसे डरती क्यों नहीं हो?’ दमयन्तीने कहा—‘मैं एक पतिव्रता नारी हूँ। मैं हूँ तो कुलीन परंतु दासीका काम करती हूँ। अन्त:पुरमें रह चुकी हूँ। मैं कहीं भी रह जाती हूँ। फल-मूल खाकर दिन बिता देती हूँ। मेरे पतिदेव बहुत गुणी हैं और मुझसे प्रेम भी बहुत करते हैं। मेरे अभाग्यकी बात है कि वे बिना मेरे किसी अपराधके ही रातके समय मुझे सोती छोड़कर न जाने कहाँ चले गये। मैं रात-दिन अपने प्राणपतिको ढूँढ़ती और उनके वियोगमें जलती रहती हूँ।’ इतना कहते-कहते दमयन्तीकी आँखोंमें आँसू उमड़ आये, वह रोने लगी। दमयन्तीके दु:खभरे विलापसे राजमाताका जी भर आया। वे कहने लगीं— ‘कल्याणी! मेरा तुमपर स्वाभाविक ही प्रेम हो रहा है। तुम मेरे पास रहो, मैं तुम्हारे पतिको ढूँढ़नेका प्रबन्ध करूँगी। जब वे आवें, तब तुम उनसे यहीं मिलना।’ दमयन्तीने कहा—‘माताजी! मैं एक शर्तपर आपके घर रह सकती हूँ। मैं कभी जूठा न खाऊँगी, किसीके पैर नहीं धोऊँगी और पर-पुरुषके साथ किसी प्रकार भी बातचीत नहीं करूँगी। यदि कोई पुरुष मुझसे दुश्चेष्टा करे तो उसे दण्ड देना होगा। बार-बार ऐसा करनेपर उसे प्राणान्त दण्ड भी देना होगा। मैं अपने पतिको ढूँढ़नेके लिये ब्राह्मणोंसे बातचीत करती रहूँगी। आप यदि मेरी यह शर्त स्वीकार करें तब तो मैं रह सकती हूँ, अन्यथा नहीं।’* राजमाता दमयन्तीके नियमोंको सुनकर बहुत प्रसन्न हुईं और उन्होंने कहा कि ऐसा ही होगा। तदनन्तर उन्होंने अपनी पुत्री सुनन्दाको बुलाया और कहा कि ‘बेटी! देखो, इस दासीको देवी समझना। यह अवस्थामें तुम्हारे बराबरकी है, इसलिये इसे सखीके समान राजमहलमें रखो और प्रसन्नताके साथ इससे मनोरंजन करती रहो।’ सुनन्दा प्रसन्नताके साथ दमयन्तीको अपने महलमें ले गयी। दमयन्ती अपने इच्छानुसार नियमोंका पालन करती हुई महलमें रहने लगी।

* उच्छिष्टं नैव भुञ्जीयां न कुर्यां पादधावनम्।
न चाहं पुरुषानन्यान् प्रभाषेयं कथंचन॥
प्रार्थयेद् यदि मां कश्चिद् दण्डॺस्ते स पुमान् भवेत्।
वध्यश्च तेऽसकृन्मन्द इति मे व्रतमाहितम्॥
भर्तुरन्वेषणार्थं तु पश्येयं ब्राह्मणानहम्।
यद्येवमिह वत्स्यामि त्वत्सकाशे न संशय:॥
(महा० वन० ६५। ६८—७०)

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