नलका रूप बदलना, ऋतुपर्णके यहाँ सारथि होना, भीमके द्वारा नल-दमयन्तीकी खोज और दमयन्तीका मिलना
बृहदश्वजीने कहा—युधिष्ठिर! जिस समय राजा नल दमयन्तीको सोती छोड़कर आगे बढ़े, उस समय वनमें दावाग्नि लग रही थी। नल कुछ ठिठक गये, उनके कानोंमें आवाज आयी—‘राजा नल! शीघ्र दौड़ो। मुझे बचाओ।’ नलने कहा—‘डरो मत’ वे दौड़कर दावानलमें घुस गये और देखा कि नागराज कर्कोटक कुण्डली बाँधकर पड़ा हुआ है। उसने हाथ जोड़कर नलसे कहा—‘राजन्! मैं कर्कोटक नामका सर्प हूँ। मैंने तेजस्वी ऋषि नारदको धोखा दिया था। उन्होंने शाप दे दिया कि जबतक राजा नल तुम्हें न उठावें, तबतक यहीं पड़ा रह। उनके उठानेपर तू शापसे छूट जायगा। उनके शापके कारण मैं यहाँसे एक पग भी हट-बढ़ नहीं सकता। तुम शापसे मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हें हितकी बात बताऊँगा और तुम्हारा मित्र बन जाऊँगा। मेरे भारसे डरो मत। मैं अभी हलका हो जाता हूँ।’ वह अँगूठेके बराबर हो गया। नल उसे उठाकर दावानलसे बाहर ले आये। कर्कोटकने कहा—‘राजन्! तुम अभी मुझे पृथ्वीपर न डालो। कुछ पगोंतक गिनती करते हुए चलो।’ राजा नलने ज्यों ही पृथ्वीपर दसवाँ पग डाला और कहा—‘दस’, त्यों ही कर्कोटक नागने उन्हें डस लिया। उसका नियम था कि जब कोई ‘दस’ अर्थात् ‘डसो’ कहता, तभी वह डसता, अन्यथा नहीं। कर्कोटकके डसते ही नलका पहला रूप बदल गया और कर्कोटक अपने रूपमें हो गया। आश्चर्यचकित नलसे उसने कहा—‘राजन्! तुम्हें कोई पहचान न सके, इसलिये मैंने तुम्हारा रूप बदल दिया है। कलियुगने तुम्हें बहुत दु:ख दिया है, अब मेरे विषसे वह तुम्हारे शरीरमें बहुत दु:खी रहेगा।१ तुमने मेरी रक्षा की है। अब तुम्हें हिंसक पशु-पक्षी, शत्रु और ब्रह्मवेत्ताओंके शाप आदिसे भी कोई भय नहीं रहेगा। अब तुमपर किसी भी विषका प्रभाव नहीं होगा और युद्धमें सर्वदा तुम्हारी जीत होगी।२ अब तुम अपना नाम बाहुक रख लो और द्यूतकुशल राजा ऋतुपर्णकी नगरी अयोध्यामें जाओ। तुम उन्हें घोड़ोंकी विद्या बतलाना और वे तुम्हें जुएका रहस्य बतला देंगे तथा तुम्हारे मित्र भी बन जायँगे। जुएका रहस्य जान लेनेपर तुम्हारी पत्नी, पुत्री, पुत्र, राज्य सब कुछ मिल जायगा। जब तुम अपने पहले रूपको धारण करना चाहो, तब मेरा स्मरण करना और मेरे दिये हुए वस्त्र धारण कर लेना। यह कहकर कर्कोटकने दो दिव्य वस्त्र दिये और वहीं अन्तर्धान हो गया।
१. यत्कृते चासि निकृतो दु:खेन महता नल।
विषेण स मदीयेन त्वयि दु:खं निवत्स्यति॥
(महा० वन० ६६। १५)
२. न ते भयं नरव्याघ्र दंष्ट्रिभ्य: शत्रुतोऽपि वा।
ब्रह्मविद्भ्यश्च भविता मत्प्रसादान्नराधिप॥
राजन् विषनिमित्ता च न ते पीडा भविष्यति।
संग्रामेषु च राजेन्द्र शश्वज्जयमवाप्स्यसि॥
(महा० वन० ६६। १८-१९)
राजा नल वहाँसे चलकर दसवें दिन राजा ऋतुपर्णकी राजधानी अयोध्यामें पहुँच गये। उन्होंने वहाँ राजदरबारमें निवेदन कया कि ‘मेरा नाम बाहुक है। मैं घोड़ोंको हाँकने तथा उन्हें तरह-तरहकी चालें सिखानेका काम करता हूँ। घोड़ोंकी विद्यामें मेरे-जैसा निपुण इस समय पृथ्वीपर और कोई नहीं है। अर्थ-सम्बन्धी तथा अन्यान्य गम्भीर समस्याओंपर मैं अच्छी सम्मति देता हूँ और रसोई बनानेमें भी बहुत ही चतुर हूँ, एवं हस्तकौशलके सभी काम तथा दूसरे भी कठिन कामोंको मैं करनेकी चेष्टा करूँगा। आप मेरी आजीविका निश्चित करके मुझे रख लीजिये।’ ऋतुपर्णने कहा—‘बाहुक! तुम भले आये। तुम्हारे जिम्मे ये सभी काम रहेंगे। परंतु मैं शीघ्रगामी सवारीको विशेष पसंद करता हूँ, इसलिये तुम ऐसा उद्योग करो कि मेरे घोड़ोंकी चाल तेज हो जाय। मैं तुम्हें अश्वशालाका अध्यक्ष बनाता हूँ। तुम्हें हर महीने सोनेकी दस हजार मोहरें मिला करेंगी। इसके अतिरिक्त वार्ष्णेय (नलका पुराना सारथि) और जीवल हमेशा तुम्हारे पास उपस्थित रहेंगे। तुम आनन्दसे मेरे दरबारमें रहो।’ राजा ऋतुपर्णसे सत्कार पाकर राजा नल बाहुकके रूपमें वार्ष्णेय और जीवलके साथ अयोध्यामें रहने लगे। राजा नल प्रतिदिन रातको दमयन्तीका स्मरण करके कहा करते कि ‘हाय-हाय, तपस्विनी दमयन्ती भूख-प्याससे घबराकर थकी-माँदी उस मूर्खका स्मरण करती होगी और न जाने कहाँ सोती होगी? भला, वह अपने जीवन-निर्वाहके लिये किसके पास जाती होगी?’ इसी प्रकार वे अनेकों बातें सोचते और इस प्रकार ऋतुपर्णके पास रहते कि उन्हें कोई पहचान न सके।
जब विदर्भनरेश भीमको यह समाचार मिला कि मेरे दामाद नल राज्यच्युत होकर मेरी पुत्रीके साथ वनमें चले गये हैं, तब उन्होंने ब्राह्मणोंको बुलवाया और उन्हें बहुत-सा धन देकर कहा कि आपलोग पृथ्वीपर सर्वत्र जा-जाकर नल-दमयन्तीका पता लगाइये और उन्हें ढूँढ़ लाइये। जो ब्राह्मण यह काम पूरा कर लेगा, उसे एक सहस्र गौएँ और जागीर दी जायगी। यदि आप लोग उन्हें ला न सकें, केवल पता ही लगा लावें तो भी दस हजार गौएँ दी जायँगी। ब्राह्मणलोग बड़ी प्रसन्नतासे नल-दमयन्तीका पता लगानेके लिये निकल पड़े।
सुदेव नामक ब्राह्मण नल-दमयन्तीका पता लगानेके लिये चेदिनरेशकी राजधानीमें गया। उसने एक दिन राजमहलमें दमयन्तीको देख लिया। उस समय राजाके महलमें पुण्याहवाचन हो रहा था और दमयन्ती-सुनन्दा एक साथ बैठकर वह मंगलकृत्य देख रही थीं। सुदेव ब्राह्मणने दमयन्तीको देखकर सोचा कि वास्तवमें यही भीमनन्दिनी है। मैंने इसका जैसा रूप पहले देखा था, वैसा ही अब भी देख रहा हूँ। बड़ा अच्छा हुआ, इसे देख लेनेसे मेरी यात्रा सफल हो गयी। सुदेव दमयन्तीके पास गया और बोला—‘विदर्भनन्दिनि! मैं तुम्हारे भाईका मित्र सुदेव ब्राह्मण हूँ। राजा भीमकी आज्ञासे तुम्हें ढूँढ़नेके लिये यहाँ आया हूँ। तुम्हारे माता-पिता और भाई सानन्द हैं। तुम्हारे दोनों बच्चे भी विदर्भ देशमें सकुशल हैं। तुम्हारे बिछोहसे सभी कुटुम्बी प्राणहीन-से हो रहे हैं और तुम्हें ढूँढ़नेके लिये सैकड़ों ब्राह्मण पृथ्वीपर घूम रहे हैं। दमयन्तीने ब्राह्मणको पहचान लिया। वह क्रम-क्रमसे सबका कुशल-मंगल पूछने लगी और पूछते-पूछते ही रो पड़ी। सुनन्दा दमयन्तीको बात करते-रोते देखकर घबरा गयी और उसने अपनी माताके पास जाकर सब हाल कहा। राजमाता तुरंत अन्त:पुरसे बाहर निकल आयीं और ब्राह्मणके पास जाकर पूछने लगीं कि ‘महाराज! यह किसकी पत्नी है, किसकी पुत्री है, अपने घरवालोंसे कैसे बिछुड़ गयी है? तुमने इसे पहचाना कैसे?’ सुदेवने नल-दमयन्तीका पूरा चरित्र सुनाया और कहा कि जैसे राखमें दबी हुई आग गर्मीसे जान ली जाती है, वैसे ही इस देवीके सुन्दर रूप और ललाटसे मैंने इसे पहचान लिया है। सुनन्दाने अपने हाथोंसे दमयन्तीका ललाट धो दिया, जिससे उसकी भौंहोंके बीचका लाल चिह्न चन्द्रमाके समान प्रकट हो गया। ललाटका वह तिल देखकर सुनन्दा और राजमाता दोनों ही रो पड़ीं। उन्होंने दो घड़ीतक दमयन्तीको अपनी छातीसे सटाये रखा। राजमाताने कहा—‘दमयन्ती! मैंने इस तिलसे पहचान लिया कि तुम मेरी बहिनकी पुत्री हो। तुम्हारी माता मेरी सगी बहिन है। हम दोनों दशार्ण देशके राजा सुदामाकी पुत्री हैं। तुम्हारा जन्म मेरे पिताके घर ही हुआ था, उस समय मैंने तुम्हें देखा था। जैसे तुम्हारे पिताका घर तुम्हारा है, वैसे ही यह घर भी तुम्हारा ही है, यह सम्पत्ति जैसे मेरी है, वैसे ही तुम्हारी भी।’ दमयन्ती बहुत प्रसन्न हुई। उसने अपनी मौसीको प्रणाम करके कहा—‘माँ! तुमने मुझे पहचाना नहीं तो क्या हुआ? मैं रही हूँ यहाँ लड़कीकी ही तरह। तुमने मेरी अभिलाषाएँ पूर्ण की हैं तथा मेरी रक्षा की है। इसमें मुझे संदेह नहीं है कि मैं अब यहाँ और भी सुखसे रहूँगी। परंतु मैं बहुत दिनोंसे घूम रही हूँ। मेरे छोटे-छोटे दो बच्चे पिताजीके घर हैं। वे अपने पिताके वियोगसे दु:खी रहते होंगे। न जाने उनकी क्या दशा होगी! आप यदि मेरा हित करना चाहती हैं तो मुझे विदर्भ देशमें भेजकर मेरी इच्छा पूर्ण कीजिये।’ राजमाता बहुत प्रसन्न हुईं। उन्होंने अपने पुत्रसे कहकर पालकी मँगवायी। भोजन, वस्त्र और बहुत-सी वस्तुएँ देकर एक बड़ी सेनाके संरक्षणमें दमयन्तीको विदा कर दिया। विदर्भ देशमें दमयन्तीका बड़ा सत्कार हुआ। दमयन्ती अपने भाई, बच्चे, माता-पिता और सखियोंसे मिली। उसने देवता और ब्राह्मणोंकी पूजा की। राजा भीमको अपनी पुत्रीके मिल जानेसे बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने सुदेव नामक ब्राह्मणको एक हजार गौएँ, गाँव तथा धन देकर संतुष्ट किया।