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॥ श्रीहरि:॥

नल-दमयन्तीकी कथा

कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च।
ऋतुपर्णस्य राजर्षे: कीर्तनं कलिनाशनम्॥

महात्मा अर्जुन जब अस्त्र प्राप्त करनेके लिये इन्द्रलोक चले गये, तब पाण्डव काम्यक वनमें निवास कर रहे थे। वे राज्यके नाश और अर्जुनके वियोगसे बड़े ही दु:खी हो रहे थे। एक दिनकी बात है, पाण्डव और द्रौपदी इसी सम्बन्धमें कुछ चर्चा कर रहे थे। धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेनको समझा ही रहे थे कि महर्षि बृहदश्व उनके आश्रममें आते हुए दीख पड़े।

महर्षि बृहदश्वको आते देखकर धर्मराज युधिष्ठिरने आगे जाकर शास्त्रविधिके अनुसार उनकी पूजा की, आसनपर बैठाया। उनके विश्राम कर लेनेपर युधिष्ठिर उनसे अपना वृत्तान्त कहने लगे। उन्होंने कहा कि ‘महाराज! कौरवोंने कपट-बुद्धिसे मुझे बुलाकर छलके साथ जूआ खेला और मुझ अनजानको हराकर मेरा सर्वस्व छीन लिया। इतना ही नहीं, उन्होंने मेरी प्राणप्रिया द्रौपदीको घसीटकर भरी सभामें अपमानित किया। उन्होंने अन्तमें हमें काला मृगछाला ओढ़ाकर घोर वनमें भेज दिया। महर्षे! आप ही बतलाइये कि इस पृथ्वीपर मुझ-सा भाग्यहीन राजा और कौन है! क्या आपने मेरे-जैसा दु:खी और कहीं देखा या सुना है?’

महर्षि बृहदश्वने कहा—धर्मराज! आपका यह कहना ठीक नहीं है कि मुझ-सा दु:खी राजा और कोई नहीं हुआ; क्योंकि मैं तुमसे भी अधिक दु:खी और मन्दभाग्य राजाका वृत्तान्त जानता हूँ। तुम्हारी इच्छा हो तो मैं सुनाऊँ।

धर्मराज युधिष्ठिरके आग्रह करनेपर महर्षि बृहदश्वने कहना प्रारम्भ किया।

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