नलकी खोज, ऋतुपर्णकी विदर्भ-यात्रा, कलियुगका उतरना
बृहदश्वजी कहते हैं—युधिष्ठिर! अपने पिताके घर एक दिन विश्राम करके दमयन्तीने अपनी मातासे कहा कि ‘माताजी! मैं आपसे सत्य कहती हूँ। यदि आप मुझे जीवित रखना चाहती हैं तो मेरे पतिदेवको ढुँढ़वानेका उद्योग कीजिये।’ रानीने बहुत दु:खित होकर अपने पति राजा भीमसे कहा कि ‘स्वामिन्! दमयन्ती अपने पतिके लिये बहुत व्याकुल है। उसने संकोच छोड़कर मुझसे कहा है कि उन्हें ढुँढ़वानेका उद्योग करना चाहिये।’ राजाने अपने आश्रित ब्राह्मणोंको बुलवाया और नलको ढूँढ़नेके लिये उन्हें नियुक्त कर दिया। ब्राह्मणोंने दमयन्तीके पास जाकर कहा कि ‘अब हम राजा नलका पता लगानेके लिये जा रहे हैं।’ दमयन्तीने ब्राह्मणोंसे कहा कि ‘‘आपलोग जिस राज्यमें जायँ, वहाँ मनुष्योंकी भीड़में यह बात कहें—‘मेरे प्यारे छलिया! तुम मेरी साड़ीमेंसे आधी फाड़कर तथा मुझ दासीको वनमें सोती छोड़कर कहाँ चले गये? तुम्हारी वह दासी अब भी उसी अवस्थामें आधी साड़ी पहने तुम्हारे आनेकी बाट जोह रही है और तुम्हारे वियोगके दु:खसे दु:खी हो रही है।’* उनके सामने मेरी दशाका वर्णन कीजियेगा और ऐसी बात कहियेगा, जिससे वे प्रसन्न हों और मुझपर कृपा करें। मेरी बात कहनेपर यदि आपलोगोंको कोई उत्तर दे तो ‘वह कौन है, कहाँ रहता है’—इन बातोंका पता लगा लीजियेगा और उसका उत्तर याद रखकर मुझे सुनाइयेगा। इस बातका भी ध्यान रखियेगा कि आपलोग यह बात मेरी आज्ञासे कह रहे हैं, यह उसे मालूम न होने पावे।’’ ब्राह्मणगण दमयन्तीके निर्देशानुसार राजा नलको ढूँढ़नेके लिये निकल पड़े।
* क्व नु त्वं कितवच्छित्त्वा वस्त्रार्धं प्रस्थितो मम।
उत्सृज्य विपिने सुप्तामनुरक्तां प्रियां प्रिय॥
सा वै यथा त्वया दृष्टा तथाऽऽस्ते त्वत्प्रतीक्षिणी।
दह्यमाना भृशं बाला वस्त्रार्धेनाभिसंवृता॥
(महा० वन० ६९। ३७-३८)
बहुत दिनोंतक ढूँढ़ने-खोजनेके बाद पर्णाद नामक ब्राह्मणने महलमें आकर दमयन्तीसे कहा—‘‘राजकुमारी! मैं आपके निर्देशानुसार निषधनरेश नलका पता लगाता हुआ अयोध्या जा पहुँचा। वहाँ मैंने राजा ऋतुपर्णके पास जाकर भरी सभामें तुम्हारी बात दुहरायी। परंतु वहाँ किसीने कुछ उत्तर नहीं दिया। जब मैं चलने लगा, तब उसके बाहुक नामक सारथिने मुझे एकान्तमें बुलाकर कुछ कहा। देवि! वह सारथि राजा ऋतुपर्णके घोड़ोंको शिक्षा देता है, स्वादिष्ट भोजन बनाता है; परंतु उसके हाथ छोटे और शरीर कुरूप है। उसने लम्बी साँस लेकर रोते हुए कहा कि ‘कुलीन स्त्रियाँ घोर कष्ट पानेपर भी अपने शीलकी रक्षा करती हैं और अपने सतीत्वके बलपर स्वर्ग जीत लेती हैं। कभी उनका पति त्याग भी दे तो वे क्रोध नहीं करतीं, अपने सदाचारकी रक्षा करती हैं।* त्यागनेवाला पुरुष विपत्तिमें पड़नेके कारण दु:खी और अचेत हो रहा था, इसलिये उसपर क्रोध करना उचित नहीं है। माना कि पतिने अपनी पत्नीका योग्य सत्कार नहीं किया। परंतु वह उस समय राज्यलक्ष्मीसे च्युत, क्षुधातुर, दु:खी और दुर्दशाग्रस्त था। ऐसी अवस्थामें उसपर क्रोध करना उचित नहीं है। जब वह अपनी प्राण-रक्षाके लिये जीविका चाह रहा था, तब पक्षी उसके वस्त्र लेकर उड़ गये। उसके हृदयकी पीड़ा असह्य थी।’ राजकुमारी! बाहुककी यह बात सुनकर मैं तुम्हें सुनानेके लिये आया हूँ। तुम जैसा उचित समझो, करो। चाहो तो महाराजसे भी कह दो।’’
* वैषम्यमपि सम्प्राप्ता गोपायन्ति कुलस्त्रिय:।
आत्मानमात्मना सत्यो जित: स्वर्गो न संशय:॥
रहिता भर्तृभिश्चैव न कुप्यन्ति कदाचन।
प्राणांश्चारित्रकवचान् धारयन्ति वरस्त्रिय:॥
(महा० वन० ७०। ८-९)
ब्राह्मणकी बात सुनकर दमयन्तीकी आँखोंमें आँसू भर आये। उसने अपनी माँसे एकान्तमें कहा—‘माताजी! आप यह बात पिताजीसे न कहें। मैं सुदेव ब्राह्मणको इस काममें नियुक्त करती हूँ। जैसे सुदेवने मुझे शुभ मुहूर्तमें यहाँ पहुँचाया था, वैसे ही वह शुभ शकुन देखकर अयोध्या जाय और मेरे पतिदेवको लानेकी युक्ति करे।’ इसके बाद दमयन्तीने पर्णादका सत्कार करके उसे विदा किया और सुदेवको बुलाया। दमयन्तीने सुदेवसे कहा—‘ब्राह्मणदेवता! आप शीघ्र-से-शीघ्र अयोध्या नगरीमें जाकर राजा ऋतुपर्णसे यह बात कहिये कि भीम-पुत्री दमयन्ती फिरसे स्वयंवरमें स्वेच्छानुसार पति-वरण करना चाहती है। बड़े-बड़े राजा और राजकुमार जा रहे हैं। स्वयंवरकी तिथि कल ही है। इसलिये यदि आप पहुँच सकें तो वहाँ जाइये। नलके जीने अथवा मरनेका किसीको पता नहीं है, इसलिये वह कल सूर्योदयके समय दूसरा पति वरण करेगी।’ दमयन्तीकी बात सुनकर सुदेव अयोध्या गये और उन्होंने राजा ऋतुपर्णसे सब बातें कह दीं।
राजा ऋतुपर्णने सुदेव ब्राह्मणकी बात सुनकर बाहुकको बुलाया और मधुर वाणीसे समझाकर कहा कि ‘बाहुक! कल दमयन्तीका स्वयंवर है। मैं एक ही दिनमें विदर्भ देशमें पहुँचना चाहता हूँ। परंतु यदि तुम इतना जल्दी वहाँ पहुँच जाना सम्भव समझो, तभी मैं वहाँ जाऊँगा।’ ऋतुपर्णकी बात सुनकर नलका कलेजा फटने लगा। उन्होंने अपने मनमें सोचा कि ‘दमयन्तीने दु:खसे अचेत होकर ही ऐसा कहा होगा। सम्भव है, वह ऐसा करना चाहती हो। परंतु नहीं-नहीं, उसने मेरी प्राप्तिके लिये ही यह युक्ति की होगी। वह पतिव्रता, तपस्विनी और दीन है। मैंने दुर्बुद्धिवश उसे त्यागकर बड़ी क्रूरता की। अपराध मेरा ही है। वह कभी ऐसा नहीं कर सकती। अस्तु , सत्य क्या है, असत्य क्या है—यह बात तो वहाँ जानेपर ही मालूम होगी। परंतु ऋतुपर्णकी इच्छा पूरी करनेमें मेरा भी स्वार्थ है।’ बाहुकने हाथ जोड़कर कहा कि ‘मैं आपके कथनानुसार काम करनेकी प्रतिज्ञा करता हूँ।’ बाहुक अश्वशालामें जाकर श्रेष्ठ घोड़ोंकी परीक्षा करने लगे। नलने अच्छी जातिके चार शीघ्रगामी घोड़े रथमें जोत लिये। राजा ऋतुपर्ण रथपर सवार हो गये।
जैसे आकाशचारी पक्षी आकाशमें उड़ते हैं, वैसे ही बाहुकका रथ थोड़े ही समयमें नदी, पर्वत और वनोंको लाँघने लगा। एक स्थानपर राजा ऋतुपर्णका दुपट्टा नीचे गिर गया। उन्होंने बाहुकसे कहा—‘रथ रोको, मैं वार्ष्णेयसे उसे उठवा मँगाऊँ।’ नलने कहा—‘आपका वस्त्र गिरा तो अभी है, परंतु अब हम वहाँसे एक योजन आगे निकल आये हैं। अब वह नहीं उठाया जा सकता।’ जिस समय यह बात हो रही थी, उस समय वह रथ एक वनमें चल रहा था। ऋतुपर्णने कहा—‘बाहुक! तुम मेरी गणित-विद्याकी चतुराई देखो। सामनेके वृक्षमें जितने पत्ते और फल दीख रहे हैं, उनकी अपेक्षा भूमिपर गिरे हुए फल और पत्ते एक सौ एक गुने अधिक हैं। इस वृक्षकी दोनों शाखाओं और टहनियोंपर पाँच करोड़ पत्ते हैं और दो हजार पंचानबे फल हैं। तुम्हारी इच्छा हो तो गिन लो।’ बाहुकने रथ खड़ा कर दिया और कहा कि ‘मैं इस बहेड़ेके वृक्षको काटकर इनके फलों और पत्तोंको ठीक-ठीक गिनकर निश्चय करूँगा।’ बाहुकने वैसा ही किया। फल और पत्ते उतने ही हुए, जितने राजाने बतलाये थे। नल आश्चर्यचकित हो गये। बाहुकने कहा—‘आपकी विद्या अद्भुत है। आप अपनी विद्या बतला दीजिये।’ ऋतुपर्णने कहा—‘गणित-विद्याकी ही तरह मैं पासोंकी वशीकरण-विद्यामें भी ऐसा ही निपुण हूँ।’ बाहुकने कहा कि ‘आप मुझे यह विद्या सिखा दें तो मैं आपको घोड़ोंकी भी विद्या सिखा दूँ।’ ऋतुपर्णको विदर्भ देश पहुँचनेकी बहुत जल्दी थी और अश्वविद्या सीखनेका लोभ भी था, इसलिये उन्होंने राजा नलको पासोंकी विद्या सिखा दी और कह दिया कि ‘अश्वविद्या तुम मुझे पीछे सिखा देना। मैंने उसे तुम्हारे पास धरोहर छोड़ दिया।’
जिस समय राजा नलने पासोंकी विद्या सीखी, उसी समय कलियुग कर्कोटक नागके तीखे विषको उगलता हुआ नलके शरीरसे बाहर निकल गया। कलियुगके बाहर निकलनेपर नलको बड़ा क्रोध आया और उन्होंने उसे शाप देना चाहा। कलियुग दोनों हाथ जोड़कर भयसे काँपता हुआ कहने लगा—‘आप क्रोध शान्त कीजिये, मैं आपको यशस्वी बनाऊँगा। आपने जिस समय दमयन्तीका त्याग किया था, उसी समय उसने मुझे शाप दे दिया था। मैं बड़े दु:खके साथ कर्कोटक नागके विषसे जलता हुआ आपके शरीरमें रहता था। मैं आपकी शरणमें हूँ, मेरी प्रार्थना सुनें और मुझे शाप न दें। जो आपके पवित्र चरित्रका गान करेंगे, उन्हें मेरा भय नहीं होगा।’ राजा नलने क्रोध शान्त किया। कलियुग भयभीत होकर बहेड़ेके पेड़में घुस गया। यह संवाद कलियुग और नलके अतिरिक्त और किसीको मालूम नहीं हुआ। वह वृक्ष ठूँठ-सा हो गया।*
* ये च त्वां मनुजा लोके कीर्तयिष्यन्त्यतन्द्रिता:।
मत्प्रसूतं भयं तेषां न कदाचिद् भविष्यति॥
भयार्तं शरणं यातं यदि मां त्वं न शप्स्यसे।
एवमुक्तो नलो राजा न्ययच्छत् कोपमात्मन:॥
ततो भीत: कलि: क्षिप्रं प्रविवेश बिभीतकम्।
कलिस्त्वन्यैस्तदादृश्य: कथयन् नैषधेन वै॥
(महा० वन० ७२। ३६—३८)
इस प्रकार कलियुगने राजा नलका पीछा छोड़ दिया, परंतु अभी उनका रूप नहीं बदला था। उन्होंने अपने रथको जोरसे हाँका और सायंकाल होते-न-होते वे विदर्भ देशमें जा पहुँचे। राजा भीमके पास समाचार भेजा गया। उन्होंने ऋतुपर्णको अपने यहाँ बुला लिया। ऋतुपर्णके रथकी झंकारसे दिशाएँ गूँज उठीं। कुण्डिननगरमें राजा नलके वे घोड़े भी रहते थे, जो उनके बच्चोंको लेकर आये थे। रथकी घरघराहटसे उन्होंने राजा नलको पहचान लिया और वे पूर्ववत् प्रसन्न हो गये। दमयन्तीको भी वह आवाज वैसी ही जान पड़ी। दमयन्ती कहने लगी कि ‘इस रथकी घरघराहट मेरे चित्तमें उल्लास पैदा करती है, अवश्य ही इसको हाँकनेवाले मेरे पतिदेव हैं। यदि आज वे मेरे पास नहीं आयेंगे तो मैं धधकती आगमें कूद पड़ूँगी। मैंने कभी हँसी-खेलमें भी उनसे झूठ बात कही हो, उनका कोई अपकार किया हो, प्रतिज्ञा करके तोड़ दी हो, ऐसी याद नहीं आती। वे शक्तिशाली, क्षमावान् , वीर, दाता और एकपत्नीव्रती हैं। उनके वियोगसे मेरी छाती फट रही है।’ दमयन्ती महलकी छतपर चढ़कर रथका आना और उसपरसे रथी-सारथिका उतरना देखने लगी।
दमयन्तीके द्वारा राजा नलकी परीक्षा, पहचान, मिलन, राज्यप्राप्ति और कथाका उपसंहार
बृहदश्वजी कहते हैं—युधिष्ठिर! विदर्भ-नरेश भीमने अयोध्याधिपति ऋतुपर्णका खूब स्वागत-सत्कार किया। ऋतुपर्णको अच्छे स्थानमें ठहरा दिया गया। उन्हें कुण्डिनपुरमें स्वयंवरका कोई चिह्न नहीं दिखायी पड़ा। भीमको इस बातका बिलकुल पता नहीं था कि राजा ऋतुपर्ण मेरी पुत्रीके स्वयंवरका निमन्त्रण पाकर यहाँ आये हैं। उन्होंने कुशल-मंगलके बाद पूछा कि ‘आप यहाँ किस उद्देश्यसे पधारे हैं?’ ऋतुपर्णने स्वयंवरकी कोई तैयारी न देखकर निमन्त्रणकी बात दबा दी और कहा—‘मैं तो केवल आपको प्रणाम करनेके लिये ही चला आया हूँ।’ भीम सोचने लगे कि ‘सौ योजनसे भी अधिक दूर कोई प्रणाम करनेके लिये नहीं आ सकता। अस्तु , आगे चलकर यह बात खुल ही जायगी।’ भीमने बड़े सत्कारके साथ आग्रह करके ऋतुपर्णको अपने यहाँ रख लिया। बाहुक भी वार्ष्णेयके साथ अश्वशालामें ठहरकर घोड़ोंकी सेवामें संलग्न हो गया।
दमयन्ती आकुल होकर सोचने लगी कि ‘रथकी ध्वनि तो मेरे पतिदेवके रथके ही समान जान पड़ती थी, परंतु उनके कहीं दर्शन नहीं हो रहे हैं। हो-न-हो वार्ष्णेयने उनसे रथ-विद्या सीख ली होगी, इसी कारण रथ उनका मालूम पड़ता था। सम्भव है, ऋतुपर्णको भी यह विद्या मालूम हो। उसने अपनी दासीको बुलाकर कहा कि ‘केशिनी! तू जा। इस बातका पता लगा कि वह कुरूप पुरुष कौन है। सम्भव है, ये ही हमारे पतिदेव हों। मैंने ब्राह्मणोंके द्वारा जो संदेश भेजा था, वही उसे बतलाना और उसका उत्तर सुनकर मुझसे कहना।’ केशिनीने जाकर बाहुकसे बातें कीं। बाहुकने राजाके आनेका कारण बताया और संक्षेपमें वार्ष्णेय तथा अपनी अश्वविद्या एवं भोजन बनानेकी चतुरताका परिचय दिया। केशिनीने पूछा—‘बाहुक! राजा नल कहाँ हैं? क्या तुम जानते हो? अथवा तुम्हारा साथी वार्ष्णेय जानता है?’ बाहुकने कहा—‘केशिनी! वार्ष्णेय राजा नलके बच्चोंको यहाँ छोड़कर चला गया था। उसे उनके सम्बन्धमें कुछ भी मालूम नहीं है। इस समय नलका रूप बदल गया है। वे छिपकर रहते हैं। उन्हें या तो स्वयं वे ही पहचान सकते हैं या उनकी पत्नी दमयन्ती। क्योंकि वे अपने गुप्त चिह्नोंको दूसरोंके सामने प्रकट करना नहीं चाहते। केशिनी! राजा नल विपत्तिमें पड़ गये थे। इसीसे उन्होंने अपनी पत्नीका त्याग किया। दमयन्तीको अपने पतिपर क्रोध नहीं करना चाहिये। जिस समय वे भोजनकी चिन्तामें थे, पक्षी उनके वस्त्र लेकर उड़ गये। उनका हृदय पीड़ासे जर्जरित था। यह ठीक है कि उन्होंने अपनी पत्नीके साथ उचित व्यवहार नहीं किया। फिर भी दमयन्तीको उनकी दुरवस्थापर विचार करके क्रोध नहीं करना चाहिये।’ यह कहते नलका हृदय खिन्न हो गया। आँखोंमें आँसू आ गये, वे रोने लगे। केशिनीने दमयन्तीके पास आकर वहाँकी सब बातचीत और उनका रोना भी बतलाया।
अब दमयन्तीकी आशंका और भी दृढ़ होने लगी कि यही राजा नल हैं। उसने दासीसे कहा कि ‘केशिनी! तुम फिर बाहुकके पास जाओ और उसके पास बिना कुछ बोले खड़ी रहो। उसकी चेष्टाओंपर ध्यान दो। वह आग माँगे तो मत देना। जल माँगे तो देर कर देना। उसका एक-एक चरित्र मुझे आकर बताओ।’ केशिनी फिर बाहुकके पास गयी और वहाँ उसके देवताओं एवं मनुष्योंके समान बहुत-से चरित्र देखकर लौट आयी और दमयन्तीसे कहने लगी—‘राजकुमारी!’ बाहुकने तो जल, थल और अग्निपर सब तरहसे विजय प्राप्त कर ली है। मैंने आजतक ऐसा पुरुष न कहीं देखा है और न सुना ही है। यदि कहीं नीचा द्वार आ जाता है तो वह झुकता नहीं, उसे देखकर द्वार ही ऊँचा हो जाता है। वह बिना झुके ही चला जाता है। छोटे-से-छोटा छेद भी उसके लिये गुफा बन जाता है। वहाँ जलके लिये जो घड़े रखे थे, वे उसकी दृष्टि पड़ते ही जलसे भर गये। उसने फूसका पूला लेकर सूर्यकी ओर किया और वह जलने लगा। इसके अतिरिक्त वह अग्निका स्पर्श करके भी जलता नहीं है। पानी उसके इच्छानुसार बहता है। वह जब अपने हाथसे फूलोंको मसलने लगता है, तब वे कुम्हलाते नहीं और प्रफुल्लित तथा सुगन्धित दीखते हैं। इन अद्भुत लक्षणोंको देखकर मैं तो भौंचक्की-सी रह गयी और बड़ी शीघ्रतासे तुम्हारे पास चली आयी।’ दमयन्ती बाहुकके कर्म और चेष्टाओंको सुनकर निश्चित रूपसे जान गयी कि ये अवश्य ही मेरे पतिदेव हैं। उसने केशिनीके साथ अपने दोनों बच्चोंको नलके पास भेज दिया। बाहुक इन्द्रसेना और इन्द्रसेनको पहचानकर उनके पास आ गया और दोनों बालकोंको छातीसे लगाकर गोदमें बैठा लिया। बाहुक अपनी संतानोंसे मिलकर घबरा गया और रोने लगा। उसके मुखपर पिताके समान स्नेहके भाव प्रकट होने लगे। तदनन्तर बाहुकने दोनों बच्चे केशिनीको दे दिये और कहा—‘ये बच्चे मेरे दोनों बच्चोंके समान ही हैं, इसलिये मैं इन्हें देखकर रो पड़ा। केशिनी! तुम बार-बार मेरे पास आती हो, लोग न जाने क्या सोचने लगेंगे। इसलिये यहाँ मेरे पास बार-बार आना उत्तम नहीं है। तुम जाओ।’ केशिनीने दमयन्तीके पास आकर वहाँकी सारी बातें कह दीं।
अब दमयन्तीने केशिनीको अपनी माताके पास भेजा और कहलाया कि ‘माताजी! मैंने राजा नल समझकर बार-बार बाहुककी परीक्षा करवायी है। अब मुझे केवल उसके रूपके सम्बन्धमें ही संदेह रह गया है। अब मैं स्वयं उसकी परीक्षा करना चाहती हूँ। इसलिये आप बाहुकको मेरे महलमें आनेकी आज्ञा दे दीजिये अथवा उसके पास ही जानेकी आज्ञा दे दीजिये। आपकी इच्छा हो तो यह बात पिताजीको बतला दीजिये अथवा मत बतलाइये।’ रानीने अपने पति भीमसे अनुमति ली और बाहुकको रनिवासमें बुलवानेकी आज्ञा दे दी। बाहुक बुला लिया गया। दमयन्तीके देखते ही नलका हृदय एक साथ ही शोक और दु:खसे भर आया। वे आँसुओंसे नहा गये। बाहुककी आकुलता देखकर दमयन्ती भी शोकग्रस्त हो गयी। उस समय दमयन्ती गेरुआ वस्त्र पहने हुए थी। केशोंकी जटा बँध गयी थी, शरीर मलिन था। दमयन्तीने कहा—‘बाहुक! पहले एक धर्मज्ञ पुरुष अपनी पत्नीको वनमें सोती छोड़कर चला गया था। क्या कहीं तुमने उसे देखा है? उस समय वह स्त्री थकी-माँदी थी, नींदसे अचेत थी; ऐसी निरपराध स्त्रीको पुण्यश्लोक निषधनरेशके सिवा और कौन पुरुष निर्जन वनमें छोड़ सकता है? मैंने जीवन-भरमें जान-बूझकर उनका कोई भी अपराध नहीं किया है। फिर भी वे मुझे वनमें सोती छोड़कर चले गये।’ इतना कहते-कहते दमयन्तीके नेत्रोंसे आँसुओंकी झड़ी लग गयी। दमयन्तीके विशाल, साँवले एवं रतनारे नेत्रोंसे आँसू टपकते देखकर नलसे रहा न गया। वे कहने लगे—‘प्रिये! मैंने जान-बूझकर न तो राज्यका नाश किया है और न तो तुम्हें त्यागा है। यह तो कलियुगकी करतूत है।१ मैं जानता हूँ कि जबसे तुम मुझसे बिछुड़ी हो, तबसे रात-दिन मेरा ही स्मरण-चिन्तन करती रहती हो। कलियुग मेरे शरीरमें रहकर तुम्हारे शापके कारण जलता रहता था। मैंने उद्योग और तपस्याके बलसे उसपर विजय पा ली है और अब हमारे दु:खका अन्त आ गया है। कलियुग अब मुझे छोड़कर चला गया, मैं एकमात्र तुम्हारे लिये ही यहाँ आया हूँ। यह तो बतलाओ कि तुम मेरे-जैसे प्रेमी और अनुकूल पतिको छोड़कर जिस प्रकार दूसरे पतिसे विवाह करनेके लिये तैयार हुई हो, क्या कोई दूसरी स्त्री ऐसा कर सकती है?२ तुम्हारे स्वयंवरका समाचार सुनकर ही तो राजा ऋतुपर्ण बड़ी शीघ्रताके साथ यहाँ आये हैं।’
१-मम राज्यं प्रणष्टं यन्नाहं तत् कृतवान् स्वयम्।
कलिना तत् कृतं भीरु यच्च त्वामहमत्यजम्॥
(महा० वन० ७६। १७)
२-कथं नु नारी भर्तारमनुरक्तमनुव्रतम्।
उत्सृज्य वरयेदन्यं यथा त्वं भीरु कर्हिचित्॥
(महा० वन० ७६। २२)
दमयन्तीने हाथ जोड़कर कहा—‘आर्यपुत्र! मुझपर दोष लगाना उचित नहीं है। आप जानते हैं कि मैंने अपने सामने प्रकट देवताओंको छोड़कर आपको वरण किया है। मैंने आपको ढूँढ़नेके लिये बहुत-से ब्राह्मणोंको भेजा था और वे मेरी कही बात दुहराते हुए चारों ओर घूम रहे थे। पर्णाद नामक ब्राह्मण अयोध्यापुरीमें आपके पास भी पहुँचा था। उसने आपको मेरी बातें सुनायी थीं और आपने उनका यथोचित उत्तर भी दिया था। वह समाचार सुनकर मैंने आपको बुलानेके लिये ही यह युक्ति की थी। मैं जानती हूँ कि आपके अतिरिक्त दूसरा कोई मनुष्य नहीं है, जो एक दिनमें घोड़ोंके रथसे सौ योजन पहुँच जाय। मैं आपके चरणोंमें स्पर्श करके शपथपूर्वक सत्य-सत्य कहती हूँ कि मैंने कभी मनसे भी पर-पुरुषका चिन्तन नहीं किया है। यदि मैंने कभी मनसे भी पापकर्म किया हो तो निरन्तर भूमिपर विचरनेवाले वायुदेव, भगवान् सूर्य और मनके देवता चन्द्रमा मेरे प्राणोंका नाश कर दें। ये तीनों देवता सकल भूमण्डलमें विचरते हैं। वे सच्ची बात बतला दें और यदि मैं पापिनी होऊँ तो मुझे त्याग दें।’ उसी समय वायुने अन्तरिक्षमें स्थित होकर कहा—‘राजन्! मैं सत्य कहता हूँ कि दमयन्तीने कोई पाप नहीं किया है। इसने तीन वर्षतक अपने उज्ज्वल शीलव्रतकी रक्षा की है। हमलोग इसके रक्षकरूपमें रहे हैं और इसकी पवित्रताके साक्षी हैं।* इसने स्वयंवरकी सूचना तो तुम्हें ढूँढ़नेके लिये ही दी थी। वास्तवमें दमयन्ती तुम्हारे योग्य है और तुम दमयन्तीके योग्य हो। कोई शंका न करो और इसे स्वीकार करो।’ जिस समय पवनदेवता यह बात कह रहे थे, उस समय आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा होने लगी, देवताओंकी दुन्दुभियाँ बजने लगीं। शीतल, मन्द, सुगन्ध वायु चलने लगी। ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर राजा नलने अपना संदेह छोड़ दिया और नागराज कर्कोटकका दिया हुआ वस्त्र ओढ़कर उसका स्मरण किया। उनका शरीर तुरंत पूर्ववत् हो गया। दमयन्ती राजा नलको पहले रूपमें देखकर उनसे लिपट गयी और रोने लगी। राजा नलने भी प्रेमके साथ दमयन्तीको गलेसे लगाया और दोनों बालकोंको छातीसे लिपटाकर उनके साथ प्यारकी बात करने लगे। सारी रात दमयन्तीके साथ बातचीत करनेमें ही बीत गयी।
* एवमुक्तस्तथा वायुरन्तरिक्षादभाषत।
नैषा कृतवती पापं नल सत्यं ब्रवीमि ते॥
राजञ्छीलनिधि: स्फीतो दमयन्त्या सुरक्षित:।
साक्षिणो रक्षिणश्चास्या वयं त्रीन् परिवत्सरान्॥
(महा० वन० ७६। ३६-३७)
प्रात:काल होनेपर नहा-धो, सुन्दर वस्त्र पहनकर दमयन्ती और राजा नल भीमके पास गये और उनके चरणोंमें प्रणाम किया। भीमने बड़े आनन्दसे उनका सत्कार किया और आश्वासन दिया। बात-की-बातमें यह समाचार सर्वत्र पहुँच गया। नगरके नर-नारी आनन्दमें भरकर उत्सव मनाने लगे। देवताओंकी पूजा हुई। जब राजा ऋतुपर्णको यह बात मालूम हुई कि बाहुकके रूपमें तो राजा नल ही थे, यहाँ आकर वे अपनी पत्नीसे मिल गये, तब उन्हें बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने नलको अपने पास बुलवाकर क्षमा माँगी। राजा नलने उनके व्यवहारोंकी उत्तमता बताकर प्रशंसा की और उनका सत्कार किया। साथ ही उन्हें अश्वविद्या भी सिखा दी। राजा ऋतुपर्ण किसी दूसरे सारथिको लेकर अपने नगर चले गये।
राजा नल एक महीनेतक कुण्डिननगरमें ही रहे। तदनन्तर अपने ससुर भीमकी आज्ञा लेकर थोड़े-से लोगोंको साथ ले निषधदेशके लिये रवाना हुए। राजा भीमने एक श्वेतवर्णका रथ, सोलह हाथी, पचास घोड़े और छ: सौ पैदल राजा नलके साथ भेज दिये। अपने नगरमें प्रवेश करके राजा नल पुष्करसे मिले और बोले कि ‘या तो तुम कपटभरे जुएका खेल फिर मुझसे खेलो या धनुषपर डोरी चढ़ाओ।’ पुष्करने हँसकर कहा—‘अच्छी बात है, तुम्हें दाँवोंपर लगानेके लिये फिर धन मिल गया। आओ, अबकी बार तुम्हारे धन तथा दमयन्तीको भी जीत लूँगा।’ राजा नलने कहा—‘अरे भाई! जूआ खेल लो, बकते क्या हो! हार जाओगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी, जानते हो?’ जूआ होने लगा, राजा नलने पहले ही दावँमें पुष्करके राज्य, रत्नोंके भण्डार और उसके प्राणोंको भी जीत लिया। उन्होंने पुष्करसे कहा कि ‘यह सब राज्य मेरा हो गया। अब तुम दमयन्तीकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देख सकते। तुम दमयन्तीके सेवक हो। अरे मूढ़! पहली बार भी तुमने मुझे नहीं जीता था। वह काम कलियुगका था, तुम्हें इस बातका पता नहीं है। मैं कलियुगके दोषको तुम्हारे सिर नहीं मढ़ना चाहता। तुम अपना जीवन सुखसे बिताओ, मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ। तुमपर मेरा प्रेम पहलेके ही समान है। तुम मेरे भाई हो। मैं कभी तुमपर अपनी आँख टेढ़ी नहीं करूँगा। तुम सौ वर्षतक जीओ।’ राजा नलने इस प्रकार कहकर पुष्करको धैर्य दिया और उसे अपने हृदयसे लगाकर जानेकी आज्ञा दी। पुष्करने हाथ जोड़कर राजा नलको प्रणाम किया और कहा—‘जगत् में आपकी अक्षय कीर्ति हो और आप दस हजार वर्षतक सुखसे जीवित रहें। आप मेरे अन्नदाता और प्राणदाता हैं।’ पुष्कर बड़े सत्कार और सम्मानके साथ एक महीनेतक राजा नलके नगरमें ही रहा। तदनन्तर सेना, सेवक और कुटुम्बियोंके साथ अपने नगरमें चला गया। राजा नल भी पुष्करको पहुँचाकर अपनी राजधानीमें लौट आये। सभी नागरिक, साधारण प्रजा तथा मन्त्रिमण्डलके लोग राजा नलको पाकर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने रोमांचित शरीरसे हाथ जोड़कर राजा नलसे निवेदन किया—‘राजेन्द्र! आज हमलोग दु:खसे छुटकारा पाकर सुखी हुए हैं। जैसे देवता इन्द्रकी सेवा करते हैं, वैसे ही आपकी सेवा करनेके लिये हम सब आये हैं।’
घर-घर आनन्द मनाया जाने लगा। चारों ओर शान्ति फैल गयी। बड़े-बड़े उत्सव होने लगे। राजा नलने सेना भेजकर दमयन्तीको बुलवाया। राजा भीमने अपनी पुत्रीको बहुत-सी वस्तुएँ देकर ससुराल भेज दिया। दमयन्ती अपनी दोनों संतानोंको लेकर महलमें आ गयी। राजा नल बड़े आनन्दके साथ समय बिताने लगे। राजा नलकी ख्याति दूर-दूरतक फैल गयी। वे धर्मबुद्धिसे प्रजाका पालन करने लगे। उन्होंने बड़े-बड़े यज्ञ करके भगवान् की आराधना की।
बृहदश्वजी कहते हैं—युधिष्ठिर! तुम्हें भी थोड़े ही दिनोंमें तुम्हारा राज्य और सगे-सम्बन्धी मिल जायँगे। राजा नलने जूआ खेलकर बड़ा भारी दु:ख मोल ले लिया था। उसे अकेले ही सब दु:ख भोगना पड़ा; परंतु तुम्हारे साथ तो भाई हैं, द्रौपदी है और बड़े-बड़े विद्वान् तथा सदाचारी ब्राह्मण हैं। ऐसी दशामें शोक करनेका तो कोई कारण ही नहीं है। संसारकी स्थितियाँ सर्वदा एक-सी नहीं रहतीं। यह विचार करके भी उनकी अभिवृद्धि और ह्राससे चिन्ता नहीं करनी चाहिये। नागराज कर्कोटक, दमयन्ती, नल और ऋतुपर्णकी यह कथा कहने-सुननेसे कलियुगके पापोंका नाश होता है और दु:खी मनुष्योंको धैर्य मिलता है।