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श्रीमद्भागवतमहापुराणमें भगवन्नाम-महिमा

(अजामिलोपाख्यान)

राजा परीक्षित् ने कहा—भगवन्! आप पहले (द्वितीय स्कन्धमें) निवृत्तिमार्गका वर्णन कर चुके हैं तथा यह बतला चुके हैं कि उसके द्वारा अर्चिरादि मार्गसे जीव क्रमश: ब्रह्मलोकमें पहुँचता है और फिर ब्रह्माके साथ मुक्त हो जाता है॥ १॥ मुनिवर! इसके सिवा आपने उस प्रवृत्तिमार्गका भी (तृतीय स्कन्धमें) भलीभाँति वर्णन किया है, जिससे त्रिगुणमय स्वर्ग आदि लोकोंकी प्राप्ति होती है और प्रकृतिका सम्बन्ध न छूटनेके कारण जीवोंको बार-बार जन्म-मृत्युके चक्करमें आना पड़ता है॥ २॥ आपने यह भी बतलाया कि अधर्म करनेसे अनेक नरकोंकी प्राप्ति होती है और (पाँचवें स्कन्धमें) उनका विस्तारसे वर्णन भी किया। (चौथे स्कन्धमें) आपने उस प्रथम मन्वन्तरका वर्णन किया, जिसके अधिपति स्वायम्भुव मनु थे॥ ३॥ साथ ही (चौथे और पाँचवें स्कन्धमें) प्रियव्रत और उत्तानपादके वंशों तथा चरित्रोंका एवं द्वीप, वर्ष, समुद्र, पर्वत, नदी, उद्यान और विभिन्न द्वीपोंके वृक्षोंका भी निरूपण किया॥ ४॥ भूमण्डलकी स्थिति, उसके द्वीप-वर्षादि विभाग, उनके लक्षण तथा परिमाण, नक्षत्रोंकी स्थिति, अतल-वितल आदि भू-विवर (सात पाताल) और भगवान् ने इन सबकी जिस प्रकार सृष्टि की—उसका वर्णन भी सुनाया॥ ५॥ महाभाग! अब मैं वह उपाय जानना चाहता हूँ, जिसके अनुष्ठानसे मनुष्योंको अनेकानेक भयंकर यातनाओंसे पूर्ण नरकमें न जाना पड़े। आप कृपा करके उसका उपदेश कीजिये॥ ६॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—मनुष्य मन, वाणी और शरीरसे पाप करता है। यदि वह उन पापोंका इसी जन्ममें प्रायश्चित्त न कर ले, तो मरनेके बाद उसे अवश्य ही उन भयंकर यातनापूर्ण नरकोंमें जाना पड़ता है, जिनका वर्णन मैंने तुम्हें सुनाया है॥ ७॥ इसलिये बड़ी सावधानी और सजगताके साथ रोग एवं मृत्युके पहले ही शीघ्र-से-शीघ्र पापोंकी गुरुता और लघुतापर विचार करके उनका प्रायश्चित्त कर डालना चाहिये, जैसे मर्मज्ञ चिकित्सक रोगोंका कारण और उनकी गुरुता-लघुता जानकर झटपट उनकी चिकित्सा कर डालता है॥ ८॥

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! मनुष्य राजदण्ड, समाजदण्ड आदि लौकिक और शास्त्रोक्त नरकगमन आदि पारलौकिक कष्टोंसे यह जानकर भी कि पाप उसका शत्रु है, पापवासनाओंसे विवश होकर बार-बार वैसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें उसके पापोंका प्रायश्चित्त कैसे सम्भव है?॥ ९॥ मनुष्य कभी तो प्रायश्चित्त आदिके द्वारा पापोंसे छुटकारा पा लेता है, कभी फिर उन्हें ही करने लगता है। ऐसी स्थितिमें मैं समझता हूँ कि जैसे स्नान करनेके बाद धूल डाल लेनेके कारण हाथीका स्नान व्यर्थ हो जाता है, वैसे ही मनुष्यका प्रायश्चित्त करना भी व्यर्थ ही है॥ १०॥

श्रीशुकदेवजीने कहा—वस्तुत: कर्मके द्वारा ही कर्मका निर्बीज नाश नहीं होता; क्योंकि कर्मका अधिकारी अज्ञानी है। अज्ञान रहते पाप वासनाएँ सर्वथा नहीं मिट सकतीं। इसलिये सच्चा प्रायश्चित्त तो तत्त्वज्ञान ही है॥ ११॥ जो पुरुष केवल सुपथ्यका ही सेवन करता है उसे रोग अपने वशमें नहीं कर सकते। वैसे ही परीक्षित्! जो पुरुष नियमोंका पालन करता है, वह धीरे-धीरे पाप-वासनाओंसे मुक्त हो कल्याणप्रद तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेमें समर्थ होता है॥ १२॥ जैसे बाँसोंके झुरमुटमें लगी आग बाँसोंको जला डालती है—वैसे ही धर्मज्ञ और श्रद्धावान् धीर पुरुष तपस्या, ब्रह्मचर्य, इन्द्रियदमन, मनकी स्थिरता, दान, सत्य, बाहर-भीतरकी पवित्रता तथा यम एवं नियम—इन नौ साधनोंसे मन, वाणी और शरीरद्वारा किये गये बड़े-से-बडे़ पापोंको भी नष्ट कर देते हैं॥ १३-१४॥ भगवान् की शरणमें रहनेवाले भक्तजन, जो बिरले ही होते हैं, केवल भक्तिके द्वारा अपने सारे पापोंको उसी प्रकार भस्म कर देते हैं, जैसे सूर्य कुहरेको॥ १५॥ परीक्षित्! पापी पुरुषकी जैसी शुद्धि भगवान् को आत्मसमर्पण करनेसे और उनके भक्तोंका सेवन करनेसे होती है, वैसी तपस्या आदिके द्वारा नहीं होती॥ १६॥ जगत् में यह भक्तिका पंथ ही सर्वश्रेष्ठ, भयरहित और कल्याणस्वरूप है, क्योंकि इस मार्गपर भगवत्परायण, सुशील साधुजन चलते हैं॥ १७॥ परीक्षित्! जैसे शराबसे भरे घड़ेको नदियाँ पवित्र नहीं कर सकतीं, वैसे ही बड़े-बड़े प्रायश्चित्त बार-बार किये जानेपर भी भगवद्विमुख मनुष्यको पवित्र करनेमें असमर्थ हैं॥ १८॥ जिन्होंने अपने भगवद‍्गुणानुरागी मन-मधुकरको भगवान् श्रीकृष्णके चरणारविन्द-मकरन्दका एक बार पान करा दिया, उन्होंने सारे प्रायश्चित्त कर लिये। वे स्वप्नमें भी यमराज और उनके पाशधारी दूतोंको नहीं देखते। फिर नरककी तो बात ही क्या है॥ १९॥

परीक्षित् ! इस विषयमें महात्मालोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। उसमें भगवान् विष्णु और यमराजके दूतोंका संवाद है। तुम मुझसे उसे सुनो॥ २०॥ कान्यकुब्ज नगर (कन्नौज)-में एक दासीपति ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था अजामिल। दासीके संसर्गसे दूषित होनेके कारण उसका सदाचार नष्ट हो चुका था॥ २१॥ वह पतित कभी बटोहियोंको बाँधकर उन्हें लूट लेता, कभी लोगोंको जुएके छलसे हरा देता, किसीका धन धोखाधड़ीसे ले लेता तो किसीका चुरा लेता। इस प्रकार अत्यन्त निन्दनीय वृत्तिका आश्रय लेकर वह अपने कुटुम्बका पेट भरता था और दूसरे प्राणियोंको बहुत ही सताता था॥ २२॥ परीक्षित्! इसी प्रकार वह वहाँ रहकर दासीके बच्चोंका लालन-पालन करता रहा। इस प्रकार उसकी आयुका बहुत बड़ा भाग-अट्ठासी वर्ष बीत गया॥ २३॥ बूढ़े अजामिलके दस पुत्र थे। उनमें सबसे छोटेका नाम था ‘नारायण’। माँ-बाप उससे बहुत प्यार करते थे॥ २४॥ वृद्ध अजामिलने अत्यन्त मोहके कारण अपना सम्पूर्ण हृदय अपने बच्चे नारायणको सौंप दिया था। वह अपने बच्चेकी तोतली बोली सुन-सुनकर तथा बालसुलभ खेल देख-देखकर फूला नहीं समाता था॥ २५॥ अजामिल बालकके स्नेह-बन्धनमें बँध गया था। जब वह खाता तब उसे भी खिलाता, जब पानी पीता तो उसे भी पिलाता। इस प्रकार वह अतिशय मूढ़ हो गया था, उसे इस बातका पता ही न चला कि मृत्यु मेरे सिरपर आ पहुँची है॥ २६॥

वह मूर्ख इसी प्रकार अपना जीवन बिता रहा था कि मृत्युका समय आ पहुँचा। अब वह अपने पुत्र बालक नारायणके सम्बन्धमें ही सोचने-विचारने लगा॥ २७॥ इतनेमें ही अजामिलने देखा कि उसे ले जाने लिये अत्यन्त भयावने तीन यमदूत आये हैं। उनके हाथमें फाँसी है, मुँह टेढ़े-मेढ़े हैं और शरीरके रोएँ खड़े हैं॥ २८॥ उस समय बालक नारायण वहाँसे कुछ दूरीपर खेल रहा था। यमदूतोंको देखकर अजामिल अत्यन्त व्याकुल हो गया और उसने ऊँचे स्वरसे पुकारा—‘नारायण’॥ २९॥ भगवान् के पार्षदोंने देखा कि यह मरते समय हमारे स्वामी भगवान् नारायणका नाम ले रहा है, उनके नामका कीर्तन कर रहा है; अत: वे बडे़ वेगसे झटपट वहाँ आ पहुँचे॥ ३०॥ उस समय यमराजके दूत दासीपति अजामिलके शरीरमेंसे उसके सूक्ष्मशरीरको खींच रहे थे। विष्णुदूतोंने उन्हें बलपूर्वक रोक दिया॥ ३१॥ उनके रोकनेपर यमराजके दूतोंने उनसे कहा—‘अरे, धर्मराजकी आज्ञाका निषेध करनेवाले तुमलोग हो कौन?॥ ३२॥ तुम किसके दूत हो, कहाँसे आये हो और इसे ले जानेसे हमें क्यों रोक रहे हो? क्या तुमलोग कोई देवता, उपदेवता अथवा सिद्ध श्रेष्ठ हो?॥ ३३॥ हम देखते हैं कि तुम सब लोगोंके नेत्र कमलदलके समान कोमलतासे भरे हैं, तुम पीले-पीले रेशमी वस्त्र पहने हो, तुम्हारे सिरपर मुकुट, कानोंमें कुण्डल और गलोंमें कमलके हार लहरा रहे हैं॥ ३४॥ सबकी नयी अवस्था है, सुन्दर-सुन्दर चार-चार भुजाएँ हैं, सभीके करकमलोंमें धनुष, तरकस, तलवार, गदा, शङ्ख, चक्र, कमल आदि सुशोभित हैं॥ ३५॥ तुमलोगोंकी अंगकान्तिसे दिशाओंका अन्धकार और प्राकृत प्रकाश भी दूर हो रहा है। हम धर्मराजके सेवक हैं। हमें तुमलोग क्यों रोक रहे हो?’॥ ३६॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! जब यमदूतोंने इस प्रकार कहा, तब भगवान् नारायणके आज्ञाकारी पार्षदोंने हँसकर मेघके समान गम्भीर वाणीसे उनके प्रति यों कहा—॥ ३७॥

भगवान् के पार्षदोंने कहा—यमदूतों! यदि तुमलोग सचमुच धर्मराजके आज्ञाकारी हो तो हमें धर्मका लक्षण और धर्मका तत्त्व सुनाओ॥ ३८॥ दण्ड किस प्रकार दिया जाता है? दण्डका पात्र कौन है? मनुष्योंमें सभी पापाचारी दण्डनीय हैं अथवा उनमेंसे कुछ ही?॥ ३९॥

यमदूतोंने कहा—वेदोंने जिन कर्मोंका विधान किया है, वे धर्म हैं और जिनका निषेध किया है, वे अधर्म हैं। वेद स्वयं भगवान् के स्वरूप हैं। वे उनके स्वाभाविक श्वास-प्रश्वास एवं स्वयंप्रकाश ज्ञान हैं—ऐसा हमने सुना है॥ ४०॥ जगत् के रजोमय, सत्त्वमय और तमोमय—सभी पदार्थ, सभी प्राणी अपने परम आश्रय भगवान् में ही स्थित रहते हैं। वेद ही उनके गुण, नाम, कर्म और रूप आदिके अनुसार उनका यथोचित विभाजन करते हैं॥ ४१॥ जीव शरीर अथवा मनोवृत्तियोंसे जितने कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं—सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रियाँ, चन्द्रमा, सन्ध्या, रात, दिन, दिशाएँ, जल, पृथ्वी, काल और धर्म॥ ४२॥ इनके द्वारा अधर्मका पता चल जाता है और तब दण्डके पात्रका निर्णय होता है। पाप कर्म करनेवाले सभी मनुष्य अपने-अपने कर्मोंके अनुसार दण्डनीय होते हैं॥ ४३॥ निष्पाप पुरुषो! जो प्राणी कर्म करते हैं, उनका गुणोंसे सम्बन्ध रहता ही है। इसीलिये सभीसे कुछ पाप और कुछ पुण्य होते ही हैं और देहवान् होकर कोई भी पुरुष कर्म किये बिना रह ही नहीं सकता॥ ४४॥ इस लोकमें जो मनुष्य जिस प्रकारका और जितना अधर्म या धर्म करता है, वह परलोकमें उसका उतना और वैसा ही फल भोगता है॥ ४५॥ देवशिरोमणियो! सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणोंके भेदके कारण इस लोकमें भी तीन प्रकारके प्राणी दीख पड़ते हैं—पुण्यात्मा, पापात्मा और पुण्य-पाप दोनोंसे युक्त, अथवा सुखी, दु:खी और सुख-दु:ख दोनोंसे युक्त; वैसे ही परलोकमें भी उनकी त्रिविधताका अनुमान किया जाता है॥ ४६॥ वर्तमानका समय ही भूत और भविष्यका अनुमान करा देता है। वैसे ही वर्तमान जन्मके पाप-पुण्य भी भूत और भविष्य जन्मोंके पाप-पुण्यका अनुमान करा देते हैं॥ ४७॥ हमारे स्वामी अजन्मा भगवान् सर्वज्ञ यमराज सबके अन्त:करणोंमें ही विराजमान हैं। इसलिये वे अपने मनसे ही सबके पूर्वरूपोंको देख लेते हैं। वे साथ ही उनके भावी स्वरूपका भी विचार कर लेते हैं॥ ४८॥ जैसे सोया हुआ अज्ञानी पुरुष स्वप्नके समय प्रतीत हो रहे कल्पित शरीरको ही अपना वास्तविक शरीर समझता है, सोते हुए अथवा जागनेवाले शरीरको भूल जाता है, वैसे ही जीव भी अपने पूर्वजन्मोंकी याद भूल जाता है। और वर्तमान शरीरके सिवाय पहले और पिछले शरीरोंके सम्बन्धमें कुछ भी नहीं जानता॥ ४९॥ सिद्धपुरुषो! जीव इस शरीरमें पाँच कर्मेन्द्रियोंसे लेना-देना, चलना-फिरना आदि काम करता है, पाँच ज्ञानेन्द्रियोंसे रूप-रस आदि पाँच विषयोंका अनुभव करता है और सोलहवें मनके साथ सत्रहवाँ वह स्वयं मिलकर अकेले ही मन, ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय—इन तीनोंके विषयोंको भोगता है॥ ५०॥ जीवका यह सोलह कला और सत्त्वादि तीन गुणोंवाला लिंगशरीर अनादि है। यही जीवको बार-बार हर्ष, शोक, भय और पीड़ा देनेवाले जन्म-मृत्युके चक्करमें डालता है॥ ५१॥ जो जीव अज्ञानवश काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर—इन छ: शत्रुओंपर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, उसे इच्छा न रहते हुए भी विभिन्न वासनाओंके अनुसार अनेकों कर्म करने पड़ते हैं। वैसी स्थितिमें वह रेशमके कीड़ेके समान अपनेको जालमें जकड़ लेता है और इस प्रकार अपने हाथों मोहका शिकार बन जाता है॥ ५२॥ कोई शरीरधारी जीव बिना कर्म किये कभी एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रत्येक प्राणीके स्वाभाविक गुण बलपूर्वक विवश करके उससे कर्म कराते हैं॥ ५३॥ जीव अपने पूर्वजन्मोंके पाप-पुण्यमय संस्कारोंके अनुसार स्थूल और सूक्ष्म शरीर प्राप्त करता है। उसकी स्वाभाविक एवं प्रबल वासनाएँ कभी उसे माताके-जैसा (स्त्रीरूप) बना देती हैं, तो कभी पिताके-जैसा (पुरुष रूप)॥ ५४॥ प्रकृतिका संसर्ग होनेसे ही पुरुष अपनेको अपने वास्तविक स्वरूपके विपरीत लिंगशरीर मान बैठा है। यह विपर्यय भगवान् के भजनसे शीघ्र ही दूर हो जाता है॥ ५५॥

देवताओ! आप जानते ही हैं कि यह अजामिल बड़ा शास्त्रज्ञ था। शील, सदाचार और सद‍्गुणोंका तो यह खजाना ही था। ब्रह्मचारी, विनयी, जितेन्द्रिय, सत्यनिष्ठ, मन्त्रवेत्ता और पवित्र भी था॥ ५६॥ इसने गुरु, अग्नि, अतिथि और वृद्ध पुरुषोंकी सेवा की थी। अहंकार तो इसमें था ही नहीं। यह समस्त प्राणियोंका हित चाहता, उपकार करता, आवश्यकताके अनुसार ही बोलता और किसीके गुणोंमें दोष नहीं ढूँढ़ता था॥ ५७॥ एक दिन यह ब्राह्मण अपने पिताके आदेशानुसार वनमें गया और वहाँसे फल-फूल, समिधा तथा कुश लेकर घरके लिये लौटा॥ ५८॥ लौटते समय इसने देखा कि एक भ्रष्ट शूद्र, जो बहुत कामी और निर्लज्ज है, शराब पीकर किसी वेश्याके साथ विहार कर रहा है। वेश्या भी शराब पीकर मतवाली हो रही है। नशेके कारण उसकी आँखें नाच रही हैं, वह अर्द्धनग्न अवस्थामें हो रही है। वह शूद्र उस वेश्याके साथ कभी गाता, कभी हँसता और कभी तरह-तरहकी चेष्टाएँ करके उसे प्रसन्न करता है॥ ५९-६०॥ निष्पाप पुरुषो! शूद्रकी भुजाओंमें अंगरागादि कामोद्दीपक वस्तुएँ लगी हुई थीं और वह उनसे उस कुलटाका आलिंगन कर रहा था। अजामिल उन्हें इस अवस्थामें देखकर सहसा मोहित और कामके वश हो गया॥ ६१॥ यद्यपि अजामिलने अपने धैर्य और ज्ञानके अनुसार अपने काम-वेगसे विचलित मनको रोकनेकी बहुत-बहुत चेष्टाएँ कीं, परन्तु पूरी शक्ति लगा देनेपर भी वह अपने मनको रोकनेमें असमर्थ रहा॥ ६२॥ उस वेश्याको निमित्त बनाकर काम-पिशाचने अजामिलके मनको ग्रस लिया। इसकी सदाचार और शास्त्र-सम्बन्धी चेतना नष्ट हो गयी। अब यह मन-ही-मन उसी वेश्याका चिन्तन करने लगा और अपने धर्मसे विमुख हो गया॥ ६३॥ अजामिल सुन्दर-सुन्दर वस्त्र आभूषण आदि वस्तुएँ, जिनसे वह प्रसन्न होती, ले आता। यहाँतक कि इसने अपने पिताकी सारी सम्पत्ति देकर भी उसी कुलटाको रिझाया। यह ब्राह्मण उसी प्रकारकी चेष्टा करता, जिससे वह वेश्या प्रसन्न हो॥ ६४॥ उस स्वच्छन्दचारिणी कुलटाकी तिरछी चितवनने इसके मनको ऐसा लुभा लिया कि इसने अपनी कुलीन नवयुवती और विवाहिता पत्नीतकका परित्याग कर दिया। इसके पापकी भी भला कोई सीमा है॥ ६५॥ यह कुबुद्धि न्यायसे, अन्यायसे जैसे भी जहाँ कहीं भी धन मिलता, वहींसे उठा लाता। उस वेश्याके बड़े कुटुम्बका पालन करनेमें ही यह व्यस्त रहता॥ ६६॥ इस पापीने शास्त्राज्ञाका उल्लङ्घन करके स्वच्छन्द आचरण किया है। यह सत्पुरुषोंके द्वारा निन्दित है। इसने बहुत दिनोंतक वेश्याके मल-समान अपवित्र अन्नसे अपना जीवन व्यतीत किया है, इसका सारा जीवन ही पापमय है॥ ६७॥ इसने अबतक अपने पापोंका कोई प्रायश्चित्त भी नहीं किया है। इसलिये अब हम इस पापीको दण्डपाणि भगवान् यमराजके पास ले जायँगे। वहाँ यह अपने पापोंका दण्ड भोगकर शुद्ध हो जायगा॥ ६८॥

विष्णुदूतोंद्वारा भागवतधर्म-निरूपण और अजामिलका परमधामगमन

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित् ! भगवान् के नीतिनिपुण एवं धर्मका मर्म जाननेवाले पार्षदोंने यमदूतोंका यह अभिभाषण सुनकर उनसे इस प्रकार कहा—॥ १॥

भगवान् के पार्षदोंने कहा—यमदूतो! यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है कि धर्मज्ञोंकी सभामें अधर्म प्रवेश कर रहा है; क्योंकि वहाँ निरपराध और अदण्डनीय व्यक्तियोंको व्यर्थ ही दण्ड दिया जाता है॥ २॥ जो प्रजाके रक्षक हैं, शासक हैं, समदर्शी और परोपकारी हैं—यदि वे ही प्रजाके प्रति विषमताका व्यवहार करने लगें तो फिर प्रजा किसकी शरण लेगी?॥ ३॥ सत्पुरुष जैसा आचरण करते हैं, साधारण लोग भी वैसा ही करते हैं। वे अपने आचरणके द्वारा जिस कर्मको धर्मानुकूल प्रमाणित कर देते हैं, लोग उसीका अनुकरण करने लगते हैं॥ ४॥ साधारण लोग पशुओंके समान धर्म और अधर्मका स्वरूप न जानकर किसी सत्पुरुषपर विश्वास कर लेते हैं, उसकी गोदमें सिर रखकर निर्भय और निश्चिन्त सो जाते हैं॥ ५॥ वही दयालु सत्पुरुष, जो प्राणियोंका अत्यन्त विश्वासपात्र है और जिसे मित्रभावसे अपना हितैषी समझकर उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया है, उन अज्ञानी जीवोंके साथ कैसे विश्वासघात कर सकता है?॥ ६॥

यमदूतो! इसने कोटि-कोटि जन्मोंकी पाप-राशिका पूरा-पूरा प्रायश्चित्त कर लिया है। क्योंकि इसने विवश होकर ही सही, भगवान् के परम कल्याणमय मोक्षप्रद नामका उच्चारण तो किया है॥ ७॥ जिस समय इसने ‘नारायण’ इन चार अक्षरोंका उच्चारण किया, उसी समय केवल उतनेसे ही इस पापीके समस्त पापोंका प्रायश्चित्त हो गया॥ ८॥ चोर, शराबी, मित्रद्रोही, ब्रह्मघाती, गुरुपत्नीगामी, ऐसे लोगोंका संसर्गी, स्त्री, राजा, पिता और गायको मारनेवाला, चाहे जैसा और चाहे जितना बड़ा पापी हो, सभीके लिये यही-इतना ही सबसे बड़ा प्रायश्चित्त है कि भगवान् के नामोंका उच्चारण किया जाय; क्योंकि भगवन्नामोंके उच्चारणसे मनुष्यकी बुद्धि भगवान् के गुण, लीला और स्वरूपमें रम जाती है और स्वयं भगवान् की उसके प्रति आत्मीयबुद्धि हो जाती है॥ ९-१०॥ बड़े-बड़े ब्रह्मवादी ऋषियोंने पापोंके बहुत-से प्रायश्चित्त-कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रत बतलाये हैं; परन्तु उन प्रायश्चित्तोंसे पापीकी वैसी जड़से शुद्धि नहीं होती, जैसी भगवान् के नामोंका, उनसे गुम्फित पदोंका उच्चारण करनेसे होती है। क्योंकि वे नाम पवित्रकीर्ति भगवान् के गुणोंका ज्ञान करानेवाले हैं॥ ११॥ यदि प्रायश्चित्त करनेके बाद भी मन फिरसे कुमार्गमें-पापकी ओर दौड़े, तो वह चरम सीमाका-पूरा-पूरा प्रायश्चित्त नहीं है। इसलिये जो लोग ऐसा प्रायश्चित्त करना चाहें जिससे पापकर्मों और वासनाओंकी जड़ ही उखड़ जाय, उन्हें भगवान् के गुणोंका ही गान करना चाहिये; क्योंकि उससे चित्त सर्वथा शुद्ध हो जाता है॥ १२॥

इसलिये यमदूतो! तुमलोग अजामिलको मत ले जाओ। इसने सारे पापोंका प्रायश्चित्त कर लिया है; क्योंकि इसने मरते समय भगवान् के नामका उच्चारण किया है॥ १३॥

बड़े-बड़े महात्मा पुरुष यह बात जानते हैं कि संकेतमें, परिहासमें, तान अलापनेमें अथवा किसीकी अवहेलना करनेमें भी यदि कोई भगवान् के नामोंका उच्चारण करता है तो उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं॥ १४॥ जो मनुष्य गिरते समय, पैर फिसलते समय, अंग-भंग होते समय और साँपके डँसते, आगमें जलते तथा चोट लगते समय भी विवशतासे ‘हरि-हरि’ कहकर भगवान् के नामका उच्चारण कर लेता है, वह यमयातनाका पात्र नहीं रह जाता॥ १५॥ महर्षियोंने जानबूझकर बड़े पापोंके लिये बड़े और छोटे पापोंके लिये छोटे प्रायश्चित्त बतलाये हैं॥ १६॥ इसमें सन्देह नहीं कि उन तपस्या, दान, जप आदि प्रायश्चित्तोंके द्वारा वे पाप नष्ट हो जाते हैं। परन्तु उन पापोंसे मलिन हुआ उसका हृदय शुद्ध नहीं होता। भगवान् के चरणोंकी सेवासे वह भी शुद्ध हो जाता है॥ १७॥ यमदूतो! जैसे जान या अनजानमें ईंधनसे अग्निका स्पर्श हो जाय तो वह भस्म हो ही जाता है, वैसे ही जान-बूझकर या अनजानमें भगवान् के नामोंका संकीर्तन करनेसे मनुष्यके सारे पाप भस्म हो जाते हैं॥ १८॥ जैसे कोई परम शक्तिशाली अमृतको उसका गुण न जानकर अनजानमें पी ले तो भी वह अवश्य ही पीनेवालेको अमर बना देता है, वैसे ही अनजानमें उच्चारण करनेपर भी भगवान् का नाम* अपना फल देकर ही रहता है॥ १९॥

* वस्तुकी स्वाभाविक शक्ति इस बातकी प्रतीक्षा नहीं करती है कि यह मुझपर श्रद्धा रखता है कि नहीं, जैसे अग्नि या अमृत।
हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृत:।
अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावक:॥
(पद्मपुराण)
‘दुष्टचित्त मनुष्यके द्वारा स्मरण किये जानेपर भी भगवान् श्रीहरि पापोंको हर लेते हैं। अनजानमें या अनिच्छासे स्पर्श करनेपर भी अग्नि जलाती ही है।’
भगवान् के नामका उच्चारण केवल पापको ही निवृत्त करता है, इसका और कोई फल नहीं है, यह धारणा भ्रमपूर्ण है; क्योंकि शास्त्रमें कहा है—
सकृदुच्चरितं येन हरिरित्यक्षरद्वयम्।
बद्ध: परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति॥
(पद्मपुराण)
‘जिसने ‘हरि’—ये दो अक्षर एक बार भी उच्चारण कर लिये, उसने मोक्ष प्राप्त करनेके लिये परिकर बाँध लिया, फेंट कस ली।’ इस वचनसे यह सिद्ध होता है किभगवन्नाम मोक्षका भी साधन है। मोक्षके साथ-साथ यह धर्म, अर्थ और कामका भी साधन है; क्योंकि ऐसे अनेक प्रमाण मिलते हैं, जिनमें त्रिवर्ग-सिद्धिका भी नाम ही कारण बतलाया गया है—
न गङ्गा न गयासेतुर्न काशी न च पुष्करम्।
जिह्वाग्रे वर्तते यस्य हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
ऋग्वेदोऽथयजुर्वेद:सामवेदाे ह्यथर्वण:।
अधीतास्तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
अश्वमेधादिभिर्यज्ञैर्नरमेधै: सदक्षिणै:।
यजितं तेन येनोक्तं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम्।
दु:खक्लेशपरित्राणं हरिरित्यक्षरद्वयम्॥
‘जिसकी जिह्वाके नोकपर ‘हरि’ ये दो अक्षर बसते हैं, उसे गङ्गा, गया, सेतुबन्ध, काशी और पुष्करकी कोई आवश्यकता नहीं, अर्थात् उनकी यात्रा, स्नान आदिका फल भगवन्नामसे ही मिल जाता है। जिसने ‘हरि’ इन दो अक्षरोंका उच्चारण कर लिया, उसने ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेदका अध्ययन कर लिया। जिसने ‘हरि’ ये दो अक्षर उच्चारण किये, उसने दक्षिणाके सहित अश्वमेध आदि यज्ञोंके द्वारा यजन कर लिया। ‘हरि’ ये दो अक्षर मृत्युके पश्चात् परलोकके मार्गमें प्रयाण करनेवाले प्राणोंके लिये पाथेय (मार्गके लिये भोजनकी सामग्री) हैं, संसाररूप रोगोंके लिये सिद्ध औषध हैं और जीवनके दु:ख और क्लेशोंके लिये परित्राण हैं।’
इन वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि भगवन्नाम अर्थ, धर्म, काम—इन तीन वर्गोंका भी साधक है। यह बात ‘हरि’, ‘नारायण’ आदि कुछ विशेष नामोंके सम्बन्धमें ही नहीं है, प्रत्युत सभी नामोंके सम्बन्धमें है; क्योंकि स्थान-स्थानपर यह बात सामान्यरूपसे कही गयी है कि अनन्तके नाम, विष्णुके नाम, हरिके नाम इत्यादि। भगवान् के सभी नामोंमें एक ही शक्ति है।
नाम-सङ्कीर्तन आदिमें वर्ण-आश्रमका भी नियम नहीं है—
ब्राह्मणा: क्षत्रिया वैश्या: स्त्रिय: शूद्रान्त्यजातय:।
यत्र तत्रानुकुर्वन्ति विष्णोर्नामानुकीर्तनम्।
सर्वपापविनिर्मुक्तास्तेऽपि यान्ति सनातनम्॥
‘ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री, शूद्र, अन्त्यज आदि जहाँ-तहाँ विष्णु भगवान् के नामका अनुकीर्तन करते रहते हैं, वे भी समस्त पापोंसे मुक्त होकर सनातन परमात्माको प्राप्त होते हैं।’
नाम-सङ्कीर्तनमें देश-काल आदिके नियम भी नहीं हैं—
न देशकालनियम: शौचाशौचविनिर्णय:।
परं संकीर्तनादेव राम रामेति मुच्यते॥
‘देश-कालका नियम नहीं है, शौच-अशौच आदिका निर्णय करनेकी भी आवश्यकता नहीं है। केवल ‘राम-राम’ यह संकीर्तन करनेमात्रसे जीव मुक्त हो जाता है।
न देशनियमो राजन्न कालनियमस्तथा।
विद्यते नात्र संदेहो विष्णोर्नामानुकीर्तने॥
कालोऽस्ति यज्ञे दाने वा स्नाने कालोऽस्ति सज्जपे।
विष्णुसंकीर्तने कालो नास्त्यत्र पृथिवीपते॥
गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्वापि पिबन्भुञ्जञ्जपंस्तथा।
कृष्ण कृष्णेति संकीर्त्य मुच्यते पापकञ्चुकात्॥
भगवान् के नामका संकीर्तन करनेमें न देशका नियम है और न तो कालका। इसमें कोई सन्देह नहीं। राजन्! यज्ञ, दान, तीर्थस्नान अथवा विधिपूर्वक जपके लिये शुद्ध कालकी अपेक्षा है, परन्तु भगवन्नामके इस संकीर्तनमें काल-शुद्धिकी कोई आवश्यकता नहीं है। चलते-फिरते, खड़े रहते, सोते, खाते-पीते और जप करते हुए भी ‘कृष्ण-कृष्ण’ ऐसा संकीर्तन करके मनुष्य पापके केंचुलसे छूट जाता है।
अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
य: स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥
अपवित्र हो या पवित्र—सभी अवस्थाओंमें (चाहे किसी भी अवस्थामें) जो कमलनयन भगवान् का स्मरण करता है, वह बाहर-भीतर पवित्र हो जाता है।
कृष्णेति मङ्गलं नाम यस्य वाचि प्रवर्तते।
भस्मीभवन्ति सद्यस्तु महापातककोटय:॥
सर्वेषामपि यज्ञानां लक्षणानि व्रतानि च।
तीर्थस्नानानि सर्वाणि तपांस्यनशनानि च॥
वेदपाठसहस्राणि प्रादक्षिण्यं भुव: शतम्।
कृष्णनामजपस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥
‘जिसकी जिह्वापर ‘कृष्ण-कृष्ण-कृष्ण’ यह मङ्गलमय नाम नृत्य करता रहता है, उसकी कोटि-कोटि महापातकराशि तत्काल भस्म हो जाती है। सारे यज्ञ, लाखों व्रत, सर्वतीर्थ-स्नान, तप, अनेकों उपवास, हजारों वेद-पाठ, पृथ्वीकी सैकड़ों प्रदक्षिणा कृष्णनाम-जपके सोलहवें हिस्सेके बराबर भी नहीं हो सकतीं।’
भगवन्नामके कीर्तनमें ही यह फल हो, सो बात नहीं। उनके श्रवण और स्मरणमें भी वही फल है। दशम स्कन्धके अन्तमें कहेंगे ‘जिनके नामका स्मरण और उच्चारण अमङ्गलघ्न है।’ शिवगीता और पद्मपुराणमें कहा है—
आश्चर्ये वा भये शोके क्षते वा मम नाम य:।
व्याजेन वा स्मरेद्यस्तु स याति परमां गतिम्॥
प्रयाणे चाप्रयाणे च यन्नामस्मरतां नृणाम्।
सद्यो नश्यति पापौघो नमस्तस्मै चिदात्मने॥
‘भगवान् कहते हैं कि आश्चर्य, भय, शोक, क्षत (चोट लगने) आदिके अवसरपर जो मेरा नाम बोल उठता है, या किसी बहानेसे स्मरण करता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है। मृत्यु या जीवन—चाहे जब कभी भगवान् का नाम स्मरण करनेवाले मनुष्योंकी पाप-राशि तत्काल नष्ट हो जाती है। उन चिदात्मा प्रभुको नमस्कार है।’
‘इतिहासोत्तम’ में कहा गया है—
श्रुत्वा नामानि तत्रस्थास्तेनोक्तानि हरेर्द्विज।
नारका नरकान्मुक्ता: सद्य एव महामुने॥
‘महामुनि ब्राह्मणदेव! भक्तराजके मुखसे नरकमें रहनेवाले प्राणियोंने श्रीहरिके नामका श्रवण किया और वे तत्काल नरकसे मुक्त हो गये।’
यज्ञ-यागादिरूप धर्म अपने अनुष्ठानके लिये जिस पवित्र देश, काल, पात्र, शक्ति, सामग्री, श्रद्धा, मन्त्र, दक्षिणा आदिकी अपेक्षा रखता है, इस कलिकालमें उसका सम्पन्न होना अत्यन्त कठिन है। भगवन्नाम-संकीर्तनके द्वारा उसका फल अनायास ही प्राप्त किया जा सकता है। भगवान् शङ्कर पार्वतीके प्रति कहते हैं—
ईशोऽहं सर्वजगतां नाम्नां विष्णोर्हि जापक:।
सत्यं सत्यं वदाम्येव हरेर्नान्या गतिर्नृणाम्॥
‘सम्पूर्ण जगत् का स्वामी होनेपर भी मैं विष्णुभगवान् के नामका ही जप करता हूँ। मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ, भगवान् को छोड़कर जीवोंके लिये अन्य कर्मकाण्ड आदि कोई भी गति नहीं है।’ श्रीमद्भागवतमें कहा है—
क्रतौ यद्‍ध्यायते विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:।
द्वापरे परिचर्यायां कलौ तद्धरिकीर्तनात्॥
सत्ययुगमें ध्यानसे, त्रेतामें यज्ञसे और द्वापरमें अर्चा-पूजासे जो फल मिलता है, कलियुगमें वह केवल भगवन्नामसे मिलता है। और भी कहा है—
कलेदोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान् गुण:।
कीर्तनात् वासुदेवस्य मुक्तसंग: परं व्रजेत्॥
कलियुग दोषोंका निधि है, परन्तु इसमें एक महान् गुण यह है कि श्रीकृष्ण-संकीर्तनमात्रसे ही जीव बन्धनमुक्त होकर परमात्माको प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार एक बारके नामोच्चारणकी भी अनन्त महिमा शास्त्रोंमें कही गयी है। यहाँ मूल प्रसङ्गमें ही—‘एकदापि’ कहा गया है; ‘सकृदुच्चरितं’ का उल्लेख किया जा चुका है। बार-बार जो नामोच्चारणका विधान है, वह आगे और पाप न उत्पन्न हो जायँ, इसके लिये है। ऐसे वचन भी मिलते हैं कि भगवान् के नामका उच्चारण करनेसे भूत, वर्तमान और भविष्यके सारे ही पाप भस्म हो जाते हैं, यथा—
वर्तमानं च यत् पापं यद् भूतं यद् भविष्यति।
तत्सर्वं निर्दहत्याशु गोविन्दानलकीर्तनम्॥
फिर भी भगवत्प्रेमी जीवको पापोंके नाशपर अधिक दृष्टि नहीं रखनी चाहिये; उन्हें तो भक्ति-भावकी दृढ़ताके लिये, भगवान् के चरणोंमें अधिकाधिक प्रेम बढ़ता जाय, इस दृष्टिसे अहर्निश नित्य-निरन्तर भगवान् के मधुर-मधुर नाम जपते जाना चाहिये। जितनी अधिक निष्कामता होगी, उतनी-ही-उतनी नामकी पूर्णता प्रकट होती जायगी, अनुभवमें आती जायगी।
अनेक तार्किकोंके मनमें यह कल्पना उठती है कि नामकी महिमा वास्तविक नहीं है, अर्थवादमात्र है। उनके मनमें यह धारणा तो हो ही जाती है कि शराबकी एक बूंद भी पतित बनानेके लिये पर्याप्त है, परंतु यह विश्वास नहीं होता कि भगवान् का एक नाम भी परम कल्याणकारी है। शास्त्रोंमें भगवन्नाम-महिमाको अर्थवाद समझना पाप बताया है।
पुराणेष्वर्थवादत्वं ये वदन्ति नराधमा:।
तैरर्जितानि पुण्यानि तद्वदेव भवन्ति हि॥
‘जो नराधम पुराणोंमें अर्थवादकी कल्पना करते हैं उनके द्वारा उपार्जित पुण्य वैसे ही हो जाते हैं।’
मन्नामकीर्तनफलं विविधं निशम्य
न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम्।
यो मानुषस्तमिह दु:खचये क्षिपामि
संसारघोरविविधार्तिनिपीडिताङ्गम्॥
‘जो मनुष्य मेरे नाम-कीर्तनके विविध फल सुनकर उसपर श्रद्धा नहीं करता और उसे अर्थवाद मानता है, उसको संसारके विविध घोर तापोंसे पीड़ित होना पड़ता है और उसे मैं अनेक दु:खोंमें डाल देता हूँ।’
अर्थवादं हरिर्नाम्नि संभावयति यो नर:।
स पापिष्ठो मनुष्याणां नरके पतति स्फुटम्॥
‘जो मनुष्य भगवान् के नाममें अर्थवादकी सम्भावना करता है, वह मनुष्योंमें अत्यन्त पापी है और उसे नरकमें गिरना पड़ता है।’

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—राजन्! इस प्रकार भगवान् के पार्षदोंने भागवतधर्मका पूरा-पूरा निर्णय सुना दिया और अजामिलको यमदूतोंके पाशसे छुड़ाकर मृत्युके मुखसे बचा लिया॥ २०॥ प्रिय परीक्षित्! पार्षदोंकी यह बात सुनकर यमदूत यमराजके पास गये और उन्हें यह सारा वृत्तान्त ज्यों-का-त्यों सुना दिया॥ २१॥

अजामिल यमदूतोंके फंदेसे छूटकर निर्भय और स्वस्थ हो गया। उसने भगवान् के पार्षदोंके दर्शनजनित आनन्दमें मग्न होकर उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम किया॥ २२॥ निष्पाप परीक्षित् ! भगवान् के पार्षदोंने देखा कि अजामिल कुछ कहना चाहता है, तब वे सहसा उसके सामने ही वहीं अन्तर्धान हो गये॥ २३॥ इस अवसरपर अजामिलने भगवान् के पार्षदोंसे विशुद्ध भागवत-धर्म और यमदूतोंके वेदोक्त सगुण (प्रवृत्तिविषयक) धर्मका श्रवण किया था॥ २४॥ सर्वपापहारी भगवान् की महिमा सुननेसे अजामिलके हृदयमें शीघ्र ही भक्तिका उदय हो गया। अब उसे अपने पापोंको याद करके बड़ा पश्चात्ताप होने लगा॥ २५॥ (अजामिल मन-ही-मन सोचने लगा—) अरे, मैं कैसा इन्द्रियोंका दास हूँ! मैंने एक दासीके गर्भसे पुत्र उत्पन्न करके अपना ब्राह्मणत्व नष्ट कर दिया। यह बड़े दु:खकी बात है॥ २६॥ धिक्कार है! मुझे बार-बार धिक्कार है! मैं संतोंके द्वारा निन्दित हूँ, पापात्मा हूँ! मैंने अपने कुलमें कलंकका टीका लगा दिया! हाय-हाय, मैंने अपनी सती एवं अबोध पत्नीका परित्याग कर दिया और शराब पीनेवाली कुलटाका संसर्ग किया॥ २७॥ मैं कितना नीच हूँ! मेरे माँ-बाप बूढ़े और तपस्वी थे। वे सर्वथा असहाय थे, उनकी सेवा-शुश्रूषा करनेवाला और कोई नहीं था। मैंने उनका भी परित्याग कर दिया। ओह! मैं कितना कृतघ्न हूँ॥ २८॥ मैं अब अवश्य ही अत्यन्त भयावने नरकमें गिरूँगा, जिसमें धर्मघाती पापात्मा कामी पुरुष अनेकों प्रकारकी यमयातना भोगते हैं॥ २९॥

मैंने अभी जो अद्भुत दृश्य देखा, क्या वह स्वप्न है? अथवा जाग्रत् अवस्थाका ही प्रत्यक्ष अनुभव है? अभी-अभी जो हाथोंमें फंदा लेकर मुझे खींच रहे थे, वे कहाँ चले गये?॥ ३०॥ अभी-अभी वे मुझे अपने फंदोंमें फँसाकर पृथ्वीके नीचे ले जा रहे थे, परन्तु चार अत्यन्त सुन्दर सिद्धोंने आकर मुझे छुड़ा लिया! वे अब कहाँ चले गये॥ ३१॥ यद्यपि मैं इस जन्मका महापापी हूँ, फिर भी मैंने पूर्वजन्मोंमें अवश्य ही शुभकर्म किये होंगे; तभी तो मुझे इन श्रेष्ठ देवताओंके दर्शन हुए। उनकी स्मृतिसे मेरा हृदय अब भी आनन्दसे भर रहा है॥ ३२॥ मैं कुलटागामी और अत्यन्त अपवित्र हूँ। यदि पूर्वजन्ममें मैंने पुण्य न किये होते, तो मरनेके समय मेरी जीभ भगवान् के मनमोहक नामका उच्चारण कैसे कर पाती?॥ ३३॥ कहाँ तो मैं महाकपटी, पापी, निर्लज्ज और ब्रह्मतेजको नष्ट करनेवाला तथा कहाँ भगवान् का वह परम मंगलमय ‘नारायण’ नाम! (सचमुच मैं तो कृतार्थ हो गया)॥ ३४॥ अब मैं अपने मन, इन्द्रिय और प्राणोंको वशमें करके ऐसा प्रयत्न करूँगा कि फिर अपनेको घोर अन्धकारमय नरकमें न डालूँ॥ ३५॥ अज्ञानवश मैंने अपनेको शरीर समझकर उसके लिये बड़ी-बड़ी कामनाएँ कीं और उनकी पूर्तिके लिये अनेकों कर्म किये। उन्हींका फल है यह बन्धन! अब मैं इसे काटकर समस्त प्राणियोंका हित करूँगा, वासनाओंको शान्त कर दूँगा, सबसे मित्रताका व्यवहार करूँगा, दु:खियोंपर दया करूँगा और पूरे संयमके साथ रहूँगा॥ ३६॥ भगवान् की मायाने स्त्रीका रूप धारण करके मुझ अधमको फाँस लिया और क्रीड़ामृगकी भाँति मुझे बहुत नाच नचाया। अब मैं अपने-आपको उस मायासे मुक्त करूँगा॥ ३७॥ मैंने सत्य वस्तु परमात्माको पहचान लिया है; अत: अब मैं शरीर आदिमें ‘मैं’ तथा ‘मेरे’ का भाव छोड़कर भगवन्नामके कीर्तन आदिसे अपने मनको शुद्ध करूँगा और उसे भगवान् में लगाऊँगा॥ ३८॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं—परीक्षित्! उन भगवान् के पार्षद महात्माओंका केवल थोड़ी ही देरके लिये सत्संग हुआ था। इतनेमें ही अजामिलके चित्तमें संसारके प्रति तीव्र वैराग्य हो गया। वे सबके सम्बन्ध और मोहको छोड़कर हरिद्वार चले गये॥ ३९॥ उस देवस्थानमें जाकर वे भगवान् के मन्दिरमें आसनसे बैठ गये और उन्होंने योगमार्गका आश्रय लेकर अपनी सारी इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर मनमें लीन कर लिया और मनको बुद्धिमें मिला दिया॥ ४०॥ इसके बाद आत्मचिन्तनके द्वारा उन्होंने बुद्धिको विषयोंसे पृथक् कर लिया तथा भगवान् के धाम अनुभवस्वरूप परब्रह्ममें जोड़ दिया॥ ४१॥ इस प्रकार जब अजामिलकी बुद्धि त्रिगुणमयी प्रकृतिसे ऊपर उठकर भगवान् के स्वरूपमें स्थित हो गयी, तब उन्होंने देखा कि उनके सामने वे ही चारों पार्षद, जिन्हें उन्होंने पहले देखा था, खड़े हैं। अजामिलने सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया॥ ४२॥ उनका दर्शन पानेके बाद उन्होंने उस तीर्थस्थानमें गंगाके तटपर अपना शरीर त्याग दिया और तत्काल भगवान् के पार्षदोंका स्वरूप प्राप्त कर लिया॥ ४३॥ अजामिल भगवान् के पार्षदोंके साथ स्वर्णमय विमानपर आरूढ़ होकर आकाशमार्गसे भगवान् लक्ष्मीपतिके निवासस्थान वैकुण्ठको चले गये॥ ४४॥

परीक्षित् अजामिलने दासीका सहवास करके सारा धर्म-कर्म चौपट कर दिया था। वे अपने निन्दित कर्मके कारण पतित हो गये थे। नियमोंसे च्युत हो जानेके कारण उन्हें नरकमें गिराया जा रहा था। परन्तु भगवान् के एक नामका उच्चारण करनेमात्रसे वे उससे तत्काल मुक्त हो गये॥ ४५॥ जो लोग इस संसारबन्धनसे मुक्त होना चाहते हैं, उनके लिये अपने चरणोंके स्पर्शसे तीर्थोंको भी तीर्थ बनानेवाले भगवान् के नामसे बढ़कर और कोई साधन नहीं है; क्योंकि नामका आश्रय लेनेसे मनुष्यका मन फिर कर्मके पचड़ोंमें नहीं पड़ता। भगवन्नामके अतिरिक्त और किसी प्रायश्चित्तका आश्रय लेनेपर मन रजोगुण और तमोगुणसे ग्रस्त ही रहता है तथा पापोंका पूरा-पूरा नाश भी नहीं होता॥ ४६॥

परीक्षित् ! यह इतिहास अत्यन्त गोपनीय और समस्त पापोंका नाश करनेवाला है। जो पुरुष श्रद्धा और भक्तिके साथ इसका श्रवण-कीर्तन करता है, वह नरकमें कभी नहीं जाता। यमराजके दूत तो आँख उठाकर उसकी ओर देखतक नहीं सकते। उस पुरुषका जीवन चाहे पापमय ही क्यों न रहा हो, वैकुण्ठलोकमें उसकी पूजा होती है॥ ४७-४८॥ परीक्षित्! देखो-अजामिल जैसे पापीने मृत्युके समय पुत्रके बहाने भगवान् के नामका उच्चारण किया! उसे भी वैकुण्ठकी प्राप्ति हो गयी! फिर जो लोग श्रद्धाके साथ भगवन्नामका उच्चारण करते हैं, उनकी तो बात ही क्या है॥ ४९॥

यम और यमदूतोंका संवाद

राजा परीक्षित् ने पूछा—भगवन्! देवाधिदेव धर्मराजके वशमें सारे जीव हैं और भगवान् के पार्षदोंने उन्हींकी आज्ञा भंग कर दी तथा उनके दूतोंको अपमानित कर दिया। जब उनके दूतोंने यमपुरीमें जाकर उनसे अजामिलका वृत्तान्त कह सुनाया, तब सब कुछ सुनकर उन्होंने अपने दूतोंसे क्या कहा?॥ १॥ ऋषिवर! मैंने पहले यह बात कभी नहीं सुनी कि किसीने किसी भी कारणसे धर्मराजके शासनका उल्लङ्घन किया हो। भगवन्! इस विषयमें लोग बहुत सन्देह करेंगे और उसका निवारण आपके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं कर सकता, ऐसा मेरा निश्चय है॥ २॥

श्रीशुकदवजीने कहा—परीक्षित्! जब भगवान् के पार्षदोंने यमदूतोंका प्रयत्न विफल कर दिया, तब उन लोगोंने संयमनीपुरीके स्वामी एवं अपने शासक यमराजके पास जाकर निवेदन किया॥ ३॥

यमदूतोंने कहा—प्रभो! संसारके जीव तीन प्रकारके कर्म करते हैं—पाप, पुण्य अथवा दोनोंसे मिश्रित। इन जीवोंको उन कर्मोंका फल देनेवाले शासक संसारमें कितने हैं?॥ ४॥ यदि संसारमें दण्ड देनेवाले बहुत-से शासक हों, तो किसे सुख मिले और किसे दु:ख—इसकी व्यवस्था एक-सी न हो सकेगी॥ ५॥ संसारमें कर्म करनेवालोंके अनेक होनेके कारण यदि उनके शासक भी अनेक हों, तो उन शासकोंका शासकपना नाममात्रका ही होगा, जैसे एक सम्राट्के अधीन बहुत-से नाममात्रके सामन्त होते हैं॥ ६॥ इसलिये हम तो ऐसा समझते हैं कि अकेले आप ही समस्त प्राणियों और उनके स्वामियोंके भी अधीश्वर हैं। आप ही मनुष्योंके पाप और पुण्यके निर्णायक, दण्डदाता और शासक हैं॥ ७॥ प्रभो! अबतक संसारमें कहीं भी आपके द्वारा नियत किये हुए दण्डकी अवहेलना नहीं हुई थी; किन्तु इस समय चार अद्भुत सिद्धोंने आपकी आज्ञाका उल्लङ्घन कर दिया है॥ ८॥ प्रभो! आपकी आज्ञासे हमलोग एक पापीको यातनागृहकी ओर ले जा रहे थे, परन्तु उन्होंने बलपूर्वक आपके फंदे काटकर उसे छुड़ा दिया॥ ९॥ हम आपसे उनका रहस्य जानना चाहते हैं। यदि आप हमें सुननेका अधिकारी समझें तो कहें। प्रभो! बड़े ही आश्चर्यकी बात हुई कि इधर तो अजामिलके मुँहसे ‘नारायण!’ यह शब्द निकला और उधर वे ‘डरो मत, डरो मत!’ कहते हुए झटपट वहाँ आ पहुँचे॥ १०॥

श्रीशुकदेवजी कहते है—जब दूतोंने इस प्रकार प्रश्न किया, तब देवशिरोमणि प्रजाके शासक भगवान् यमराजने प्रसन्न होकर श्रीहरिके चरणकमलोंका स्मरण करते हुए उनसे कहा॥ ११॥

यमराजने कहा—दूतो! मेरे अतिरिक्त एक और ही चराचर जगत् के स्वामी हैं। उन्हींमें यह सम्पूर्ण जगत् सूतमें वस्त्रके समान ओतप्रोत है। उन्हींके अंश ब्रह्मा, विष्णु और शंकर इस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करते हैं। उन्होंने इस सारे जगत् को नथे हुए बैलके समान अपने अधीन कर रखा है॥ १२॥ मेरे प्यारे दूतो! जैसे किसान अपने बैलोंको पहले छोटी-छोटी रस्सियोंमें बाँधकर फिर उन रस्सियोंको एक बड़ी आड़ी रस्सीमें बाँध देते हैं, वैसे ही जगदीश्वर भगवान् ने भी ब्राह्मणादि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमरूप छोटी-छोटी नामकी रस्सियोंमें बाँधकर फिर सब नामोंको वेदवाणी रूप बड़ी रस्सीमें बाँध रखा है। इस प्रकार सारे जीव नाम एवं कर्मरूप बन्धनमें बँधे हुए भयभीत होकर उन्हें ही अपना सर्वस्व भेंट कर रहे हैं॥ १३॥ दूतो! मैं, इन्द्र, निर्ऋति, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, शंकर, वायु, सूर्य, ब्रह्मा, बारहों आदित्य, विश्वेदेवता, आठों वसु, साध्य, उनचास मरुत् , सिद्ध, ग्यारहों रुद्र, रजोगुण एवं तमोगुणसे रहित भृगु आदि प्रजापति और बड़े-बडे़ देवता—सब-के-सब सत्त्वप्रधान होनेपर भी उनकी मायाके अधीन हैं तथा भगवान् कब क्या किस रूपमें करना चाहते हैं—इस बातको नहीं जानते। तब दूसरोंकी तो बात ही क्या है॥ १४-१५॥ दूतो! जिस प्रकार घट, पट आदि रूपवान् पदार्थ अपने प्रकाशक नेत्रको नहीं देख सकते—वैसे ही अन्त:करणमें अपने साक्षीरूपसे स्थित परमात्माको कोई भी प्राणी इन्द्रिय, मन, प्राण, हृदय या वाणी आदि किसी भी साधनके द्वारा नहीं जान सकता॥ १६॥ वे प्रभु सबके स्वामी और स्वयं परम स्वतन्त्र हैं। उन्हीं मायापति पुरुषोत्तमके दूत उन्हींके समान परम मनोहर रूप, गुण और स्वभावसे सम्पन्न होकर इस लोकमें प्राय: विचरण किया करते हैं॥ १७॥ विष्णु भगवान् के सुरपूजित एवं परम अलौकिक पार्षदोंका दर्शन बड़ा दुर्लभ है। वे भगवान् के भक्तजनोंको उनके शत्रुओंसे, मुझसे और अग्नि आदि सब विपत्तियोंसे सर्वथा सुरक्षित रखते हैं॥ १८॥

स्वयं भगवान् ने ही धर्मकी मर्यादाका निर्माण किया है। उसे न तो ऋषि जानते हैं और न देवता या सिद्धगण ही। ऐसी स्थितिमें मनुष्य, विद्याधर, चारण और असुर आदि तो जान ही कैसे सकते हैं॥ १९॥ भगवान् के द्वारा निर्मित भागवतधर्म परम शुद्ध और अत्यन्त गोपनीय है। उसे जानना बहुत ही कठिन है। जो उसे जान लेता है, वह भगवत्स्वरूपको प्राप्त हो जाता है। दूतो! भागवतधर्मका रहस्य हम बारह व्यक्ति ही जानते हैं—ब्रह्माजी, देवर्षि नारद, भगवान् शंकर, सनत्कुमार, कपिलदेव, स्वायम्भुव मनु, प्रह्लाद, जनक, भीष्मपितामह, बलि, शुकदेवजी और मैं॥ २०-२१॥ इस जगत् में जीवोंके लिये बस, यही सबसे बड़ा कर्तव्य—परम धर्म है कि वे नाम-कीर्तन आदि उपायोंसे भगवान् के चरणोंमें भक्तिभाव प्राप्त कर लें॥ २२॥ प्रिय दूतो! भगवान् के नामोच्चारणकी महिमा तो देखो, अजामिल-जैसा पापी भी एक बार नामोच्चारण करने मात्रसे मृत्युपाशसे छुटकारा पा गया॥ २३॥ भगवान् के गुण, लीला और नामोंका भलीभाँति उच्चारण मनुष्योंके पापोंका सर्वथा विनाश कर दे, यह कोई उसका बहुत बड़ा फल नहीं है; क्योंकि अत्यन्त पापी अजामिलने मरनेके समय चञ्चल चित्तसे अपने पुत्रका नाम ‘नारायण’ उच्चारण किया। इस नामाभासमात्रसे ही उसके सारे पाप तो क्षीण हो ही गये, मुक्तिकी प्राप्ति भी हो गयी॥ २४॥ बड़े-बड़े विद्वानोंकी भी बुद्धि कभी भगवान् की मायासे मोहित हो जाती है। वे कर्मोंके मीठे-मीठे फलोंका वर्णन करनेवाली अर्थवादरूपिणी वेदवाणीमें ही मोहित हो जाते हैं और यज्ञ-यागादि बड़े-बडे़ कर्मोंमें ही संलग्न रहते हैं तथा इस सुगमातिसुगम भगवन्नामकी महिमाको नहीं जानते। यह कितने खेदकी बात है॥ २५॥

प्रिय दूतो! बुद्धिमान् पुरुष ऐसा विचार कर भगवान् अनन्तमें ही सम्पूर्ण अन्त:करणसे अपना भक्तिभाव स्थापित करते हैं। वे मेरे दण्डके पात्र नहीं हैं। पहली बात तो यह है कि वे पाप करते ही नहीं, परन्तु यदि कदाचित् संयोगवश कोई पाप बन भी जाय, तो उसे भगवान् का गुणगान तत्काल नष्ट कर देता है॥ २६॥ जो समदर्शी साधु भगवान् को ही अपना साध्य और साधन दोनों समझकर उनपर निर्भर हैं, बड़े-बडे़ देवता और सिद्ध उनके पवित्र चरित्रोंका प्रेमसे गान करते रहते हैं। मेरे दूतो! भगवान् की गदा उनकी सदा रक्षा करती रहती है। उनके पास तुमलोग कभी भूलकर भी मत फटकना। उन्हें दण्ड देनेकी सामर्थ्य न हममें है और न साक्षात् कालमें ही॥ २७॥ बड़े-बड़े परमहंस दिव्य रसके लोभसे सम्पूर्ण जगत् और शरीर आदिसे भी अपनी अहंता-ममता हटाकर, अकिञ्चन होकर निरन्तर भगवान् मुकुन्दके पादारविन्दका मकरन्द-रस पान करते रहते हैं। जो दुष्ट उस दिव्य रससे विमुख हैं और नरकके दरवाजे घर-गृहस्थीकी तृष्णाका बोझा बाँधकर उसे ढो रहे हैं, उन्हींको मेरे पास बार-बार लाया करो॥ २८॥ जिनकी जीभ भगवान् के गुणों और नामोंका उच्चारण नहीं करती, जिनका चित्त उनके चरणारविन्दोंका चिन्तन नहीं करता और जिनका सिर एक बार भी भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंमें नहीं झुकता, उन भगवत्सेवाविमुख पापियोंको ही मेरे पास लाया करो॥ २९॥ आज मेरे दूतोंने भगवान् के पार्षदोंका अपराध करके स्वयं भगवान् का ही तिरस्कार किया है। यह मेरा ही अपराध है। पुराणपुरुष भगवान् नारायण हमलोगोंका यह अपराध क्षमा करें। हम अज्ञानी होनेपर भी हैं उनके निजजन, और उनकी आज्ञा पानेके लिये अञ्जलि बाँधकर सदा उत्सुक रहते हैं। अत: परम महिमान्वित भगवान् के लिये यही योग्य है कि वे क्षमा कर दें। मैं उन सर्वान्तर्यामी एकरस अनन्त प्रभुको नमस्कार करता हूँ॥ ३०॥

[श्रीशुकदेवजी कहते हैं—] परीक्षित्! इसलिये तुम ऐसा समझ लो कि बड़े-से-बड़े पापोंका सर्वोत्तम, अन्तिम और पाप-वासनाओंको भी निर्मूल कर डालनेवाला प्रायश्चित्त यही है कि केवल भगवान् के गुणों, लीलाओं और नामोंका कीर्तन किया जाय। इसीसे संसारका कल्याण हो सकता है॥ ३१॥ जो लोग बार-बार भगवान् के उदार और कृपापूर्ण चरित्रोंका श्रवण-कीर्तन करते हैं, उनके हृदयमें प्रेममयी भक्तिका उदय हो जाता है। उस भक्तिसे जैसी आत्मशुद्धि होती है, वैसी कृच्छ्र-चान्द्रायण आदि व्रतोंसे नहीं होती॥ ३२॥ जो मनुष्य भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रके चरणारविन्द-मकरन्द-रसका लोभी भ्रमर है, वह स्वभावसे ही मायाके आपातरम्य, दु:खद और पहलेसे ही छोड़े हुए विषयोंमें फिर नहीं रमता। किन्तु जो लोग उस दिव्य रससे विमुख हैं कामनाओंने जिनकी विवेकबुद्धिपर पानी फेर दिया है, वे अपने पापोंका मार्जन करनेके लिये पुन: प्रायश्चित्तरूप कर्म ही करते हैं। इससे होता यह है कि उनके कर्मोंकी वासना मिटती नहीं और वे फिर वैसे ही दोष कर बैठते हैं॥ ३३॥

परीक्षित्! जब यमदूतोंने अपने स्वामी धर्मराजके मुखसे इस प्रकार भगवान् की महिमा सुनी और उसका स्मरण किया, तब उनके आश्चर्यकी सीमा न रही। तभीसे वे धर्मराजकी बातपर विश्वास करके अपने नाशकी आशंकासे भगवान् के आश्रित भक्तोंके पास नहीं जाते। और तो क्या, वे उनकी ओर आँख उठाकर देखनेमें भी डरते हैं॥ ३४॥ प्रिय परीक्षित्! यह इतिहास परम गोपनीय-अत्यन्त रहस्यमय है। मलयपर्वतपर विराजमान भगवान् अगस्त्यजीने श्रीहरिकी पूजा करते समय मुझे यह सुनाया था॥ ३५॥

(श्रीमद्भा०, स्क० ६, अ० १—३)
नारायण नारायण नारायण नारायण

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