जीवनमें विचारोंका महत्त्व
याद रखो—विचारोंमें अपार शक्ति है। हमारे विचार जैसे होंगे, वैसे ही हम बनेंगे। वैसा ही हमारा वातावरण बन जायगा। विचारोंका प्रभाव मनपर भी पडे़गा। हमारे विचारोंमें यदि प्रेम, त्याग, विनय, क्षमा और दूसरोंके गुण देखनेकी दृष्टि है तो इससे मनमें तो शान्ति तथा शान्तिजनित सुख रहेगा ही, शरीरमें भी पाचनशक्ति बढे़गी, रक्तका संचरण नियमित होगा, यकृतका कार्य व्यवस्थित होगा, दाहका कोई रोग नहीं होगा और आरामसे नींद आयेगी। इसी प्रकार यदि हमारे विचारोंमें घृणा, भोगासक्ति, अभिमान और परदोष-दर्शनकी परम्परा रहेगी तो मन निश्चय ही अशान्त रहेगा। अशान्तिसे दु:ख होगा ही और शरीरमें भी बीमारियाँ पैदा होंगी—पाचनशक्ति नष्ट हो जायगी, हृदयमें तथा उदरमें जलन होगी, पेटमें घाव हो जायँगे, यकृतका कार्य बिगड़ जायगा और हृदयकी क्रियाशक्ति अव्यवस्थित रहेगी।
याद रखो—हमारे पास जो कुछ होगा, वही हम दूसरोंको देंगे और वही बीजसे फलकी भाँति अनन्तगुणा होकर हमें वापस मिल जायगा। हमारे विचारोंमें यदि घृणा है तो हम दूसरे पुरुषसे घृणा करेंगे, उसके दोष ही देखेंगे, बदलेमें वह भी हमसे घृणा करेगा और हमारे दोष देखेगा। फलत: हममें कटुता, कलह, क्लेश बढ़ जायँगे।
याद रखो—हम यदि किसीमें बुराई देखते हैं और उससे घृणा करते हैं तो उस पुरुषको उतनी ही बुराई तथा घृणा देते हैं। उसमें यदि बुराई तथा घृणा नहीं हैं तो पैदा हो जाती हैं और कुछ हैं तो वे बढ़ जाती हैं। अतएव हम उसमें घृणा, बुराई आदि दोष बढ़ानेका पाप करते हैं और बुरे विचारोंका बार-बार स्मरण होनेपर तथा उसके विचारोंमें भी हमारे प्रति घृणा-बुराईके विचार बढ़ जानेपर हमारे अंदर इन विकारोंकी अपार वृद्धि होती है। इस प्रकार दूसरोंसे घृणा करके तथा उनमें बुराई देखकर हम उनका तथा अपना दोनोंका ही बुरा करते हैं।
याद रखो—हमारे विचारके अनुसार यदि हम प्रत्येक प्राणीमें भगवान्को देखनेका अभ्यास करेंगे तो हमारे विचार और भी पुष्ट होंगे और सबके साथ हमारा व्यवहार-बर्ताव निर्दोष तथा सुन्दर हो जायगा एवं हमारे प्रति उन सबके विचारोंमें भी न्यूनाधिकरूपसे यही बात होगी, इससे उनका व्यवहार-बर्ताव भी सुधरेगा। तब भगवद्भावकी उत्तरोत्तर वृद्धिसे हमारे कर्म क्रमश: पवित्र-से-पवित्र होते जायँगे और हमारे जीवनकी गति निश्चित भगवान्की ओर हो जायगी, जो मानव-जीवनका एकमात्र परम कर्तव्य है।
याद रखो—बुरे विचारोंसे भयानक विष-वृक्ष पैदा होता है; क्योंकि वे वस्तुत: विष-बीज हैं। उस विषकी बढ़ी हुई ज्वाला वापस आकर हमारे हृदयमें भयानक घाव करके इतनी जलन पैदा कर देगी कि हम उसे सह नहीं सकेंगे और उस अवस्थामें भी दूसरोंमें बुराई देखकर उनपर दोषारोपण करते हुए अपनी बुराई और तज्जनित दु:ख-दाहको बढ़ाते रहेंगे। अतएव किसीमें बुराई मत देखो, किसीसे घृणा मत करो, किसीकी निन्दा न करो, सबसे प्रेम करो। कोई तुमसे घृणा-बुराई करे तो उसका उत्तर प्रेमसे दो। घृणा-बुराईका उत्तर घृणा-बुराईसे देना तो जलती अग्निमें तेजाब मिला ईंधन डालना है।
याद रखो—हम हर हालतमें सबसे प्रेम करेंगे तो हमारे हृदयमें प्रेम तथा तज्जनित शान्ति-सुखकी सुधा-सरिता बहने लगेगी, जो हमारे साथ ही हमारे सम्पर्कमें आनेवाले सबको शान्ति-सुधाका पान करवाकर तृप्त तथा सुखी बना देगी।
याद रखो—अपनी ओरसे अपने मनमें दूषित विचार तो कभी आने ही मत दो। दूसरोंकी बुराईका उत्तर भी सदा भलाईसे दो; क्रोधका उत्तर क्षमासे दो, दुष्टताका उत्तर दयालुतासे दो, हानिका उत्तर लाभसे दो, अपमानका उत्तर मानसे दो, अभिमानका उत्तर सम्मानसे दो, असुरताका उत्तर देवत्वसे दो। यह कभी मत समझो कि इससे तुम्हारी हानि होगी। शुभका फल निश्चय शुभ ही होगा। बीजके अनुसार ही फल होता है। अपने कोमल करोंसे सबको हृदयसे लगाओ, अपनी अभय वाणीसे दूसरोंका भय दूर करो, अपने मीठे वचनोंसे सबको सान्त्वना तथा शान्ति दो। नरक-तुल्य जगत्को अपने तन-मन-वचनके सच्चे साधु-व्यवहारसे स्वर्ग—दिव्य-आनन्दधाम बना दो।