शरीरका आराम और नामका नाम
याद रखो—तुम्हें जो जीवन मिला है, जीवनमें जो तन-मन मिले हैं तथा जो कुछ भी सामग्री मिली है, सब भगवान्की सेवामें लगानेके लिये ही मिला है। इन सबको भगवान्की सेवामें लगानेमें ही इनका सदुपयोग है और जो भगवान्की सेवामें लगाता है, वही वास्तवमें बुद्धिमान् पुरुष है।
याद रखो—इन सबको भगवान्में लगानेपर उनके फलस्वरूप नित्य अखण्ड अनन्त अमर दिव्य चिन्मय परमात्मसुखकी प्राप्ति होगी और भोगोंमें लगानेपर अस्थायी सुखकी और परिणामत: अनन्त असीम पतनकी, दु:खोंकी, विनाशकी और नरकोंकी प्राप्ति होगी। इस बातको ध्रुव निश्चित समझकर मनुष्यको अपने जीवनके प्रत्येक क्षण तथा प्रत्येक पदार्थको भगवान्की सेवामें ही लगाना चाहिये।
याद रखो—शरीरका आराम, नामका नाम आदि सब भोग ही हैं। यद्यपि न तो आत्मा—तुम वह शरीर है और न नाम ही। शरीरका निर्माण माता-पिताके रज-वीर्यसे गर्भमें हुआ है और जन्मके पश्चात् नामकी कल्पना होती है। मरनेके बाद भी यह शरीर तो रहता ही है और शरीरका नाम भी रहता है, पर शरीरमेंसे चेतनरूप तुम निकल जाते हो। तुम्हारे आनेसे ही शरीरमें चेतना आयी थी और तुम्हारे निकलते ही शरीर अचेतन—मुर्दा हो गया, पर मोहवश तुमने शरीर और नामको ही आत्मा—अपना स्वरूप मान लिया, इसलिये उन्हींके ‘आराम’ तथा ‘नाम’ के लिये सदा चिन्तित, चेष्टायुक्त और कर्मपरायण रहते हो। इसीके लिये नये-नये विज्ञानका आविष्कार, कार्योंका विस्तार, विविध कला-कौशलका प्रचार, नये-नये भोगवस्तुओंके निर्माणके लिये उत्पादनगृह—कारखानोंका प्रसार तथा विविध प्रकारके अनन्त प्रयत्न करते हो और जीवनभर सफलता-असफलताके आने-जानेमें दिन-रात सुखी-दु:खी होते रहते हो। कभी भी द्वन्द्वदु:खसे मुक्त नहीं हो सकते।
याद रखो—भोग-कामनासे ग्रसित होनेके कारण ही तुम जीवनभर अशान्ति, जीवनभर चिन्ता तथा जीवनभर विभ्रान्तचित्त रहते हो—सफलतामें भी और असफलतामें भी।
याद रखो—भोग-कामना ही अनर्थोंकी अनन्त खान है। इसी कामनाकी पूर्तिके लिये पाँचों इन्द्रियोंके शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—इन पाँच विषयोंका सेवन, पद तथा अधिकारप्राप्तिके लिये प्रयत्न, धनके लिये उचित-अनुचित अथक कर्म करते रहते हो। नयी-नयी समष्टिगत तथा व्यक्तिगत विकासकी योजनाएँ, रेल, तार, सड़क, यान, मकान आदिके निर्माणमें प्रयत्न, बाधाओंको हटानेके प्रयत्नमें कलह, संघर्ष, विनाशका आश्रय लेते रहते हो। भोग-कामना असंख्य पापोंकी जननी है, अतएव भोग-कामनाकी पूर्तिके लिये तुम मन, वाणी, शरीरसे पापमूलक बुरे कर्म, मनमें अहंकार, अभिमान, ममता, राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, वैर, हिंसा आदिका पोषण; वाणीसे असत्य, कटु, रूक्ष, अश्लील, अभिमानपूर्ण व्यर्थ तथा अपना-पराया अहित—अमंगल करनेवाले वचनोंका उच्चारण एवं शरीरसे हिंसा, व्यभिचार, अनाचार, अभक्ष्य भोजन-पान, मदभरी चेष्टाएँ और अन्याय तथा अधर्मयुक्त आचरण करते हो। इन सब दुष्कृतोंका कारण है तुम्हारे मिथ्या शरीरमें तथा नाममें ‘‘मैं’’ भावना तथा उनके ‘आराम-नाम’ की नित्य वर्द्धनशील कामना।
याद रखो—तुम इसी उधेड़-बुनमें—इसी अशान्ति-दु:खपूर्ण स्थितिमें ही मर जाते हो। जीवन भगवान्की सेवामें नहीं लग पाता और वह व्यर्थ-अनर्थमें नष्ट हो जाता है। अतएव आजसे, अभीसे ही सावधान होकर अपने जीवनके प्रत्येक क्षणको तथा शरीर, वाणी, मनकी प्रत्येक चेष्टाको भगवान् की—केवल भगवान्की सेवामें ही लगाकर जीवनको कृतार्थ तथा सफल बनाओ।