भगवत्तत्त्व
१-ईश्वरका तात्त्विक स्वरूप अलौकिक है, परम रहस्यमय है, गुह्यतम है। जिन्हें वह प्राप्त है वे ही उसे जानते हैं।
२-भगवान्में कोई भी गुण नहीं, वे गुणातीत हैं, बुरे-भले सभी गुण उनमें हैं और उनमें केवल सद्गुण हैं, दुर्गुण हैं ही नहीं। ये तीनों ही बातें भगवान्के लिये कही जा सकती हैं।
३-आदिपुरुष विष्णु सर्वसमर्थ, सर्वगुणसम्पन्न हैं। सत्त्वगुणकी मूर्ति हैं। सात्त्विक तेज, प्रभाव, सामर्थ्य, विभूति आदिसे विभूषित हैं। शुद्ध सत्त्व ही उनका स्वरूप है।
४-भगवान्के स्वरूपको भगवान् ही जानते हैं, तत्त्वज्ञ लोग संकेतके रूपमें भगवान्के स्वरूपका कुछ वर्णन कर सकते हैं, परन्तु जो कुछ जानने और वर्णन करनेमें आता है, वास्तवमें भगवान् उससे और भी विलक्षण हैं।
५-यह समस्त जगत् भगवान्के एक अंशमें स्थित है, भगवान् ही इस जगत्के रूपमें अभिव्यक्त हो रहे हैं।
६-इस चराचर जगत्के सहित जो परमात्माका स्वरूप है वह सगुण है, इससे अतीत जहाँ चराचर संसार नहीं है जो केवल है, वह गुणातीत है।
७-‘भगवान् चाहे जैसे, चाहे जब, चाहे जहाँ, चाहे जिस रूपमें प्रकट हो सकते हैं।’
८-‘निराकार-साकार सब एक ही तत्त्व है।’
९-देवर्षि-नारदने भी भक्तिसूत्रमें कहा है—‘सा त्वस्मिन् परमप्रेमरूपा’ उस परमेश्वरमें अतिशय प्रेमरूपता ही भक्ति है। ‘अमृतस्वरूपा च’ और वह अमृतरूप है।
१०-इस प्रकार और भी बहुत-से वचन मिलते हैं। इनसे यही मालूम होता है कि ईश्वरमें जो परम प्रेम है, वही अमृत है, वही असली भक्ति है। यदि कहें कि व्याकरणसे भक्ति शब्दका अर्थ सेवा होता है, क्योंकि भक्ति शब्द ‘भज सेवायाम्’ धातुसे बनता है तो यह कहना भी ठीक ही है। प्रेम सेवाका फल है और भक्तिके साधनोंकी अन्तिम सीमा है। जैसे वृक्षकी पूर्णता और गौरव फल आनेपर ही है।
११-जैसे आकाश निराकार है। आकाशमें कहीं कोई आकार नहीं, परन्तु कभी-कभी आकाशमें बादलके टुकड़े दीख पड़ते हैं, वे बादलके टुकड़े आकाशमें ही उत्पन्न होते हैं, उसीमें दीख पड़ते हैं और अन्तमें उसी आकाशमें शान्त हो जाते हैं। आकाशकी वास्तविक स्थितिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता, परन्तु आकाशका जितना स्थान बादलोंसे आवृत होता है उतने अंशमें उसका एक विशेष रूप दीखता है और उसमें वृष्टि आदिकी क्रिया भी होती है।
१२-इसी प्रकार एक ही अनन्त शुद्ध ब्रह्ममें जितना अंश मायासे आच्छादित दीखता है उतने अंशका नाम सगुण ईश्वर है, वास्तवमें यह सगुण ईश्वर शुद्ध ब्रह्मसे कभी कोई दूसरी भिन्न वस्तु नहीं, किन्तु मायाके कारण भिन्न दीखनेसे सगुण ईश्वरको लोग भिन्न मानते हैं। यही भिन्न रूपसे दीख पड़नेवाला सगुण चैतन्य, सृष्टिकर्ता ईश्वर है, इसीको आदिपुरुष, पुरुषोत्तम और मायाविशिष्ट ईश्वर कहते हैं।
१३-जिस प्रकार सर्वत्र फैले हुए बिजलीके तारमें बिजलीका प्रवाह सदा सर्वव्यापक रहता है वैसे ही भगवान् न दीखनेपर भी सदा, सर्वत्र विराजमान हैं।
१४-जैसे अग्नि सर्वत्र व्याप्त है पर चेष्टा करनेसे चाहे जहाँ प्रज्वलित हो जाती है और अन्तमें विलीन हो जाती है, परन्तु न दीखनेपर भी वहाँ वस्तुत: अग्निका अभाव नहीं होता। उसी प्रकार भगवान् भी सर्वत्र व्याप्त होते हुए प्रकट और अन्तर्धान हो जाते हैं।
१५-अग्नि निराकाररूपसे सर्वत्र व्याप्त है, इसीलिये उसे चकमक पत्थर तथा दियासलाई आदिसे चाहे जहाँ प्रकट किया जा सकता है और जिस कालमें उसे एक जगह प्रकट किया जाता है उस कालमें अन्यत्र उसका अभाव नहीं हो जाता, बल्कि एक ही कालमें वह कई जगह प्रकट होती देखी जाती है और जहाँ भी प्रकट होती है, उसमें पूरी शक्ति रहती है। इसी प्रकार भगवान् भी निराकाररूपसे सर्वत्र व्याप्त होते हुए ही किसी देशविशेषमें अपनी पूरी भगवत्ताके साथ प्रकट हो जाते हैं।
१६-अविनाशी निर्विकार परमात्मा जगत्के उद्धारके लिये भक्तोंके प्रेमवश अपनी इच्छासे अपने-आप अवतीर्ण होते हैं। वे प्रेममय हैं। उनकी प्रत्येक क्रिया प्रेम और दयासे ओतप्रोत है। वे जिनका संहार करते हैं, उनका भी उद्धार ही करते हैं। उनका संहार भी परम प्रेमका ही उपहार है।
१७-जगत्का कल्याण करनेके लिये ही भगवान् इस प्रकार मनुष्यादिके रूपमें लोगोंके सामने प्रकट होते हैं, उनका वरदविग्रह प्राकृत उपादानोंसे बना नहीं होता, वह दिव्य, चिन्मय, प्रकाशमान, शुद्ध और अलौकिक होता है, उनके जन्ममें गुण और कर्म संस्कार-हेतु नहीं होते, वे मायाके वशमें होकर जन्म धारण नहीं करते, किन्तु अपनी प्रकृतिके अधिष्ठाता होकर योगमायासे मनुष्यादिके रूपमें केवल लोगोंपर दया करके ही प्रकट होते हैं।
१८-जिस समय भगवान् अपने भक्तपर दया करके उसको अपना तत्त्व और रहस्य समझानेके लिये ऐसे रूपको प्रकट करते हैं उस समय भी उसके दर्शन वही मनुष्य कर सकता है जिनको वैसे रूपका दर्शन करनेकी दिव्य दृष्टि प्राप्त होती है, जो भगवान्का परम भक्त होता है और जिसको भगवान् वैसा रूप दिखाना चाहते हैं। दूसरा कोई किसी भी उपायसे नहीं देख सकता।
१९-भगवान्का अवतारविग्रह चिन्मय सच्चिदानन्दमय होता है, इसलिये वह अनामय और दिव्य है।
२०-भगवान्की शारीरिक धातु चिन्मय और दिव्य है, प्राकृतिक नहीं है। देखनेमें नरवपुधृत नरलीला करते हुए प्राकृतिककी-ज्यों दीख पड़ते हैं।
२१-भगवान्का अवतार न तो कर्मसे प्रेरित होकर होता है, न उनका शरीर पांचभौतिक अथवा मायिक होता है। उनका जन्म और उनके कर्म दोनों ही दिव्य—अलौकिक होते हैं।
२२-भगवान् प्रकृतिको वशमें करके अपनी स्वतन्त्र इच्छासे जन्म लेते हैं और लीला-कार्य समाप्त हो जानेपर पुन: बेरोक-टोक अपने धामको वापस चले आते हैं।
२३-भगवान् तो सदा-सर्वदा सभी प्रकारसे पूर्णकाम हैं (३। २२), तथापि दयामयस्वरूप होनेके कारण वे स्वाभाविक ही सबपर अनुग्रह करके सबके हितकी व्यवस्था करते हैं और बार-बार अवतीर्ण होकर नाना प्रकारके ऐसे विचित्र चरित्र करते हैं जिन्हें गा-गाकर ही लोग तर जाते हैं।
२४-भगवान्के सारे कर्म लीलामय होते हैं। उनके कर्मोंसे लोगोंको नीति, धर्म और प्रेमका उपदेश मिलता रहता है। भगवान् सृष्टि-रचना और अवतार-लीलादि जितने भी कर्म करते हैं, उनमें उनका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं है, केवल लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही वे मनुष्यादि अवतारोंमें नाना प्रकारके कर्म करते हैं।
२५-अपने प्रेमी भक्तोंको अपनी दिव्य लीलाओंका आस्वादन करानेके लिये इस पृथ्वीपर साकाररूपसे प्रकट होते हैं। उन अवतारोंमें धारण किये हुए रूपका तथा उनके गुण, प्रभाव, नाम, माहात्म्य और दिव्य कर्मोंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करके सब लोग सहज ही संसार-समुद्रसे पार हो जाते हैं। यह काम बिना अवतारके नहीं हो सकता। इसीलिये भगवान् अवतार लेते हैं।
२६-‘वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वगुणसम्पन्न, सर्वसमर्थ, सर्वसाक्षी, सत्, चित्, आनन्दघन परमात्मा ही अपनी लीलासे भक्तोंके उद्धारके लिये भिन्न-भिन्न स्वरूप धारण करके अनेक लीलाएँ करते हैं।’
२७-सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्म परमेश्वर वास्तवमें जन्म और मृत्युसे सर्वथा अतीत हैं। उनका जन्म जीवोंकी भाँति नहीं है। वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करके अपनी दिव्य लीलाओंके द्वारा उनके मनको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये, दर्शन, स्पर्श और भाषणादिके द्वारा उनको सुख पहुँचानेके लिये, संसारमें अपनी दिव्य कीर्ति फैलाकर उसके श्रवण, कीर्तन और स्मरणद्वारा लोगोंके पापोंका नाश करनेके लिये तथा जगत्में पापाचारियोंका विनाश करके धर्मकी स्थापना करनेके लिये जन्म-धारणकी केवल लीलामात्र करते हैं।
२८-ईश्वरीय शक्ति भी बड़ी विलक्षण है, वह सब जगह सब कुछ करनेमें सर्वथा समर्थ है। यही तो उसका ईश्वरत्व और विराट्-स्वरूप है।
२९-प्रभुके संकल्पसे संसार होता है और उस संकल्पके न रहनेसे यह ढह जाता है। प्रभुके संकल्पमात्रसे असंख्य जन्मोंके महापापीके भी सारे पाप एक क्षणमें भस्म हो जाते हैं। प्रभुके संकल्पसे क्षणभरमें सारे संसारका उद्धार हो सकता है। संकल्प क्या प्रभुके संकेतमात्रसे, एक इशारेसे ब्रह्माण्डका उद्धार हो सकता है।
३०-भगवान् यदि अपनेको छिपाना चाहें तो किसकी शक्ति है जो उन्हें पहचान सके। वे स्वयं ही जब कृपा करके जिसको अपनी पहचान कराते हैं वही उन्हें पहचान पाता है, दूसरा नहीं—‘सो जानइ जेहि देहु जनाई।’
३१-भक्तकी भावनाके अनुसार ही भगवान् बन जाते हैं।
३२-ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ परमात्मा न हों और संसारमें ऐसी भी कोई जगह नहीं कि जहाँ परमात्माकी माया न हो। जहाँ देश-काल हैं वहीं माया है। मायारूप सामग्रीको लेकर परमात्मा चाहे जहाँ प्रकट हो सकते हैं।
३३-सगुण साकारको तो हम अपने नेत्रोंके सामने प्रकट भी देख सकते हैं।
३४-जो कुछ भास रहा है वह सब मायामात्र है। मायाके अधीश्वर भगवान्को इसका बाजीगर समझकर, बाजीगरके झमूरेकी तरह संसारकी वस्तुओंको लेकर खेल करना चाहिये।
३५-सब जगह एक सच्चिदानन्दघन ही समानभावसे स्थित है। संसारमें जो कुछ दृश्य वस्तुएँ भासती हैं वह हैं ही नहीं, सब जगह भगवान् ही हैं। यदि ऐसा अनुभव हो जाय तो सब जगह भगवान् ही भासने लगें।
३६-जो भगवान्के मर्मको जान लेता है, वह कभी मोहित नहीं होता।
३७-संसार कोई वस्तु नहीं है, वास्तवमें जो कुछ है सो श्रीसच्चिदानन्दघन ही है।
३८-एक नारायणदेवके सिवा और कुछ भी नहीं है।
३९-जो भास रहा है सो है ही नहीं और जो है सो भासता नहीं, क्योंकि भगवान्का गुणातीत स्वरूप इन्द्रियोंका विषय नहीं है।
४०-भगवान् तो सब जगह उपस्थित हैं, जबतक तुम्हें विश्वास नहीं होता, तभीतक वे छिप रहे हैं।
४१-जहाँपर मन जाय वहींपर उसे परमात्माके स्वरूपमें लगाना चाहिये।
४२-जिसमें मन जाय उसीमें परमात्माका स्वरूप देखना चाहिये।
४३-जिसमें अधिक प्रीति हो, उसीमें भगवान्की भावना करके उसका ध्यान करे।
४४-सभी जगह एक नारायण ही पूर्ण हो रहे हैं, नारायणके सिवा और कुछ है ही नहीं।
४५-एक परमेश्वर ही समभावसे सब जगह पूर्ण हो रहा है।
४६-श्रीकृष्णचन्द्र महाराजने गीतामें कई जगह बहुत गोपनीय बातें कही हैं मानो पहले किसीको नहीं कही हो (११। ३२—३४; १८। ६४) गीताजी देखकर लोगोंके मनमें भान आता है कि उनके सामने १८ अक्षौहिणी सेना मर गयी, क्योंकि उन लोगोंने उनका प्रभाव नहीं जाना, वह लोग बड़े मूर्ख थे किंतु यह बात समझनी अपनी भूल है। अब भी यदि श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज गीता ४। ७ के अनुसार आ जायँ तो अपनेमें भी यह बात होनी कोई बड़ी बात नहीं।
४७-जिस मनुष्यको भगवान्के नाम-स्मरणके साथ-साथ यह दृढ़ विश्वास होगा कि भगवान् सर्वज्ञ हैं, सर्वशक्तिमान् हैं, सर्वव्यापी हैं, परम न्यायकारी हैं, वह कोई भी ऐसा कार्य कैसे कर सकता है जो भगवान्की आज्ञाके विरुद्ध हो?
४८-समुद्रके जलमें नमक, काठमें अग्नि और दूधमें घी जिस प्रकार रम रहा है उसी प्रकार परमात्मा सबमें रम रहा है। सब जगह भगवान् प्राप्त हो रहे हैं। ऐसा मानना चाहिये। यह मानना जप, ध्यान और सत्संगकी अधिकतासे सम्भव है।
४९-परमात्माके प्रभावको जाननेवालोंके सामने मायाकी शक्ति कुछ भी नहीं है।
५०-भगवान् सब जगह विराजमान हैं। कहीं दूरसे उनको आना नहीं पड़ता। उत्कण्ठा होनेपर वे सब जगह दीखने लग जाते हैं।
५१-हम विषय-विमूढ़ जीव भगवान्की लीला और उनके कार्योंको क्या समझें?
५२-ईश्वरके सम्बन्धमें इतनी बातें अवश्य ही दृढ़तापूर्वक हृदयमें धारण कर लेनी चाहिये कि ईश्वर है, सर्वत्र है, सर्वान्तर्यामी है, सर्वशक्तिमान् है, सर्वव्यापी है, सर्वदिव्य-गुण-सम्पन्न है, सर्वज्ञ है, सनातन है, नित्य है, परम प्रेमी है, परम सुहृद् है, परम आत्मीय है और परम गुरु है। इन गुणोंमें उससे बढ़कर या उसकी जोड़ीका दूसरा जगत्में न कोई हुआ, न है और न हो सकता है।
५३-अग्नितत्त्व कारणरूपसे अर्थात् परमाणुरूपसे निराकार है और लोकमें समभावसे सभी जगह अप्रकटरूपेण व्याप्त है। लकड़ियोंके मथनेसे, चकमक पत्थरसे और दियासलाईकी रगड़से अथवा अन्य साधनोंद्वारा चेष्टा करनेपर वह एक जगह अथवा एक ही समय कई जगह अपनी पूर्ण शक्तिके साथ प्रकट होती है। इस तरह पूर्ण शक्तिसम्पन्न होकर एक जगह या एक ही समय अनेक जगह एकदेशीय साकाररूपमें प्रकट होनेके साथ ही वह अग्नि अव्यक्त निराकाररूपमें सर्वत्र व्याप्त भी रहती है। इसी प्रकार निराकार सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन अक्रियरूप परमात्मा अप्रकटरूपसे सब जगह व्याप्त होते हुए भी सम्पूर्ण गुणोंसे सम्पन्न अपने पूर्ण प्रभावके सहित एक जगह अथवा एक ही कालमें अनेक जगह प्रकट हो सकते हैं।
५४-भगवान्के अवतरणमें कई कारणोंमेंसे एक यह भी कारण समझमें आता है कि वे संसारके जीवोंपर दया करके सगुणरूपमें प्रकट होकर एक ऐसा ऊँचा आदर्श रख जाते हैं, संसारको ऐसा सुलभ और सुखकर मुक्तिमार्ग बतला जाते हैं जिससे वर्तमान एवं भावी संसारके असंख्य जीव परमेश्वरके उपदेश और आचरणको लक्ष्यमें रखकर उनका अनुकरणकर कृतार्थ होते रहते हैं।
५५-भगवान्के जन्म और विग्रह दिव्य होते हैं, यह बड़े ही रहस्यका विषय है। भगवान्का प्रकट होना और पुन: अन्तर्धान होना उनकी स्वतन्त्र लीला है, वह हमलोगोंके उत्पत्ति-विनाशकी तरह नहीं है।
५६-भगवान् अपने प्रेमी भक्तोंकी इच्छाके अनुसार उन्हें दर्शन देकर अन्तर्धान हो जाते हैं।
५७-भगवान्का प्राकटॺ भूतप्राणियोंकी उत्पत्तिकी अपेक्षा ही नहीं, किन्तु योगियोंके प्रकट होनेकी अपेक्षा भी अत्यन्त विलक्षण है।
५८-भगवान् मूल प्रकृतिको अपने अधीन किये हुए ही अपनी योगमायासे प्रकट होते हैं।
५९-ईश्वरका प्रकट होना उनकी लीला है।
६०-ईश्वर प्रकट होनेमें सर्वथा स्वतन्त्र हैं।
६१-ईश्वरके अवतारमें हेतु है जीवोंपर उनकी अहैतुकी दया।
६२-ईश्वरका शरीर परम दिव्य एवं अप्राकृत होता है, वह पांचभौतिक नहीं होता।
६३-(अवतारमें) सम्पूर्ण अनन्त आनन्द ही मूर्तिमान् होकर प्रकट हो जाता है, साक्षात् प्रेम ही दिव्य मूर्ति धारणकर प्रकट हो जाता है।
६४-जो उस आनन्द और प्रेमार्णव श्यामसुन्दर दिव्य शरीरका तत्त्व जान लेता है, वह प्रेममें मुग्ध हो जाता है, आनन्दमय बन जाता है।
६५-नेत्र रूपको देख सकता है, अतएव भगवान्को रूपवाला बनना पड़ता है, त्वचा स्पर्शको विषय करती है, अतएव भगवान्को स्पर्शवाला बनना पड़ता है, नासिका गन्धको विषय करती है, अतएव भगवान्को दिव्य गन्धमय वपु धारण करना पड़ता है।
६६-साक्षात् परमेश्वर भगवान् श्रीकृष्णको परमात्मा न मानकर एक मनुष्य-विशेष मानना किसी चक्रवर्ती विश्वसम्राट्को एक साधारण ताल्लुकेदार मानकर उसका अपमान करनेकी भाँति ईश्वरकी अवज्ञा या उनका अपमान करना है।
६७-शुद्ध सच्चिदानन्द निराकार परमात्माके दिव्य गुणोंके सहित प्रकट होनेके तत्त्वको जो जानता है, वही पुरुष उस परमात्माकी दयासे परमगतिको प्राप्त होता है।
६८-भगवान्के कर्मोंकी दिव्यता जाननेसे पुरुष परमपदको प्राप्त हो जाता है।
६९-भगवान्की प्रत्येक क्रियामें प्रेम एवं दक्षता, निष्कामता और दया परिपूर्ण है।
७०-भगवान्के लिये कोई कर्तव्य न होनेपर भी वे केवल जीवोंको सन्मार्गपर लगानेके लिये ही कर्म किया करते हैं। हम तो चीज ही क्या हैं, भगवान्की लीलाओंको देखकर ऋषि, मुनि और देवतागण भी मोहित हो जाया करते थे।
७१-ईश्वरके लिये कोई बात भी असम्भव नहीं है। वे असम्भवको भी सम्भव करके दिखा सकते हैं।
७२-परमात्माके जन्म और कर्मकी दिव्यताका विषय बड़ा अलौकिक और रहस्यमय है।
७३-भगवान्के जन्म और कर्मकी दिव्यताको जो तत्त्वसे जानता है, वही भगवान्को तत्त्वसे जानता है।
७४-सर्वशक्तिमान् सच्चिदानन्दघन परमात्मा अजन्मा, अविनाशी, सर्वभूतोंके परमगति और परम आश्रय हैं, वे केवल धर्मकी स्थापना और संसारका उद्धार करनेके लिये ही अपनी योगमायासे सगुणरूप होकर प्रकट होते हैं।
७५-भगवान्के समान सुहृद्, प्रेमी और पतितपावन दूसरा कोई नहीं है।
७६-भगवान्के विग्रहका रहस्य भगवद्रूपमें स्थित परम भक्त महात्मा लोग ही भगवत्कृपासे जान सकते हैं।
७७-सूर्यका प्रकाश सब जगह समान होनेपर भी काठ और काँचमें प्रत्यक्ष भेद प्रतीत होता है। काँचोंमें भी सूर्यमुखी काँचमें तो इतनी विशेषता है कि उससे रूई और कपड़े भी जल जाते हैं। सर्वत्र व्याप्त होनेपर भी संसारके पदार्थोंकी अपेक्षा हृदयमें भगवान्का निवास विशेषरूपसे माना गया है। ज्ञानी या भक्तके हृदयमें उससे भी अधिक विशेषता है। अवतारविग्रहमें तो उन सबसे अधिक विशेषता है। वह तो उनका स्वरूप ही है, इससे उसके कार्य भी सब भगवद्रूप ही हैं।
७८-भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र प्रेम और आनन्दकी मूर्ति ही हैं।
७९-भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रका अवतार प्रेम और धर्मके संस्थापन तथा प्रचारके लिये ही हुआ।
८०-भगवान् श्रीकृष्णने विशुद्ध प्रेमका जो विशाल प्रवाह बहा दिया उसे एक बार समझ लेनेपर ऐसा कौन है जिसका हृदय द्रवित और आनन्दसे पुलकित न हो जाय।
८१-भगवान्की प्रेममयी लीला और उनके प्रेमके तत्त्वका ज्ञान उनके अनुग्रहसे ही हो सकता है।
८२-भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं ज्ञानस्वरूप हैं, उनमें तो विषय-विकारकी आशंका ही नहीं की जा सकती।
८३-जब भगवान् मनुष्य-शरीरमें अवतीर्ण होते हैं तब मनुष्यके अनुसार चेष्टा करते हैं।
८४-भगवान्के मनुष्योचित कर्मोंको देखकर मुनिगणोंको भी भ्रम हो जाता है, फिर मनुष्योंकी तो बात ही क्या है?
८५-भगवान् दया करके जिनको अपना परिचय देते हैं, वे ही उन्हें पहचान सकते हैं।
८६-जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म है, जहाँ लज्जा है, जहाँ सरलता है वहीं कृष्ण हैं और जहाँ कृष्ण हैं वहीं जय है।
८७-भगवान्की कोई भी क्रिया या उनका एक भी संकल्प कभी निष्फल नहीं होता।
८८-संसारमें क्षमा, दया, शान्ति आदि जितने गुण दीखते हैं; तेज, ऐश्वर्य आदि जितनी विभूतियाँ प्रतीत होती हैं, शक्ति और प्रताप आदि जितने उच्चभाव हैं, उन सबको भगवान् श्रीकृष्णके तेजके किसी एक अंशका ही विस्तार समझना चाहिये।
८९-ईश्वर दयालु है, साथ ही न्यायकारी है, उसमें ये दोनों ही गुण एक ही समय एक ही साथ पूर्णरूपसे रहते हैं।
९०-ईश्वरका दण्ड भी वरदानके सदृश होता है।
९१-ईश्वर अपने सेवकके अपराधोंका विचार न कर अपने विरद—अपने दयापूर्ण स्वभावकी ओर ही देखते हैं।
९२-जीवोंको बचानेके लिये ईश्वर न्यायानुकूल सहायता भी देता है, पद-पदमें सावधान करता रहता है, अज्ञताके कारण जीव न समझे तो इसमें उस ईश्वरका क्या दोष? यदि सूर्यके प्रकाशमें नेत्रोंके दोषके कारण उल्लूको अन्धकार मालूम हो तो सूर्यका क्या दोष?
९३-परमेश्वर बिना पूछे मार्ग बतानेवाला एवं हेतुरहित प्रेम करनेवाला है।
९४-वह दयालु परमेश्वर इन दु:खी जीवोंको पूर्णतया सहायता करनेके लिये सब प्रकारसे तैयार है। पर पापी जीव अश्रद्धा और अज्ञानके कारण उस परमेश्वरसे लाभ नहीं उठाते।
९५-ईश्वरके विषयमें जो जितना जानता है वह उतना ही लाभ उठा सकता है।
९६-जिस प्रकार अज्ञानी पुरुषको गंगाके किनारे रहते हुए भी बिना ज्ञानके उससे लाभ नहीं होता, दरिद्र मनुष्यको घरमें पारस रहते हुए भी उसको पत्थर समझनेके कारण लाभ नहीं मिलता। इसी प्रकार ईश्वरका तत्त्व न जाननेके कारण अज्ञानी उससे लाभ नहीं उठा सकता।
९७-ईश्वरको यथार्थरूपसे जान लेनेपर ईश्वर प्राणोंसे भी बढ़कर प्यारा लग सकता है।
९८-जिस क्षण मनुष्य ईश्वको परम हितैषी, प्राणोंसे बढ़कर प्यारा समझ ले, उसी क्षण उसके मनोविकार राग-द्वेषादि डाकू समूल नाश हो जायँ।
९९-परमात्मा नित्य होनेके कारण तद्विषयक ज्ञान भी नित्य है।
१००-यद्यपि ईश्वर सबका प्रेमी, सुहृद् और रक्षक है पर जो ईश्वरको प्रेमी और मित्र समझता है, परमेश्वर उसीकी सब प्रकार रक्षा करता है।
१०१-ईश्वर न्यायप्रिय है एवं न्यायपरायणताको रखते हुए ही दयालु है।
१०२-वास्तवमें जो वस्तुतत्त्व है, उसको न भेद ही कहा जा सकता है और न अभेद ही। वह सबसे विलक्षण है, मन-वाणीसे परे है।
१०३-वास्तविक तत्त्वको जो जानते हैं, वे ही जानते हैं। जाननेवाले भी उसका वाणीसे वर्णन नहीं कर सकते।
१०४-वास्तविक स्वरूप अनिर्वचनीय है।
१०५-परमात्माकी कृपासे ही परमात्मा जाननेमें आ सकता है।
१०६-परमात्मतत्त्वको यथार्थरूपसे जाननेका सरल उपाय परमात्माकी शरणागति है।
१०७-अनिर्वचनीय, अलक्ष्य, अचिन्त्य और गुणातीत अनन्त ब्रह्मके किसी एक अंशमें सत्त्व-रज-तम त्रिगुणमयी प्रकृति (अव्याकृत माया) स्थित है। उसी ब्रह्मके अंशको सगुण ब्रह्म कहा जाता है। इस मायाविशिष्ट ब्रह्मको ही सगुण-निराकार ब्रह्म समझना चाहिये।
१०८-गुणातीतकी उपासना नहीं बन सकती; क्योंकि गुणोंसे अतीत वस्तु किसीका विषय नहीं हो सकती।
१०९-वह विज्ञानानन्दघन सर्वव्यापी निराकार ब्रह्म ही अपनी इच्छासे तेजोमय प्रकाशस्वरूपमें आता है। उसको ज्योतिर्मय भी कहते हैं।
११०-वही ज्योतिर्मय ब्रह्म चतुर्भुजरूपसे महाविष्णुके आकारमें दिव्य विग्रह धारण करता है। उसी चतुर्भुज महाविष्णुको सगुण-साकार ब्रह्म कहते हैं।
१११-वही महाविष्णु ब्रह्मा, विष्णु और महेशरूपसे उत्पत्ति, पालन और संहारका कार्य करता है।
११२-जैसे जलके परमाणु,बादल, जल, और बर्फ तत्त्वसे विचार करनेपर एक जल ही है। इन सबको लेकर ही जलका एक समग्र रूप है। इसी प्रकार गुणातीत सगुण-निराकार ज्योतिर्मय और सगुण-साकार सब मिलकर ही एक समग्र ब्रह्म है।
११३-भगवान्की शरण लेकर किसी भी रूपकी उपासना करनेवाले श्रद्धालु पुरुष उस समग्र ब्रह्मको जानकर उसे प्राप्त हो जाते हैं।
११४-ईश्वरका रहस्य अद्भुत और अलौकिक है। वह ईश्वर-कृपासे ही यत्किंचित् जाना जा सकता है।
११५-‘रहस्य’ छिपे हुए तत्त्वको कहते हैं। रहस्य (मर्म) हर किसीको नहीं बतलाया जाता। भगवान् भी अपने अधिकारी प्रिय भक्तको ही अपना रहस्य बतलाते हैं।
११६-अपनी वास्तविक स्थिति अपने प्रिय प्रेमीको बतला देना ही असली रहस्यको खोल देना है।
११७-जो मनुष्य गुरु, शास्त्र, संत या सत्संग आदि किसी भी साधनसे ईश्वरके रहस्यको यानी छिपे हुए परम तत्त्वको समझ जाता है, वह फिर एक क्षणके लिये भी ईश्वरको नहीं भूल सकता। वह नित्य-निरन्तर ईश्वरको ही भजता है।
११८-ईश्वरके तत्त्व-रहस्यको जाननेवाला पुरुष यह समझ जाता है कि ईश्वरसे बढ़कर और कोई भी वस्तु नहीं है। इसलिये वह सबसे मुँह मोड़कर केवल ईश्वरको भजनेमें ही लग जाता है।
११९-सारा विश्व परमेश्वरका ही स्वरूप है। यदि हम प्रत्येक रूपमें भगवान्को पहचान लें, भगवान्का यह रहस्य हमारे लिये खुल जाय तो फिर कोई भी भय या व्याकुलता नहीं रह सकती।
१२०-जैसे बहुरूपिया अपना भेद खोल देता है, वैसे ही भगवान् भी जब दया करके अपना रहस्य खोल देते हैं तब भक्त उसी क्षण निर्भय और सुखमय बन जाता है; क्योंकि वह फिर सर्वत्र, सब समय, केवल एक आनन्दरूप भगवान्को ही देखता है।
१२१-सामर्थ्य, शक्तिविशेष या तेजको प्रभाव कहते हैं। ईश्वरका प्रभाव अपरिमेय है।
१२२-ईश्वर असम्भवको सम्भव कर सकते हैं। समस्त संसारका उद्धार होना असम्भव-सा है, परन्तु ईश्वर चाहें तो एक ही क्षणमें कर सकते हैं।
१२३-ईश्वर अपरिमित प्रभावशाली और सर्वशक्तिमान् हैं, उनके पूर्ण प्रभावको देव, दानव और महर्षिगण भी नहीं जानते। वे स्वयं ही अपने-आपको जानते हैं।
१२४-सारी शक्तियाँ उन्हीं ईश्वरकी शक्तिका एक अंश हैं।
१२५-भगवान्का वास्तविक प्रभाव भगवान्की शरण लेनेपर भगवान्की कृपासे ही जाना जा सकता है।
१२६-परमेश्वर गुणातीत हैं और सर्वसद्गुणोंसे पूर्ण हैं। उनके गुण अनन्त हैं, असीम हैं, शेष-शारदा आदि भी उनके गुणोंका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं।
१२७-उनके गुणोंका वाणीसे वर्णन करना वैसा ही है जैसे अनन्त धनराशिके स्वामीको लखपति कहना अथवा सूर्यके साथ जुगनूके समुदायकी उपमा देना।
१२८-भगवान् परम प्रेममय हैं। सारे संसारका प्रेम एक जगह इकट्ठा किया जाय तो वह भी प्रेममय प्रभुके प्रेमसागरकी एक बूँदके समान भी शायद ही हो।
१२९-भगवान्का प्रकाश अलौकिक है। करोड़ों सूर्योंके इकट्ठे होनेपर भी शायद ही उनके प्रकाशके सदृश प्रकाश हो।
१३०-भगवान्की उदारताका तो कहना ही क्या है! विष देनेवाली पूतनाको भी जिन्होंने परमगति दी, उनकी उदारताका अन्दाजा कैसे लगाया जाय?
१३१-अभय तो भगवान्का स्वरूप ही है। जिस प्रभुके रहस्य और प्रभावको जान लेनेमात्रसे अथवा जिसके नाम-स्मरणसे ही मनुष्य सदाके लिये अभय हो जाता है, उस अभयरूप भगवान्के अभय-गुणको कैसे समझाया जाय?
१३२-दयाके तो भगवान् सागर ही हैं। पापी-से-पापी जीव भी यदि उनकी शरण चला जाता है तो उसे सदाके लिये पापमुक्त कर अपना अभय पद दे देते हैं।
१३३-जिसको कोई नहीं अपनाता, उसे भी शरणागत होनेपर प्रभु अपना लेते हैं।
१३४-सर्वज्ञ परमात्माके ज्ञानकी तो बात ही विलक्षण है। वह ज्ञानरूप ही है। सारे संसारके जीवोंका ज्ञान एकत्र करनेपर भी उसे परमात्माके ज्ञानके एक क्षुद्र परमाणुका आभास बतलाना भी अत्युक्ति न होगा।
१३५-भगवान्की पवित्रताका अनुमान कौन करे? जिसके नाम-जप, गुण-गान और स्वरूप-चिन्तनसे महापापी मनुष्य भी परम पवित्र बन जाता है।
१३६-भगवान् महान् ब्रह्मचारी हैं। कामदेव तो उनके चिन्तन करनेवाले भक्तोंके पास भी नहीं आ सकता। जिनके ध्यान और चिन्तनसे ही मनुष्य ब्रह्मचारी बन जाता है, उन महान् ब्रह्मचारीके ब्रह्मचर्यकी महिमा कौन गा सकता है।
१३७-भगवान् क्षमाकी तो मूर्ति ही हैं। बिना ही कारण भृगुजीके वक्ष:स्थलपर लात मारनेपर, उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया बल्कि उस लातके चिह्नको सदाके लिये भूषणरूपसे धारण कर लिया। भरी सभामें गाली देनेवाले शिशुपालके सैकड़ों अपराधोंको क्षमा करके उसे मुक्ति दे दी।
१३८-अद्वेष्टा तो भगवान्का स्वभाव ही है। द्वेषकी उनमें गन्ध ही नहीं है। भगवान् द्वेष करनेवालोंको भी दण्ड देकर उद्धार करते हैं।
१३९-सत्य भगवान्का स्वरूप ही है। समस्त संसारमें जो सत्ता प्रतीत होती है, उसके वही अधिष्ठान हैं। समस्त संसार उन सत्यस्वरूप परमात्माके सत्यके आधारपर ही स्थित है।
१४०-भगवान् परम वैराग्यवान् हैं। गुणमय समस्त संसारको धारण करके भी आप गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं। सारा संसार जिनका कुटुम्ब है ऐसे सबका भरण-पोषण करनेवाले बहुकुटुम्बी होनेपर भी आप किसीमें आसक्त नहीं हैं। सदा सबसे निर्लेप रहते हैं।
१४१-शान्ति और आनन्द तो भगवान्का स्वरूप ही है। जिसकी शरण होनेसे मनुष्य परम शान्ति और परम आनन्दको प्राप्त हो जाता है, उसके शान्ति और आनन्दकी उपमा किसके साथ दी जाय?
१४२-प्रभु सारे सात्त्विक गुणोंके समुद्र हैं। उनमें क्षमा, दया, शान्ति, समता, सरलता, उदारता, पवित्रता अपरिमित हैं। वे ज्ञान, वैराग्य, तेज और ऐश्वर्यसे पूर्ण हैं।
१४३-सारे संसारका तेज और ज्ञान इकट्ठा किया जाय तो भी उस तेजोमय ज्ञानस्वरूप परमात्माके तेजके एक अंशके बराबर भी नहीं हो सकता।
१४४-ईश्वर अपनी शक्तिसे ही प्रकट होते हैं और अपनी शक्तिसे ही अन्तर्हित हो जाते हैं अर्थात् छिप जाते हैं। यही उनकी लीला है और वह अत्यन्त रहस्यमयी है। यही भगवान्की ज्ञानमयी विशुद्ध दिव्य माया है और वह अलौकिक है, इसलिये भगवान्की लीलासे आविर्भूत हुए साकार विग्रहको नकली नहीं मानना चाहिये।
१४५-भगवान्के भिन्न-भिन्न साकार विग्रहोंकी महत्ता सिद्ध करनेके लिये ही भिन्न-भिन्न पुराणोंकी सृष्टि हुई है।
१४६-भगवान्के सभी विग्रह महत्त्ववाले हैं और भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुत: एक ही हैं।
१४७-शिवपुराणके शिव, विष्णुपुराणके विष्णु और ब्रह्मवैवर्त तथा भागवतपुराणके कृष्ण एक ही हैं अर्थात् शुद्ध विज्ञानानन्दघन ब्रह्म ही हैं। वही ब्रह्मा, विष्णु और शिवके रूपमें प्रकट होकर संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और संहारका कार्य करते हैं। यह सब उनकी लीला है।
१४८-ईश्वरकी लीलाओंका रहस्य प्रत्येक साधारण बुद्धिवाले मनुष्यके लिये दुर्विज्ञेय है।
१४९-सारे संसारका सौन्दर्य प्रभुके एक रोमके समान भी नहीं है। वे आनन्दमूर्ति हैं।
१५०-जैसे तारके द्वारा बिजली अनेक प्रकारसे कार्य कर रही है, वैसे ही प्रभुकी शक्ति सब कुछ कर रही है।
१५१-प्रभुका रहस्य कौन जान सकता है? वे सबमें समाये हैं, परन्तु कोई उन्हें नहीं पकड़ पाता। मर्मका नाम ही रहस्य है।
१५२-परमात्माके रहस्यको जाननेवाला सर्वदा, सर्वत्र निर्भय हो जाता है।
१५३-जीवमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह प्रभुके रहस्यको जान सके। जब प्रभु जनाते हैं तभी जान सकता है।
१५४-ईश्वर सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सर्वगुणसम्पन्न, निर्विकार, अनन्त, नित्य, विज्ञान, आनन्दघन है।
१५५-वह चिन्मय परमात्मा सगुण भी है और निर्गुण भी। यह त्रिगुणमय सम्पूर्ण संसार उस परमात्माके किसी एक अंशमें है, जिस अंशमें यह संसार है उस अंशका नाम सगुण है और संसारसे रहित अनन्त असीम जो नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्माका स्वरूप है उसका नाम निर्गुण है। सगुण और निर्गुण समग्रको ही ईश्वर कहा गया है।
१५६-सगुण ईश्वर साकार भी है और निराकार भी। जैसे निराकाररूपसे व्यापक अग्नि संघर्षण आदि साधनोंद्वारा साधकके सम्मुख प्रकट हो जाता है वैसे ही वह सर्वान्तर्यामी दयालु परमात्मा निराकाररूपसे चराचर, सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंमें व्यापक रहता हुआ ही धर्मके स्थापन और जीवोंके उद्धारके लिये भक्तोंकी भावनाके अनुसार श्रद्धा, भक्ति, प्रेम आदि साधनोंद्वारा साकाररूपसे समय-समयपर प्रकट होता है।
१५७-जहाँ साकाररूपसे भगवान् प्रकट हुए हों वहाँ यह नहीं समझना चाहिये कि वे इतने ही हैं, निर्गुण और सगुणरूपमें सब जगह स्थित रहता हुआ ही अर्थात् सम्पूर्ण शक्तिसम्पन्न समग्र ब्रह्म ही सगुण-साकार-स्वरूपमें प्रकट होता है।
१५८-वह सगुण परमात्मा सृष्टिकी उत्पत्ति, पालन और विनाशकालमें सदा ही ब्रह्मा, विष्णु, महेशरूपसे विराजमान है। सर्वशक्तिमान्, सबके सुहृद् एवं बिना कारण दया करनेवाले भगवान्की तो यह नीति है कि जो भी कोई उनसे मिलना चाहे वे उससे मिलते हैं। वे कहते हैं—‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’।